छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
२. कर में ले तलवार घुमातीं, दुर्गावती करें संहार.
यवन भागकर जान बचाते गिर-पड़ करते हाहाकार.
सरमन उठा सूँढ से फेंके, पग-तल कुचले मुगल-पठान.
आसफ खां के छक्के छूटे, तोपें लाओ बचे तब जान.
३. एक-एक ने दस-दस मारे, हुआ कारगिल खूं से लाल
आये कहाँ से कौन विचारे, पाक शिविर में था भूचाल
या अल्ला! कर रहम बचा जां, छूटे हाथों से हथियार
कैसे-कौन निशाना साधे, तजें मोर्चा हो बेज़ार
__________
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कमंद, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 26 जून 2021
सोमवार, 12 जनवरी 2015
aaiye kavita karen: 3 - sanjiv
आइये कविता करें: ३,
संजीव
मुक्तक
मुक्तक पर चर्चा हेतु आभा सक्सेना जी के २ मुक्तक प्राप्त हुए हैं। इनको मात्रिक मानते हुए इनका पदभार (पंक्तियों में मात्रा संख्या) तथा वर्णिक मुक्तक मानते हुए पदभार (वर्ण संख्या) कोष्ठक में दिया है.
संजीव
मुक्तक
हिंदी काव्य को मुक्तक संस्कृत से विरासत में प्राप्त हुआ है. संस्कृत में अनेक प्रकार के मुक्तक काव्य मिलते हैं. मुक्तक एक पद्य या छंद में परिपूर्ण रचना है, जिसमें किसी प्रकार का चमत्कार पाया जाता हो. सामान्यतः मुक्तक अनिबद्ध काव्य है. इसमें किसी कथा या विचार सूत्र की अपेक्षा उस छंद या पद्य को समझने के लिए नहीं रहती क्यों कि वह अपने आप में ही परिपूर्ण होता है. संस्कृत साहित्य के अनुसार मुक्तक अनिबद्ध साहित्य का भेद है किन्तु आधुनिक काल में मुक्तक विधा का उपयोग कर प्रबंध काव्य और खंड काव्य रचे गए हैं.
अग्नि पुराण के अनुसार: ' मुक्तकश्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमःसतां' अर्थात एक छंद में पूर्ण अर्थ एवं चमत्कार को प्रगट करनेवाला काव्य मुक्तक कहलाता है.
संस्कृत में अनिबद्ध काव्य के भेद भी मिलते हैं. डंडीकृत काव्यादर्श की तर्कवागीश कृत टीका के अनुसार क्रमशः तीन, चार, पांच और छह छंदों वाले अनिबद्ध काव्य को गुणवती, प्रभद्रक, वाणावली और करहाटक कहा गया है.
संस्कृत में अनिबद्ध काव्य के भेद भी मिलते हैं. डंडीकृत काव्यादर्श की तर्कवागीश कृत टीका के अनुसार क्रमशः तीन, चार, पांच और छह छंदों वाले अनिबद्ध काव्य को गुणवती, प्रभद्रक, वाणावली और करहाटक कहा गया है.
जगन्नाथ प्रसाद भानु द्वारा सन १८९४ में लिखित छंद शास्त्र के मानक ग्रन्थ छन्द प्रभाकर पृष्ठ २१३ के अनुसार ''मुक्तक उसे कहते हैं जिसके प्रत्येक पाद में केवल अक्षरों की संख्या का ही प्रमाण रहता है अथवा कहीं-कहीं गुरु-लघु का नियम होता है. इसे मुक्तक इसलिये कहते हैं कि यह गानों के बंधन से मुक्त है अथवा कविजनों को मात्रा और गणों के बंधन से मुक्त करनेवाला है. इसके ९ भेद पाये जाते हैं:
१ मनहरण
२ जनहरण
४ रूप घनाक्षरी
५. जलहरण
६. डमरू
७ कृपाण
८ विजया
९ देवघनाक्षरी
इनके उपप्रकार भी हैं.
२ जनहरण
४ रूप घनाक्षरी
५. जलहरण
६. डमरू
७ कृपाण
८ विजया
९ देवघनाक्षरी
इनके उपप्रकार भी हैं.
डॉ. भगीरथ मिश्र कृत काव्य मनीषा के अनुसार 'मुक्तक वह पद्य रचना है जिसके छंद स्वतः पूर्ण रहते हैं और वे किसी भी सूत्र में बंधे न रहकर स्वतंत्र रहते हैं. प्रत्येक छंद अपने में स्वतंत्र और निजी वैशिष्ट्य और चमत्कार से मुक्त रहता है.' १८९४ के बाद हिंदी साहित्य का बहुत विकास हुआ है. अब हिंदी तथा हिंदीतर भाषाओँ के अनेक छंदों को आधार बनाकर मुक्तक रचे जा रहे हैं. उक्त के अलावा दोहा, उल्लाला, सोरठा, रोला, चौपाई, आल्हा, हरिगीतिका, छप्पय, घनाक्षरी, हाइकू, माहिया आदि पर मैंने भी मुक्तक रचे हैं.
आप सभी के प्रति आभार,
फूल-शूल दोनों स्वीकार।
'सलिल' पंक में पंकज सम
जो खिलते बनते गलहार
*
नीरज जी को शत वंदन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
रचे गीत-मुक्तक अनगिन-
महका हिंदी-नंदन वन
*
फूल-शूल दोनों स्वीकार।
'सलिल' पंक में पंकज सम
जो खिलते बनते गलहार
*
नीरज जी को शत वंदन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
रचे गीत-मुक्तक अनगिन-
महका हिंदी-नंदन वन
*
मुक्तक पर चर्चा हेतु आभा सक्सेना जी के २ मुक्तक प्राप्त हुए हैं। इनको मात्रिक मानते हुए इनका पदभार (पंक्तियों में मात्रा संख्या) तथा वर्णिक मुक्तक मानते हुए पदभार (वर्ण संख्या) कोष्ठक में दिया है.
दो मुक्तक मकर संक्रांति पर
1.
सूरज ने मौसम को फिर से जतलाया। = २२ (१५)
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।। = २३ (१४)
ताप तेज़ करने को धूपको कह आया। = २३ (१५)
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।। = २३ (१६)
सूरज ने मौसम को फिर से जतलाया। = २२ (१५)
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।। = २३ (१४)
ताप तेज़ करने को धूपको कह आया। = २३ (१५)
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।। = २३ (१६)
प्रथम पंक्ति और शेष तीन पंक्तियों में मात्र के अंतर के कारण लय में आ रही भिन्नता पढ़ने पर अनुभव होगी। यदि इसे दूर किया जा सके तो मुक्तक की सरसता बढ़ेगी।
2.
रंगीन पतंगें सब संग में ले लाया हूं। = २५ (१५)
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।। = २३ (१३)
गगन भी बुहार दिया पतंगें उड़ाने को। = २४ (१६)
गज़क रेबड़ी साथ है संक्रंति मनाने को।। =२५ (१६)
2.
रंगीन पतंगें सब संग में ले लाया हूं। = २५ (१५)
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।। = २३ (१३)
गगन भी बुहार दिया पतंगें उड़ाने को। = २४ (१६)
गज़क रेबड़ी साथ है संक्रंति मनाने को।। =२५ (१६)
इस मुक्तक की पंक्तियों में भी लय भिन्नता अनुभव की जा सकती है.
आभा जी इन्हें सुधारकर फिर भेज रहे हैं। अन्य पाठक भी इन्हें संतुलित करने का प्रयास करें तो अधिक आनंद आएगा।
[फिर ऐसे, मैं तो, करने को आदि कोई विशेष अर्थ व्यक्त नहीं करते, उत्तर से दक्षिण को संक्रन्ति में सूर्य दक्षिणायन से उत्त्तरायण होता है, तथ्य दोष ]
अब देखें -
१.
सूरज ने मौसम को उगकर बतलाया २२
दक्षिण से उत्तर तक उजियारा लाया २२
पाले की गलन मिटे खुद को दहकाया २२
आँगन में धूप बिछा घर को गरमाया २२
२.
बच्चों मैं रंगीन पतंगें लाया हूँ २२
चकरी-डोरी तुम्हें सौंपने आया हूँ २२
गगन सँवारा खूब पतंग उड़ाओ रे! २२
घर गरमाने धूप बिछा हर्षाया हूँ २२
आभा जी! मुक्तकों को अब देखें। कुछ बात बनी क्या? हम स्नान पश्चात जैसे प्रसाधनों से खुद को सँवारते हैं वैसे ही रचना की, भाषा, कथ्य और शिल्प को सँवारना होता है। अभ्यास हो जाने पर अपने आप ही विचार और भाषा की प्रांजल अभिव्यक्ति होने लगाती है।
Abha Saxena दो मुक्तक मकर संक्रांति पर सुधार के बाद
1.
सूरज ने मौसम को फिर ऐसे जताया।23
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।23
ताप तेज़ करने को धूप को कह आया।23
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।23
2.
रंगीन पतंगें सब संग ले लाया हूं।23
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।23
गगन सँवारा है पतंगें उड़ाने को।23
गज़क रेबड़ी रखी संक्रंाति मनाने को।।23
....आभा
1.
सूरज ने मौसम को फिर ऐसे जताया।23
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।23
ताप तेज़ करने को धूप को कह आया।23
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।23
2.
रंगीन पतंगें सब संग ले लाया हूं।23
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।23
गगन सँवारा है पतंगें उड़ाने को।23
गज़क रेबड़ी रखी संक्रंाति मनाने को।।23
....आभा
[फिर ऐसे, मैं तो, करने को आदि कोई विशेष अर्थ व्यक्त नहीं करते, उत्तर से दक्षिण को संक्रन्ति में सूर्य दक्षिणायन से उत्त्तरायण होता है, तथ्य दोष ]
अब देखें -
१.
सूरज ने मौसम को उगकर बतलाया २२
दक्षिण से उत्तर तक उजियारा लाया २२
पाले की गलन मिटे खुद को दहकाया २२
आँगन में धूप बिछा घर को गरमाया २२
२.
बच्चों मैं रंगीन पतंगें लाया हूँ २२
चकरी-डोरी तुम्हें सौंपने आया हूँ २२
गगन सँवारा खूब पतंग उड़ाओ रे! २२
घर गरमाने धूप बिछा हर्षाया हूँ २२
आभा जी! मुक्तकों को अब देखें। कुछ बात बनी क्या? हम स्नान पश्चात जैसे प्रसाधनों से खुद को सँवारते हैं वैसे ही रचना की, भाषा, कथ्य और शिल्प को सँवारना होता है। अभ्यास हो जाने पर अपने आप ही विचार और भाषा की प्रांजल अभिव्यक्ति होने लगाती है।
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