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रविवार, 30 जुलाई 2017

muktika

मुक्तिका:
संजीव
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
खुद को कहता रहा मसीहा जो
इसका इंसान होना मुश्किल है
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***

रविवार, 5 सितंबर 2010

मुक्तिका: चुप रहो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

चुप रहो...

संजीव 'सलिल'
*

महानगरों में हुआ नीलाम होरी चुप रहो.
गुम हुई कल रात थाने गयी छोरी चुप रहो..

टंग गया सूली पे ईमां मौन है इंसान हर.
बेईमानी ने अकड़ मूंछें मरोड़ी चुप रहो..

टोफियों की चाह में है बाँवरी चौपाल अब.
सिसकती कदमों तले अमिया-निम्बोरी चुप रहो..

सियासत की सड़क काली हो रही मजबूत है.
उखड़ती है डगर सेवा की निगोड़ी चुप रहो..

बचा रखना है अगर किस्सा-ए-बाबा भारती.
खड़कसिंह ले जाये चोरी अगर घोड़ी चुप रहो..

याद बचपन की मुक़द्दस पाल लहनासिंह बनो.
हो न मैली साफ़ चादर 'सलिल' रहे कोरी चुप रहो..

चुन रही सरकार जो सेवक है जिसका तंत्र सब.
'सलिल' जनता का न कोई धनी-धोरी चुप रहो..

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-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम