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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

SHRIMATI INDIRA SHRIVASTAV

श्रद्धांजलि लेख:

मौन हो गयी बुन्देली कोकिला


जबलपुर, १३-२-२०१५। बसंत पंचमी माता सरस्वती के पूजन-उपासना का दिन है। एक सरस्वती पुत्री के लिये इहलोक को छोड़कर माँ सरस्वती के लोक में जाने का इससे उत्तम दिवस अन्य नहीं हो सकता। बुंदेली लोकगीतों को अपने स्वरमाधुर्य से अमर कर देनेवाली श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव नश्वर काया तजकर माँ सरस्वती के लोक को प्रस्थान कर गयीं। अब कलकल निनादिनी नर्मदा के लहरियों की तरह गुनगुना-गाकर आत्मानंद देने वाल वह स्वर साक्षात सुन पाना, वार्धक्य जर्जर कंपित करों से आशीषित हो पाना संभव न होगा।

श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव एक नाम मात्र नहीं है, जिन्होंने उन्हें सुना और देखा है उनके लिये यह नाम बुन्देली अंचल की समृद्ध और ममतामयी नारी का पर्याय है। छरहरी काया, गेहुँआ रंग, नाक में लौंग, माथे पर बड़ी सी बिंदी, माँग में चौड़ी सिंदूर रेखा, अधरों पर मोहक मुस्कान, वाणी में कायल की कूक सी मिठास, हमेशा रंगीन साड़ी या धोती में पान की पीक सज्जित अधरों से रसामृत वर्षण करती इंदिरा जी को देखकर हाथ अपने आप प्रणाम की मुद्रा में जुड़ जाते,सिर सम्मान में नत हो जाता। उपलब्धियों को सहजता से पचाने में उनका सानी नहीं था। १९७० से १९८५ तक के समय में आकाशवाणी के जबलपुर, सागर, छतरपुर, भोपाल केन्द्रों से उनके बुंदेली लोकगीत सर्वाधिक सुने - सराहे जाते रहे। उन्होंने सफलता पर किंचितमात्र भी घमंड नहीं किया। कला और विनम्रता उनके आभूषण थे।

१९३० के आसपास जबलपुर में उच्च शालेय शिक्षा के एकमात्र केंद्र हितकारिणी स्कूल में सर्वाधिक लोकप्रिय अध्यापक वर्मा जी की सबसे बड़ी संतान इंदिरा जी ने समर्पण और साधना के पथ पर कदम रखकर साधनों के अभाव में भी गायन कला को जिया। उनके जीवन साथी स्व. गोवर्धन लाल श्रीवास्तव का सहयोग उन्हें मिला। सदा जीवन उच्च विचार का धनी यह युगल प्रदर्शन और आडम्बर से सदा दूर ही रहा। जीवन में असंघर्ष और उतार-चढ़ाव इंदिरा जी की स्वर साधना को खंडित नहीं कर सके। बुजुर्गों, संतानों और सम्बन्धियों से परिपूर्ण परिवार में निश-दिन कोई न कोई बाधा उपस्थित होना स्वाभाविक है, किन्तु इंदिरा जी ने कुलवधु या गृह लक्ष्मी की तरह ही नहीं अन्नपूर्णा की तरह भी समस्त परिस्थितियों का सामना कर अपनी प्रतिभा को निखारा।

नर्मदा तट पर ग्वारीघाट (गौरीघाट) में इंदिरा जी की नश्वर काया की अंत्येष्टि शताधिक सम्बन्धियों और स्नेहियों की उपस्थिति में संपन्न हुई किन्तु आकाशवाणी, कायस्थ समाज, बुंदेली संस्थाओं और उनके करतल ध्वनिकर देर रात तक उनके मधुर स्वर में बुंदेली लोकगीत सुनते रहने वाले प्रशंसकों की अनुपस्थिति समय का फेर दर्शा रही थी जहाँ कला और कलाकार दोनों उपेक्षित हैं। प्रस्तुत है त्रैमासिकी चित्रशीष जुलाई-सितंबर १९८३ के अंक हेतु इंदिरा जी से लिया गया साक्षात्कार और उनकी अंतिम यात्रा के चित्र। उन्हें शत-शत नमन।

शुक्रवार, 15 मई 2009

कविता: मशीनी जीवन -अवनीश तिवारी

बैठते-उठते मशीनों के संग,

मशीन बन गया हूँ मैं,

नैतिक मूल्यों से दूर,

निर्जीव, सजीव रह गया हूँ मैं।

मस्तिष्क के पुर्जों का जंग,

विचारों को करता प्रभावहीन,

और अंगों में पड़ता जड़त्व,

स्फूर्ति को बनाता है।

दिनचर्या का हर काम,

बन चुका पर-संचालित,

और मेरे उद्योग का परिणाम,

लगता है पूर्व - नियोजित।

नूतनता का अभाव,

व्यक्तित्व को निष्क्रिय बनाए,

कार्य-प्रणाली के प्रदूषण,

जर्जरता को सक्रिय कर जाए।

जब स्पर्धा के पेंचों का कसाव,


स्वार्थी बना जाता है,

तब मैत्री के क्षणों का तेल,

द्वंद - घर्षण दूर भगाता है।

अन्य नए मशीनों में,

अनदेखा हो गया हूँ,

मशीन से बिगड़ अब,

कबाड़ हो रहा हूँ।

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