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मंगलवार, 23 अगस्त 2016

samiksha



पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
* [पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*

गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया
कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
*
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।
कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।

नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।
'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

shodhlekh - kalpana ramani

नवगीत परिसंवाद-२०१५ में पढ़ा गया शोध-पत्र
कुमार रवीन्द्र के नवगीत संग्रह 'पंख बिखरे रेत परमें 

धूप की विभिन्न छवियाँ
- कल्पना रामानी


यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति साहित्य के हर काल और हर वाद में हर विधा की कविताओं का विशेष अंग रही है, इसे नवगीत में भी देखा और महसूस किया जा सकता है। आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी के नवगीत-संग्रह 'पंख बिखरे रेत पर' में इस तथ्य को पर्याप्त विस्तार मिला है।

उन्होंने अपने नवगीतों में धूप की विभिन्न छवियों को व्यापक अर्थों में विस्तार से व्यक्त किया है। कहीं धूप उत्साह है, कहीं गति तो कहीं आशा। कहीं वह उजाला है, कहीं प्राण तो कहीं नवता। धूप केवल धूप नहीं, सम्पूर्ण जीवन दर्शन है। अनेकानेक बिम्बों और उपमाओं द्वारा इसे जीवन की अनेक गतिविधियों में पिरोया गया है।

संग्रह के पन्ने खुलते ही हमारे सामने हर पृष्ठ के साथ धूप की विभिन्न छबियों के चित्र खुलते चले जाते हैं।


'धूप की हथेली पर मेहंदी रेखाएँ!
आओ इन्हें सीपी के जल से नहलाएँ' (पृष्ठ १३)

ये पंक्तियाँ अपने बिंब के कारण आकर्षित करती हैं जिनमें धूप का मानवीयकरण हुआ है। लहरों वाली किसी जलराशि के किनारे बैठे हुए धूप के किसी टुकड़े पर, जिस पर वृक्ष आदि की गहरी छाया हो जो मेंहदी की तरह सुंदर दिखाई देती हो... जहाँ सीपियाँ हों और जहाँ सूर्य जल में प्रतिबिंबित हो रहा हो- ऐसे दृश्य की कल्पना सहज ही मन में हो जाती है। लेकिन इसमें एक निहितार्थ भी है। युवावस्था में जब जीवन के रंगमंच का पर्दा धीरे धीरे खुल रहा होता है, जब तेजी से आगे बढ़ने के दिन होते हैं, जब सफलता की ओर कदम रखने का भरपूर समय साहस और उत्साह होता है तब धूप जैसे उजले खुशनुमा सफर में कभी कभी अँधेरे और निराशा के दर्शन भी हो जाते हैं लेकिन हम सहज ही उन कठिनाइयों को सुलझाते हैं जैसे सीप के जल से मेंहदी को नहला रहे हों।
-दिन ‘सोनल हंस की उड़ान’ शीर्षक गीत में दिन सोनल हंस की उड़ान हैं, कहकर वे धूप के सुनहरे रंग की सुंदरता से दिन को भरते हुए कहते हैं-

“दोपहरी अमराई में लेटी हुई छाँव है
भुने हुए होलों की खुशबू के ठाँव हैं” (पृष्ठ १४, १५)

-एक अन्य गीत ‘खूब हँसती हैं शिलाएँ’ में हंस जोड़ों को धूप लेकर अमराइयों में उड़ने की बात कही गई है। इंसान के सुख के दिन इतनी तेज़ी से गुज़र जाते हैं जैसे कोई सोनल-हंस बिना थके उड़ता चला जा रहा हो। उमंगें इतनी होती हैं कि थकान का पता ही नहीं चलता और जब दोपहर भी किसी अमराई की छाँव में भुने हुए होलों की खुशबू के साथ व्यतीत हो तो सुख कई गुना बढ़ जाता है। राह में बहती हुईं बिल्लौरी हवाएँ, खुशबुएँ, साथ चलती नदी, नदी के जल में सूरज और धूप, किरणों की शरारत, गुज़रते हुए हंस जोड़े मिलकर एक उत्सव का वातावरण निर्मित कर देते हैं।

-संग्रह के अगले ही गीत में धूप-नदियों की बात की गई है।

“आँच दिन की बड़ी नाज़ुक
सह रही हैं धूप नदियाँ” (पृष्ठ १६)


यह एक उत्सवी गीत है जिसमें सुबह की अंतर्कथाएँ, नाचती हुईं सोन-परियाँ, मछलियों के जलसे, रोशनी की शरारत और मोती जड़ी घटा के सुंदर बिंब हैं।


-अगले ही गीत -'धूप एक लड़की है' में (पृष्ठ १७)

धूप, पार-जंगल के राजा की लड़की है। एक ऐसी राजकुमारी, जो अपनी इच्छा से दिन भर कहीं भी आ-जा सकती है, उसे अपने राज्य में सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं। भोर में परियों के समान सुगन्धित हवाओं के साथ आकर झील के पानी से खेलती है और नदी तट पर नहाती है खुलकर हँसती है, उसके मन में कोई डर नहीं होता लेकिन रात होते ही अँधेरे से डर कर दुबक जाती है।

-‘खुशबू है जी भर’ शीर्षक गीत में कुमार रवीन्द्र जी कहते हैं-
'नन्हीं सी धूप घुसी चुपके’  (पृष्ठ १८)

गीत की इन पंक्तियों में गौरैया के माध्यम से नए साल के आगमन का सुन्दर बिम्ब दृश्यमान हुआ है। कमरे की खिड़की खुलते ही गौरैया का नज़र आना, नन्हीं यानी प्रातः कालीन शीतल धूप का चुपके से अन्दर प्रवेश करना, कुर्सी पर बैठना, दर्पण को छेड़ना और छाँव का मेज के पीछे छिप जाना, सूरज की छुवन से नए कैलेण्डर का सिहरना, बाहर उजालों की चुप्पी यानी सन्नाटा और आँगन में बेला का खिलना और बच्चों के खेलने की आहट, चौखट पर लिखे हुए सन्देश आदि बिम्ब सर्दी का मौसम शुरू होने का संकेत दे रहे हैं।

इस संग्रह की लगभग हर रचना में धूप की बात है।

-अगली रचना पन्ने पुरानी डायरी के में वे कहते हैं-
“छतों से ऊपर उड़ीं नीली पतंगें
धूप की या खुशबुओं की हैं उमंगें” (पृष्ठ १९)

इस नवगीत में ‘पुरानी डायरी के पन्ने’ खुलना और नेह के रिश्तों का याद आना धूप और उसकी खुशबू के साथ जुड़ा हुआ है। कच्ची गरी का मौसम, छतों से उड़ती हुई पतंगें देखकर मन भूली बिसरी स्मृतियों में डोलने लगता है। यह धूप ही तो जन-मन की आस है, जिसकी कामना में कवि ने पूरी गीतावली रच दी है।

-अगले नवगीत ‘साथ हैं फिर’ में एक पंक्ति है-

“धूप की पग-डंडियाँ
नीलाभ सपनों की ऋचाएँ
साथ हैं फिर” (पृष्ठ २०)

गीत का भाव यही है कि अगर इंसान के साथ असीम पुलक से भरे पल बाँटते हुए सपने साथ हैं तो लक्ष्य प्राप्ति में बाधा क्योंकर आएगी। उजालों से भरपूर पहाड़, जंगल की हवाएँ, जीवन पथ पर नदी, झरने, चट्टानें, ऋषि-तपोवन, अप्सराएँ आदि बिम्ब इसी बात का संकेत कर रहे हैं


-अगली रचना ‘सुनहरा चाँद पिघला’ में दो पंक्तियाँ हैं...
“धूप लौटी देखकर खुश हो रहे जल
पास बैठी हँस रही चट्टान निश्छल” (पृष्ठ २१)

सुबह की आस में नदी, उसके घाट, नावें रात भर जागे हैं और जैसे ही भोर की धूप नई उम्मीद के साथ लौटती है, लगता है जैसे सुनहरा चाँद पिघल रहा है।
गीत में प्रयुक्त दिन को छूने और अँधेरे को उजाले में बदलने का आह्वान करते हुए शब्द, रेत पर पड़ी शंखी, जल पाखियों के नए जोड़े आदि मन में स्फूर्ति भर देते हैं। उजाले देखकर चट्टान जैसे मजबूत चेहरों पर भी मासूम हास्य प्रस्फुटित होने लगता है।


-अगली रचना ‘दिन नदी गीत फिर’ में कवि कहते हैं-
‘आओ धूप नदी में तैरें’।  (पृष्ठ २२-२३)

यह धूप की नदी उमंगों का पर्याय है, उस पार से दिन बुला रहे हैं तो उनके साथ ही नीली हवा भी धूप के सुर में खुशबुएँ यानी उमंगें बाँट रही है, आम और चीड़ के पेड़ों से बाँसुरी की धुन मन मोह रही है। कवि जन-मन को संबोधित करते हुए कहते हैं, टापू तक सूरज की छाँव, चन्दन की घाटी, नीले जलहंस, रूप की कथाएँ सुनाती हुई किरणें, इन सबके रूप में कितना सुख बिखरा हुआ है, फिर क्यों न इन सबका जी भर आनंद उठाएँ।

-‘नदी के जल में उतर कर’ शीर्षक रचना में धूप नदी के जल में उतर कर साँझ से बात करती है तो ‘गर्म आहट खुशबुओं की’ में वह दबे पाँव कमरे में घुसती है। ‘छाँव के सिलसिले हों’ में कवि खुशबुओं के शहर से गुज़रते हुए धूप की घाटियों में उतरते हैं  (पृष्ठ २७

कुल मिलाकर सार यह कि जीवन में अगर सफलता प्राप्त करनी हो तो साधन होते हुए भी पूरे सब्र और लगन के साथ कर्म-पथ पर चलना होगा साथ ही दिनचर्या में मधुरता और मन के विचारों को हरा-भरा यानी परिष्कृत रखना भी आवश्यक है तभी आसानी से जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

धूप के विभिन चित्रों में कहीं धूप की यादें हैं कहीं सूरज के घर हैं और कहीं गीली हवाओं वाली धूप है। कभी रचनाकार सूरज के पंख हिलते हुए देखता है तो कभी स्वयं को हवा के द्वीप पर बैठा हुआ सूरज अनुभव करता है।
     

“मैं हवा के द्वीप पर बैठा हुआ हूँ
कभी सूरज हूँ, कभी कड़वा धुआँ हूँ” (पृष्ठ ३०)

एक और बिंब देखें-

“कमरे में दिन है, धूप है, भोला टापू है
जिस पर हैं यादें और सूरज के घर”  (पृष्ठ ३१)

एक उदासी वाले गीत में वे कहते हैं-
“सिर्फ आधी मोमबत्ती और धूप की यादें!
पंख टूटे सोचते हैं किस जगह सूरज उतारें” (पृष्ठ ३२-३३)

ये पंक्तियाँ आधा जीवन गुज़र जाने का संकेत देती प्रतीत होती हैं, जब थकान भरे क्षणों में उमंगें दम तोड़ने लगती हैं सिर्फ पुरानी यादें ही उजालों के रूप में विद्यमान होती हैं। तब मन सोचता है काश! वे दिन फिर से लौट आएँ लेकिन जीवन रूपी धूप को विदा होना ही है तो इसी क्षीण होते उजाले में ही यादों रूपी ख़त बाँचते हुए दिन गुज़ारने पड़ते हैं।

अम्मा के व्रत उपवास शीर्षक रचना में धूप का एक नया रूपक सामने आता है-
“पीपल के आसपास, धूप की कनातें
पता नहीं कब की हैं बातें” (पृष्ठ-४०)

शहरों की भीड़ में इंसान जब बहुत कुछ खो चुकता है तो उसके मन को गाँव के पुराने दिनों की यादें अक्सर पीड़ा पहुँचाती रहती हैं। त्यौहारों पर पीपल की परिक्रमा करती हुईं महिलाएँ, माँ के व्रत-उपवास, त्यौहारों की सौगातें, तुलसी की दिया-बाती, नेह की मिठास से भरा भोजन आदि यादें एक चलचित्र के समान गुज़रती हैं।

“तचे तट पर धूप नंगे पाँव लौटी
परी घर में प्रेतवन की छाँव लौटी (पृष्ठ ४४)

निराशा को प्रतिबिंबित करती ये पंक्तियाँ गीत को नया अर्थ दे रही हैं। जब सपनों की नदी सूख जाती है, तो मन उदासी की गर्त में उतरता चला जाता है। ज्यों सूखी रेत पर बिखरे हुए शंख-सीपियाँ व्यथा कथा कह रहे हों और उनकी सुनने वाला कोई नहीं।

‘धूप नंगे पाँव लौटी’ में आखिरी धूप का क्षण आशा की अंतिम किरण के रूप में वर्णित हुआ है।
“खुशबुओं का महल काँप कर रह गया
आखिरी धूप क्षण झील में बह गया” (पृष्ठ ४६)

जिस तरह व्यापार के लिए मोतियों की तलाश में निकले हुए सिंदबाद की नावें किनारों से टकरा-टकरा कर खो जाती हैं, उसी तरह इंसान जब उल्लास रूपी धूप के साथ कुछ पाने की चाह में घर से निकलता है और उसे राह में आँख होते हुए अंधे और संकुचित विचारों वाले लोग मिलते हैं और वांछित फल न मिलने की स्थिति में आशाएँ धूमिल हो जाती हैं, तो वह यहाँ वहाँ भटकता हुआ निराश लौट आता है
आगे-
“फूल भोले क्या करें अंधे शहर में
एक काली झील में डूबे रहे दिन
खुशबुओं की बात से ऊबे रहे दिन
आँख मूँदे धूप लौटी दोपहर में”  (पृष्ठ ४९)

जहाँ शासक ही अंधे, यानी जनता पर होने वाले अत्याचार से बेखबर हों वहाँ फूलों जैसे भोले-भाले मन के लोग क्या कर सकते हैं? अच्छे दिनों की सिर्फ बातें सुनकर वे ऊबने लगते हैं और आशा रूपी उजाले, सीढ़ियों की धूप जैसे ठोकर खाए हुए और टूटे हुए चौखट की तरह खंडहर में बदलते नज़र आते हैं ऐसे में निराश मन गीत कैसे गुनगुना सकता है।

“धूप के पुतले, खड़े हैं छाँव ओढ़े
दिन हठीले, अक्स धुँधले, हुए पोढ़े
शहर गूँजों का यहाँ चुपचाप रहिये
इन्हें सहिये”  (पृष्ठ ५१)

यहाँ धूप के पुतले ऐसे शासकों या सरकारों के प्रतीक हैं जो कपड़े तो उजले पहने हैं लेकिन कर कुछ नहीं सकते। इसलिये चुपचाप अंधेर सहन करना ही जनता की नियति है।

“क्या गज़ब है, छाँव ओढ़े
सो रहे हैं घर
धूप सिर पर चढ़ी
बस्तियों में आग के जलसे हुए हैं
नए सूरज पर चढ़े गहरे धुएँ हैं” (पृष्ठ ५२)

जहाँ धूप के सिर पर चढ़ जाने तक जनता छाँव ओढ़कर सो रही हो वहाँ बेहतर भविष्य की कल्पना करना संभव ही नहीं है। बस्तियों में तबाही मची हुई है और नए सूरज रूपी शासक की आँखों पर धुआँ छाया हुआ है। यहाँ धूप सिर पर चढ़ना मुहावरे का प्रयोग किया गया है।

-“मुँह छिपाए धूप लौटी काँच की बारादरी से
हाल सड़कें पूछती हैं भोर की घायल परी से” (पृष्ठ ५८)

धूप का काँच की बारादरी से लौटना एक रोचक प्रयोग है। जनता न्याय की आस में समर्थों के द्वार पर लगातार गुहार लगाती तो है लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती, उनकी आवाजें दीवारों से सिर फोड़कर इस तरह लौट आती हैं जैसे सुबह की सुखद धूप काँच की बारादरी से टकराकर अन्दर जाने का रास्ता न पाकर वापस चली जाती है।

कुछ नवगीतों में धूप परी है, राजकुमारी है, सोने के महल वाली है, कहीं वह लोगों की मुट्ठी में बंद है, कहीं वह हाँफ रही है और कहीं चतुर बाजीगर धूप के सपने बेच रहे हैं।

-“बाहर से चुस्त चतुर बाजीगर आए हैं
धूप के सपने वे लाए हैं
रेती पर नाव के चलाने का खेल है
बड़ा गज़ब सूरज का सपनों से मेल है”(पृष्ठ ६९)

बाहर से आए चतुर बाजीगर धूप से चमकीले उत्पाद विदेशी कंपनियों के वे आकर्षण हैं जिसमें हम सब फंसते जा रहे हैं।
-“ज़हर पिए दिन लेकर लौटे
जादुई सँपेरे हैं
धूप में अँधेरे हैं”

ये पंक्तियाँ एक ऐसे राज्य का हाल बयाँ कर रही हैं जहाँ नाम को तो मीनारें, गुम्बज आदि रूपी सुख सुविधाएँ मौजूद हैं लेकिन शासक स्वयं इनको निगलकर इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी सँपेरे ने उजले दिनों को विष पिलाकर अँधेरे में बदल दिया हो।

-“धूप ऊपर और नीचे छाँव’  (पृष्ठ ७२)
ये पंक्तियाँ सुविधा संपन्न शासकों और असुविधाजनक जीवन जीते जन साधारण की ओर इशारा करती हैं। एक स्थान पर वे पदच्युत राजनयिक के बारे में बात करते हुए कहते हैं –

-“काँच घरों की चौहद्दी में, कैद हुए सूरज
जश्न धूप के ज़िन्दा कैसे, यही बड़ा अचरज” (पृष्ठ ७५)

यहाँ यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि पद पर रहते समय ही कुछ लोग इतना संग्रह कर लेते हैं कि पद छिन जाने के बाद भी उनके ऐशो आराम में कोई कमी नहीं आती।

अगली रचना में धूप एक बच्चा है जो दिन के मसौदे अपने हाथ में पकड़े हुए है। एक नवगीत में धूपघर की छावनी है लेकिन फिर भी गहरा अँधेरा हर ओर बिखरा है। कहीं रचनाकार धूप लेकर ऐसे शहर में आने की बात करता है’ जहां सूरज मुँह ढँक कर सोए हुए हैं, तो कहीं लोग घने सायों से घिरे धूप से ऊबे हुए हैं। एक गीत में धूप एक बूढ़ी किताब है और एक अन्य गीत में धूप की हथेली पर राख के दिठौने लगे हैं।

-“धूप में छाँव में
जल रहीं पत्तियाँ
हर गली-गाँव में”  (पृष्ठ ८७)

जैसे पतझर में पेड़-पौधों की पत्तियों पर धूप या छाँव का कोई असर नहीं होता और वे सूखकर या जलकर गिर जाती हैं, इसी तरह अब लोगों पर अच्छी या बुरी किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।

कुमार रवीन्द्र जी के इस संग्रह में ७५ गीत संकलित हैं। सुगठित शिल्प, सटीक बिम्ब, सुन्दर उपमाओं और सार्थक भावों के साथ धूप की विभिन्न छबियाँ प्रतिबिंबित करते हुए ये गीत-पंख किसी मनोरंजक उपन्यास के अनेक पात्रों की तरह पाठक के मन के साथ चलते हुए जीवन जीने के नए रास्ते तलाश करने की जिज्ञासा पैदा कर, पाठक को जीवन का सार सौंपकर विदा लेते हैं।

ये न केवल कल्पना की आकर्षक छवियाँ बुनते हैं बल्कि समकालीन शासक वर्ग, समाज, संस्कृति, निराशा, उदासी और उत्साह की विभिन्न समस्याओं को भी ईमानदारी से अपने शब्द देते हैं।

यह जीवन प्रकृति का एक अनमोल उपहार है, उजाले हमें विरासत में मिले हैं। इनसे ही जीवन में उर्जा है, संगीत है, पर्व हैं, ओज है, मौज है, जहाँ उजालों की रवानी होगी वहीं ज़िन्दगी में जवानी भी होगी। कुल मिलाकर यह कि इस संग्रह में नवगीतकार कुमार रवीन्द्र द्वारा रचित धूप की अनंत छवियाँ हमें प्रेरित करती है, सचेत करती हैं और आशान्वित भी करती है। हम सब इस उजली धूप के गुणों को, उसकी खुश्बू को पहचानें, अपने जीवन में उतारें और उम्मीदों के नए पंख पहनकर संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ान भरें, इन पंखों को टूटने या बिखरने न दें।


१५ दिसंबर २०१५

बुधवार, 14 जनवरी 2015

kruti charcha: hausalon ki udaan kalpana ramani -sanjiv

कृति चर्चा: 
हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान 
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रहकल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद] 
ओम निश्चल: 'गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं... एक वक्‍त उनके गीत... एक नया रोमानी उन्‍माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्‍य विधाओं में चले गए .... नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?'  

'गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।'   

उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है 

कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है  जहाँ तक  ओम जी का प्रश्न है वे जिस 'रोमानी उन्मादका उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता। 

कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं। 

प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।

डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं। 

इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है।  इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि। 

कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं  

कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की  नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्मसूर्य, शरद पूर्णिमासंक्रांतिवसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं। 

पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता,  विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।  

सारतः विवेच्य कृति  का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित  अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन। 

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