कुल पेज दृश्य

आग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 10 मई 2020

लघुकथा आग


लघुकथा
आग
अफसर पिता की लाडली बिटिया को किसी प्रकार की कमी नहीं थी. जब जो चाह तुरंत मिला गया. बढ़ती उम्र के साथ उसकी जिद भी बढ़ती गयी. माँ टोंकती तो पिता उन्हें चुप करा देते 'बाप के राज में मौज-मस्ती नहीं करेगी तो कब करेगी?
माँ ससुराल और शादी की फ़िक्र करतीं तो पिता कह देते जिसकी सौ बार गरज होगी, नाक रगड़ता हुआ आएगा देहलीज पर और मैं अपनी शर्तों पर बिटिया को रानी बनाकर भेजूँगा.
समय पर किसका वश? अनियमित खान-पान ने पिता को काल का ग्रास बना दिया. अफसरी का रौब-दाब समाप्त होते दो दिन न लगे. जो दिन-रात सलाम बजाते नहीं थकते थे, वही उपहास की दृष्टि से देखने लगे. शोक की अवधि समाप्त होते ही माँ-बेटी अपने पैतृक घर में आ गयीं. सगे-संबंधी जमीन-जायदाद में हिस्सा देने में आनाकानी करने लगे. साहब ने अपने रहते कभी ध्यान ही नहीं दिया, न कोई जानकारी दी पत्नि या बेटी को.
बाबूराज की महिमा अपरम्पार... पेंशन की नस्ती जिस मेज पर जाती उस बाबू को याद आता कि कब-कब उसे डपटा गया था और वह नस्ती को दबा कर बैठ जाता. साल-दर-साल बीतने लगे... किसी प्रकार ले-देकर पेंशन आरम्भ हो सकी.
बिटिया जिद्दी और फिजूलखर्च और पार्टी करने की शौक़ीन थी. माँ के समझाने का असर कुछ दिन रहता फिर वही ढाक के तीन पात.
मुसीबत अकेले नहीं आती. माँ को सदमे और चिंताओं ने तो घेर ही लिया था. कोढ़ में खाज यह कि डोक्टर ने असाध्य बीमारी का रोगी बता दिया. अत्यंत मँहगी चिकित्सा. मरता क्या न करता ? जमा -पूँजी खर्च कर माँ को बचाने में जुट गयी वह. मौज-मस्ती के साथी उससे जो चाहते थे वह करने से बेहतर उसे मर जाना लगता. बस चलता तो ऐसे मतलबपरस्तों को ठिकाने लगा देती वह पर समय की नजाकत को देखते हुए उसे हर कदम फूँक-फूँक कर रखना था.
देर रात अस्पताल से घर आयी और आग जलाकर ठण्ड भगाने बैठी तो उसे लगा वह खुद भी सुलग रही है. समय ने भले ही उससे पिता का साया और माँ की गोद से वंचित कर दिया है पर वह हार नहीं मानेगी. अपने दोनों गुतनों में पिता और हाथों में माँ का सम्बल है उसके पास. अपने पैरों को जमीन पर टिका कर वह न केवल मुसीबतों से जूझेगी बल्कि सफलता के आसमान को भी छुएगी. आत्मविश्वास ने उसमें ऊर्जा का संचार किया और वह आग के सामने जा बैठी पिता-माँ के आशीष की अनुभूति करने घुटनों पर हाथ और सर रखकर. कल के संघर्ष के लिए उसके तन को करना था विश्राम और मन को जलाए रखनी आग.
***

१०-५-२०१७ 

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस

आग में डूबा समंदर, नहीं तो फ़िर क्या है,
ज़ीस्त आहों का बवंडर, नहीं तो फ़िर क्या है

तू भी खोया है सनम, माज़ी की रानाईयों में,
आँख में तेरी, वो मंज़र, नहीं तो फ़िर क्या है

मौत की हर अदा, तकलीफ़-ज़दा हो शायद
ज़िन्दगी भी गमे-महशर, नहीं तो फ़िर क्या है

आज आमादा है तू क्यूँ, इसे ढहाने पे
अब मेरा दिल तेरा मन्दिर, नहीं तो फ़िर क्या है

न उजाडो, के हजारों निगाहें रो देंगी,
शज़र, परिंदों का इक घर, नहीं तो फ़िर क्या है

हर शै अरजां है, उस आतिश-निगाह के आगे
हर अदा गोया इक शरर, नहीं तो फ़िर क्या है