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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

samiksha

पुस्तक चर्चा:
"गाँव मेरा देश" संस्मरण अशेष 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*   
[कृति विवरण: गाँव मेरा देश, संस्मरणात्मक निबंध, श्री भगवान सिंह, आई एस बीे एन ९७८८१७१३८३९५५, प्रथम संस्करण, २०१८, आवरण सजिल्द, सजाइकेट बहुरंगी, २५५/-, मूल्य -५००/, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, samyikprakashan@gmail.com,  लेखक संपर्क: १०२ अम्बुज अपार्टमेंट, हनुमान पथ, तिलकामांझी, भागलपुर ८१२००१, ईमेल: sribhagwantmbu@gmailcom]
विश्ववाणी हिंदी के साहित्य भण्डार की श्री वृद्धि करनेवाली विधाओं में आत्मकथात्मक संस्मरण का स्थान अन्यतम है। हिंदी गद्य में गल्प साहित्य के अंतर्गत कहानी, उपन्यास, लघुकथा की त्रिवेणी जलप्लावित बरसाती सलिला की तरह सतत प्रवाहित होती रहती है जबकि निबंध, संस्मरण, आत्मकथा की त्रिधारा अपेक्षाकृत कम वेगमयी दिखाई देती है। हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा में ऐसा होना स्वाभाविक है। कथा साहित्य कल्पना के विहग को उड़ने के लिए अनंत नीलाकाश उपलब्ध कराता है किन्तु संस्मरणात्मक गद्य-लेखन में गतागत के मध्य सेतु स्थापित करते हुए, हुआ और  होना चाहिए के मध्य संतुलन बनाते हुए कथ्य के प्रभाव  अधिक संवेदनशील व् उत्तरदाई होना होता है। प्रामाणिकता, प्रासंगिकता और प्रभाव के त्रि आयामों में  उपादेयता सिद्ध करने के साथ-साथ संदर्भित-संबंधित जनों के अप्रिय प्रक्रिया का खतरा लेना ही होता है।  पद्य तथा कहानी-उपन्यास की  लिखे-पढ़े जाने पर भी इन विधाओं का लेखन अधिक स्थाई तथा प्रभावी होता है। इस तरह के लेखन में अंशत: सम सामयिक इतिहास तथा निबंध भी सम्मिलित हो जाते हैं। संस्मरण लेखन के व्यक्तित्व-कृतित्व तथा विचारधारा के अनुसार इस विधा में इंद्रधनुषी रंग बिखरते-निखरते हैं। विवेच्य कृति के लेखक श्री भगवान सिंह वरिष्ठ पत्रकार, गाँधीवादी विचारक तथा समाज सुधारक भी हैं। इसलिए स्वाभाविक है की उनके संस्मरण में 'व्यक्ति के 'साथ समष्ति                                                               संस्मरण स्मृति के आधार पर किसी व्यक्ति, घटना, यात्रा या विषय पर लिखित आलेख है। यात्रा साहित्य भी इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण लेखक जो कुछ स्वयं देखता या अनुभव करता है वह नहीं उससे जुड़ी अपनी अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण व्यक्त करता है, इतिहासकार के समान केवल यथातथ्य विवरण नहीं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। हिन्दी के संस्मरण लेखकों में बनारसीदास चतुर्वेदी (संस्मरण, हमारे अपराध), महादेवी वर्मा (स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र) तथा रामवृक्ष बेनीपुरी (माटी की मूरतें), कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (भूले हुए चेहरे, दीपजले शंख बजे), भदन्त-आनन्द कोसल्यायन (जो न भूल सका, जो लिखना पड़ा), राजा राधिकारमण वर्मा (सावनी समां, सूरदास), रामधारी सिंह 'दिनकर' (लोकदेव नेहरु, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ), डॉ. रामकुमार वर्मा (संस्मरणों के सुमन) आदि उल्लेखनीय हैं। देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीत संग्रह करने हेतु देश के विभिन्न क्षेत्रें की यात्राएँ कर इन स्थानों के संस्मरण भावात्मक शैली में क्या गोरी क्या साँवली तथा रेखाएँ बोल उठीं सत्यार्थी के संस्मरणों के अपने ढंग के संग्रह हैं।  गुलाबराय की कृति "मेरी असफलताएँ" में संस्मरणात्मक निबन्ध हैं। 

इस पृष्ठ भूमि में श्री भगवान सिंह की  विवेच्य कृति व्यक्तिगत स्मृति आख्यान न होकर भारत के सतत परिवर्तित होते ग्राम्यांचल का पूर्वाग्रह मुक्त और प्रामाणिक आकलन की तरह है। अपने ग्राम निखतीकलां जिला सिवान (बिहार) को  रखकर लिखे संस्मरण प्रकारांतर से अन्य ग्रामों से अपने आप जुड़ जाते हैं क्योंकि सामाजिक मूल्यों, प्रतिक्रियाओं, संघर्षों, पर्वों- त्योहारों, आर्थिक दुष्चक्रों, अवसरों के अभावों और उनसे जूझकर आगे बढ़ते कर्मवीरों की कीर्ति-कथाओं में सर्वत्र साम्य है। मूलत: गाँधीवादी आलोचक रहे भगवान सिंह का ग्राम्यांचलों में पैर पसारने के लिए हमेशा उद्यत रहनेवाली साम्यवादी विचारधारा से संघर्ष होना स्वाभाविक है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट, पारस्परिक संबंधों में विश्वास की कमी, राजनीति  का सामाजिक जीवन में अयाचित और बलात हस्तक्षेप, नगरीकरण के दुष्प्रभाव के कारण ग्रामीण कुटीर उद्योंगों के लिए अवसरों का भाव आदि से किसी आम नागरिक की  तरह लेखक का चिंतित होना सहज स्वाभाविक है।

लेखन की पत्रकारिता उसे किस्सागो नहीं बनने देती। वह कल्पना कुञ्ज में विहार नहीं कर पाता, न मिथ्या रोचक चुटकुलेनुमा कहानियों से पाठक को भ्रमित करता है। खुद को केंद्र में रखते हुए भी लेखक अतिरेकी आत्मप्रशंसा के मोह से मुक्त रह सका है। अपने घर, परिवार, सेज संबंधियों, इष्ट-मित्रों आदि की चर्चा करते समय भी निस्संग रह पाना तलवार की धार की तरह कठिन होता है किन्तु लेखन नट-संतुलन साध सका है। भगवान् सिंह के लिए संस्मरणों से जुड़े चरित्र, चित्रण  नहीं  सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। वे व्यक्तियों के बहाने समष्टि से जुड़े बिंदुओं को विचारार्थ सामने लाते हैं और बात स्पष्ट होते ही चरित्र को जहाँ का तहाँ छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह (पृष्ठ ५९) इसी तरह का चरित्र हैं जो विद्यालय भवन में जमींदार परिवार की बारात ठहरने के विरोध करते हैं कि यह सुविधा सब को मिले या किसी को नहीं। फलत:, विशेषधिकार चाहनेवालों को झुकना पड़ा, वह भी गाँधीवादी प्रतिरोध के सामने।

'कम पढ़ा ज्यादा गुना' की विरासत को सम्हालते ग्रामीण बुजुर्गों की समझदारी की बानगी ताऊ जी (पृष्ठ ६३) के चरित्र में हैं जो अपने हलवाहे के परामर्श स्वीकार करने में पल की भी देर नहीं करते। केवल हस्ताक्षर करनेवाले ताऊ जी खेती-किसानी के सम्बन्ध में श्रुति-स्मृति परंपरा के वाहक थे। उनके सम्बन्ध में वर्णित बातों से घाघ-भड्डरी, जैसी प्रतिभा होने का अनुमान होता है। गाँवों में छुआछूत की व्याप्ति के अतिरेकी वर्णन कर सामाजिक संघर्ष की आग जलानेवाले तथाकथित समाज सुधारकों (ज्योतिबा फुले) के संदर्भ में सीधी मुठभेड़ टालते हुए लेखन नम्रता पूर्वक अपने गाँव में वह स्थिति न होने की बार पूरी विनम्रता किन्तु दृढ़ता से कहता है। भारत सवर्ण-अवर्ण के भेदभाव को अमरीकी नस्लवादी भेदभाव की तरह बतानेवालों को लेखक दर्पण दिखाने में नहीं चूकता। सती प्रथा के संदर्भ में लेखक कुछ जातियों में विधवा विवाह के चलन का उदाहरण देता है। (पृष्ठ ८५) तथाकथित प्रगति के मानकों से सहमत न होते हुए लेखक साफ़-साफ़ कहता है "समझ में नहीं आता कि हम तब पिछड़े हुए थे या अब प्राकृतिक दृष्टि से पिछड़े होते जा रहे हैं? (पृष्ठ ९२)

"गाँव प्रबंधन" शीर्षक अध्याय भगवान सिंह की सजग-सतर्क पर्यवेक्षकीय दृष्टि, मौलिक सोच और विश्लेषण सामर्थ्य की बानगी है। यहाँ उनका आकलन चौंकाता है कि हमारे देश-समाज में जिस बदनाम पर्दा-प्रथा की चर्चा होती रही है, वह इन्हीं अगड़ी जातियों की औरतों के गले का फंदा थी"...... वस्तुत: सारा प्रबंधन तो स्त्रियों के हाथों में ही होता था।" (पृष्ठ ९३)। तथाकथित स्त्रीविमर्श वादियों को भगवान् सिंह का तथ्याधारित यह निष्कर्ष शीर्षासन करने पर भी नहीं नहीं पचेगा कि "औरतों के लिए कभी किसी मर्द ने 'अनुत्पादक श्रम'  या 'फालतू काम' जैसे अवमानना सूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उलटे पुरुष-समाज द्वारा यह सुनने को मिलता है कि 'बिन घरनी भर भूत का डेरा"। (पृष्ठ ९५)

'मनोविनोद के अवसर' शीर्षक अध्याय भारत के ग्रामीण सांस्कृतिक वैभव से परिचित कराता है। चैती तथा बटोही गीत इस अध्याय की जान हैं। इसके साथ 'पर्व-त्यौहार' शीर्षक अध्याय बच्चों के पाठ्क्रम में जोड़ा जा सके तो नई पीढ़ी को सांस्कृतिक वैभव की महत्ता ही नहीं उपादेयता से भी परिचित होने का अवसर मिलेगा। 'जिनकी यादें हैं शेष' शीर्षक अध्याय उन आम लोगों की स्मृतियों से जुड़ा है जो अपने आप में ख़ास रहे हैं। धनेश्वर बाबू जैसे सुलझे हुए बुजुर्ग, हिंदी काव्य की वाचिक परंपरा को जीते सहदेव चौबे, चिरकुंवारे परमार्थी रामजनम, विनोदी पति काका, गप्पी सुदामा भाई, आदि चरित्र कृति की रोचकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भगवान् सिंह की गुणान्वेषी दृष्टि का परिचय भी देतीं हैं। 'स्मृति में संयुक्त परिवार' शीर्षक अध्याय आधुनिक पीढ़ी के लिए पठनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। संयुक्त परिवार की मिठास-खटास से जीवन कितना मधुर हो जाता है, इसका अनुमान इसे पढ़कर हो सकता है। 'वर्तमान: दशा और दिशाएँ' अध्याय में अमावसी तिमिर को चीरती प्रकाश किरणों की झलकियाँ आश्वस्त करती हैं की कल आज से बेहतर होगा।

'गाँव मेरा देश' में 'गाँव: मेरा देश' और 'गाँव मेरा: देश' के श्लेष के दो अर्थों का आनंद लिया सकता है। कृति का कथ्य दोनों के साथ न्याय करता है। भूमिका में सूर्यनाथ सिंह के आकलन "यह किताब रोजी-रोटी और जीवन की बेहतरी के सपने लिए पढ़-लिखकर गाँवों से शहरों में आ बेस उन तमाम लोगों को विगत की स्मृतियों में ले जाएगी। उन्हें झकझोर कर पूछेगी कि जो गाँव तुम छोड़ आये थे, क्या उसके इस तरह विनष्ट होते जाने को रोकने के लिए तुमने कोई रास्ता सोचा है?" के सन्दर्भ में यह कहना है कि कटी हुई पतंगों की ऊँचाई भले ही अधिक हो किन्तु उनकी जड़ें नहीं होती। गाँव के भले का रास्ता उन्हें छोड़कर जानेवाले नहीं उनसे जुड़े रहकर विसंगतियों से लड़नेवाले दूर करेंगे। भगवान् सिंह इसी तरह के व्यक्ति हैं और उनकी यह किताब गाँव की बेहतरी के लिए उनके संघर्ष का हिस्सा है। 
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