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शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

navgeet:

नवगीत:

अंध श्रद्धा शाप है

आदमी को देवता मत मानिये
आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप है

कौन गुरुघंटाल हो किसको पता?
बुद्धि को तजकर नहीं करिए खता
गुरु बनायें तो परखिए भी उसे
बता पाये गुरु नहीं तुझको धता
बुद्धि तजना पाप है 

नीति-मर्यादा सुपावन धर्म है  
आदमी का भाग्य लिखता कर्म है
शर्म आये कुछ न ऐसा कीजिए
जागरण ही ज़िंदगी का मर्म है
देव-प्रिय निष्पाप है

*** 

navgeet:

नवगीत:

वेश संत का
मन शैतान

छोड़ न पाये भोग-वासना
मोह रहे हैं काम-कामना
शांत नहीं है क्रोध-अग्नि भी
शेष अभी भी द्वेष-चाहना
खुद को बता
रहे भगवान

शेष न मन में रही विमलता
भूल चुके हैं नेह-तरलता
कर्मकांड ने भर दी जड़ता
बन बैठे हैं
ये हैवान

जोड़ रखी धन-संपद भारी
सीख-सिखाते हैं अय्यारी
बेचें भ्रम, क्रय करते निष्ठा
ईश्वर से करते गद्दारी
अनुयायी जो
है नादान

खुद को बतलाते अवतारी
मन भाती है दौलत-नारी
अनुशासन कानून न मानें 
कामचोर-वाग्मी हैं भारी
पोल खोल दो
मन में ठान

***