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बुधवार, 25 अगस्त 2021

लघु बाल एकांकी रक्षा बंधन

लघु बाल एकांकी 
रक्षाबंधन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नान्दी पाठ : जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला? हम सबने यह चित्रपटीय गीत तो सुना ही है। हम आज मिलते हैं दो ऐसे ही मनुष्यों से जिनके निश्छल स्नेह ने, मुँहबोले भाई-बहिन के संबंधों को ऐसी ऊँचाई दी, जिसका सानी मिलना कठिन है। आइए, हम भी मनाएँ रक्षाबंधन का त्यौहार इन दोनों के साथ।    
मंच सज्जा :
एक कमरा, दीवार के समीप एक तखत पर स्वच्छ सफेद चादर, तकिया बिछा है। दीवार पर सफ़ेद रंग से पुताई है। सिरहाने कृष्ण जी की सफ़ेद मूर्ति पर सफ़ेद पुष्प चढ़े हैं। एक गौरवर्णा प्रौढ़ महिला सफ़ेद रंग की साड़ी पहिने कुछ पढ़ रही है, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा है। 

बंद दरवाजे की कुण्डी खटकती है, महिला किताब रखते हुए आवाज लगाती है- कौन है? आती हैं। वह उठकर दरवाजा खोलती है। द्वार से एक ऊँचा-पूरा; हट्टा-कट्टा, साँवला अधेड़  व्यक्ति प्रवेश करता है जिसकी बाल और दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी  हुई है।  

महिला : भैया! आज सवेरे सवेरे, सब कुशल तो है? 
पुरुष : नींद खुलते ही नहाकर सीधा चला आ रहा हूँ। आज राखी है, तुम्हारा पहला भाई हूँ न, जल्दी से राखी बाँधो। 
महिला : बाँधती हूँ, ऐसी भी क्या जल्दी है? 
पुरुष : जल्दी तो है ही, वह दूसरा आकर, पहला होने और पहले राखी बँधवाने का दावा न कर सके। 
महिला : दूसरा कौन?
पुरुष : अरे, वही लड़कियों जैसे लंबे केशों को काली मिट्टी से धोनेवाला.... 
महिला : अच्छा, इलाचंद्र की बात कर रहे हो?
पुरुष : वही तो, अच्छा जल्दी से १२ रूपए दो। 
महिला : (विस्मय से) १२ रूपए, वह किसलिए?
पुरुष : पूछो मत, जल्दी से दे दो। 
महिला : ठीक है, देती हूँ, आकर बैठो तो। 
पुरुष : नहीं, बाहर रिक्शावाला खड़ा है। २ रूपए उसे देना है। 
महिला : अच्छा, और बाकी रुपए किसलिए ?"
पुरुष : राखी बँधवाऊँगा तो तुम्हें भी तो मिठाई और पैसे देना हैं। 
महिला : मुझे क्यों? मैं बिना पैसे लिए ही राखी बाँध दूँगी। 
पुरुष : नहीं, नहीं।  मैं बड़ा भाई हूँ, छोटी बहिन को कुछ दिए बिना राखी कैसे बँधवा सकता हूँ?
महिला हँसते हुए : तो मुझसे ही पैसे लेकर मुझे ही दोगे?
पुरुष : हाँ, तो क्या हुआ? तुम कौन परायी हो? मेरी बहिन ही तो हो। मेरे पास नहीं हैं तो तुमसे ले रहा हूँ। राखी बँधवा कर तुम्हें ही दे दूँगा।  
महिला : ठीक कह रहे हो भैया। अभी लाती हूँ। 
(भीतर के कमरे में जाती है।)
पर्दा गिरता है। 
*
उद्घोषक का प्रवेश : हमने अभी भाई-बहिन के निर्मल स्नेह की एक दुर्लभ झलक देखी। रिश्ते हों तो ऐसे जिनमें अपनेपन की मिठास हो, औपचारिकता या स्वार्थ बिलकुल न हो। स्नेहिल संबंधों को श्वास-श्वास में जीनेवाले इन मुँह बोले भाई-बहिन को आप बखूबी जानते हैं। क्या कहा? नहीं जानते? तो कोइ बात नहीं। मैं बता ही देता हूँ। इनके नाम हैं महाप्राण सूर्यकांत 'निराला' और महीयसी महादेवी वर्मा।
२५-८-२०२१ 
*** 
संपर्क :विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४  
  
      





गुरुवार, 3 जनवरी 2019

नाटिका राह

स्मरण महीयसी महादेवी जी: १ 
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  
​:

१. राह
*
एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।  
नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका 'विश्वास'। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अलप ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छिड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।    
युवक: 'चलो।'
युवती: "कहाँ।"
युवक: 'गृहस्थी बसाने।'
युवती: "गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?" 
युवक: 'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती: "यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
युवक: 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।' 

युवती: "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।"
युवक: 'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
युवती: "अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।"
युवक: 'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती: "इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
युवक: 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
युवती: "लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
युवक: 'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती: "ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
युवक: 'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती: "यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
युवक: 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती: "चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
युवक: 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती: "रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।"
युवक: 'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
युवती: "आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
युवक: 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती: "लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
युवक: 'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।' 
कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर। 
[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com