मुक्तिका :
.......क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
काम रहजन का करे नाम से रहबर क्यों है?
मौला इस देश का नेता हुआ कायर क्यों है??
खोल अखबार- खबर सच से बेखबर क्यों है?
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदर क्यों है?
जो है खूनी उकाब उसको अता की ताकत.
भोला-मासूम परिंदा नहीं जबर क्यों है??
जिसने पैदा किया तुझको तेरी औलादों को.
आदमी के लिए औरत रही चौसर क्यों है??
एक ही माँ ने हमें दूध पिलाकर पाला.
पीठ हिन्दोस्तां की पाक का खंजर क्यों है??
लाख खाता है कसम रोज वफ़ा की आदम.
कर न सका आज तलक बोल तो जौहर क्यों है??
पेट पलता है तेरा और मेरा भी जिससे-
कामचोरी की जगह, बोल ये दफ्तर क्यों है??
ना वचन सात, ना फेरे ही लुभाते तुझको.
राह देखा किया जिसकी तू, वो कोहबर क्यों है??
हर बशर चाहता औरत तो पाक-साफ़ रहे.
बाँह में इसको लिए, चाह में गौहर क्यों है??
पढ़ के पुस्तक कोई नादान से दाना न हुआ.
ढाई आखर न पढ़े, पढ़ के निरक्षर क्यों है??
फ़ौज में क्यों नहीं नेताओं के बेटे जाते?
पूछा जनता ने तो नेता जी निरुत्तर क्यों है??
बूढ़े माँ-बाप की खातिर न जगह है दिल में.
काट-तन-पेट खड़ा तुमने किया घर क्यों है??
तीन झगड़े की वज़ह- जर, जमीन, जोरू हैं.
ये अगर सच है तो इन बिन न रहा नर क्यों है??
रोज कहते हो तुम: 'हक समान है सबको"
ये भी बोलो, कोई बेहतर कोई कमतर क्यों है??
अब न जुम्मन है, न अलगू, न रही खाला ही.
कौन समझाए बसा प्रेम में ईश्वर क्यों है??
रुक्न का, वज्न का, बहरों का तनिक ध्यान धरो.
बा-असर थी जो ग़ज़ल, आज बे-असर क्यों है??
दल-बदल खूब किया, दिल भी बदल कर देखो.
एक का कंधा रखे दूसरे का सर क्यों है??
दर-ब-दर ये न फिरे, वे भी दर-ब-दर न फिरे.
आदमी आम ही फिरता रहा दर-दर क्यों है??
कहकहे अपने उसके आँसुओं में डूबे हैं.
निशानी अपने बुजुर्गों की गुम शजर क्यों है??
लिख रहा खूब 'सलिल', खूबियाँ नहीं लेकिन.
बात बेबात कही, ये हुआ अक्सर क्यों है??
कसम खुदा की, शपथ राम की, लेकर लड़ते.
काले कोटों का 'सलिल', संग गला तर क्यों है??
बेअसर प्यार मगर बाअसर नफरत है 'सलिल'.
हाय रे मुल्क! सियासत- जमीं बंजर क्यों है??
************************************************
रहजन = राह में लूटनेवाला, रहबर = राह दिखानेवाला, मौला = ईश्वर, उकाब = बाज, अता करना = देना, जबर = शक्तिवान, बशर = व्यक्ति, गौहर = अपने समय की सर्वाधिक प्रसिद्ध वैश्या, नादान = नासमझ, दाना = समझदार, रुक्न = लयखंड, वज्न = पदभार , बहर = छंद, बेअसर = प्रभावहीन, बा-असर = प्रभावपूर्ण, शजर = वृक्ष, जमीं = भूमि.
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
मुक्तिका : .......क्यों है? संजीव 'सलिल'
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शनिवार, 25 सितंबर 2010
नव गीत: कैसी नादानी??... संजीव 'सलिल'
नव गीत:
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
कैसी नादानी??...
संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
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मंगलवार, 21 सितंबर 2010
मुक्तिका: आँखें गड़ाये... संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
आँखें गड़ाये...
संजीव 'सलिल'
*
आँखें गड़ाये ताकता हूँ आसमान को.
भगवान का आशीष लगे अब झरा-झरा..
आँखें तरस गयीं है, लबालब नदी दिखे.
जंगल कहीं तो हो सघन कोई हरा-हरा..
इन्सान तो बहुत हैं शहर-गाँव सब जगह.
लेकिन न एक भी मिला अब तक खरा-खरा..
नेताओं को सौंपा था देश करेंगे सरसब्ज़.
दिखता है खेत वतन का सूखा, चरा-चरा..
फूँक-फूँक पी रहे हम आज छाछ को-
नादां नहीं जल चुके दूध से जरा-जरा..
मंदिर हो. काश्मीर हो, या चीन का मसला.
कर बंद आँख कह रहे संकट टरा-टरा..
जो हिंद औ' हिन्दी के नहीं काम आ रहा.
जिंदा भले लगे, मगर है वह मरा-मरा..
देखा है जबसे भूख से रोता हुआ बच्चा.
भगवान का भी दिल है दर्द से भरा-भरा..
माता-पिता गए तो सिर से छाँव ही गई.
बेबस है 'सलिल' आज सभी से डरा-डरा..
******************************
आँखें गड़ाये...
संजीव 'सलिल'
*
आँखें गड़ाये ताकता हूँ आसमान को.
भगवान का आशीष लगे अब झरा-झरा..
आँखें तरस गयीं है, लबालब नदी दिखे.
जंगल कहीं तो हो सघन कोई हरा-हरा..
इन्सान तो बहुत हैं शहर-गाँव सब जगह.
लेकिन न एक भी मिला अब तक खरा-खरा..
नेताओं को सौंपा था देश करेंगे सरसब्ज़.
दिखता है खेत वतन का सूखा, चरा-चरा..
फूँक-फूँक पी रहे हम आज छाछ को-
नादां नहीं जल चुके दूध से जरा-जरा..
मंदिर हो. काश्मीर हो, या चीन का मसला.
कर बंद आँख कह रहे संकट टरा-टरा..
जो हिंद औ' हिन्दी के नहीं काम आ रहा.
जिंदा भले लगे, मगर है वह मरा-मरा..
देखा है जबसे भूख से रोता हुआ बच्चा.
भगवान का भी दिल है दर्द से भरा-भरा..
माता-पिता गए तो सिर से छाँव ही गई.
बेबस है 'सलिल' आज सभी से डरा-डरा..
******************************
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शनिवार, 18 सितंबर 2010
नवगीत: मेघ बजे --संजीव 'सलिल'
नवगीत:
मेघ बजे
संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.

ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
*******************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मेघ बजे
संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.


*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...

पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?

डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
*******************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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गुरुवार, 16 सितंबर 2010
मुक्तिका: ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई --संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
संजीव 'सलिल'
*
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी
संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
रिश्तों में भी न कुछ हमदमी रह गयी..
गैर तो गैर थे, अपने भी गैर हैं.
आँख में इसलिए तो नमी रह गयी..
जो खुशी थी वो न जाने कहाँ खो गयी.
आये जब से शहर संग गमी रह गयी..
अब गरमजोशी ढूँढ़े से मिलती नहीं.
लब पे नकली हँसी ही जमी रह गयी..
गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..
माँ न मैया न माता न लाड़ो-दुलार.
'सलिल' घर में हावी ममी रह गयी ...
गाँव में थी खुशी, भाईचारा, हँसी.
अब सियासत 'सलिल' मातमी रह गयी..
*********************************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
संजीव 'सलिल'
*
मुक्तिका:
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी
संजीव 'सलिल'
*
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी.
रिश्तों में भी न कुछ हमदमी रह गयी..
गैर तो गैर थे, अपने भी गैर हैं.
आँख में इसलिए तो नमी रह गयी..
जो खुशी थी वो न जाने कहाँ खो गयी.
आये जब से शहर संग गमी रह गयी..
अब गरमजोशी ढूँढ़े से मिलती नहीं.
लब पे नकली हँसी ही जमी रह गयी..
गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..
माँ न मैया न माता न लाड़ो-दुलार.
'सलिल' घर में हावी ममी रह गयी ...
गाँव में थी खुशी, भाईचारा, हँसी.
अब सियासत 'सलिल' मातमी रह गयी..
*********************************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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मंगलवार, 14 सितंबर 2010
नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय .... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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गुरुवार, 9 सितंबर 2010
दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं ------संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :
संजीव 'सलिल'
*
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..
चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..
दीपावली मना रहा जग, जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप.

वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..
दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..
नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..

वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल'न उन सा अन्य..
खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष.
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..
चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.
**********************************
Acharya Sanjiv Salil
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मंगलवार, 7 सितंबर 2010
दोहा सलिला: पावस है त्यौहार संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला:
पावस है त्यौहार
संजीव 'सलिल'
*
नभ-सागर-मथ गरजतीं, अगणित मेघ तरंग.
पावस-पायस पी रहे, देव-मनुज इक संग..

रहें प्रिया-प्रिय संग तो, है पावस त्यौहार. मरणान्तक दुःख विरह का, जल लगता अंगार..
*
आवारा बादल करे, जल बूंदों से प्यार.
पवन लट्ठ फटकारता, बनकर थानेदार..
*
रूप देखकर प्रकृति का, बौराया है मेघ.
संयम तज प्रवहित हुआ, मधुर प्रणय-आवेग..
*
मेघदूत जी छानते, नित सारा आकाश.
डायवोर्स माँगे प्रिय, छिपता यक्ष हताश..
*
उफनाये नाले-नदी, कूल तोड़ती धार.
कुल-मर्यादा त्यागती, ज्यों उच्छ्रंखल नार..
*
उमड़-घुमड़ बादल घिरे, छेड़ प्रणय-संगीत.

*
जीवन सतत प्रवाह है, कहती है जल-धार.
सिखा रही पाषाण को, पगले! कर ले प्यार..
*
नील गगन, वसुधा हरी, कृष्ण मेघ का रंग.
रंगहीन जल-पवन का, सभी चाहते संग..
*
किशन गगन, राधा धरा, अधरा बिजली वेणु.
'सलिल'-धार शत गोपियाँ, पवन बिरज की रेणु.
*
कजरी, बरखा गा रहीं, झूम-झूम जल-धार.
ढोल-मृदंग बजा रहीं, गाकर पवन मल्हार.
*
युवा पड़ोसन धरा पर, मेघ रहा है रीझ.
रुष्ट दामिनी भामिनी, गरज रही है खीझ.
*
वन प्रांतर झुलसा रहा, दिनकर होकर क्रुद्ध.
नेह-नीर सिंचन करे, सलिलद संत प्रबुद्ध..
*
निबल कामिनी दामिनी, अम्बर छेड़े झूम.
हिरनी भी हो शेरनी, उसे नहीं मालूम..
*
पानी रहा न आँख में, देखे आँख तरेर.
पानी-पानी हो गगन, पानी दे बिन देर..
*
अति हरदम होती बुरी, करती सब कुछ नष्ट.
अति कम हो या अति अधिक, पानी देता कष्ट..
*
**********************************
---------- दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
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रविवार, 5 सितंबर 2010
मुक्तिका: चुप रहो... संजीव 'सलिल'

चुप रहो...
संजीव 'सलिल'
*
महानगरों में हुआ नीलाम होरी चुप रहो.
गुम हुई कल रात थाने गयी छोरी चुप रहो..
टंग गया सूली पे ईमां मौन है इंसान हर.
बेईमानी ने अकड़ मूंछें मरोड़ी चुप रहो..
टोफियों की चाह में है बाँवरी चौपाल अब.
सिसकती कदमों तले अमिया-निम्बोरी चुप रहो..
सियासत की सड़क काली हो रही मजबूत है.
उखड़ती है डगर सेवा की निगोड़ी चुप रहो..
बचा रखना है अगर किस्सा-ए-बाबा भारती.
खड़कसिंह ले जाये चोरी अगर घोड़ी चुप रहो..
याद बचपन की मुक़द्दस पाल लहनासिंह बनो.
हो न मैली साफ़ चादर 'सलिल' रहे कोरी चुप रहो..
चुन रही सरकार जो सेवक है जिसका तंत्र सब.
'सलिल' जनता का न कोई धनी-धोरी चुप रहो..
************************************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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गुरुवार, 19 अगस्त 2010
गीत: मंजिल मिलने तक चल अविचल..... संजीव 'सलिल'
गीत:
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
संजीव 'सलिल'
*
*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....
*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.
धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.
मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
*
कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.
मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति , देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
*******
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
संजीव 'सलिल'
*
*
लिखें गीत हम नित्य न भूलें, है कोई लिखवानेवाला.
कौन मौन रह मुखर हो रहा?, वह मन्वन्तर और वही पल.....
*
दुविधाओं से दूर रही है, प्रणय कथा कलियों-गंधों की.
भँवरों की गुन-गुन पर हँसतीं, प्रतिबंधों की व्यथा-कथाएँ.
सत्य-तथ्य से नहीं कथ्य ने तनिक निभाया रिश्ता-नाता
पुजे सत्य नारायण लेकिन, सत्भाषी सीता वन जाएँ.
धोबी ने ही निर्मलता को लांछित किया, पंक को पाला
तब भी, अब भी सच-साँचे में असच न जाने क्यों पाया ढल.....
*
रीत-नीत को बिना प्रीत के, निभते देख हुआ उन्मन जो
वही गीत मनमीत-जीतकर, हार गया ज्यों साँझ हो ढली.
रजनी के आँसू समेटकर, तुहिन-कणों की भेंट उषा को-
दे मुस्का श्रम करे दिवस भर, संध्या हँसती पुलक मनचली.
मेघदूत के पूत पूछते, मोबाइल क्यों नहीं कर दिया?
यक्ष-यक्षिणी बैकवर्ड थे, चैट न क्यों करते थे पल-पल?.....
*
कविता-गीत पराये लगते, पोयम-राइम जिनको भाते.
ब्रेक डांस के उन दीवानों को अनजानी लचक नृत्य की.
सिक्कों की खन-खन में खोये, नहीं मंजीरे सुने-बजाये
वे क्या जानें कल से कल तक चले श्रंखला आज-कृत्य की.
मानक अगर अमानक हैं तो, चालक अगर कुचालक हैं तो
मति-गति , देश-दिशा को साधे, मंजिल मिलने तक चल अविचल.....
*******
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मंगलवार, 17 अगस्त 2010
सामयिक गीत: आज़ादी की साल-गिरह संजीव 'सलिल'
सामयिक गीत:
आज़ादी की साल-गिरह
संजीव 'सलिल'
*

*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है जगह कहीं?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
पाती बांधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन शासनकर्ता
क्यों?, क्या इसकी कहो वज़ह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
उच्छ्रंखलता बना स्वभाव.
अनुशासन का हुआ अभाव.
सही-गलत का भूले फर्क-
केर-बेर का विषम निभाव.
दगा देश के साथ करें-
कहते सच को मिली फतह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
निज भाषा को त्याग रहे,
पर-भाषा अनुराग रहे.
परंपरा के ईंधन सँग
अधुनातनता आग दहे.
नागफनी की फसलों सँग-
कहें कमल से: 'जा खुश रह.'
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
संस्कार को भूल रहें.
मर्यादा को तोड़ बहें.
अपनों को, अपनेपन को,
सिक्कों खातिर छोड़ रहें.
श्रम-निष्ठा के शाहों को
सुख-पैदल मिल देते शह.
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
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शनिवार, 14 अगस्त 2010
स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना: गीत भारत माँ को नमन करें.... संजीव 'सलिल'
स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना:
गीत
भारत माँ को नमन करें....
संजीव 'सलिल'
*
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर
सद्भावों की करें साधना
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से
'जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचायें
नदियाँ-झरने गान सुनायें
पंछी कलरव कर इठलायें
भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे
सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*******
Acharya Sanjiv Salil
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गीत
भारत माँ को नमन करें....
संजीव 'सलिल'
*
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर
सद्भावों की करें साधना
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से
'जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचायें
नदियाँ-झरने गान सुनायें
पंछी कलरव कर इठलायें
भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे
सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*******
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रविवार, 8 अगस्त 2010
कविता: उम्मीद की किरण संजीव 'सलिल'
कविता:
उम्मीद की किरण
संजीव 'सलिल'
*
*
बहुत कम हैं जो
सच को कह पाते हैं
उनसे भी कम हैं
जो सच को सह पाते हैं
अधिकांश तो
स्वार्थ और झूठ की
बाढ़ में बह जाते हैं.
रोशनी की लकीर
बनते और बनाते हैं वही-
जो सच को गह पाते हैं.
वे भले ही सच की
तह नहीं पाते हैं, किन्तु
सच को सहने और कहने की
वज़ह बन जाते हैं.
असच के सामने
तन जाते हैं.
उम्मीद की किरण
बनकर जगमगाते हैं.
************
उम्मीद की किरण
संजीव 'सलिल'
*
*
बहुत कम हैं जो
सच को कह पाते हैं
उनसे भी कम हैं
जो सच को सह पाते हैं
अधिकांश तो
स्वार्थ और झूठ की
बाढ़ में बह जाते हैं.
रोशनी की लकीर
बनते और बनाते हैं वही-
जो सच को गह पाते हैं.
वे भले ही सच की
तह नहीं पाते हैं, किन्तु
सच को सहने और कहने की
वज़ह बन जाते हैं.
असच के सामने
तन जाते हैं.
उम्मीद की किरण
बनकर जगमगाते हैं.
************
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गीत: हर दिन मैत्री दिवस मनायें..... संजीव 'सलिल'
गीत:
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
संजीव 'सलिल'
*
*
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
होनी-अनहोनी कब रुकती?
सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
जैसा जो बीते हैं हम सब
वैसा फल हम नित पाते हैं.
फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?
कारण कृपया, मुझे बतायें
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
मन से मन की बात रुके क्यों?
जब मन हो गलबहियाँ डालें.
अमराई में झूला झूलें,
पत्थर मार इमलियाँ खा लें.
धौल-धप्प बिन मजा नहीं है
हँसी-ठहाके रोज लगायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
बिरहा चैती आल्हा कजरी
झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
सीमेंटी जंगल में फँसकर-
क्यों माटी की महक भुलाते?
लगा अबीर, गायें कबीर
छाछ पियें मिल भंग चढ़ायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
संजीव 'सलिल'
*
*
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
होनी-अनहोनी कब रुकती?
सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.
जैसा जो बीते हैं हम सब
वैसा फल हम नित पाते हैं.
फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?
कारण कृपया, मुझे बतायें
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
मन से मन की बात रुके क्यों?
जब मन हो गलबहियाँ डालें.
अमराई में झूला झूलें,
पत्थर मार इमलियाँ खा लें.
धौल-धप्प बिन मजा नहीं है
हँसी-ठहाके रोज लगायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
बिरहा चैती आल्हा कजरी
झांझ मंजीरा ढोल बुलाते.
सीमेंटी जंगल में फँसकर-
क्यों माटी की महक भुलाते?
लगा अबीर, गायें कबीर
छाछ पियें मिल भंग चढ़ायें.
हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....
*
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दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*

*
कौन कहानीकार है?, किसके हैं संवाद?
बोल रहे सब यंत्रवत, कौन सुने फरियाद??
*
आर्थिक मंदी छा गयी, मचा हुआ कुहराम.
अच्छे- अच्छे फिसलते, कोई न पाता थाम..
*
किसका कितना दोष है?, कहो कौन निर्दोष?
विधना जाने कब करे, सर्व नाश का घोष??
*
हवामहल पल में उड़ा, वासी हुए निराश.
बिन नींव की व्यवस्था, हाय हो गयी ताश..
*
कठपुतलीवत नचाता, थाम श्वास की डोर.
देख न पाते हम झलक, चाहें करुणा-कोर..
*
भ्रम होता हम कर रहे, करा रहा वह काज.
लेते उसका श्रेय खुद, किन्तु न आती लाज..
*
सुविधा पाने जो गए, तजकर अपना देश.
फिर-फिर आते पलटकर, मन में व्यथा अशेष..
*
नगदी के नौ लीजिये, तेरह नहीं उधार.
अब तो छलिये! बंद कर, सपनों का व्यापार..
*
चमक-दमक औ' सादगी, वह सोना यह धूल.
वह पावन शतदल कमल, यह बबूल का शूल..
*
पेड़ टूटते, दूब झुक, सह लेती तूफ़ान.
जो माटी से जुड़ रहे, 'सलिल' वही मतिमान..
*
पल में पैरों-तले से, सरकी 'सलिल' ज़मीन.
तीसमारखाँ काल के, हाथ हो गए दीन..
*
थाम-थमाये विपद में, बिना स्वार्थ निज हाथ.
'सलिल' हृदय में लो बसा, नमन करो नत माथ..
*
दानव वे जो जोड़ते, औरों का हक छीन.
ऐश्वर्य जितना बढ़ा, वे उतने ही दीन..
*
भूमि, भवन, धन जोड़कर, हैं दरिद्र वे लोग.
'सलिल' न जो कर पा रहे, जी भरकर उपयोग..
*
जो पाया उससे नहीं, 'सलिल' जिन्हें संतोष.
वे सचमुच कंगाल हैं, गर्दभ ढोते कोष.
*
बात-बात में कर रहे, नाहक वाद-विवाद.
'सलिल' सहज हो कर करें, कुछ सार्थक संवाद..
*
संजीव 'सलिल'
*

*
कौन कहानीकार है?, किसके हैं संवाद?
बोल रहे सब यंत्रवत, कौन सुने फरियाद??
*
आर्थिक मंदी छा गयी, मचा हुआ कुहराम.
अच्छे- अच्छे फिसलते, कोई न पाता थाम..
*
किसका कितना दोष है?, कहो कौन निर्दोष?
विधना जाने कब करे, सर्व नाश का घोष??
*
हवामहल पल में उड़ा, वासी हुए निराश.
बिन नींव की व्यवस्था, हाय हो गयी ताश..
*
कठपुतलीवत नचाता, थाम श्वास की डोर.
देख न पाते हम झलक, चाहें करुणा-कोर..
*
भ्रम होता हम कर रहे, करा रहा वह काज.
लेते उसका श्रेय खुद, किन्तु न आती लाज..
*
सुविधा पाने जो गए, तजकर अपना देश.
फिर-फिर आते पलटकर, मन में व्यथा अशेष..
*
नगदी के नौ लीजिये, तेरह नहीं उधार.
अब तो छलिये! बंद कर, सपनों का व्यापार..
*
चमक-दमक औ' सादगी, वह सोना यह धूल.
वह पावन शतदल कमल, यह बबूल का शूल..
*
पेड़ टूटते, दूब झुक, सह लेती तूफ़ान.
जो माटी से जुड़ रहे, 'सलिल' वही मतिमान..
*
पल में पैरों-तले से, सरकी 'सलिल' ज़मीन.
तीसमारखाँ काल के, हाथ हो गए दीन..
*
थाम-थमाये विपद में, बिना स्वार्थ निज हाथ.
'सलिल' हृदय में लो बसा, नमन करो नत माथ..
*
दानव वे जो जोड़ते, औरों का हक छीन.
ऐश्वर्य जितना बढ़ा, वे उतने ही दीन..
*
भूमि, भवन, धन जोड़कर, हैं दरिद्र वे लोग.
'सलिल' न जो कर पा रहे, जी भरकर उपयोग..
*
जो पाया उससे नहीं, 'सलिल' जिन्हें संतोष.
वे सचमुच कंगाल हैं, गर्दभ ढोते कोष.
*
बात-बात में कर रहे, नाहक वाद-विवाद.
'सलिल' सहज हो कर करें, कुछ सार्थक संवाद..
*
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बुधवार, 4 अगस्त 2010
एक गीत: हक संजीव 'सलिल'
एक गीत:
हक
संजीव 'सलिल'
*
*
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न मन मिल पायें तो क्यों बन्धनों को ढोयें हम नाहक..
न मैं नाज़ुक कि अपने पग पे आगे बढ़ नहीं सकता.
न तुम बेबस कि जो खुद ही गगन तक चढ़ नहीं सकता.
भले टेढ़ा जमाना हो, रुका है कब कहो चातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न दिल कमजोर है इतना कि सच को सह नहीं पाये.
विरह की आग हो कितनी प्रबल यह दह नहीं पाये..
अलग हों रास्ते अपने मगर हों सच के हम वाहक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
जियो तुम सिर उठाकर, कहो- 'गलती को मिटाया है.'
जिऊँ मैं सिर उठाकर कहूँ- 'मस्तक ना झुकाया है.'
उसूलों का करें सौदा कहो क्यों?, राह यह घातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
भटक जाए, न गम होगा, तलाशेगा 'सलिल' मंजिल.
खलिश किंचित न होगी, मिल ही जायेगा कभी साहिल..
बहुत छोटी सी दुनिया है, मिलेंगे फिर कभी औचक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
**************
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शनिवार, 31 जुलाई 2010
मुक्तिका: प्यार-मुहब्बत नित कीजै.. संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*
*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
***********************************************
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*
*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
गीत... प्रतिभा खुद में वन्दनीय है... संजीव 'सलिल'
गीत...
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
.Acharya Sanjiv Salil
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प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
संजीव 'सलिल'
*
*
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.
शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.
शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.
हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
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सोमवार, 12 जुलाई 2010
हिन्दी फिल्मों के सरस-मधुर गीत: vijay kaushal
हिन्दी फिल्मों के सरस-मधुर गीत संचित यहाँ,
सुन-गुन धुन आनंद लें, जब जैसे भी हों जहाँ भूल जाएँ चिंता सभी, फ़िक्र न कोई मन-धरें
कोई नहीं यह जानता, कल होगा कोई कहाँ
1937=President =Ek Bangla Bane Nyaara K.L.Saigal
< FONT face=Arial color=#808000 size=1>1949=Andaz < Old > =Hum Aaj Kahin Dil Kho Baithe
1949=Dulari =Suhani Raat Dhal Chuki
1955=House No. 44 =Teri Duniya Mein Jeene Se
< A href="http://www.youtube.com/
1956=Chori Chori < Old > =All Line Clear
1957=Naag Mani =Pinjre Ke Panchhi Re
1958=Dilli Ka Thug =Yeh Rate Yeh Mausum
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