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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

mukatak

मुक्तक 
चोट खाते हैं जवांदिल, बचाते हैं और को
खुद न बदलें, बदलते हैं वे तरीके-तौर को 
मर्द को कब दर्द होता, सर्द मौसम दिल गरम 
आजमाते हैं हमेशा हालतों को, दौर को 
९.१२.२०१६
***

शब्दों का जादू हिंदी में अमित सृजन कर देखो ना
छन्दों की महिमा अनंत है इसको भी तुम लेखो ना 
पढ़ो सीख लिख आत्मानंदित होकर सबको सुख बाँटो
मानव जीवन कि सार्थकता यही 'सलिल' अवरेखो ना
१०.१२.२०१६ 
***

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

mukatak

तीन मुक्तक- 
*
मौजे रवां रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर हैं
आफ़ताबों सी चमकती, हक़ाइक क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म में आशुफ्ता क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा सागरो-मीना फ़िशानी१० सूर हैं

१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन), 
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता, 
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश मासूम सी, रुखसार, लब, जुल्फें कमाल 
ख्वाब ख़ालिक का हुआ आमद, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७ 

१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न, 
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी, 
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग। 
*
गर्द आलूदा मुजस्सम जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद सुरखाब को बेआब कहते दिलजले
हुस्न के गिर्दाब में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२ 

१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी, 
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू, 
१२. अरमान। 
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 
http://divayanarmada@blogspot.com 
#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 30 अगस्त 2017

mukatak

 मुक्तक
साधना की साधना पल-पल सफल हो
कर्म की आराधना पल-पल सफल हो
ज़िन्दगी जीना महज जीवन नहीं है
मर्म मन की भावना सुरभित सजल हो
***

शनिवार, 19 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक:
*
जागे बहुत चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
पाए जोड़े की क्या चिंता?
खुद को पाएँ, पाया खोएँ
*
अभी न जाता,अभी न रोएँ
नाहक नैना नहीं भिगोएँ
अधरों पर मुस्कान सजाकर
स्वप्न देखी जब भी सोएँ
*
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो, याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन भाया
*
पल-पल नया जन्म होता है, क्षण-क्षण करे मृत्यु आलिंगन
सीधी रेखा में पग रखकर, बढ़े सदा यह सलिल अकिंचन
दें आशीष 'फेस' जब भी यम, 'बुक' में दर्ज करें हो उज्जवल
'सलिल' सींच कुछ पौधे कर दे, तनिक सुवासित कविता उपवन
****
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

mukatak

मुक्तक लोम-विलोम: जड़-चेतन
(१) जड
*****
जड़ बन जड़ मत खोदिए, जड़ चेतन का मूल।
जड़ बिन खड़ा गिरे तुरत, करिए कभी न भूल।।
जमीं रहे जड़ जमीन में, हँस छू लें आकाश-
जड़ता तज चेतन बनें, नाहक मत दें तूल।।
************************
(२) चेतन
*********
चेत न मन सोया बहुत अब चेतन हो जाग।
डूब नहीं अनुराग में, भाग न वर वैराग।।
सतत समन्वय-संतुलन से जीअवन हो पूर्ण-
'सलिल' न जल में डूबना, नहीं लगाना आग।।
*************************
#हिंदी_ब्लॉगिंग

शुक्रवार, 23 जून 2017

mukatak

🌱 मुक्तक 🍀🌵
*************************
हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. * तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में **********************************************

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

muktak

मुक्तक
मुक्त मन से लिखें मुक्तक
सुप्त को दें जगा मुक्तक
तप्त को शीतल करेंगे
लुप्त को लें बुला मुक्तक
*

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

mukatak, kundali, vimarsh

मुक्तक
मेटते रह गए कब मिटीं दूरियाँ?
पीटती ही रहीं, कब पिटी दूरियाँ?
द्वैत मिटता कहाँ, लाख अद्वैत हो
सच यही कुछ बढ़ीं, कुछ घटीं दूरियाँ
*
कुण्डलिया
जल-थल हो जब एक तो, कैसे करूँ निबाह
जल की, थल की मिल सके, कैसे-किसको थाह?
कैसे-किसको थाह?, सहायक अगर शारदे
संभव है पल भर में, भव से विहँस तार दे
कहत कवि संजीव, हरेक मुश्किल होती हल
करें देखकर पार, एक हो जब भी जल-थल
*
एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ,
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं
भावना के सिंधु में बताशा हैं
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ
प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसके विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है?
आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

doha, soratha, mukatak

दोहा सलिला 
*
मन मीरां तन राधिका,तरें जपें घनश्याम।
पूछ रहे घनश्याम मैं जपूँ कौन सा नाम?
*
जिसको प्रिय तम हो गया, उसे बचाए राम।
लक्ष्मी-वाहन से सखे!, बने न कोई काम।।
*
प्रिय तम हो तो अमावस में मत बालो दीप।
काला कम्बल ओढ़कर, काजल नैना लीप।।
*
प्रियतम बिन कैसे रहे, मन में कहें हुलास?
विवश अधर मुस्का रहे, नैना मगर उदास।।
*
चाह दे रही आह का, अनचाहा उपहार।
वाह न कहते बन रहा, दाह रहा आभार।।
*
बिछुड़े आनंदकंद तो, छंद आ रहा याद।
बेचारा कब से करे, मत भूलो फरियाद।।
*
निठुर द्रोण-मूरत बने, क्यों स्नेहिल संजीव। 
सलिल सलिल सा तरल हो, मत करिए निर्जीव।।  
*
सोरठा 
मन बैठा था मौन, लिखवाती संगत रही। 
किसका साथी कौन?, संग खाती पंगत रही।।
*  
मुक्तक 
मन जी भर करता रहा, था जिसकी तारीफ 
उसने पल भर भी नहीं, कभी करी तारीफ
जान-बूझ जिस दिन नहीं, मन ने की तारीफ 
उस दिन वह उन्मन हुई, कर बैठी तारीफ   
*

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

muktika, mukatak, taanka

तांका
(५-७-५-७-७ वर्ण) 
*
सूरज बाँका 
झुरमुट से झाँका 
उषा ने आँका
लख रूप सलोना
लिख दिया है तांका
***

*
खोज जारी है 
कौन-कहाँ से आया? 
किसने भेजा? 
किस कारण भेजा?
कुछ नहीं बताया 
*
मुक्तिका 
*
कौन अपना, कहाँ पराया है?
ठेंगा सबने हमें बताया है 
*
वक्त पर याद किया शिद्दत से
बाद में झट हमें भुलाया है
*
पाक दामन रहा दिखाता जो
पंक में वह मिला नहाया है
*
जोड़ लीं दौलतें ज़माने ने
अंत में साथ कुछ न पाया है
*
प्राण जिसमें रहे संजीव वही
श्वास ने सच यही सिखाया है
***
मुक्तक
शब्दों का जादू हिंदी में अमित सृजन कर देखो ना
छन्दों की महिमा अनंत है इसको भी तुम लेखो ना
ढ़ो सिख लिख आत्मानंदित होकर सबको सुख बाँटो
मानव जीवन कि सार्थकता यही 'सलिल' अवरेखो ना
***

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

karyashala- mukatak

कार्यशाला १६ 
प्रश्नोत्तरी मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये। 
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।। 
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं 
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
इसे पढ़िए, समझिये और प्रश्नोत्तरी मुक्तक रचिए। कव्वाली में सवाल-जवाब की परंपरा रही है। याद करें सुपर हिट कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज़ को राज़ रहने दो'
*** 
दूर कर वो पूछते हैं आ रहे? 
फेरकर मुँह जा रहे पर भा रहे 
आँख दिखलाकर भले धमका रहे
गीत मेरे मन ही मन में गा रहे 
*
ज्योति तिमिर की जब कुण्डी खटकाती है 
तब निशांत हो, उषा सुनहरी आती है 
गौरैया-स्वर में कलरव कर हँसती है 
सलिल-धार में रूप अरूप दिखाती है 
*
आस माता, पिता श्वास को जानिए
साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए 
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
***

बुधवार, 13 जुलाई 2016

muktak

मुक्तक 
*
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।। 
*
राजनीति पोखर हुई, नेता जी टर्राय 
कुर्सी की गर्मी चढ़ी, आँय-बाँय बर्राय
वादों को जुमला कहें, कहें झूठ को साँच 
कोसें रोज विपक्ष को, पद-मद से गर्राय 
*
बदला है तालाब का पानी प्रिय दुष्यंत 
जैसे रहे विदेश में वैसे घर में कंत 
किस-किस को हम दोष दें?, सभी एक से एक 
अपनी करनी सुधारें, नहीं शेष में तंत 

गुरुवार, 4 जून 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश 
ऐसी कोई  जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश 
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*

गुरुवार, 14 मई 2015

mukatak salila: sanjiv

मुक्तक सलिला :
संजीव
.














हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं 
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं 
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा- 
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं 
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे 
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे 
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे 
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना 
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना 
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना 
*


गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

muktak:


मुकतक:

कल्पना की अल्पना तो डालिए
दीप उस पर उमंगों का बालिए
अँधेरों की फ़िक्र किंचित मत करें-
उजाले को सदा मन में पालिए

हुद्हुदों-
नीलोफरों से जूझिऐ
कल हो न हो 
*




गुरुवार, 11 सितंबर 2014

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
मरघट में है भीड़ पनघट है वीरान
मोल नगद का न्यून है उधार की शान
चमक-दमक की चाह हुई सादगी मौन
सब अपने में लीन किसको पूछे कौन 
*


सोमवार, 30 दिसंबर 2013

mukatak -sanjiv

मुक्तक :
संजीव 'सलिल'
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा
भारत नहीं चुका है, भारत नहीं चुकेगा
हम-आप मेहनती हों, ईमानदार हों तो-
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा
*
आँसू पोंछे किसी आँख का मिलकर हम इस साल
श्रम-सीकर से रहे सुसज्जित सखे हमारा भाल
सघन तिमिर में दीप वर्तिका सदृश जल सकें मौन-
'सलिल' न व्यर्थ बजायें नेता जा संसद में गाल
*
पानी-पानी हो रहे बिन पानी तालाब
पानी खोकर आँख का मनुज हुआ बेआब
राजनीति के खेल में उल्टी चलते चाल-
कांटें सीने से लगा कुचले फूल गुलाब
***


बुधवार, 6 नवंबर 2013

mukatak: sanjiv

मुक्तक सलिला:

संजीव
*
श्री सम्पत को पूजते, सभी झुककर माथ
रिद्धि-सिद्धि पति-हरिप्रिया, सदा सदय हों नाथ
चित्र गुप्त परमात्म का आत्म-आत्म में देख
प्रमुदित 'सलिल' मिला सके ह्रदय नयन मन हाथ
*

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

मुक्तक: --संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
संजीव 'सलिल' 
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता..
*
आया तो है बसंत, जाने मत दीजिये.
साफ़ पर्यावरण हो, ऐसा कुछ कीजिये..
पर्वत, वन, सलिल-धार सुन्दरता हो अपार-
उमाकांत  के दर्शन जी भर फिर कीजिये..
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ..
*
आया बसंत झूम कर सुरेश गा रहे.
हैं आम खास, नए-नए बौर छा रहे.
धरती का रूप देखिये दुल्हन सजी हुई-
नभ का संदेशा लिए पवन देव आ रहे..

*
नीरज के नाम नीरजा ने भेजी पाती.
लहरें संदेशा ले आई हैं मदमाती.
छवि निरखे गोरी दर्पण में अपनी ही-
जैसे पढ़ती हो लिखकर अपनी पाती..
*
दिल बाग़-बाग़ हो गया है, महमहाइये.
भँवरों ने साज छेड़ दिए गीत गाइए.
ऋतुराज के स्वागत का समय आ गया 'सलिल'-
शेष धर न लीजिये, खुशियाँ लुटाइए..
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता.
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
त्रिपाठ मोह स्नेह प्रेम के रटे
इस तरह कदम बढ़े नहीं हटे
पेश की रत्नेश ने सुसंपदा-
बाँट-बाँट कर थका नहीं घटे

भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब

एक हो गए हैं कामिनी औ' कंत
भूल गए साधना सुसाधु-संत
शब्द के गले कलम लिपट गयी
गीत प्रीत के रचे 'सलिल' अनंत
*
खिल-खिल उठे अरविन्द शत निहारिये.
दूरियों को दिल से अब बिसारिये.
श्री माल कंठ-कंठ में सजाइये
मिल बसन्ती गीत मीत गाइए.
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम..
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा.
*

सोमवार, 1 अगस्त 2011

चौपदे: संजीव 'सलिल

चौपदे:

संजीव 'सलिल
*
दूर रहकर भी जो मेरे पास है.
उसी में अपनत्व का आभास है..
जो निपट अपना वही तो ईश है-
क्या उसे इस सत्य का अहसास है?

भ्रम तो भ्रम है, चीटी हाथी, बनते मात्र बहाना.
खुले नयन रह बंद सुनाते, मिथ्या 'सलिल' फ़साना..
नयन मूँदकर जब-जब देखा, सत्य तभी दिख पाया-
तभी समझ पाया माया में कैसे सत्पथ पाना..

भीतर-बाहर जाऊँ जहाँ भी, वहीं मिले घनश्याम.
खोलूँ या मूंदूं पलकें, हँसकर कहते 'जय राम'..
सच है तो सौभाग्य, अगर भ्रम है तो भी सौभाग्य-
सीलन, घुटन, तिमिर हर पथ दिखलायें उमर तमाम..