दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
एक कविता: पर्वतों पर... संजीव 'सलिल'
पर्वतों पर...
संजीव 'सलिल'
*
*
पर्वतों पर
सघन वन प्रांतर में
मिलते हैं भग्नावशेष.
बताते हैं खंडहर
कभी बुलंद थीं इमारतें,
कुछ अब तक हैं बुलंद
किन्तु कब तक रहेंगी
कोई नहीं कह सकता.
*
पर्वतों पर
कभी हुआ करते थे
गगनचुम्बी वृक्षों से
होड़ लेते दुर्ग,
दुर्गों में महल,
महलों में राजा-रानियाँ,
बाहर आम लोग और
आम लोगों के बीच
लोकमान्य संत.
*
राजा करते थे षड्यंत्र,
संत बनाते थे मंदिर.
राजा लड़ते थे सत्ता के लिये.
संत जीते थे
सबके कल्याण के लिये.
समय के साथ मिट गए
संतों के आश्रम
किन्तु
अमर है संतों की वाणी.
*
समय के साथ
न रहे संत, न राजा-रानी
किन्तु शेष हैं दुर्ग और महल,
कहीं खंडित, कहीं सुरक्षित.
संतों की वाणी
सुरक्षित है पर अब
मानव पर नहीं होता प्रभाव.
दुर्ग और महल
बन गए होटल या
हो गए खंडहर.
पथदर्शक सुनाते हैं
झूठी-सच्ची कहानियाँ.
नहीं होता विश्वास या रोमांच
किन्तु सुन लेते हैं हम कुतूहल से.
वैसे ही जैसे संत-वाणी.
*
कहीं शौर्य, कहीं त्याग.
कहीं षड्यंत्र, कहीं अनुराग.
कहीं भोग, कहीं वैराग्य.
कहीं सौभाग्य, कहीं दुर्भाग्य.
भारत के हर कोने में फ़ैले हैं
अवशेष और कहानियाँ.
हर हिस्से में बताई जाती हैं
समझदारियाँ और नादानियाँ.
मन सहज सुने को
मानकर भी नहीं मानता.
बहुत कुछ जानकर भी नहीं जानता.
*
आज की पीढी
पढ़ती है सिर्फ एक पाठ.
कमाओ, उडाओ, करो ठाठ.
भूल जाओ बीता हुआ कल,
कौन जानता है के होगा कल,
जियो आज में, आज के लिये.
चंद सिरफिरे
जो कल से कल तक जीते हैं
वे आज भी, कल भी
देखेंगे किले और मंदिर,
खंडहर और अवशेष,
लेखेंगे गत-आगत.
दास्तां कहते-कहते
सो जायेंगे
पर कल की थाती
कल को दे जायेंगे.
भविष्य की भूमि में
अतीत की फसल
बो जायेंगे.
*
मंगलवार, 19 मई 2009
सूक्ति-सलिला: प्रो. बी.पी.मिश्र'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेँट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं।
सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-
Fortune,चाटुकारिता, चापलूसी, मुँहदेखी
Our thoughts are ours, their ends none of our own.
वाह रे विश्व! मनुष्य के कान सत्परामर्श के लिए बहरे किन्तु चाटुकारिता के लिए सदैव उत्सुक और सजग हैं.
शुभ सलाह हित मनुज के, बहरे होते कान.
style="color:#ff0000;">चाटुकारिता के लिए, क्यों उत्सुक इंसान?
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
