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रविवार, 11 मई 2025

मई ११, बाल गीत, लँगड़ी, मुक्तिका, कौआ स्नान, विरहणी छंद, मातृ दिवस

सलिल सृजन मई ११
मातृ दिवस
*
गीत
माँ के माथे सज्जित था-है
शुभ सिंदूर सजा देंगे।
नहीं पोंछने देंगे तुझको
पाकिस्तान मिटा देंगे।।
.
करता तू नापाक हरकतें
शर्म नहीं तुझको आती,
बेगैरत तू भीख माँगता
लड़ करता खुद बर्बादी।
धूल चटाई है पहले भी
अब फिर धूल चटा देंगे।।
.
टूट चुका है पहले भी तू,
सम्हल न तो फिर टूटेगा,
साया साथ न देगा तेरा
रो निज माथा कूटेगा।
घटता जाता है तू दिन-दिन
नामों-निशां हटा देंगे।।
.
सबक सिखाया कई बार
पर तूने वह बिसराया है,
महाकाल को आमंत्रित कर
सत्यानाश कराया है।
कान पकड़कर माफी माँगे
वह हालत करवा देंगे।।
११.५.२०२५
***
घर में पूजन सम्बन्धी नियम कायदे
अधिकांश हिन्दुओं के घर में पूजन के लिए छोटे छोटे मंदिर बने होते है जहां की वो भगवान की नियमित पूजा करते है। लेकिन हममे में से अधिकांश लोग अज्ञानतावश पूजन सम्बन्धी छोटे छोटे नियमों का पालन नहीं करते है। जिससे की हमे पूजन का सम्पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है। आज हम आपको घर में पूजन सम्बन्धी कुछ ऐसे ही नियम बताएँगे जिनका पालन करने से हमे पूजन का श्रेष्ठ फल शीघ्र प्राप्त होगा।
★★★★★★★★★★★★★★★
कैसी मूर्तियां रखनी चाहिए मंदिर में :
घर के मंदिर में ज्यादा बड़ी मूर्तियां नहीं रखनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार बताया गया है कि यदि हम मंदिर में शिवलिंग रखना चाहते हैं तो शिवलिंग हमारे अंगूठे के आकार से बड़ा नहीं होना चाहिए। शिवलिंग बहुत संवेदनशील होता है और इसी वजह से घर के मंदिर में छोटा सा शिवलिंग रखना शुभ होता है। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी छोटे आकार की ही रखनी चाहिए। अधिक बड़ी मूर्तियां बड़े मंदिरों के लिए श्रेष्ठ रहती हैं, लेकिन घर के छोटे मंदिर के लिए छोटे-छोटे आकार की प्रतिमाएं श्रेष्ठ मानी गई हैं।
★★★★★★★★★★★★★★★
पूजा करते समय किस दिशा की ओर होना चाहिए अपना मुंह :
घर में पूजा करने वाले व्यक्ति का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होगा तो बहुत शुभ रहता है। इसके लिए पूजा स्थल का द्वार पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। यदि यह संभव ना हो तो पूजा करते समय व्यक्ति का मुंह पूर्व दिशा में होगा तब भी श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं।
★★★★★★★★★★★★★★★
मंदिर तक पहुंचनी चाहिए सूर्य की रोशनी और ताजी हवा :
घर में मंदिर ऐसे स्थान पर बनाया जाना चाहिए, जहां दिनभर में कभी भी कुछ देर के लिए सूर्य की रोशनी अवश्य पहुंचती हो। जिन घरों में सूर्य की रोशनी और ताजी हवा आती रहती है, उन घरों के कई दोष स्वतः: ही शांत हो जाते हैं। सूर्य की रोशनी से वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है और सकारात्मक ऊर्जा में बढ़ोतरी होती है।
★★★★★★★★★★★★★★★
पूजन के बाद पूरे घर में कुछ देर बजाएं घंटी :
यदि घर में मंदिर है तो हर रोज सुबह और शाम पूजन अवश्य करना चाहिए। पूजन के समय घंटी अवश्य बजाएं, साथ ही एक बार पूरे घर में घूमकर भी घंटी बजानी चाहिए। ऐसा करने पर घंटी की आवाज से नकारात्मकता नष्ट होती है और सकारात्मकता बढ़ती है।
★★★★★★★★★★★★★★★
पूजन सामग्री से जुड़ी खास बातें :
पूजा में बासी फूल, पत्ते अर्पित नहीं करना चाहिए। स्वच्छ और ताजे जल का ही उपयोग करें। इस संबंध में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तुलसी के पत्ते और गंगाजल कभी बासी नहीं माने जाते हैं, अत: इनका उपयोग कभी भी किया जा सकता है। शेष सामग्री ताजी ही उपयोग करनी चाहिए। यदि कोई फूल सूंघा हुआ है या खराब है तो वह भगवान को अर्पित न करें।
★★★★★★★★★★★★★★★
पूजन कक्ष में नहीं ले जाना चाहिए ये चीजें :
घर में जिस स्थान पर मंदिर है, वहां चमड़े से बनी चीजें, जूते-चप्पल नहीं ले जाना चाहिए। मंदिर में मृतकों और पूर्वजों के चित्र भी नहीं लगाना चाहिए। पूर्वजों के चित्र लगाने के लिए दक्षिण दिशा क्षेत्र रहती है। घर में दक्षिण दिशा की दीवार पर मृतकों के चित्र लगाए जा सकते हैं, लेकिन मंदिर में नहीं रखना चाहिए।
पूजन कक्ष में पूजा से संबंधित सामग्री ही रखना चाहिए। अन्य कोई वस्तु रखने से बचना चाहिए।
★★★★★★★★★★★★★★★
पूजन कक्ष के आसपास शौचालय नहीं होना चाहिए :
घर के मंदिर के आसपास शौचालय होना भी अशुभ रहता है। अत: ऐसे स्थान पर पूजन कक्ष बनाएं, जहां आसपास शौचालय न हो। यदि किसी छोटे कमरे में पूजा स्थल बनाया गया है तो वहां कुछ स्थान खुला होना चाहिए, जहां आसानी से बैठा जा सके।
★★★★★★★★★★★★★★★
रोज रात को मंदिर पर ढंकें पर्दा :
रोज रात को सोने से पहले मंदिर को पर्दे से ढंक देना चाहिए। जिस प्रकार हम सोते समय किसी प्रकार का व्यवधान पसंद नहीं करते हैं, ठीक उसी भाव से मंदिर पर भी पर्दा ढंक देना चाहिए। जिससे भगवान के विश्राम में बाधा उत्पन्न ना हो।
★★★★★★★★★★★★★★★
सभी मुहूर्त में करें गौमूत्र का ये उपाय :
वर्षभर में जब भी श्रेष्ठ मुहूर्त आते हैं, तब पूरे घर में गौमूत्र का छिड़काव करना चाहिए। गौमूत्र के छिड़काव से पवित्रता बनी रहती है और वातावरण सकारात्मक हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार गौमूत्र बहुत चमत्कारी होता है और इस उपाय घर पर दैवीय शक्तियों की विशेष कृपा होती है।
★★★★★★★★★★★★★★★
खंडित मूर्तियां ना रखें :
शास्त्रों के अनुसार खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई है। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा के स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है। इस संबंध में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सिर्फ शिवलिंग कभी भी, किसी भी अवस्था में खंडित नहीं माना जाता है।
★★★★★★★★★★★★★★★
फूल चढाने सम्बन्धी नियम :
सदैव दाएं हाथ की अनामिका एवं अंगूठे की सहायता से फूल अर्पित करने चाहिए। चढ़े हुए फूल को अंगूठे और तर्जनी की सहायता से उतारना चाहिए। फूल की कलियों को चढ़ाना मना है, किंतु यह नियम कमल के फूल पर लागू नहीं है।
★★★★★★★★★★★★★★★
तुलसी चढाने सम्बन्धी नियम :
तुलसी के बिना ईश्वर की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती। तुलसी की मंजरी सब फूलों से बढ़कर मानी जाती है। मंगल, शुक्र, रवि, अमावस्या, पूर्णिमा, द्वादशी और रात्रि और संध्या काल में तुलसी दल नहीं तोड़ना चाहिए।तुलसी तोड़ते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसमें पत्तियों का रहना भी आवश्यक है। खंडित शिवलिंग की पूजा हो सकती है पर खंडित शिव मूर्ति की नहीं, जाने क्यों ?
★★★★★★★★★★★★★★★
भगवान भोलेनाथ की दो रूपों में पूजा की जाती है मूर्ति रूप और शिवलिंग रूप में। महादेव का मूर्तिपूजन भी श्रेष्ठ है लेकिन लिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ है माना जाता है। हमारे शास्त्रों द्वारा शिवजी सहित किसी भी देवी देवता की खंडित, टूटी-फूटी मूर्ति का पूजन निषेध है तथा ऐसी मूर्तियों को पूजा घर में रखने की मनाही है। लेकिन शिवलिंग एक अपवाद है।
★★★★★★★★★★★★★★★
महामृत्युंजय मंदिर -रीवा
शास्त्रों के अनुसार शिवजी का प्रतीक शिवलिंग कहीं से टूट जाने पर भी खंडित नहीं माना जाता। शिवलिंग चाहे कितना ही खंडित हो जाए वो सदेव ही पवित्र और पूजनीय माना जाता है। ऐसा इसलिए है कि भगवान शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार कहे गए हैं। भोलेनाथ का कोई रूप नहीं है उनका कोई आकार नहीं है वे निराकार हैं। महादेव का ना तो आदि है और ना ही अंत। लिंग को शिवजी का निराकार रूप ही माना जाता है। जबकि शिव मूर्ति को उनका साकार रूप। केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते है। इस रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं। शिवलिंग बहुत ज्यादा टूट जाने पर भी पूजनीय है। अत: हर परिस्थिति में शिवलिंग का पूजन सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग का पूजन किसी भी दिशा से किया जा सकता है लेकिन पूजन करते वक्त भक्त का मुंह उत्तर दिशा की ओर हो तो वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
०००
मुक्तिका
*
कोरोना की टाँग अड़ी है
सबकी खटिया हुई खड़ी है
मुश्किल में है आज जिंदगी
सतत मौत की लगी झड़ी है
शासनतंत्र-प्रशासन असफल
भीत मीडिया विषम घड़ी है
जनगण मरता है, मरने दो
सत्ता की लालसा बड़ी है
रोजी-रोटी के लाले हैं
व्यापारी की नियत सड़ी है
अस्पताल औषधि अति मँहगे
केर-बेर की जुड़ी कड़ी है
मेहनतकश का जीना दूभर
भक्तों का दल लिए छड़ी है
११-५-२०२१
***
श्रीमद्भग्वद्गीता
*
छोटा मन रखकर कभी, बड़े न होते आप।
औरों के पैरों कभी, खड़े न होते आप।।
*
भीष्म भरम जड़ यथावत, ठुकराएँ बदलाव।
अहंकार से ग्रस्त हो, खाते-देते घाव।।
*
अर्जुन संशय पूछता प्रश्न, न करता कर्म।
मोह और आसक्ति को समझ रहा निज धर्म।।
*
पल-पल परिवर्तन सतत, है जीवन का मूल।
कंकर हो शंकर कभी, और कभी हो धूल।।
*
उहापोह में भटकता, भूल रहा निज कर्म।
चिंतन कर परिणाम का, करता भटक विकर्म।।
*
नहीं करूँगा युद्ध मैं, कहता धरकर शस्त्र।
सम्मुख योद्धा हैं अगिन, लिए हाथ में अस्त्र।।
*
जो जन्मा वह मरेगा, उगा सूर्य हो अस्त।
कब होते विद्वानजन, सोच-सोचकर त्रस्त।।
*
मिलीं इन्द्रियाँ इसलिए, कर उनसे तू कर्म।
फल क्या होगा इन्द्रियाँ, सोच न करतीं धर्म।।
*
चम्मच में हो भात या, हलवा परसें आप।
शोक-हर्ष सकता नहीं, है चम्मच में व्याप।।
*
मीठे या कटु बोल हों, माने कान समान।
शोक-हर्ष करता नहीं, मन मत बन नादान।।
*
जीवन की निधि कर्म है, करते रहना धर्म।
फल का चिन्तन व्यर्थ है, तज दो मान विकर्म।।
*
सांख्य शास्त्र सिद्धांत का, ज्ञान-कर्म का मेल।
योगी दोनों साधते, जग-जीवन हो खेल।।
*
सम्यक समझ नहीं अगर, तब ग्रस लेता मोह
बुद्धि भ्रमित होती तभी, तन करता विद्रोह।।
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
संशय कर देता भ्रमित, फल चिंता तज मीत।।
*
केवल देह न सत्य है, तन में मन भी साथ।
तन-मन भूषण आत्म के, मूल एक परमात्म।।
*
आत्मा लेती जन्म जब, तब तन हो आधार।
वस्त्र सरीखी बदलती, तन खुद बिन आकार।।
*
सांख्य ज्ञान सँग कर्म का, सम्मिश्रण है मीत।
मन प्रवृत्ति कर विवेचन, सहज निभाए रीत।।
*
तर्क कुतर्क न बन सके, रखिए इसका ध्यान।
सांख्य कहे भ्रम दूर कर, कर्म करे इंसान।।
*
देखें अपने दोष खुद, कहें न करिए शर्म।
दोष दूर कर कर्म कर, वरिए अपना धर्म।।
*
कर सकते; करते नहीं, जो होते बदनाम।
कर सकते जो कीजिए, तभी मिले यश-मान।।
*
होनी होती है अटल, होगी मत कर सोच।
क्या कब कैसे सोचकर, रखो न किंचित लोच।।
*
दो पक्षों के बीच में, जा संशय मत पाल।
बढ़ता रह निज राह पर, कर्म योग मत टाल।।
*
हानि-लाभ हैं एक से, यश-अपयश सम मान।
सोच न फल कर कर्म निज, पाप न इसको जान।।
*
ज्ञान योग के साथ कर, कर्म योग का मेल।
अपना धर्म न भूल तू, घटनाक्रम है खेल।।
*
हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।
करता चल निज कर्म तू, उठा-झुका कर माथ।।
*
तज कर फल आसक्ति तू, करते जा निज कर्म।
बंधन बने न कर्म तब, कर्म योग ही धर्म।।
*
१०-५-२०२१
बाल गीत:
लँगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
***
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
११-५-२०२०
***
छंद सलिला:
सुजान / विरहणी छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १४-९, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
बनिए सुजान नित्य तान / छंद का वितान
रखिए भुवन-निधि अंत में / गुरु-लघु पहचान
तजिए न आन रीति जान / कर्म कर महान
करिए निदान मीत ठान / हो नया विहान
उदाहरण:
१. प्रभु चित्रगुप्त निराकार / होते साकार
कण-कण में आत्म रूप हैं, देव निराकार
अक्षर अनादि शब्द ब्रम्ह / सृजें काव्य धार
कथ्य लय ऱस बिम्ब सोहें / सजे अलंकार
२. राम नाम ही जगाधार / शेष सब असार
श्याम नाम ही जप पुकार / बाँट 'सलिल' प्यार
पुरुषार्थ-भाग्य नीति सुमति / भवसागर पार
करे-तरे ध्यान धरें हँस / बाँके करतार
३. समय गँवा मत, काम बिना / सार सिर्फ काम
बिना काम सुख-चैन छिना / लक्ष्य एक काम
काम कर निष्काम तब ही / मिल पाये नाम
ज्यों की त्यों चादर धर जा / ईश्वर के धाम
११-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा ५
दोहा भास्कर काव्य नभ
*
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- सलिल
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
११-५-२०१३
***
गीत:
ओ मेरे मन...
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बचकार , शुभ का कर ले चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जग से कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
११-५-२०१२
***
मुक्तक
भारत का धन जो विदेश में उसको भारत लायेंगे.
रामदेव बाबा के संग हम सच की अलख जगायेंगे..
'सलिल'-साधना पूरी हो संकल्प सभी जन-गण ले अब-
राजनीति हो लोकनीति, हम नया सवेरा लायेंगे..
११-५-२०११

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

फरवरी १५, सॉनेट शारद वंदना, कृष्ण, सुभद्रा, लघुकथा, नित छंद, बालगीत, लँगड़ी,

सलिल सृजन फरवरी १५
*
सॉनेट
मिलन
० 

आँख खुले तो मिलन ईश से होता हर दिन
आँख मिलाकर दिनकर से हम जगकर उठते
ऊर्जा देता हरदम अपनों का अपनापन 
संबल पाकर संबंधों से हम दृढ़ बनते
अनल अनिल भू नभ से मिलकर सलिल पूर्ण हो
नीरव में रव, बिंदु सिंधु हो, कंकर शंकर
बाधा संकट जब टकराए तभी चूर्ण हो
बिछुड़ी हुए प्रलयंकर जो वे मिल अभ्यंकर
काया-छाया धूप-छाँव सम आते-जाते
मिलन विरह में, विरह मिलन में हो परिवर्तित
खुद को खोकर खुद में ही हम खुद को पाते
वाह आह में, आह वाह में प्रत्यावर्तित
जहाँ नहीँ अंगार वहाँ सिंगार न होता
जहाँ नहीं हुंकार वहाँ पर प्यार न होता
१५.२.२०२५
०००
सॉनेट
शारद वंदना
शारदे! दे सुमति कर्म कर।
हम जलें जन्म भर दीप बन।
जी सकें जिंदगी धर्म कर।।
हो सुखी लोक, कर कुछ जतन।।
हार ले माँ! सुमन अरु सुमन।
हार दे माँ! क्षणिक, जय सदा।
हो सकल सृष्टि हमको स्वजन।।
बेहतर कर सकें जो बदा।।
तार दे जो न टूटें कभी।
श्वास वीणा बजे अनहदी।
प्यार दे, कल न कल, नित अभी।।
तोड़ बंधन सभी सरहदी।।
क्षर न अक्षर रहित हम रहें।
नर्मदा नेह की बन बहें।।
१५-२-२०२२
•••
मुक्तिका
सुभद्रा
*
वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।
बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।
'बिखरे मोती', 'सीधे सादे चित्र', 'मुकुल' हैं कालजयी।
'उन्मादिनी', 'त्रिधारा' से सम्मान अपरिमित पाया था।।
रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं।
महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।
यह 'कदंब का पेड़' देश के बच्चों को प्रिय सदा रही।
'मिला तेज से तेज' धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।
'माखन दादा' का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ।
सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।
देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण।
है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।
जाकर भी तुम गयी नहीं हो; हम सबमें तुम ज़िंदा हो।
आजादी के महायज्ञ को तुमने सफल बनाया था।।
जबलपुर की जान सुभद्रा, हिन्दुस्तां की शान थीं।
दर्शन हुए न लेकिन तुमको सदा साथ ही पाया था।।
१५-२-२०२२
***
सॉनेट
वसुधा
वसुधा धीरजवान गगन सी।
सखी पीर को गले लगाती।
चुप सह लेती, फिर मुसकाती।।
रही गुनगुना आप मगन सी।।
करें कनुप्रिया का हरि वंदन।
साथ रहें गोवर्धन पूजें।
दूर रहें सुधियों में डूबें।।
विरह व्यथा हो शीतल चंदन।
सुख मेहमां, दुख रहवासी हम।
विपिन विहारी, वनवासी हम।
भोग-योगकर सन्यासी हम।।
वसुधा पर्वत-सागर जंगल।
वसुधा खातिर होते दंगल।
वसुधा करती सबका मंगल।।
१४-२-२०२२
•••
एक रचना
कृष्ण कौन हैं?
*
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण पीर हैं,
दर्द-व्यथा की अकथ कथा हैं।
कष्ट-समुद ही गया मथा हैं।
जननि-जनक से दूर हुए थे,
विवश पूतना, दुष्ट बकासुर,
तृणावर्त, यमलार्जुन, कालिय,
दंभी इंद्र, कंस से निर्भय
निपट अकेले जूझ रहे थे,
नग्न-स्नान कुप्रथा-रूढ़ि से,
अंधभक्ति-श्रद्धा विमूढ़ से,
लडे-भिड़े, खुद गाय चराई,
वेणु बजाई, रास रचाई।
छूम छनन छन, ता-ता-थैया,
बलिहारी हों बाबा-मैया,
उभर सके जननायक बनकर,
मिटा विपद ठांड़े थे तनकर,
बंधु-सखा, निज भूमि छोड़ क्या
आँखें रहते सूर हुए थे?
या फिर लोभस्वार्थ के कारण
तजी भूमि; मजबूर हुए थे?
नहीं 'लोकहित' साध्य उन्हें था,
सत्-शिव ही आराध्य उन्हें था,
इसीलिए तो वे सुंदर थे,
मनभावन मोहक मनहर थे।
थे कान्हा गोपाल मुरारी
थे घनश्याम; जगत बलिहारी
पौ फटती लालिमा भौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण दीन हैं,
आम आदमी पर न हीन हैं।
निश-दिन जनहित हेतु लीन हैं।
प्राणाधिक प्रिय गोकुल छोड़ा,
बन रणछोड़ विमुख; मुख मोड़ा,
जरासंध कह हँसा 'भगोड़ा',
समुद तीर पर बसा द्वारिका
प्रश्न अनेकों बूझ रहे थे।
कालयवन से जा टकराए,
आक्रांता मय दनु चकराए,
नहीं अनीति सहन कर पाए,
कर्म-पंथ पर कदम बढ़ाए।
द्रुपदसुता की लाज न जाए,
मान रुक्मिणी का रह पाए,
पार्थ-सुभद्रा शक्ति-संतुलन,
धर्म वरें, कर अरि-भय-भंजन,
चक्र सुदर्शन लिए हाथ में
शीश काटते क्रूर हुए थे?
या फिर अहं-द्वेष-जड़ता वर
अहंकार से चूर हुए थे?
नहीं 'देशहित' साध्य उन्हें था,
सुख तजना आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे नटनागर थे,
सत्य कहूँ तो भट नागर थे।
चक्र सुदर्शन के धारक थे,
शिशुपालों को ग्रह मारक थे,
धर्म-पथिक के लिए पौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
*
कृष्ण छली हैं,
जो जग सोचे कभी न करते।
जो न रीति है; वह पथ वरते।
बढ़ें अकेले; तनिक न डरते,
साथ अनेकों पग चल पड़ते।
माधव को कंकर में शंकर,
विवश पाण्डवों में प्रलयंकर,
दिखे; प्रश्न-हल सूझ रहे थे।
कर्म करो फल की चिंता बिन,
लड़ो मिटा अन्यायी गिन-गिन,
होने दो ताण्डव ता तिक धिन,
भीष्म-द्रोण के गए बीत दिन।
नवयुग; नवनिर्माण राह नव,
मिटे पुरानी; मिले छाँह नव,
सबके हित की पले चाह नव,
हो न सुदामा सी विपन्नता,
और न केवल कुछ में धनता।
क्या हरि सच से दूर हुए थे?
सुख समृद्धि यशयुक्त द्वारिका
पाकर खुद मगरूर हुए थे?
नहीं 'प्रजा हित' साध्य उन्हें था,
मिटना भी आराध्य उन्हें था,
इसीलिए वे उन्नायक थे,
जगतारक शुभ के गायक थे।
थे जसुदासुत-देवकीनंदन
मनुज माथ पर शोभित चंदन
जीवनसत्व सुस्वादु नौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
समय साक्षी; स्वयं मौन हैं।
कौन बताए
कृष्ण कौन हैं?
१५-२-२०२१
***
एक रचना :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया है तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
***
लघुकथा
संदेश और माफी
*
जब आपको माफी ही माँगनी थी तो आपने आतंकवादी के नाम के साथ 'जी' क्यों जोड़ा? पूछा पत्रकार ने।
इतना समझ पाते तो तुम भी नेता न बन जाते। 'जी' जोड़ने से आतंकवादियों, अल्पसंख्यकों और विदेशी आकाओं तक सन्देश पहुँच गया और माफी माँगकर आपत्ति उठानेवालों को जवाब तो दिया ही उनके नेताओं के नाम लेकर उन्हें आतंवादियों से समक्ष भी खड़ा कर दिया।
लेकिन इससे तो संतोष भड़केगा, आन्दोलन होंगे, जुलूस निकलेंगे, अशांति फैलेगी, तोड़-फोड़ से देश का नुकसान होगा।
हाँ, यह सब अपने आप होगा, न हुआ तो हम कराएँगे और उसके लिये सरकार को दोषी और देश को असहिष्णु बताकर अपने अगले चुनाव के लिये जमीन तैयार करेंगे।
१५.२.२०१६
***
नित छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक नित छंद में चरणान्त में रगण, सगण या नगण होते हैं.
उदाहरण:
१. नित जहाँ होगा नमन, सत वहाँ होगा रसन
राशियाँ ले गंग जल, कर रहीं हँस आचमन
२. जां लुटाते देश पर, जो वही होते अमर
तिरंगा जब लहरता, गीत गाता आसमां
३. नित गगन में रातभर, खेलते तारे नखत
निशा सँग शशि नाचता, देखकर नभ विहँसता
*
१. लक्षण संकेत: नित = छंद का नाम, रसन = चरणान्त में रगण, सगण या नगण, राशियाँ = १२ मात्रायें
१५-२-२०१४
***
द्विपदि सलिला:
*
जब तक था दूर कोई इसे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***
बाल गीत:
लँगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
***
गीत :
आशियाना ...
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा है।
मिले उतना ही लिखा है-
जहाँ जिसका आब-दाना ...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
*
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुन खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
*
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
***
त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१५-२-२०१३
***

गुरुवार, 11 मई 2023

सुजान छंद, विरहणी छंद, गीत, गीता, मुक्तिका, दोहा, बाल गीत, कौआ, लँगड़ी

श्रीमद्भग्वद्गीता
*
छोटा मन रखकर कभी, बड़े न होते आप।
औरों के पैरों कभी, खड़े न होते आप।।
*
भीष्म भरम जड़ यथावत, ठुकराएँ बदलाव।
अहंकार से ग्रस्त हो, खाते-देते घाव।।
*
अर्जुन संशय पूछता प्रश्न, न करता कर्म।
मोह और आसक्ति को समझ रहा निज धर्म।।
*
पल-पल परिवर्तन सतत, है जीवन का मूल।
कंकर हो शंकर कभी, और कभी हो धूल।।
*
उहापोह में भटकता, भूल रहा निज कर्म।
चिंतन कर परिणाम का, करता भटक विकर्म।।
*
नहीं करूँगा युद्ध मैं, कहता धरकर शस्त्र।
सम्मुख योद्धा हैं अगिन, लिए हाथ में अस्त्र।।
*
जो जन्मा वह मरेगा, उगा सूर्य हो अस्त।
कब होते विद्वानजन, सोच-सोचकर त्रस्त।।
*
मिलीं इन्द्रियाँ इसलिए, कर उनसे तू कर्म।
फल क्या होगा इन्द्रियाँ, सोच न करतीं धर्म।।
*
चम्मच में हो भात या, हलवा परसें आप।
शोक-हर्ष सकता नहीं, है चम्मच में व्याप।।
*
मीठे या कटु बोल हों, माने कान समान।
शोक-हर्ष करता नहीं, मन मत बन नादान।।
*
जीवन की निधि कर्म है, करते रहना धर्म।
फल का चिन्तन व्यर्थ है, तज दो मान विकर्म।।
*
सांख्य शास्त्र सिद्धांत का, ज्ञान-कर्म का मेल।
योगी दोनों साधते, जग-जीवन हो खेल।।
*
सम्यक समझ नहीं अगर, तब ग्रस लेता मोह
बुद्धि भ्रमित होती तभी, तन करता विद्रोह।।
*
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
संशय कर देता भ्रमित, फल चिंता तज मीत।।
*
केवल देह न सत्य है, तन में मन भी साथ।
तन-मन भूषण आत्म के, मूल एक परमात्म।।
*
आत्मा लेती जन्म जब, तब तन हो आधार।
वस्त्र सरीखी बदलती, तन खुद बिन आकार।।
*
सांख्य ज्ञान सँग कर्म का, सम्मिश्रण है मीत।
मन प्रवृत्ति कर विवेचन, सहज निभाए रीत।।
*
तर्क कुतर्क न बन सके, रखिए इसका ध्यान।
सांख्य कहे भ्रम दूर कर, कर्म करे इंसान।।
*
देखें अपने दोष खुद, कहें न करिए शर्म।
दोष दूर कर कर्म कर, वरिए अपना धर्म।।
*
कर सकते; करते नहीं, जो होते बदनाम।
कर सकते जो कीजिए, तभी मिले यश-मान।।
*
होनी होती है अटल, होगी मत कर सोच।
क्या कब कैसे सोचकर, रखो न किंचित लोच।।
*
दो पक्षों के बीच में, जा संशय मत पाल।
बढ़ता रह निज राह पर, कर्म योग मत टाल।।
*
हानि-लाभ हैं एक से, यश-अपयश सम मान।
सोच न फल कर कर्म निज, पाप न इसको जान।।
*
ज्ञान योग के साथ कर, कर्म योग का मेल।
अपना धर्म न भूल तू, घटनाक्रम है खेल।।
*
हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।
करता चल निज कर्म तू, उठा-झुका कर माथ।।
*
तज कर फल आसक्ति तू, करते जा निज कर्म।
बंधन बने न कर्म तब, कर्म योग ही धर्म।।
*
१०-५-२०२१
***
मुक्तिका
*
कोरोना की टाँग अड़ी है
सबकी खटिया हुई खड़ी है
मुश्किल में है आज जिंदगी
सतत मौत की लगी झड़ी है
शासनतंत्र-प्रशासन असफल
भीत मीडिया विषम घड़ी है
जनगण मरता है, मरने दो
सत्ता की लालसा बड़ी है
रोजी-रोटी के लाले हैं
व्यापारी की नियत सड़ी है
अस्पताल औषधि अति मँहगे
केर-बेर की जुड़ी कड़ी है
मेहनतकश का जीना दूभर
भक्तों का दल लिए छड़ी है
११-५-२०२१
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
***
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
११-५-२०२०


***
छंद सलिला:
सुजान / विरहणी छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १४-९, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
बनिए सुजान नित्य तान / छंद का वितान
रखिए भुवन-निधि अंत में / गुरु-लघु पहचान
तजिए न आन रीति जान / कर्म कर महान
करिए निदान मीत ठान / हो नया विहान
उदाहरण:
१. प्रभु चित्रगुप्त निराकार / होते साकार
कण-कण में आत्म रूप हैं, देव निराकार
अक्षर अनादि शब्द ब्रम्ह / सृजें काव्य धार
कथ्य लय ऱस बिम्ब सोहें / सजे अलंकार
२. राम नाम ही जगाधार / शेष सब असार
श्याम नाम ही जप पुकार / बाँट 'सलिल' प्यार
पुरुषार्थ-भाग्य नीति सुमति / भवसागर पार
करे-तरे ध्यान धरें हँस / बाँके करतार
३. समय गँवा मत, काम बिना / सार सिर्फ काम
बिना काम सुख-चैन छिना / लक्ष्य एक काम
काम कर निष्काम तब ही / मिल पाये नाम
ज्यों की त्यों चादर धर जा / ईश्वर के धाम
११-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा ५
दोहा भास्कर काव्य नभ
*
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- सलिल
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
११-५-२०१३
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गीत:
ओ मेरे मन...
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बचकार , शुभ का कर ले चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जग से कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
११-५-२०१२
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मुक्तक
भारत का धन जो विदेश में उसको भारत लायेंगे.
रामदेव बाबा के संग हम सच की अलख जगायेंगे..
'सलिल'-साधना पूरी हो संकल्प सभी जन-गण ले अब-
राजनीति हो लोकनीति, हम नया सवेरा लायेंगे..
११-५-२०११