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गुरुवार, 6 मार्च 2025

मार्च ६, रामकिंकर, सेना-टोपी, फाग, शिव, गणेश, भोजपुरी, त्रिभंगी, अहीर, रामकृष्ण, कविता, लघुकथा

सलिल सृजन मार्च ६
*
युग तुलसी स्मरण
सुमिर रामकिंकर को रे मन!
मानस मंदाकिनी मनोहर,
जो डूबे भव पार कर जतन,
राम नाम जप तार, आप तर।
राम-श्याम दोउ एक याद रख,
भक्ति भाव रस घोल श्वास में,
हरि-हर में अद्वैत जान मन,
द्वैत मोह मत पाल आस में,
किंकर-पद आराध्य मान ले।
मानस चिंतन, मानस मंथन,
शब्द शब्द रस भाव समुच्चय,
विचर भ्रमर हो मानस मधुवन,
कर परमात्म राम से परिचय।
कृपावंत गुणवंत सदय हों,
किंकर कीर्तन कर निर्भय हों।
६.३.२०२४
•••
विमर्श
जीवन का आरंभ
*
पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग ४०० करोड़ साल पहले हुई थी। कहाँ?, इस पर वैज्ञानिकों मेनंतभेद हैं। एक धारणा है कि जीवन की शुरुआत समुद्र की सतह पर हुई थी। पृथ्वी के बनने के बाद बहुत समय तक हमारे गृह की सतह पर उथल-पुथल चलती रही, गरम पिघली धातु और हवाएँ बहती रहीं। ऐसे वातावरण मे कार्बन पर आधारित जीवन का पनपना असंभव था। पृथ्वी का तापमान गिरने पर ही जीवन का आरंभ संभव हुआ। धरती पर आए पहले जीव हैं अंग्रेजी में प्रोकैरेयोट (Prokaryote) कहा जाता है। इन जीवों में केंद्रक/न्यूक्लियस (Nucleus) नहीं होता। ये हमारी कोशिकाओं के मुकाबले मे यह बहुत सरल होते हैं।
प्रोकैरेयोट किस्म के बैक्टीरिया वही हैं जिन्हें मारने के लिए हम एंटीबायोटिक (antibiotic) खाते हैं। जीवन आरंभ के समय दो तरह के प्रोकैरेयोट बैक्टीरिया और आर्किया (Archaea) प्रगट हुए। यह दो किस्म की कोशिकाएँ सरल होती हैं। ४०० करोड़ साल पहले धरती पर इन्हीं दोनों का धरती पर बोलबाला रहा। ऐसा लगभग २०० करोड़ साल के लंबे अंतराल के बाद एक आर्किया ने एक बैक्टीरिया को अपने अंदर समा लिया। कब और कैसे इस पर आज भी अनुसंधान जारी है।इस एक घटना ने धरती पर जीवन का रुख बदल दिया। आर्किया के अंदर बैक्टीरिया जाने से एक यूकेरियोट (Eukaryote) कोशिका पैदा हुई जिससे पेड़ , पौधे, जानवर, पक्षी और हम सभी विकसित हुए।
आर्किया के अंदर जाने वाला बैक्टीरिया क्रमागत उन्नति की प्रक्रिया के बाद एक कोशिका का वह केंद्र बन गया, जहाँ कोशिका की ऊर्जा का उत्पादन होता है. यह धरती पर जीवन के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण कदम था। इस एक घटना से एक कोशिका की ऊर्जा बहुत बढ़ गई। उसी कारण से मनुष्यों जैसे जटिल जीवों का धरती पर आना संभव हुआ। ऐसा होने में 200 करोड़ साल क्यों लगे? इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। क्या ब्रह्मांड में अन्यत्र भी ऐसा होने में इतना ही समय लगा होगा या, कम-अधिक, कोई नहीं जानता।
***
भारतीय सेना की टोपियाँ
टोपी, पगड़ी या साफा सम्मान और प्रतिष्ठा की प्रतीक होती है। लोक प्रचलित मुहावरे टोपी पहनाना = मूर्ख बनाना, टोपी उतारना/उछालना = अपमान करना तथा टोपी रखना / ढकना = इज्जत बचाना आदि टोपी का महत्व दर्शाते हैं। भारतीय सेना के सैनिकों और अधिकारियों के लिए उनकी टोपियों (caps /हेडगियर) कब-कैसी की होगी यह उनकी रेजिमेंट, कार्यक्रम, विशेष ऑपरेशन, रैंक आदि पर निर्भर करता है। सेना के कर्मियों के लिए मुख्यतः ६ अलग-अलग प्रकार के हेडगेयर हैं।
१. .पीक कैप्स: पीक कैप भारतीय सेना के अधिकारियों की औपचारिक वर्दी का हिस्सा है। इसकी शान ही अनूठी है।
२. बेरेट: यह आम तौर पर सैनिकों के हथियारों और रेजिमेंट के रंग के अनुसार होती है। विभिन्न हथियारों और रेजिमेंटों में बेरेट के अलग-अलग रंग होते हैं। कई बेरेट कड़ी मेहनत और पसीने से अर्जित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए: पैराशूट रेजिमेंट के मैरून बेरेट।
३.गोरखा कैप्स: गोरखा राइफल्स, कुमाऊं रेजिमेंट, नागा रेजिमेंट, लद्दाख स्काउट्स, सिक्किम स्काउट्स और गढ़वाल राइफल्स के सैनिक और अधिकारी इस पारंपरिक गोरखा कैप्स पहनते हैं।
४. पगड़ी: भारतीय सेना के सिख सैनिक और अधिकारी अपनी वर्दी और रेजिमेंट के रंग के अनुसार अपनी वर्दी के साथ पगड़ी पहनते हैं। पगड़ी का संबंध सिख धर्म से भी है। पगड़ी पहनने पर कद अधिक लंबा तथा प्रभावशाली दिखता है।
५. कॉम्बैट यूनिफॉर्म कैप्स: आमतौर पर सैनिक इन कैप्स को अपनी कॉम्बैट या फील्ड यूनिफॉर्म के साथ पहनते हैं।
६ -मैस सेरेमोनियल कैप यूनिफॉर्म के साथ CAPS: यह कैप आमतौर पर आधिकारिक डिनर पर पर्व गणवेश (सेरेमोनियल यूनिफ़ॉर्म) के सतह पहनी जाती है।
ब्रिगेडियर, मेजर जनरल, लेफ्टिनेंट जनरल और जनरल के रैंक के लिए, उनकी चोटी की टोपी, गोरखा टोपी और पगड़ी में एक समान प्रकार का बैज होता है। अधिकारियों की टोपी लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक समान हैं, लेकिन कर्नल बनने के बाद भारतीय सेना के इन वरिष्ठ अधिकारियों के पीक कैप्स, गोरखा कैप्स और पगड़ी (सिख अधिकारियों के लिए) में लाल रिबन जोड़ा जाता है।
***
फाग-
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
...
होली पर भोजपुरी गीत :
*
कईसे मनाईब होली ? हो मोदी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
*
मीटिंग के गईला त मतदाता अईला
एक गिरउला, तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
दंग विपच्छी तू मौका न दईला
निगली का भंग की गोली? हो मोदी!
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
*
रोएँ बिरोधी मउका तऽ चाही
हाथ मिलाएँ चउका तऽ चाही
सरकारन का रउआ रे टोटा
राहुल की दुनिया में होवे हँसाई
माया की रीती झोली, हो राजा !
खिलके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
मारे ममता दीदी रह-रह के बोली
नीतीश-अखिलेश कऽ बिसरी ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अमित भाई कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल ठाकरे है मुँह लटका
नानी शिंदे ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जमके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
***
फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु की हार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
ढपली-मादल, अम्बर बादल
हरित-पीत पत्ते नच पागल
लाल पलाश कुसुम्बी रंग बन
तन पर पड़े, करे मन घायल
करिया-गोरिया नैन लड़ायें
बैरन झरबेरी
सम भौजी छार हो फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
अररर पकड़ो, तररर झपटा
सररर भागा, फररर लपटा
रतनारी भई सदा सुहागन
रुके न चम्पा कितनऊ डपटा
'सदा अनंद रहे' गा-गाखें
गुझिया-पपड़ी
खाबे खों तकरार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।
***
पुण्य स्मरण
रामकृष्ण देव
*
विश्व के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक रामकृष्ण देव ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण देव मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फ़रवरी १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी का नाम चंद्रमणि देवी था। रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ। उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में प्रकाशपुंज को प्रवेश करते हुए देखा। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को शिक्षण तथा आजीविका के लिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
निरंतर प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। १८५५ में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रासमणि द्वारा बनाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। १८५६ में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया।रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता हैं कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं "घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनंत, तट-विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।
रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यों में लगे रहते थे।परम आध्यात्मिक संत रामकृष्ण देव की बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। अफवाह फ़ैल गयी थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। गदाधर की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर उनका विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आई ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।कालान्तर में बड़े भाई देहावसान से गदाधर व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन न होते हुए भी, गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे पागल समझने लगे। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में स्थित गाँव जयरामबाटी में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर में पा सकते हैं। १८५९ में ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और २३ वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती रहीं और १८ वर्ष की आयु होने होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। गदाधर तब भी संन्यासी का जीवन जीते थे।
इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस। इसके बाद उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। सन् १८८६ ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दी। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
६-३-२०२२
***
लघुकथा
एक अधुनातन अतिबुद्धिजीवी पुत्री ने पिता को भारत में संदेश भेजा - 'डैड! मुझे एक लड़के से प्यार हो गया है। वह रूस में है मैं अमेरिका में। उसके माता-पिता चीन में हैं।हम एक दूसरे का पता मैरिज वेब साइट से मिला। हम डेटिंग वेबसाइट पर मिले। फेसबुक पर मित्र बने। वॉट्सऐप पर हमने कई बार बातचीत की। वीडियो चैट पर एक दूसरे को देखा। स्काइप पर मैंने उसे प्रोपोज़ किया। उसने टेलीग्राम पर एक्सेप्ट किया। हम एक साल से वाइबर पर रिलेशनशिप में हैं। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिता ने झुमरीतलैया से मेटा पर उत्तर दिया - 'क्या वाकई? विचित्र किन्तु सत्य। ट्विटर पर आमंत्रण पत्र भेजो, टैंगो पर विवाह करो, अमेज़न से बच्चे गोद लेकर और पेपाल से भेज दो। पति से मन भर जाए तो उसे ईबे पर बेचने से मत हिचकना।
***
आओ! कविता करना सीखें -
यह स्तंभ उनके लिए है जो काव्य रचना करना बिलकुल नहीं जानते किन्तु कविता करना चाहते हैं। हम सरल से सरल तरीके से कविता के तत्वों पर प्रकाश डालेंगे। जिन्हें रूचि हो वे अपने नाम सूचित कर दें। केवल उन्हीं की शंकाओं का समाधान किया जाएगा जो गंभीर व नियमित होंगे। जानकार और विद्वान साथी इससे जुड़कर अपने समय का अपव्यय न करें।
*
कविता क्यों?
अपनी अनुभूतियों को विचारों के माध्यम से अन्य जनों तक पहुँचाने की इच्छा स्वाभाविक है। सामान्यत: बातचीत द्वारा यह कार्य किया जाता है। लेखक गद्य (लेख, निबंध, कहानी, लघुकथा, व्यंग्यलेख, संस्मरण, लघुकथा आदि) द्वारा, कवि पद्य (गीत, छंद, कविता आदि) द्वारा, गायक गायन के माध्यम से, नर्तक नृत्य द्वारा, चित्रकार चित्रों के माध्यम से तथा मूर्तिकार मूर्तियों के द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। यदि आप अपने विचार व्यक्त करना नहीं चाहते तो कविता करना बेमानी है।
कविता क्या है?
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है।
कविता के तत्व
विषय
कविता करने के लिए पहला तत्व विषय है। विषय न हो तो आप कुछ कह ही नहीं सकते। आप के चारों और दिख रही वस्तुएँ प्राणी आदि, ऋतुएँ, पर्व, घटनाएँ आदि विषय हो सकते हैं।
विचार
विषय का चयन करने के बाद उसके संबंध में अपने विचारों पर ध्यान दें। आप विषय के संबंध में क्या सोचते हैं? विचारों को मन में एकत्र करें।
अभिव्यक्ति
विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त किया जा सकता है। इसे अभिव्यक्त करना कहते हैं।जब विचारों को व्याकरण के अनुसार वाक्य बनाकर बोला या लिखा जाता है तो उसे गद्य कहते हैं। जब विचारों को छंद शास्त्र के नियमों के अनुसार व्यक्त किया जाता है तो कविता जन्म लेती है।
लय
कविता लय युक्त ध्वनियों का समन्वय-सम्मिश्रण करने से बनती है। मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के उपादानों के साहचर्य में विकसित हुई हैं। प्रकृति में बहते पानी की कलकल, पक्षियों का कलरव, मेघों का गर्जन, बिजली की तडकन, सिंह आदि की दहाड़, सर्प की फुफकार, भ्रमर की गुंजार आदि में ध्वनियों तथा लय खण्डों की विविधता अनुभव की जा सकती है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनकर आप उसके सुख या दुःख का अनुमान कर सकते हैं। माँ शिशु के रोने से पहचान जाती है कि वह भूखा है या उसे कोई पीड़ा है।
कविता और लोक जीवन
कविता सामान्य जान द्वारा अपने विचारों और अनुभूतियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करने से उपजाति है। कविता करने के लिए शिक्षा नहीं समझ आवश्यक है। कबीर आदि अनेक कवि निरक्षर थे। शिक्षा काव्य रचना में सहायक होती है। शिक्षित व्यक्ति को भाषा के व्याकरण व् छंद रचना के नियमों की जानकारी होती है। उसका शब्द भंडार भी अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। इससे उसे अपने विचारों को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने में आसानी होती है।
आशु कविता
ग्रामीण जन अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित होने पर भी लोक गीतों की रचना कर लेते हैं। खेतों में मचानों पर खड़े कृषक फसल की रखवाली करते समय अकेलापन मिटाने के लिए शाम के सुनसान सन्नाटे को चीरते हुए गीत गाते हैं। एक कृषक द्वारा गाई गई पंक्ति सुनकर दूर किसी खेत में खड़ा कृषक उसकी लय ग्रहण कर अन्य पंक्ति गाता है और यह क्रम देर रात रहता है। वे कृषक एक दूसरे को नहीं जानते पर गीत की कड़ी जोड़ते जाते हैं। बंबुलिया एक ऐसा ही लोक गीत है। होली पर कबीरा, राई, रास आदि भी आकस्मिक रूप से रचे और गाए जाते हैं। इस तरह बिना पूर्व तैयारी के अनायास रची गई कविता आशुकविता कहलाती है। ऐसे कवी को आशुकवि कहा जाता है।
कविता करने की प्रक्रिया
कविता करने के लिए विषय का चयन कर उस पर विचार करें। विचारों को किसी लय में पिरोएँ। पहली पंक्ति में ध्वनियों के उतार-चढ़ाव को अन्य पंक्तियों में दुहराएँ।
अन्य विधि यह कि पूर्व ज्ञान किसी धुन या गीत को गुनगुनाएँ और उसकी लय में अपनी बात कहने का प्रयास करें। ऐसा करने के लिए मूल गीत के शब्दों को समान उच्चारण शब्दों से बदलें। इस विधि से पैरोडी (प्रतिगीत) बनाई जा सकती है।
हमने बचपन में एक बाल गीत मात्राएँ सीखते समय पढ़ा था।
राजा आ राजा।
मामा ला बाजा।।
कर मामा ढमढम।
नाच राजा छमछम।।
अब इस गीत का प्रतिगीत बनाएँ -
गोरी ओ गोरी।
तू बाँकी छोरी।।
चल मेले चटपट।
खूब घूमें झटपट।।
लोकगीतों और भजनों की लय का अनुकरण कर प्रतिगीत की रचना करना आसान है।
६-३-२०२१
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
६-३-२०२१
***
दोहा-दोहा अलंकार
*
होली हो ली अब नहीं, होती वैसी मीत
जैसी होली प्रीत ने, खेली कर कर प्रीत
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ा भंग में रंग
होली की हड़बोंग है, हुरियारों के संग
*
आराधा चुप श्याम को, आ राधा कह श्याम
भोर विभोर हुए लिपट, राधा लाल ललाम
*
बजी बाँसुरी बेसुरी, कान्हा दौड़े खीझ
उठा अधर में; अधर पर, अधर धरे रस भीज
*
'दे वर' देवर से कहा, कहा 'बंधु मत माँग,
तू ही चलकर भरा ले, माँग पूर्ण हो माँग
*
'चल बे घर' बेघर कहे, 'घर सारा संसार'
बना स्वार्थ दे-ले 'सलिल', जो वह सच्चा प्यार
*
जितनी पायें; बाँटिए, खुशी आप को आप।
मिटा संतुलन अगर तो, होगा पश्चाताप।।
***
हिंदी ग़ज़ल
*
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
६-३-२०२०
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***
छंद सलिला:
अहीर छंद
*
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
***
मुक्तक
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
६-३-२०१४
***
गीत :
किस तरह आए बसंत?...
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आए बसंत?...
*
होरी कैसे छाए टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गई डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाए बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चराए?
सूखी नदिया कहाँ नहाए?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाए.
तकें सियासत चुप मुँह बाए.
खुद से खुद ही हैं शरमाए.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गई 'सलिल' चुप
किस तरह लाए बसंत?...
६-३-२०१०

*

सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

फरवरी १०, ऋद्धि, ११ मात्रिक छंद, सॉनेट, हिंग्लिश ग़ज़ल, कोरोना, बुंदेली, फाग, गीत, विमर्श, दोहा, लघुकथा, ब्रह्म कमल

सलिल सृजन फरवरी १०
पूर्णिका
ब्रह्म कमल 
ब्रह्म कमल जैसे जीवन जी
तुष्ट रहो सुख में दुख में भी
.
ज्यों की त्यों बेदाग चदरिया
जिसकी सफल साधना उसकी
.
मितव्ययिता का पथ है अच्छा
कर्जा लेकर कभी न घी पी
.
करो परिश्रम बहे पसीना
श्वास-श्वास होगी तब महकी
.
अपनी राह चला चल, मत सुन
वाह-वाह निंदा या खी खी
.
नकल न कर ले काम अकल से
मत पहचान गँवा तू अपनी
.
सहकर शीत 'सलिल' हिम हो जा
तब कर संगत ब्रह्म कमल की
१०.२.२०२५
०००
हिंग्लिश ग़ज़ल
कबूतर
उड़े कबूतर फैलाकर पर।
Every action doing better.
कौनउ मत कमजोर मानियो
Really they are game changer.
रउआ के से का का कैते।
Trying flying safer safer.
कबऊँ नई जे हारें हिम्मत।
Fixing target higher higher.
शांति दूत सब चाहें इनको।
Game changer not the trader.
१०.२.२०२४
•••
सोरठा सलिला
होकर संत बसंत, बँधा मंजरी-पाश में।
ले आमोद अनंत, शरत चंद्र सँग हँस निशि।।
*
हाथ शब्द-तलवार, ले शांडिल्य नरेश हो।
दे खुद को भी वार, जनगण-मन पर राज्य कर।।
*
ठाकुर नम्र प्रणाम, ठाकुर जी को कर रहा।
आज पड़ा फिर काम, ठकुराइन मुस्कुरा रहीं।
*
कैसे मिले बसंत, कुसुम न हो तो धरा को।
अनथक दिशा-दिगंत, अजय सुरभि से झूमते।।
१०-२-२०२३
***
हास्य
चाकलेट डे
*
रेल लेट होती रई अब लौं
चाक लेट अब आई।
टीचर एक
पाँच कक्षाएँ
होगी खाक पढ़ाई।
'ओन लैन' का नाटक कर खें
सबको पास करो रे!
पीढ़ी बने निकम्मी-अनपढ़
मुफ्त राहतें दो रे!
नेता का जयकारा गूँजे
वे बनाएँ सरकार।
उनके बच्चे लीडर-अफसर
अपने बेरोजगार।
कार्यशाला
इंग्लिश में g अक्षर ग या ज के ध्वनि के लिए प्रयोग कब किया जाता है?
A. G शब्द के अंत में आता है तो उसका उच्चारण ग ही होगा जैसे bag, cog, dog, fog, gong, hog, jog, leg, peg, rag, sag, tug.
B. G के बाद अलग अलग अक्षर आने से उच्चारण क्या होगा देखते हैं।
1. Ga ग जैसे game, gal
2. Ge ग जैसे get
3. Ge ज जैसे gem, gel, Germany
4. Gg ग जैसे bigger, nagging, egg
5. Gg ज जैसे exaggerate
6. Gh घ जैसे ghost, aghast
7. Gh फ जैसे laugh
8. Gi ग जैसे give, girl
9. Gi ज जैसे gin, engine
10. Gl ग जैसे glad, glue, English
11. Gn Silent जैसे gnu नू
12. Go ग जैसे go, goal, god
13. Gr ग जैसे gram, grade, group
14. Gu ग जैसे gum, gut, guard, vague
C. G के पहले d आने से dg/dj का उच्चारण ज होगा जैसे judge, adjust
D. D भी कुछ शब्दों में ज का उच्चारण लेता है, जैसे education, graduate, soldier
E. X भी कुछ शब्दों में ग का उच्चारण लेता है, जैसे example.
१०-२-२०२२
***
सॉनेट
बसंत
*
पत्ता पत्ता झूम नाचता।
कूक सारिका लुकती छिपती।
प्रणय ऋचाएँ सुआ बाँचता।।
राह भ्रमर की कलिका तकती।।
धार किनारों से भुज भेंटे।
लहर लहर को गले लगाती।
तितली रूप छटा पर ऐंठे।।
फूल फूल जा गेह भुलाती।।
मन कुलाँच भरता हिरनों सम।
हिरन हुआ होश महुआ का।
हेर राह प्रिय की अँखियाँ नम।।
भेद भूल पुरवा-पछुआ का।।
जप-तप बिसरा, तकें संत जी।
कहाँ अप्सरा है बसंत जी।।
१०-२-२०२२
***
नवगीत
छंद लुगाई है गरीब की
*
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
जिसका जब मन चाहे छेड़े
ताने मारे, आँख तरेरे
लय; गति-यति की समझ न लेकिन
कहे सात ले ले अब फेरे
कैसे अपनी जान बचाए?
जान पडी सांसत में भाई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
कलम पकड़ कल लिखना सीखा
मठाधीश बन आज अकड़ते
ताल ठोंकते मुख पोथी पर
जो दिख जाए; उससे भिड़ते
छंद बिलखते हैं अनाथ से
कैसे अपनी जान बचाये
इधर कूप उस ओर है खाई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
यह नवगीती पत्थर मारे
वह तेवरिया लट्ठ भाँजता
सजल अजल बन चीर हर रही
तुक्कड़ निज मरजाद लाँघता
जाँघ दिखाता कुटिल समीक्षक
बचना चाहे मति बौराई
छंद लुगाई है गरीब की
गाँव भरे की है भौजाई
१०.२.२०२१
***
लघुकथा :
सवाल
शेरसिंह ने दुनिया का सर्वाधिक प्रभावी नेता तथा सबसे अधिक सुरक्षित जंगल बनाने का दावा कर चुनाव जीत लिया। जिन जगहों से उसका दल हारा। वहीं भीषण दंगा हो गया। अनेक छोटे-छोटे पशु-पक्षी मारे गए। बाद में हाथी ने बल प्रयोग कर शांति स्थापित की। बगुला भगत टी वी पर परिचर्चा में शासन - प्रशासन का गुणगान करने लगा तो पत्रकार उलूक ने पूछा 'दुनिया का सर्वाधिक असरदार सरदार दंगों के समय सामने क्यों नहीं आया? सबसे अधिक चुस्त-दुरुस्त पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र को हजारों दंगाइयों, सैकड़ों हथियारों तथा दंगे की योजना बनाने की खबर क्यों नहीं मिली? बिना प्रभावी योजना, पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र और तैयारी के भेजे गए पुलिस जवानों और अफसरों को हुई क्षति की जिम्मेदारी किसकी है?
अगले दिन सत्ता के टुकड़ों पर पल रहे सियारों ने उस चैनल तथा संबंधित अख़बार के कार्यालयों पर पथराव किया, उनके विज्ञापन बंद कर दिये गए पर जंगल की हवा में अब भी तैर रहे थे सवाल।
१.३.२०२०
***
दोहा सलिला
आओ यदि रघुवीर
*
कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास
शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ
भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम
कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख
कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ
देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ
श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक
तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह
मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद
निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट
रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज
भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान
कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह
वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
१६.३.२०२०
***
दोहा मुक्तक
बीत गईँ कितनी ऋतुएँ, बीते कितने साल
कोयल तजे न कूकना, हिरन न बदले चाल
पर्व बसंती हो गया, वैलेंटाइन आज
प्रेम फूल सा झट झरे, सात जन्म कंगाल
***
मुक्तक
४ x यगण
हमारा न होता, तुम्हारा न होता
कभी भी किसी का गुजारा न होता
सुनो बाँह में बाँह थामे दिलों ने
समय जिंदगी का गुजारा न होता
***
ग्यारह मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
यही चाहा हमने
नहीं टूटें सपने
शहीदी विरासतें
न भूलें खुद अपने
*
२. पदादि मगण
आओ! लें गले मिल
भाओ तो मिले दिल
सीचेंगे चमन मिल
फूलों सम खिलें दिल
*
३. पदादि तगण
सच्चा बतायें जो
झूठा मिटायें जो
चाहें मिलें नेता
वादे निभायें जो
*
४. पदादि रगण
आपकी चाहों में
आपकी बाँहों में
जिंदगी है पूजा
आपकी राहों में
*
५. पदादि जगण
कहीं नहीं हैवान
कहीं नहीं भगवान
दिखा ह्रदय में झाँक
वहीँ बसा इंसान
*
६. पदादि भगण
आपस में बात हो
रोज मुलाकात हो
संसद में दूरियाँ
व्यर्थ न बेबात हों
*
७. पदादि नगण
सब अधरों पर हास
अब न हँसेंगे ख़ास
हर जन होगा आम
विनत रचें इतिहास
*
८. पदादि सगण
करना मत बहाना
तजना मत ठिकाना
जब तक वयस्क न हो
बिटिया मत बिहाना
*
९. पदांत यगण
हरदम हम बुलाएँ
या आप खुद आयें
कोई न फर्क मानें
१०. पदांत मगण
आस जय बोलेगी
रास रस घोलेगी
प्यास बुझ जाएगी
श्वास चुप हो लेगी
.
मीत! आ जाओ ना
प्रीत! भा जाओ ना
चैन मिल जायेगा
गीत गा जाओ ना
*
११. पदांत तगण
रंगपंचमी पर्व
धूम मचाते सर्व
दीन न कोई जान
भूल, भुला दें गर्व
.
हो मस्ती में लीन
नाच बज रही बीन
वेणी-नागिन झूम
नयन हो रहे मीन
.
बाँके भुज तलवार
करते नहीं प्रहार
सविनय माँगें दान
सुमुखी-भुजा का हार
.
मिले हार हो जीत
मिले प्रीत को प्रीत
द्वैत बने अद्वैत
बजे श्वास संगीत
*
१२. पदांत रगण
गीत प्रीत के सुना
गीत मीत के सुना
हार में न हार हो
जीत में न जीत हो
शुभ अतीत के सुना
गीत रीत के सुना
यार हो, जुहार हो
प्यार हो, विहार हो
नव प्रतीति के सुना
गीत नीति के सुना
हाथ नहीं जोड़ना
साथ नहीं छोड़ना
बातचीत के सुना
गीत जीत के सुना
*
१३. पदांत जगण
जनगण की सरकार
जन संसद दरबार
रीती-नीति-सहयोग
जनसेवा दरकार
देशभक्ति कर आप
रखें स्वच्छ घर-द्वार
पर्यावरण न भूल
पौधारोपण प्यार
धुआँ-शोर अभिशाप
बहे विमल जल-धार
इस पल में इनकार
उस पल में इकरार
नकली है तकरार
कर असली इज़हार
*
१४. पदांत भगण
जिंदगी जलसा घर
बन्दगी जल सा घर
प्रार्थना कर, ना कर
साधना कर ही कर
अर्चना नित प्रति कर
वन्दना हो सस्वर
भावना यदि पवन
कामना से मत डर
कल्पना नवल अगर
मान ले अजरामर
*
१५. पदांत नगण
नटनागर हों सदय
कर दें पल में अभय
शंका हर जग-जनक
कर दें मन को अजय
.
पान कर सकें गरल
हो स्वभाव निज सरल
दान कर सकें अमिय
जग-जीवन हो विमल
.
नेह नर्मदा अमर
जय कट जीवन समर
करे द्वेष अहरण
भरे प्रीत चिर अमर
*
१६. पदांत सगण
पत्थर को फोड़ लें
ईंटों को जोड़ लें
छोड़ें मत राह को
कदमों को मोड़ लें
नाहक क्यों होड़ लें?
मंजिल क्यों छोड़ दें?
डरकर संघर्ष से
मन को क्यों तोड़ लें?
.
सत्य जो हो कहिए
झूठ को मत तहिए
घाट पर रुकिए मत
नर्मदा बन बहिए
रीत नित नव गढ़िए
नीत-पथ पर बढ़िए
सीढ़ियाँ मिल चढ़िए
प्रणय-पोथी पढ़िए
*
१७. पदादि-पदांत यगण
उसे गीत सुनाना
उसे मीत बनाना
तुझे चाह रहा जो
उसे प्रीत जताना
.
सुनें गीत सुनाएँ
नयी नीत बनायें
नहीं दर्द जरा हो
लुटा दें सुख पायें
*
१८. पदादि यगण, पदांत मगण
हमें ही है आना
हमें ही है छाना
बताता है नेता
सताता है नेता
*
१९. पदादि मगण पदांत यगण
चाहेंगे तुम्हें ही
वादा है हमारा
भाए हैं तुम्हें भी
स्वप्नों में पुकारा
*
२०. पदादि मगण पदांत तगण
सारे-नारे याद
नेता-प्यादे याद
वोटों का है खेल
वोटर-वादे याद
***
कुंडलिया
कितने मौसम बिताये, रीते कितने वर्ष
जन-मन ने जाना नहीं, कैसा होता हर्ष?
कैसा होता हर्ष, न्याय अन्यायपरक है
जनगण सहता दर्द, न किंचित पड़ा फरक है
दिल पर चोटें लगीं, घाव खाए हैं इतने
सुमुखि-शीश पर शेष केश हैं श्यामल जितने
१०.२.२०१७
***
एक रचना
संभावना की फसल
*
सम्भावना की फसल
बंजर में उगाएँ।
*
देव को दे दोष
नाहक भाग्य को कोसा।
हाथ पर धर हाथ
जब-जब ख्वाब को पोसा।
बिना कोशिश, किस तरह
मंज़िल करे बोसा?
बाँधकर मुट्ठी कदम
पथ पर बढ़ाएँ।
सम्भावना की फसल
बंजर में उगाएँ।
*
दर्द तेरा बने
मेरी आँख का आँसू।
श्वास का हो, आस से
रिश्ता तभी धाँसू।
सोचता मन व्यर्थ ही
कैसे-किसे फाँसू?
सर्वार्थ सलिला छोड़
मछली फड़फड़फड़ाएँ।
सम्भावना की फसल
बंजर में उगाएँ।
*
झोपड़ी में, राज-
महलों में न अंतर।
परिश्रम का फूँक दो
कानों में मंतर।
इत्र समता का करे
मन-प्राण को तर-
मीत! ममता-गीत
मन-मन गुनगुनाएँ।
सम्भावना की फसल
बंजर में उगाएँ।
***
प्रयोगात्मक नवगीत:
कौन चला वनवास रे जोगी?
*
कौन चला
वनवास रे जोगी?
अपना ही
विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी
प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई
उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है
आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में
रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है
चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है
मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ
उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो
खासमखास रे जोगी.
*
राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल'
खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले
उजास रे जोगी.
***
विमर्श:
दिल्ली दंगल एक विश्लेषण:
.
- सत्य: आप व्यस्त, बीजेपी त्रस्त, कोंग्रेस अस्त.
= सबक: सब दिन जात न एक समान, जमीनी काम करो मत हो संत्रस्त.
- सत्य: आम चुनाव के समय किये वायदों को राजनैतिक जुमला कहना.
= सबक: ये पब्लिक है, ये सब जानती है. इसे नासमझ समझने के मुगालते में मत रहना.
- सत्य: गाँधी की दुहाई, दस लखटकिया विदेशी सूट पहनकर सादगी का मजाक.
= सबक: जनप्रतिनिधि की पहचान जन मत का मान, न शान न धाक.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: कार्यकर्ताओं द्वारा अधिकारियों पर दवाब और वसूली.
= सबक: जनता रोज नहीं टकराती, समय पर दे ही देती है सूली.
- सत्य: संसदीय बहसों के स्थान पर अध्यादेशी शासन.
= सबक: बंद न किया तो जनमत कर देगा निष्कासन.
- सत्य: विपक्षियों पर लगातार आघात.
= सबक: विपक्षी शत्रु नहीं होता, सौजन्यता न निबाहें तो जनता देगी मात.
- सत्य: आधाररहित व्यक्तित्व को थोपना, जमीनी कार्यकर्ता की पीठ में छुरा घोंपना.
= सबक: नेता उसे घोषित करें जिसका काम जनता के सामने हो, केवल नाम नहीं. जो अपने साथियों के साथ न रहे उसपर मतदाता क्यों भरोसा करे?
- सत्य: संसद ही नहीं टी.व्ही. पर भी बहस से भागना.
= सबक: अध्यादेशों में तानाशाही की आहात होती है. संसद में बहस न करना और दूरदर्शन पर उमीदवार का बहस से बचना, प्रवक्ताओं की अहंकारी और खुद को अंतिम मानने की प्रवृत्ति होती है बचकाना.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: आर एस एस की बैसाखी नहीं आई काम.
= सबक: जनसेवा का न मोल न दाम, करें निष्काम.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: प्रधानमंत्री द्वारा दलीय हितों को वरीयता देना, विकास के लिए अपने दल की सरकार जरूरी बताना.
= सबक: राज्य में सरकार किसी भी दल की हो, जरूरी है केंद्र का सबसे समानता जताना. अपना खून औरों का खून पानी मानना सही नहीं.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: हर प्रवक्ता, नेता तथा प्रधान मंत्री का केजरीवाल पर लगातार आरोप लगाना.
= सबक: खुद को खलनायक, विपक्षी को नायक बनाना या कंकर को शंकर बनाकर खुद बौना हो जाना.
- सत्य: चुनावी नतीजों का आकलन-अनुमान सत्य न होना.
= सबक: प्रत्यक्ष की जमीन पर अतीत के बीज बोना अर्थात आँख देमने के स्थान पर पूर्व में घटे को अधर बनाकर सोचना सही नहीं, जो देखिये कहिए वही.
- सत्य: आप का एकाधिकार-विपक्ष बंटाढार.
= सबक: अब नहीं कोई बहाना, जैसे भी हो परिणाम है दिखाना. केजरीवाल ने ठीक कहा इतने अधिक बहुमत से डरना चाहिए, अपेक्षा पर खरे न उतरे तो इतना ही विरोध झेलना होगा.
***
गीत
नयन में कजरा
आँज रही है
उतर सड़क पर
नयन में
कजरा साँझ
नीलगगन के
राजमार्ग पर
बगुले दौड़े
तेज
तारे
फैलाते प्रकाश
तब चाँद
सजाता सेज
भोज चाँदनी के
संग करता
बना मेघ
को मेज
सौतन ऊषा
रूठ गुलाबी
पी रजनी
संग पेज
निठुर न रीझा-
चौथ-तीज के
सारे व्रत
भये बाँझ
निष्ठा हुई
न हरजाई
है खबर
सनसनीखेज
संग दीनता के
सहबाला
दर्द दिया
है भेज
विधना बाबुल
चुप, क्या बोलें?
किस्मत
रही सहेज
पिया पिया ने
प्रीत चषक
तन-मन
रंग दे रंगरेज
आस सारिका
गीत गये
शुक झूम
बजाये झाँझ
साँस पतंगों
को थामे
आसें
हंगामाखेज
प्यास-त्रास
की रास
हुलासों को
परिहास- दहेज़
सत को
शिव-सुंदर से
जाने क्यों है
आज गुरेज?
मस्ती, मौज_
मजा सब चाहें
श्रम से
है परहेज
बिना काँच
लुगदी के मंझा
कौन रहा
है माँझ?
***
दोहा सलिला:
योगी राज न चाहते, करें घोषणा रोज
हुई चाहना वर्जना, क्यों कुछ तो हो खोज?
.
मंजुल मूरत देखकर, हुए पुजारी मुग्ध
हाथ आरती पर पड़ा, ह्रदय हो गया दग्ध
.
आप आप को कोसकर, किरण हुई बदनाम
सत्तर लखिया सूट से, बिगड़ गया सब काम
.
निधि पाए किस विधि सकल, दुनिया सोचे आज?
सिंह गर्जना सुन भगे, क्षमा करें वनराज
.
पंद्रह लाख मिला नहीं, थके देखते राह
जनमत होली मनाता, आश्वासन को दाह
.
***
नवगीत:
लोकतंत्र का
एक तकाजा
सकल प्रजा मिल
चुनती राजा
.
लाख रहें मत-भेद मगर
मन-भेद न किंचित होने देना
दुश्मन नहीं विपक्षी होता
मत विश्वास टूटने देना
लटके-झटके जो चुनाव के
बरखा जल सम उन्हें बहाओ
सद्भावों की धुप सुनहरी
सहयोगी चन्द्रिका उगाओ
कोई जीते
कोई हारे
जनमत जयी
बजाये बाजा
.
जन-प्रतिनिधि सेवक जनता का
दे परिचय अपनी क्षमता का
सबके साथ समान नीति हो
गैर न कोई स्वस्थ रीति हो
सुविधा-अधिकारों को तजकर
देश बनायें सब हिल-मिलकर
कोई भी विचार या दल हो
लक्ष्य एक: निर्बल का बल हो
मिलकर साथ
लड़ें दुश्मन से
ललकारें मिल:
आ जा, आ जा
.
राष्ट्र-देवता! सभी अभय हों
राष्ट्र-लक्ष्मी! सदा सदय हों
शक्ति-शारदा हो हर बिटिया
निर्मल नीर भरी हर नदिया
पर्वत हो आच्छादित तम से
नभ गुंजित हो ‘जन गण मन’ से
दसों दिशाओं ने उच्चारा
‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’
राजा बने
प्रजा का सेवक
आम आदमी
हो अब राजा
९.२.२०१५
***
मुक्तिका:
जब जग मुझ पर झूम हँसा
मैं दुनिया पर ठठा हँसा
जिसको दूध पिला पाला
उसने मौक़ा खोज डंसा
दौड़ लगी जब सत्ता की
जिसको मौक़ा मिला ठंसा
जब तक मिली न चाह रही
मिली, यूं लगा व्यर्थ फँसा
जीत महाभारत लेता
चका भूमि में मगर धँसा
***
फाग-नवगीत
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजय घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
***
बुंदेली गीत
संसद बैठ बजावैं बंसी
*
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.
कपरा पहिरे फिर भी नंगो, राजनीति को छोरो….
*
कुरसी निरख लार चुचुआवै, है लालच खों मारो.
खाद कोयला सक्कर चैनल, खेल बनाओ चारो.
आँख दिखायें परोसी, झूलै अम्बुआ डार हिंडोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
सिस्ताचार बिसारो, भ्रिस्ताचार करै मतवारो.
कौआ-कज्जल भी सरमावै, मन खों ऐसो कारो.
परम प्रबीन स्वार्थ-साधन में, देसभक्ति से कोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बनो भिखारी बोट माँग खें, जनता खों बिसरा दओ.
फांस-फांस अफसर-सेठन खों, लूट-लूट गर्रा रओ.
भस्मासुर है भूख न मिटती, कूकुर सदृश चटोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
चोर-चोर मौसेरे भैया, मठा-महेरी सांझी.
संगामित्ती कर चुनाव में, तरवारें हैं भांजी.
नूरा कुस्ती कर भरमावै, छलिया भौत छिछोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बोट काय दौं मैं कौनौ खों, सबके सब दल लुच्चे।
टिकस न दैबें सज्जन खों, लड़ते चुनाव बस लुच्चे.
ख़तम करो दल, रास्ट्रीय सरकार चुनो, मिल टेरो
संसद बैठ बजावैं बंसी नेता महानिगोरो.....
१०-२-२०१५
***
एक दोहा
कुसुम न हो तो धरा को, कैसे मिले बसंत
अजय सुरभि से झूमते, अनथक दिशा-दिगंत
***
छंद सलिला:
ऋद्धि छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्ण, ६९ मात्राओं के मात्रिक ऋद्धि छंद में प्रथम- तृतीय-चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा छंद के तथा द्वितीय चरण इंद्र वज्रा छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. करो न बातें कुछ काम भी हो, यों ही नहीं नाम मिला किसी को
चलो करें काम न सिर्फ बातें, बढ़ो न भूलो निज लक्ष्य साथी
२. चुनाव कैसे करेगी जनता, गुंडे मवाली ही हों खड़े तो?
न दो किसी को मत आप भाई, भगा उन्हें दो दर से- न रोको
३. बना खिलोने खुश हो विधाता, देखे करे क्या कब कौन कैसा?
उठो लिखेंगे खुद किस्मतें भी, पुजे हमारा श्रम देवता सा
१०-२-२०१४
***
नव गीत
*
जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता,
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है,
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
१०-२-२०१०

***

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

२५ फरवरी,राम किंकर,गीत,बसंत,होली,दोहा,फाग,ईसुर,ममता,शामियाना,शिव,सोरठे,

सलिल सृजन २५ फरवरी
*
स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय*
२५.२.२०२४
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार
*
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान
*
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
२५.२.२०२४
***
सोरठे
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा आ।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।
नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।
पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।
मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३
***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
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नवगीत:
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उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
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इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
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कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
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दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
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होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
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अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
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आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
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ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
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कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
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जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
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गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
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तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
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यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
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नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
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दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
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बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
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रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
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मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
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'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
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रंगों का नव पर्व बसंती
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गीत 
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
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