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बुधवार, 31 जुलाई 2013

kavya setu: English-Hindi No more aur naheen indira sharma / sanjiv

काव्य सेतु:

No more-----------

Indira Sharma 
*
 No more, no more, no more
Breaking waves, breaking waves
No roar, no roar, no roar
On the shore, on the shore, on the shore

No tears, no tears, no tears
Any more, any more, any more
Even a particle of dust in the eyes
Make you cry, make you cry

Leave this transit world, forever
As soon as, you can try, may try
Evoke the fire and music, side by side
Let it be, let it be, let it be
For sake of the love Divine

No more breaking waves
No more roar on the shore
No tears any more
Even a particle of dust in the eyes
What makes a person cry

For sake of love Divine
This must be your goal
No tears any more
On this worldly – shore. No tears. 
*
--<pindira77@gmail.com>
भावानुवाद:
और नहीं -------
 संजीव 
*

और नहीं अब और नहीं
गम की लहरें और नहीं
जीवन सागर के तट पर
गर्जन-तर्जन और नहीं  
*
तिनका आँखों में पड़कर

बेबस करता, रोते हो
और नहीं अब और नहीं

आँख में आँसू और नहीं  
*
जल्दी से जल्दी छोडो

नश्वर जगत हमेशा को
संग आग संगीत चले
दैविक प्रेम हमेशा  को

 *
गम की लहरें और नहीं
तट पर गर्जन और नहीं
आँख में आँसू और नहीं
तिनका आँखों में पड़कर

बेबस करता, रोते हो
  *
दैविक प्रेम हमेशा हो
लक्ष्य तुम्हारा रहे यही
जीवन सागर के तट पर
आँख में आँसू और नहीं
===============

रविवार, 3 मार्च 2013

लेख: सुख शांति की दार्शनिक पृष्ठभूमि इंदिरा शर्मा

आध्यात्म-दर्शन
विशेष लेख:
सुख शांति की दार्शनिक पृष्ठभूमि 
इंदिरा शर्मा
*

             भारतीय मनस् अपने चेतन और अवचेतन मन में अध्यात्म तत्व की ओर प्रवृत होता है और यही प्रवृत्ति जब आत्मा में केन्द्रीभूत हो सूक्ष्मरूप धारण कर लेती है तो इससे नि:सृत किरणें आनंद रस की सृष्टि करती हैं | यह आनंद रस कोई स्थूल वस्तु नहीं है, यह तो गूँगे के गुड़ जैसी अनिर्वचनीय मन की वह अवस्था है जहाँ मनुष्य दैहिक रूप में विद्यमान रहकर भी दैहिक अनुभूति से परे ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वेदों में जिसे 'रसो वै स:' कहा गया है , वह आत्मा का रस ही साधारण भाषा में सुख–शांति के रूप में जाना जाता है |

             वर्तमान समय में मनुष्य के सारे जीवन मूल्य भौतिकता की कसौटी पर कसे जाते हैं | हम अपने  अध्यात्म स्वरूप को भूलकर भौतिकता में खोते जा रहे हैं और सुख–शांति जैसे शब्द जो पहले मनुष्य के आत्मिक सुख के पर्यायवाची होते थे वह आज अपना पुराना अर्थ खोकर मानव जीवन के भौतिक सुखों की ही व्याख्या करने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं | आज मनुष्य के लिए धन, रूप और पद की संपन्नता ही सुख बन गई है, जिसके पास इन वस्तुओं का बाहुल्य है, वह सुखी है और जिसके पास ये सारे भौतिक सुख नहीं हैं वह अशांत और दुखी है परन्तु मनुष्य की यह भौतिक सुख–शांति केवल मानव जीवन का असत्य मात्र ही है जिसके कारण मनुष्य की आँखों और आत्मा पर भ्रान्ति का ऐसा पर्दा पड़ गया है जिसके कारण सत्य पर दृष्टि नहीं जाती | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक भौतिकवादी स्थूल रूप से सुख – शांति की परिभाषा उपभोग के द्वारा प्राप्त क्षणिक आनंद को ही मानते हैं |
 
             भारतीय दार्शनिक मनीषियों ने जिस आत्मिक सुख की परिकल्पना की थी वह अव्यक्त सुख की अनुभूति भारतीय दर्शन के प्राण हैं अर्थात् दर्शन जिसे हम 'विचित्रभावधर्मांश तत्वप्रख्या च दर्शनम्' कहेंगे |
यहाँ एक बात कह देना आवश्यक है कि जिसे हम सुख-शांति कहते हैं, वही आध्यात्मिक जगत में आनंद की स्थिति है | यही आत्मा का ब्रह्म में लीन होना है, यही मोक्ष की स्थिति है | मोक्ष कुछ और नहीं यह मनुष्य की वह भावातीत स्थिति है जब वह अपने स्थूल रूप में अर्थात् अपने पञ्चीकृत भूत से अपञ्चीकृत भूत की ओर
उन्मुख होता है | अपने स्थूल रूप में स्थित होते हुए भी स्थूल बंधनों से मुक्त हो विश्वात्मा में लीन हो जाता है | योगी मनुष्य योग साधना के द्वारा इस स्थिति को प्राप्त होता है | योग क्रिया के द्वारा जब जीव अपनी चरम स्थिति पर पहुँचता है तो वहाँ सब प्रकाश ही प्रकाश है, ज्ञान - अज्ञान सब शून्य है, पूर्ण लय की स्थिति है |  महर्षि पतंजलि के शब्दों में 'योगाश्चित्तवृतिनिरोध:' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है | इन चित्त- वृत्तियों को रोकने की भिन्न–भिन्न विधियाँ हैं किन्तु उच्च बोध अर्थात् ‘ प्रज्ञानंब्रह्म ‘ होने पर इन विधियों की आवश्यकता नहीं रहती |

             'प्रज्ञानंब्रह्म' अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्म के साथ एकात्म भाव, जब व्यक्ति को इसका बोध हो जाता है तो स्थूल संसार के विषय में उसकी सारी भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं, वह समझ जाता है कि संसार हमारे मन की सृष्टि मात्र है और मन आत्मा में निवास करता है | ऐसा आत्म स्थित हुआ मनुष्य ही बंधन मुक्त होता है अत : आत्मा से
परे कुछ है ही नहीं | इस विवेक से ही सत्य–असत्य का ज्ञान होता है और मनुष्य वैराग्य की और प्रवृत्त होता है | ज्ञानी आत्म स्थित होता है, सांसारिक सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है जहाँ कबीर के शब्दों में 'फूटहिं कुम्भ जल जलहिं समाना' की स्थिति होती है | ब्रह्म को प्राप्त ज्ञानी लौकिक जगत में रहते हुए भी इससे परे आनंद लोक में विचरण करता है | वह वास्तव में न सोता है,  न जागता है, न पीता है। उसकी चेतना सारे दैहिक व्यापर करते हुए भी न सुख में सुखी होती है न दुःख में दुखी , न शोक में डूबती है न शोक से उबरती है ,यह सब संज्ञान उसे नहीं सताते |

             ज्ञान और आध्यात्मिक सुख प्राप्ति में वैराग्य का होना अथवा आसक्ति का त्याग पहली शर्त है | इसी से
आत्म ज्ञान होता है और इसी से मुक्ति – यही जीव की सर्वोपरि स्थिति है परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है क्योंकि मनुष्य का अहंकार उसे इसकी प्राप्ति से विमुख करता है | यह अहंकार हमारी बुद्धि को सीमा बद्धकर देता है और स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की गति को शिथिल कर देता है | सूक्ष्म रूप में ब्रह्म की सत्ता अर्थात आत्मा , परमात्मा और आनंद इन्द्रिओंके विषय नहीं हैं अत : जो इन्द्रियाँ स्थूल सुख को पकड़ लेती हैं उनके हाथ से सूक्ष्म छूट जाता है सूक्ष्म को पकड़ने की विद्या ही दूसरी है यह ध्यान और समाधि की विद्या है जिसे हमारा शारीर नहीं वरन हमारी आत्मा ही ग्रहण कर पाती है , स्थूल शरीर हमारी सूक्ष्म आत्मा का केवल वाहन मात्र है |

             गीता में भी श्री कृष्ण का उपदेश समस्त प्राणियों को अंत में एक ही निर्देश देता है—' मामेकं शरणम् व्रज' यह इस बात की ओर संकेत करता है कि यदि संसार की त्रासदियों से मुक्ति चाहता है तो तू मेरी शरण में आ, तू मुझसे भिन्न कुछ नहीं है, जब तक मुझसे अलग है कष्टों का भोग कर रहा है, तुझे सुख प्राप्ति मुझमें लीन होकर ही मिलेगी |

             भारतीय दार्शनिक अध्यात्म ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छू आए हैं और वह शिखर है अद्वैतवाद का | अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्य सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर की कृति नहीं अभिव्यक्ति मानते हैं | सृष्टि में
ईश्वर नहीं बल्कि यह सम्पूर्ण सृष्टि ही ईश्वर है, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, प्रकृति–पुरुष, जड़–चेतन उसी एक ब्रह्म तत्व के विभिन्न रूप मात्र हैं | यही तत्व की बात है तभी – 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', 'अयमात्मा ब्रह्म', 'ईशावास्यमिदम् सर्वं' एवं विश्व बंधुत्व की उद्घोषणा हुई है | यह केवल मानव बुद्धि के द्वारा की गई परिकल्पना मात्र ही नहीं है इसमें सभी दार्शनिक तत्वों का निचोड़ है, यही परम सत्य है,ज्ञान की निष्पत्ति है और जहाँ सत्य विराजमान है वहाँ सुख है, शांति है, आनंद है |

             अष्टावक्र गीता में भी शांति और सुख का अधिकारी वही बताया गया है जिसने चित्त के चांचल्य पर अधिकार पा लिया है ,ऐसा शांत चित्त व्यक्ति ही ज्ञानवान है और इस संसार में जनक की तरह सांसारिक व्यवहारों को करते हुए शांत मन से स्थित जैसा कि अष्टावक्र गीता के आत्म ज्ञान शतक के पहले सूत्र में कहा गया है –

                                       यस्य बोधोदयो तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रम: |
                                       तस्मै सुखैकरूपाय नम: शान्ताय तेजसे ||

             अर्थात् जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है उस एक मात्र आनंदरूप ,शांत और तेजोमय को नमस्कार है | बोधोदय ही परम शांति का मार्ग है। 

सुखमास्ते सुखं शेते सुख्मायाती याति च |
सुखं वक्ति सुखं भुक्ते व्यवहारेSपि शान्तिधी: ||

             अर्थात् जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है उस एक मात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है अर्थात् शांत बुद्धिवाला ज्ञानी जिसने समस्त भोगों का त्याग कर दिया, व्यवहार में भी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक आता है, सुखपूर्वक जाता है, सुखपूर्वक बोलता है और सुखपूर्वक भोजन करता है | यहाँ भौतिकता को नकारा नहीं गया है वरन उसकी लिप्त अतिशयता पर विराम लगाया गया है |

             रस अर्थात परमानन्द को प्राप्त करने के लिए जीव को अज्ञान की सप्त भूमिकाओं को पार करते हुए ज्ञान की सप्त भूमिकाओं में से गुज़रना पड़ता है तब वह तुरीयावस्था को प्राप्त होता है | अज्ञान का पर्दा जब हटता है तो पहले उसमें वैराग्य , सत्संग ,सत्शास्त्र की सुभेच्छा जाग्रत होती है फिर विचारणा शक्ति का उदय होता है जहाँ वह सत्य और असत्य का विचार करता है,इसके पश्चात् तत्वज्ञान की स्थिति आती है जहाँ वह सत्य के दर्शन करता है और आत्मा में स्थित होता है | मनुष्य जब अपनी आत्मा में केन्द्रित हो जाता है तो असंसक्ति( non-attachment ) की स्थिति आती है और जीव जीवन मुक्त हो जाता है | जीवन मुक्त की अवस्था से तात्पर्य भौतिक देह का त्याग नहीं है वरन जहाँ पदार्थ, अभाविनी दृश्य का विस्मरण हो जाता है – आँखें देख रही हैं पर देख नहीं रहीं, कान सुन रहे हैं पर सुन नहीं रहे अर्थात दृश्य जगत के अस्तित्व ज्ञान से जीव शून्य हो जाता है केवल आत्म स्वरूप स्थिति में जीता है | यह आत्म स्वरूप उसको आत्माराम तुरीयावस्था में ले जाता है और जीव भेद–अभेद ज्ञान से परे हो जाता है | अंतिम स्थिति तुरीयातीत की है जहाँ उसका आत्म ब्रह्म में लीन हो जाता है | जीव का यही चरम सुख है | इसे ही हम सत् चित् आनंद या सच्चिदानन्द की स्थिति कह सकते हैं |

             चिंतन पद्धति चाहे भारतीय हो या अभारतीय चरम आनंद की स्थिति को ही सर्वत्र सुख शांति माना गया है | अकबर महान विचारक था इसीलिए उसने 'दीने-इलाही' चलाना चाहा था | पर वास्तव में यह कोई धर्म या संप्रदाय नहीं था यह आत्मा की वह स्थिति थी जो शांति (ब्रह्म) को प्राप्त करना चाहती थी जिसे भारतीय दर्शन में तुरीयावस्था कहा गया है | वर्तमान समय के ख्यातिप्राप्त इतिहास विशेषग्य प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने अकबर की विचारणा दीन –ए – इलाही की व्याख्या करते हुए कहा है कि अकबर 'दीन' अर्थात धर्म में नहीं 'इलाही' अर्थात ब्रह्म में विश्वास रखता था और इस इलाही की कोई अलग सत्ता नहीं थी | सूफियों के रहस्यवाद की विचारणा (अना) अर्थात ब्रह्म से मिलाप जिसे अंग्रेज़ी में (communion with God) कहेंगे और ‘वा हदत- अल –वजूद ‘ अर्थात अस्तित्व की एकता ( unity of existence ) भारतीय वेदांत दर्शन का ही दूसरा रूप है|

             अत:, संक्षेप में हम यही कहेंगे कि सुख – शांति न भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होती है और न ही उसका कोई स्थूलरूप है यह तो ब्रह्म स्वरूप है ,जीव उसमें लय होकर ही परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है |
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