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बुधवार, 31 जुलाई 2019

मिथकों में केलि-प्रसंग

मिथकों में केलि-प्रसंग
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'विश्वैक नीड़ं' और 'वसुधैव कुटुम्बकं' का सत्य मिथकों से भी प्रमाणित होता है। सृष्टि की रचना महतविस्फोट जनित ध्वनि-तरंगों के आकर्षण-अपकर्षण, टकराव-बिखराव, कण के जन्म और कण द्वारा भार ग्रहण करने से होना धर्म, दर्शन और अध्यात्म सभी को मान्य है। चित्र 'गुप्त' से 'प्रगट' हुआ, निराकार से साकार जन्मा। निहारिका, आकाश गंगा, सौरमंडल और पृथ्वी के अस्तित्व में आने पर पञ्च तत्वों नेअपनी भूमिका निभाते हुए जीव को विकसित किया। तदनन्तर जलचर (मत्स्यावतार), जल-थलचर (कच्छपावतार), थल-जलचर (वाराहावतार), थलचर या अर्धपशु (नृसिंहावतार), अर्ध मानव (वामनावतार), हिंस्र मानव (परशुरामावतार), कृषि मानव (शिव व रामावतार), पशु पालक मानव (कृष्ण), बुद्धिप्रधान मानव (बुद्धावतार) का आविर्भाव हुआ। इस क्रम में मिथकों ने महती भूमिका निभाई है। डायनासौर, मैमथ, हिम युग, जल प्लावन, कल्प-कल्प में देवासुर संग्राम के माध्यम से  निर्माण से विनाश और विनाश से निर्माण का दुहराव हर भूभाग में हुआ है। वर्तमान कल्प में लगभग ७ करोड़ वर्ष पूर्व हुए ज्वालामुखियों के ठन्डे होने पर गोंडवाना शिलाओं और नर्मदा नदी आदि का जन्म हुआ।लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व भारतीय भूखंड और चीनी भूखंड के टकराव के फलस्वरूप शिशु पर्वत हिमालय और १० लाख वर्ष पूर्व टेथीज महासागर के भरने से गंगा का जन्म हुआ। यही एकाल खंड राम का है जिसमें जंबूद्वीप के साथ थाईलैंड मलेशिया आदि जुड़े थे इसलिए राम कथा का विस्तार वहां तक हुआ। कृष्ण के काल तक वे आर्यावर्त से अलग हो चुके थे इसलिए कृष्ण कथा भारत तक ही सीमित रह गयी। रामकथा में वानरराज बाली अनुज सुग्रीव की पत्नी रुक्मा से बलात संबंध बनाता है। बाली वध के पश्चात्  सुग्रीव बाली पत्नी तारा तथा  रुक्मा दोनों को पत्नी बना लेता है तथापि तारा को पंचकन्याओं में रखा गया। 

वर्तमान मानव सभ्यता के आदि मानव ने १० लाख वर्षों में बबून, गिबन, ओरांगउटान, गोरिल्ला, चिम्पांजी, होमोइरेक्टस, होमोसेपियंस से उन्नत होते हुए लगभग ३५ हजार वर्ष पूर्व शैलचित्र बनाये, फिर उच्चार सीखकर, वाक्, भाषा और कहने-सुनने का काल, कथाओं, वार्ताओं, चर्चाओं विमर्श तक आ पहुँचा। इस प्रक्रिया में मिथक मानव जीवन के हर अचार-विचार के साथी बने रहे। सत-चित-आनंद, सत-शिव-सुंदर अथवा सत-रज-तम अर्थ धर्म, दर्शन, नीति आदि का विकास इन्हीं मिथकों से हुआ। मानव केलि का मूल इन्हीं मिथकों में है। ब्रम्ह-ब्रम्हांड, आकाश-पृथ्वी-पटल, सूर्य-उषा, चंद्र-ज्योत्सना, गिरि-सलिला-सागर, सावन-बसंत-फागुन, मेघ-दामिनी-वर्षा आदि प्रकृति की केलि कीड़ा के संवाहक बनाकर सुख-दुःख देते रहे हैं। दश-दशावतार-दशरथ-दशानन, वसु-वसुदेव-वासुकि, नू-नट-नटवर-नटराज, दिति-दैत्य,अदिति-आदित्य, सुर-असुर, पञ्च-पञ्चक-पाञ्चाल-पाण्डव, शिव-शिवा, शंभु-शांभवी, शुंभ-निशुंभ, देह दुर्ग-दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी, विषाणु-विष्णु-लक्ष्मी, जियस-एफ्रोडाइट, इंटी-वीराकोचा, आइसिस-हाथोर, सिंह-व्याघ्र-गज-ऋक्ष-विडाल-श्वान, वंशलोचन-शिलाजीत, इंद्र-कार्तिकेय, ईश्तर-अमातेरासु,  गरुण, मगर, शेष, कच्छप, वानर, किन्नर, गंधर्व आदि मिथक प्रणय देवी वीनस और एफ्रोडाइट आदि बल-रूप-कला-सौंदर्य-काम-भोग आदि  मिथक-मुक्ताओं की माला ही मानव सभ्यता है। धर्म, कर्तव्य, कर्म, कर्म काण्ड, पाठ, जप, लीला आदि में काम की उपस्थिति सर्वत्र है। दक्षिण भारत की द्रविड़ कथाओं में शिव-काली के मध्य श्रेष्ठता का निर्णय नृत्य कला प्रदर्शन से होता है। शिव एक पैर ऊपर उठाकर जिस नृत्य मुद्रा को साधकर जयी होते हैं, साध्य होते हुए भी गुप्तांग दिखने की आशंका से काली उसे नहीं साधतीं। लिंगायत प्रकारी की समुद्र कथा के अनुसार शिव के विषपान करने पर प्रश्न होते ही मनसा देवी द्वारा विष हरण का दृष्टांत उपस्थित कर दिया गया। शिव विषपायी के साथ मृत्युंजय भी हो गए। राम की पीक को भूल से कुछ दसियों ने पी लिया और अगस्त्य मुनि के आश्रम में ऋषि के सौंदर्य पर मोहित होकर स्त्री रूप में रमन के एकाम्ना करने लगे तो उन्हें अगले जन्म में गोपी के रूप में जन्म लेकर कृष्ण के साथ रमण का दृष्टांत सामने आ गया। असुर राज जालंधर से देवताओं की रक्षा के लिए विष्णु ने छल से उसकी पत्नी वृन्दा का सतीत्व भंग किया। अमृत मंथन के समय मोहिनी रूप धारण कर असुरों को अमृत से वंचित रखा। पवन पुत्र हनुमान और उनके पुत्र मकरध्वज के जन्म की कथाएं विविध योनियों में काम संबंध का प्रतिफल है। भीम-हिडिम्बा का विवाह भी इसे तरह का है। 

काम-केलि (जियस) की जातक कथाएँ

भारत में बौद्ध और जैन धर्मों में बुद्ध और महावीर  की जातक कथाएँ हैं जिनमें वे विविध योनियों में जन्म लेकर धर्म-ज्ञान देते हैं। 

भारत में काम क्रीड़ा के संदर्भ में सुरों और असुरों के आचरण में विशेष अंतर नहीं है। ब्रह्मा-सरस्वती, इंद्र-अहल्या, विष्णु-वृंदा, कारण और पांडवों का जन्म, द्रौपदी के पंच पति आदि काम शुचिता पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित करते हैं। भोले शिव को भस्मासुर से बचने के लिए विष्णु मोहिनी रूप धारण कर उसका अंत करते हैं। 

ग्रीस में जियस भी विविध योनियों में जन्म लेकर केलि क्रीड़ा करता है। भारतीय मिथकों में काम संतुष्टि हेतु निकट संबंधों को ताक पर रखे जाने के भी असंख्य उदाहरण हैं। यांग-यिंग, पान-गुट, गेब-नुट, रांगी-पापा, अम्मा-डोगोन, देवराज इंद्र, ग्रीक देवराज जियस आदि ने केलि संबंधों में सामाजिक मर्यादा को आड़े नहीं आने दिया।

जियस ने बुद्धि की टाइटनी मेटिस से प्रणय किया। यह भय होने पर कि पुत्र उसे अपदस्थ कर देगा उसने गर्भवती मेटीस को निगल लिया। जिस ट्रॉय राजकुमार गेनीमेड पर आसक्त हो बाज बनकर उसे ओलम्पियस पर्वत पर ले गया। 

सौंदर्य और प्रेम की देवी एफ्रोडाइट के कई देवों और मानवों से संबंध और संतानें वर्णित हैं। वह जियस की पत्नी हेरा को हराकर केलि क्रीड़ा में दक्षता से जियस को वश में कर सकी।  केलि क्रीड़ा में निपुण सखियों चेरीटेस व होराई के सहायता से वह जिसे चाहती जीत लेती। लुहार पति हेफेस्टस के साथ वह जेठ और देवर से भी काम सुख पाती रही। वह युद्ध देवता ऐरेस, उन्माद के देवता डोयानिसिस तथा सौभाग्य के देवता हर्मीस वाक् की पर्यंक शायनी  भी रही। एफ्रोडाइट को ऐरेस से कामदेव ऐरॉस, हर्मीस से उभयलिंगी हर्माफ्रोडायटस, डायोनोसिस से उत्थित लिंगधारी प्रियापस एवं  ऐंचिसेक्स से ऐनियास  पुत्र हुए। वह निर्द्वन्द प्रेम और रति में निमग्न रहती थी। असीरिया सम्राट सिन्यारस की अप्रतिम सुंदर पुत्री स्याइर्ना से ईर्ष्या वश उसने सिन्यारस की कामवासना को इतना उत्तेजित किया कि उसने पुत्री को ही गर्भवती कर दिया तथा निंदा भय से हत्या करना तय किया।  एफ्रोडाइट ने स्याइर्ना को बचाकर उसके पुत्र एडोनिस को पालने हेतु पाताल साम्राज्ञी पर्सिफ़ोन को दे दिया। एडोनिस के युवा होने पर दोनों ने उससे यौन संबंध बनाये। एडोनिस-एफ्रोडाइट की ३ संतानें हुईं। जियस ने हंस बनकर सुंदरी देवी लीडा को हंसिनी बनाकर पंखों से कटी से जहां प्रदेश को कसकर कामबंध बनाकर संभोग किया। इससे उत्पन्न २ अण्डों से २ मानवों हेलन और क्लाइटैमनेस्ट्रो तथा २ जुड़वाँ देव पुत्रों क्रेस्टर व पोलेक्स का जन्म हुआ। जियस ने सांड बनकर डिओ से संभोग किया। प्रचंड कामावेग से डिओ अति शक्तिशाली हो गयी और इजिप्ट में जाकर देवी हो गयी। जियस ने नारी कोरी से सर्प बनकर संभोग किया। उसने श्वेत वृषभ बनकर यूरोपा का अपहरण कर उसे पेट पर आरूढ़ करा पुरुषायित बंध बनाया और स्वर्ण फुहार का वर्षण करते हुए संभोग किया।  मिनोस की रानी पेसीफे ने कामोन्मत्त होकर साँड़ के साथ सम्भोग किया और मिनोटोरों को (अर्ध वृषभ-अर्ध मानव) जन्म दिया। मदिरा तथा उन्माद देवता डायोनिसस से सेंटारा (अर्ध अश्व-अर्ध मानव) अस्तित्व में आये।

हवाई द्वीप समूह, न्यूजीलैंड व आस्ट्रलिया का धूर्त नायक माउई ने दैत्य ईल-ते-तूना को विशाल लिंग से मारकर उसकी स्वेच्छाचारिणी पत्नी को पाया। उसने पाताल की देवी हाइने के शरीर में प्रवेश कर लिया, देवी जाग गयी और उसे मार डाला।

केलि गौड़, प्रीत प्रमुख

मिथकों में अमान्य केलि संबंध ही नहीं हैं। वृद्ध स्यावन ऋषि की अतिसुन्दरी पत्नी सुकन्या ने अश्विनीकुमारों का प्रणय प्रस्ताव ठुकरा दिया। अश्विनों ने ऋषि को युवा कर, तीनों में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया। सुकन्या ने ऋषि को ही चुना। ग्रीक ओड़िसिस की पत्नी पेनीलोप को श्वसुर ने विवाह हेतु विवश किया। पेनलोप ने पाजामा पूरा बुन लेने पर विवाह का वायदा किया।  वह हर दिन बुनती और रात को उधेड़ देती। उसने पति के आने तक पाजामा पूरा नहीं होने दिया।

उमा ने अपने रूप पर मुग्ध मधु-कैटभ का वध किया। दुर्गा द्वारा शिव का वरण करने पर शिव वध हेतु तत्पर पूर्व शिवभक्त शुंभ-निशुम्भ के साथ प्रणय-अभिनय कर उनका वध किया। सीता ने राक्षसराज द्वारा हरण किये जाने के बाद भी राम को छोड़कर उसका वरन स्वीकार नहीं किया। राम ने रावण वध कर सीता को पाया किन्तु लोकापवाद के कारण गर्भवती सीता का त्याग कर दिया। सीता ने राम पुत्र लव-कुश को जन्म देकर उनका पालन किया। राम सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम रखकर यज्ञादि करते रहे। पवित्रता का प्रमाण माँगे जाने पर सीता पृथ्वी में समा गईं। यम-यमी भाई -बहिन थे। यमी द्वारा केलि संबंध का आग्रह करने पर भी यम ने स्वीकार नहीं किया।

केलि-दर्शन दंडनीय

मिथकों में ऐसे भी प्रसंग हैं जब दो केलिरत प्रेमियों की कामक्रीडा देखने या उसमें विघ्न उपस्थित करने पर दंड दिया गया। किसी समय देव गण बिना पूर्व सूचना के शिव के समीप उपस्थित हो गए। तब निर्वासना पार्वती लजाकर शिव से लिपट गईं। शिव ने देवताओं को शाप दिया कि को इलावर्त पर्वत पर आएगा स्त्री रूप में परिवर्तित हो जायेगा। सुद्यम्न वहां पहुंचे तो स्त्री हो गए, चंद्र पुत्र बुध से मिलन और पुत्र पुरुरवा का जन्म हुआ। दमयंती पर मोहासक्त नारद भी स्त्री हो गए और विवाह कर कन्याओं को जन्म दिया।

कन्या पूजनीय

भारत में नौ दुर्गा महापर्व पर कन्या पूजन प्रचलित है। विद्या, धन तथा धन की त्रिदेवियाँ सर्वमान्य हैं।

ग्रीस की क्वाँरी देवी आर्तेमिस योनि शुचिता की पर्याय है। किशोरियों तथा शिकारियों की आराध्या आर्तेमिस कठोर दण्ड देती है। आर्केडिया में चाँदनी रात में नृत्य महोत्सव में आराधिकाएँ 'आर्कतोई' (कुमारियाँ) लिंगाकृत पोषक पहन कर नृत्य करतीं थीं, नर बलि होती थी। किसी समय आर्तेमिस स्नान कर रही थी। एक्टाओन छल कर मृग रूप धारण कर उसके निर्वासन रूप का रस पान करने लगा। एक्टाओन के जंगली कुत्तों ने उसके चिथड़े कर दिए। ज्ञान की देवी एथेना ने योनि शुचिता के लिए सुहाग सेज से हेफाइस्टस को धक्के मार कर नीचे गिरा दिया। उसका वीर्य भूमि पर गिरा जिससे एरिकथॉनियस नामक सर्प-शिशु जन्मा जिसने बढ़ होने पर एक बार एथेना को स्नान करते हुए निर्वसना देख लिया, उसे अंधत्व की सजा दी गयी। 

 लिंग-योनि पूजन / अर्धनारीश्वर और उभय लिंगी 

भारत और विदेशों में भी लिंग और योनि पूजक संप्रदाय हुए हैं। शिव पुराण के अनुसार ब्रह्मा तथा विष्णु में श्रेष्ठता का विवाद होने पर पटल से आकाश तक विराट लिंग प्रगट हुआ। ब्रम्हा हंस बनकर उसकी ऊँचाई तथा विष्णु वाराह बनकर उसकी गहराई नहीं नाप सके। दोनों ने प्राथना की तो उस लिंग के पार्श्व में योनि का उद्भव हुआ और शिव प्रगट हुए। इसीलिए शिव अर्धनारीश्वर कहलाए। मोहनजोदारो का पशुपति उत्थित लिंगी है। स्केंडिनेविया के फ्रे-फ्रेया तंत्र मार्ग में, इजिप्ट में  बबून, ग्रीस में प्रियपास आदि उत्थित (विशाल) लिंगी हैं। डायोनीसस, डिमीटर, ओसाईरस, जापान के शिंटो मत, भारत में चर्वाक-वाम मार्गियों आदि में शिश्न पूजन प्रचलित था। लिंगायत शिव भक्त गले में शिवलिंग धारण करते हैं। 
ग्रीक एफ्रोडाइट तथा हरमीज का पुत्र उभयलिंगी हर्माफ्रोडाइटिस, १५ वर्ष की उम्र में माता एफ्रोडाइट के साथ एशिया माइनर आया जहाँ जलपरी सलमाकिस उस पर मुग्ध हो गयी। ठुकराए जाने पर उसने स्नान करते हर्माफ्रोडाइटिस को आलिंगन में जकड लिया और उसे में समा गयी। फलत: हर्माफ्रोडाइटिस बारी-बारी से स्त्रैण युवक और पौरुषेय युवती होता था। 

नायक-नायिका भेद
कालांतर में इन मिथकों का स्थान चक्रों, आसनों, शक्ति आदि ने लिया। सर्प, वृषभ और अश्व ही नहीं तोता-मैना आदि भी काम संदर्भों में प्रयुक्त हुए। भरत ने नायक के चार भेद किए हैं : धीरललित, धीरप्रशान्त, धीरोदात्त, धीरोद्धत। "अग्निपुराण" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ।  भानुदत्त (1300 ई.) ने "रसमंजरी" में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक। 

भरत के अनुसार नायिका के आठ भेद वासकसज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका तथा अभिसारिका हैं। नायिका के पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी तथा हस्तिनी अदि भेद भी बताये गए हैं। रुद्रट ("काव्यालंकार", नवीं शताब्दी) तथा रुद्रभट्ट (शृंगारतिलक, ९००-११०० ई.) ने -षोडष भेद स्वकीया, परकीया, सामान्या, स्वकीया : मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा, मध्या तथा प्रगल्भा : धीरा, मध्या (धीराधीरा), अधीरा, मध्या तथा प्रगल्भा; पुन: ज्येष्ठा, कनिष्ठा, परकीया : ऊढा, अनूढा (कन्या) को मान्यता दी। "सुखसागरतरंग" का अंश भेद प्रसिद्ध है : देवी (सात वर्ष की अवस्था तक), देवगंधर्वी (सात से चौदह तक), गंधर्वी (चौदह से इक्कीस तक), गंधर्वमानुषी (इक्कीस से अट्ठाईस तक), मानुषी (अट्ठाईस से पैंतीस वर्ष की अवस्था तक)। नायिकाभेद का सर्वाधिक विस्तार रसलीन के "रसप्रबोध" में है। १. मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा के अनेक प्रभेद; २. पतिदु:खिता स्वकीया : मूढपतिदु:खिता, बाल., वृद्ध.; ३. परकीया : अद्भुता, उद्भूदिता (तोष के उद्बुद्धा तथा उद्बोधिता भेदों से अभिन्न); ४. परकीया : आसाध्या, सुखसाध्या (प्रथमके पाँच तथा द्वितीय के आठ प्रभेद); ५. स्वकीया तथा परकीया : कामवती, अनुरागिनी, प्रेम अशक्ता; ६. सामान्या के चार प्रभेद; ७. अनेक परिस्थितिभेदों के प्रभेद; ८. "सुखसागरतरंग" के आधार पर विभिन्न नायिकाओं की आयुसीमा का निर्धारण।

भारत कोक शास्त्र और काम शास्त्र का विधिवत अध्ययन कर ८४ आसनों का निर्धारण किया। महर्षि वात्स्यायन ने वैज्ञानिक विधि से काम को चार पुरुषार्थों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध किया। अर्थ का अर्जन ही काम पूर्ति हेतु है। काम ही धर्म की साधना का आधार है। काम पूर्ति में ही मोक्ष है। रसानंद को परमानंद तुल्य कहा गया है। पश्चिम में केलि क्रीड़ा वासना तक सीमित हो कर रह गयी है जबकि भारत में यह व्यक्तित्व के विकास का माध्यम है। 
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान,  ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल  salil.sanjiv@gmail.com  
   




























  

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव 
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याद जिसकी भुलाना मुश्किल है 
याद उसको न आना मुश्किल है
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मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव 
*
कैसा लगता काल बताओ? 
तनिक मौत को गले लगाओ
.
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
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सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
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समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
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दहशतगर्दों तज बंदूकें
चलो खेत में फसल उगाओ
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३१-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com

हास्य

हास्य सलिला:
संजीव 
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लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ 
पल भर भी छोड़ा नहीं, लिये हाथ में हाथ 
दोस्त साथ था हुआ चमत्कृत बोला: 'भैया! खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र, न छोड़ा पल भर को भी हाथ'
लालू बोले: ''गलत न समझो, झुक जाएगा माथ
ज्यों छोडूँगा हाथ, तुरत ही आ जाएगी आफत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुद ही अपनी शामत?
ज्यों छूटेगा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
***
३१-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com

काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - इंजी. संतोष कुमार माथुर




समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति 
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ 
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एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।

'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती 
गेयता संवेदनों का गान करती 
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा 
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती 
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता 
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता' 
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-

'मिटा दूरियाँ, गले लगाना 
नवरचनाकारों को ठानें 
कलश नहीं, आधार बन सकें 
भू हो हिंदी धाम'

'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम 
तुमने जीवन सरस बनाया 
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे 
नेहिल नाता मन को भाया'

द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे! 
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम 
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम 
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित 
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'

पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।

प्रेमचन्द

मुंशी प्रेमचन्द (1923) कहिन 
*
"खेल के मैदान में वही शख्स तारीफ का मुस्तहक ( अधिकारी )होता है जो जीत से फूलता नहीं, हार से रोता नहीं, जीते तब भी खेलता है, हारे तब भी खेलता है।------हमारा काम तो सिर्फ खेलना है, खूब दिल लगाकर खेलना, खूब जी तोड़ कर खेलना, अपने को हार से इस प्रकार बचाना कि हम कोनैन ( इहलोक -परलोक )की दौलत खो बैठेंगे, लेकिन हारने के बाद गर्द झाड़कर खड़े हो जाना चाहिए और फिर खम ठोककर हरीफ से कहना चाहिए कि एक बार और ।"

*

समीक्षा: राग तेलंग

फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.पुस्तक चर्चा -
'मैं पानी बचाता हूँ' सामयिक युगबोध की कवितायेँ
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- मैं पानी बचाता हूँ, काव्य संग्रह, राग तेलंग, वर्ष २०१६, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२३-५, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६]
*
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है किन्तु दर्पण संवेदनहीन होता है जो यथास्थिति को प्रतिबिंबित मात्र करता है जबकि साहित्य सामयिक सत्य को भावी शुभत्व के निकष पर कसते हुए परिवर्तित रूप में प्रस्तुत कर समाज के उन्नयन का पथ प्रशस्त करता है। दर्पण का प्रतिबिम्ब निरुद्देश्य होता है जबकि साहित्य का उद्देश्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय माना गया है। विविध विधाओं में सर्वाधिक संवेदनशीलता के कारण कविता यथार्थ और सत्य के सर्वाधिक निकट होती है। छन्दबद्ध हो या छन्दमुक्त कविता का चयन कवि अपनी रुचि अनुरूप करता है। बहुधा कवि प्रसंग तथा लक्ष्य पाठक/श्रोता के अनुरूप शिल्प का चयन करता है।
'मैं पानी बचाता हूँ' हिंदी कविता के समर्थ हस्ताक्षर राग तेलंग की छोटी-मध्यम कविताओं का पठनीय संग्रह है। बिना किसी भूमिका के कवि पाठकों को कविता से मिलाता है, यह उसकी सामर्थ्य और आत्म विश्वास का परिचायक है। पाठक पढ़े और मत बनाये, कोई पाठक के अभिमत को प्रभावित क्यों करे? यह एक सार्थक सोच है। इसके पूर्व 'शब्द गुम हो जाने के खतरे', 'मिट्टी में नमी की तरह', 'बाजार से बेदखल', 'कहीं किसी जगह कई चेहरों की एक आवाज़', कविता ही आदमी को बचायेगी' तथा 'अंतर्यात्रा' ६ काव्य संकलनों के माध्यम से अपना पाठक वर्ग बना चुके और साहित्य में स्थापित हो चुके राग तेलंग जी समय की नब्ज़ टटोलना जानते हैं। वे कहते हैं- 'अब नहीं कहता / जानता कुछ नहीं / न ही / जानता सब कुछ / बस / समझता हूँ कुछ-कुछ।' यह कुछ-कुछ समझना ही आदमी का आदमी होना है। सब कुछ जानने और कुछ न जानने के गर्व और हीनता से दूर रहने की स्थिति ही सृजन हेतु आदर्श है।
कवि अनावश्यक टकराव नहीं चाहता किन्तु अस्मिता की बात हो तो पैर पीछे भी नहीं हटाता। भाषा तो कवि की माँ है। जब भाषा की अस्मिता का सवाल हो तोवह पीछे कैंसे रह सकता है।
'अब अगर / अपनी जुबां की खातिर / छीनना ही पड़े उनसे मेरी भाषा तो / मुझे पछाड़ना ही होगा उन्हें '
काश यह संकल्प भारत के राजनेता कर सकते तो हिंदी जगवाणी हो जाती। तेलंग आस्तिकता के कवि हैं। तमाम युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं के बावजूद वह मनुष्यता पर विश्वास रखते है। इसलिए वह लिखते हैं- 'मैं प्रार्थनाओं में / मनुष्य के मनुष्य रहने की / कामना करता हूँ। '
'लता-लता हैं और आशा-आशा' शीर्षक कविता राग जी की असाधारण संवेदनशीलता की बानगी है। इस कविता में वे लता, आशा, जगजीत, गुलज़ार, खय्याम, जयदेव, विलायत खां, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां, अल्लारक्खा खां, जाकिर हुसैन, बेगम अख्तर, फरीद खानम,परवीन सुल्ताना सविता देवी आदि को किरदार बनाकर उनके फन में डूबकर गागर में सागर भरते हुए उनकी खासियतों से परिचित कराकर निष्कर्षतः: कहते हैं- "सब खासमखास हैं / किसी का किसी से / कोई मुकाबला नहीं।"
यही बात इस संग्रह की लगभग सौ कविताओं के बारे में भी सत्य है। पाठक इन्हें पढ़ें, इनमें डूबे और इन्हें गुने तो आधुनिक कविता के वैशिष्ट्य को समझ सकेगा। नए कवियों के लिए यह पाठ्य पुस्तक की तरह है। कब कहाँ से कैसे विषय उठाना, उसके किस पहलू पर ध्यान केंद्रित करना और किस तरह सामान्य दिखती घटना में किस कोण से असाधारणता की तलाश कर असामान्य बात कहना कि पाठक-श्रोता के मन को छू जाए, पृष्ठ-पृष्ठ पर इसकी बानगी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्र लेखन परंपरा में 'कम लिखे से ज्यादा समझना' की बानगी 'मार' शीर्षक कविता में देखें-
"देखना / बिना छुए / छूना है
सोचना / बिना पहुँचे / पहुँचना है
सोचकर देखना / सोचकर / देखना नहीं है
सोचकर देखो / फिर उस तक पहुँचो
गागर में सागर की तरह कविता में एक भी अनावश्यक शब्द न रहने देना और हर शब्द से कुछ न कुछ कहना राग तेलंग की कविताओं का वैशिष्ट्य है। उनके आगामी संकलन की बेसब्री से प्रतीक्षा की ही जाना चाहिए अन्यथा कविता की सामर्थ्य और पाठक की समझ दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगने की आशंका होगी।
***
चर्चाकार सम्पर्क- समन्वय, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
दूरवार्ता- ९४२५१ ८३२४४, ०७६१ २४१११३१, salil.sanjiv@gmail.com
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आनंद पाठक

अभियंता, हाइकुकार, व्यंग्यकार, ग़ज़लकार 
आनंद पाठक को 
जन्म दिवस की 
*
अनंत शुभ कामनायें 
आनंद परमानंद पा रच माहिया हरते जिया 
लिख व्यंग्य दें जिस पर उसी का हिला देते हैं हिया
लिख दें ग़ज़ल तो हो फसल भावों की बिन बरसात भी 
कृपा है इन पर उसी की हुए ये जिसके ये पिया

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

सवैया मुक्तक

सवैया मुक्तक  :
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने 'सलिल' गिला न किया.  
तोड़ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन हो सहयोग दिया.  

नर्मदा नेह की बहा शीतल, कंठ में शिव ने ज़हर धार लिया- 
मान्यता इंद्र-भोग की न तनिक, लोक ने शिव को ईश मान लिया  

salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तक

मुक्तक  
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? 
चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, 
रेप पर उसकी जीत हो कैसे?? 
*
​salil.sanjiv@gmail.com
#divyanarmada 
#दिव्यनर्मदा

द्विपदी

​एक द्विपदी
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के. 
****

मुक्तक

मुक्तक:
कोशिशें करती रहो, बात बन ही जायेगी 
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी 
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते- 
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी. 
****
salil.sanjiv@gmail.com
#divyanarmada
#दिव्यनर्मदा

सुभाषित संजीवनी १

सुभाषित संजीवनी १
*
मुख पद्मदलाकारं, वाचा चंदन शीतलां।
हृदय क्रोध संयुक्तं, त्रिविधं धूर्त लक्ष्णं।।
*
कमल पंखुड़ी सदृश मुख, बोल चंदनी शीत।
हृदय युक्त हो क्रोध से, धूर्त चीन्ह त्रैरीत।।
*

रविवार, 28 जुलाई 2019

समीक्षा - दिन कटे हैं धूप चुनते

कृति समीक्षा :
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते 
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के 
मटमैलेपन में 
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की 
परिभाषा का विश्लेषण कर लो। 

साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है। 

स्वर्ग निरंतर 
उत्सव में है  
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े 
आशा का अन्वेषण कर लो। 
मिट्टी के संशय को समझो 
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।  
हठधर्मी सूरज के 
सम्मुख 
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में 
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।  

मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है। 

नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति  प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-

गुदगुदाकर 
मंजरी को 
खुश्बूई लम्हे खिले, 
पंखुरी के 
पास आई 
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में 
गुलदाउदी 
रह-रह नहाई रात भर। 

कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-

"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा 
सोई चादर तान यहाँ 

कवि के  मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ- 

अक्षर-अक्षर आयातित हैं 
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं 
छलते संधि-समास पीर में 
रस के गाँव नहीं जुटते हैं। 
अलंकार ले 
चलती कविता 
सर से पाँव लदी। 

अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -

सौंपकर 
थोथे मुखौटे 
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे 
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन 
सुख रहे हर रोज घुनते। 

सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है- 

भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा 
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा 
किस सनातन सत्य से संवाद हो 
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो 

और 
चुप्पियों ने मर्म सारा  
लिख दिया जब चिट्ठियों में, 
अक्षरों को याद आए 
शक्ति के संचार की

अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -

क्यों जगाकर 
दर्द के अहसास को 
मन अचानक मौन होना चाहता है? 

पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं- 

फिर हठीला 
ज्ञान रसवंती नदी में 
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।  

नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है- 

रामचरित की 
कथा पुरानी 
काट रही है कन्नी 
साखी-शबद 
रमैनी की भी 
कीमत हुई अठन्नी 
तीसमारखाँ 
मंचों पर अब 
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी 
याद आ गई नानी। 
और 
आज तलक 
साहित्य  जिन्होंने 
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों 
पर उगती अब 
कविताओं की रेखा।  

नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं- 

मात्रापतन 
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं 
इनके नव प्रयोग से सहमीं 
कवितायेँ घायल हैं 
गले फाड़ना 
फूहड़ बातें 
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं 
नहीं दूसरा सानी। 

'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है?  अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं- 
स्वप्नों की 
समिधायें लेकर 
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर 
आओ, हवं करें। 
शमित सूर्य को 
बोझल तर्पण 
ायासित संबोधन,
आवेशित 
कुछ घनी चुप्पियाँ 
निरानंद आवाहन। 
निराकार 
साकार व्यवस्थित 
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी 
क्षितिज चयन करें। 
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है- 

त्रुटियों का 
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ  
अर्थहीन वाचन की पद्धति 
चिंतन-मनन करें। 
और 
संस्कृत-सूक्ति 
विवेचन-दर्शन 
सूत्र-न्याय संप्रेषण 
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था 
बौद्धिक यजन करें। 

बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -

पीड़ाओं 
की झोली लेकर 
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
 .... हे कविता!
जीवंत जीवनी 
तुमने मुझको गीत बनाया। 

सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।  

वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-

चुभन 
बहुत है वर्तमान में 
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम 
आओ समकालीन बनें। 

समकालीन बनने की विधि भी जान लें-

कथ्यों को 
प्रामाणिक कर दें 
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें 
थोड़ा और नवीन बनें। 

'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है- 

खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से, 
उस गड़ही के तीर  .

नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है- 
चेत गए हैं अब तो भैया 
कलुआ और कदीर। 

यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -

'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब  
गीत धधकने लगता है तब   

और 

खाली बस्तों में किताब रख 
तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्व भारती उगने दें हम 
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ 

नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेति अवनीश त्रिपाठी बढ़ाई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा। 
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]

विमर्श : जाति

विमर्श : जाति 
अनुगूँजा सिन्हाः मैं आपके प्रति पूरे सम्मान के साथ आपको एक बात बताना चाहती हूँ कि मैं जाति में यकीन नही रखती हूँ और मैं कायस्थ नहीं हूँ।

अनुगून्जा जी! 
आपसे सविनय निवेदन है कि- 
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है. 
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं. 
अत:, आप कायस्थ हैं। जाती में आपका विसवास है इसीलिए आप जाया (जननी ) का सम्मान करती हैं।   
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. समय और परिस्थितियों ने शब्दों के अर्थ भुला दिये, अर्थ का अनर्थ अज्ञानता के दौर में हुआ. अब ज्ञान सुलभ है, हम शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करें तो समरसता स्थापित करने में सहायक होंगे। दुर्भाग्य से जन प्रतिनिधि इसमें बाधक और दलीय स्वार्थों के साधक है.