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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

कार्यशाला

कार्यशाला
सुनीता शानू
वो मुझे इस तरह मनाता है
रूठ जाऊँ तो रूठ जाता है
संजीव सलिल 
मैं अगर झट न मान जाऊँ तो 
काँच जैसे वो टूट जाता है 

२.६.२०१६
***

कार्यशाला मुक्तक

कार्यशाला
आइये! कविता करें ६ :
संजीव
.
मुक्तक 
आभा सक्सेना
कल दोपहर का खाना भी बहुत लाजबाब था, = २६
अरहर की दाल साथ में भुना हुआ कबाब था। = २६
मीठे में गाजर का हलुआ, मीठा रसगुल्ला था, = २८
बनारसी पान था पर, गुलकन्द बेहिसाब था।। = २६
लाजवाब = जिसका कोई जवाब न हो, अतुलनीय, अनुपम। अधिक या कम लाजवाब नहीं होता, भी'' से ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त कुछ और भी स्वादिष्ट था जिसकी चर्चा नहीं हुई. इससे अपूर्णता का आभास होता है. 'भी' अनावश्यक शब्द है.
तीसरी पंक्ति में 'मीठा' और 'मीठे' में पुनरावृत्ति दोष है. गाजर का हलुआ और रसगुल्ला मीठा ही होता है, अतः यहाँ मीठा लिखा जाना अनावश्यक है.
पूरे मुक्तक में खाद्य पदार्थों की प्रशंसा है. किसी वस्तु का बेहिसाब अर्थात अनुपात में न होना दोष है, मुक्तककार का आशय दोष दिखाना प्रतीत नहीं होता। अतः, इस 'बेहिसाब' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है.
कल दोपहर का खाना सचमुच लाजवाब था = २५
दाल अरहर बाटी संग भर्ता-कवाब था = २४
गाजर का हलुआ और रसगुल्ला सुस्वाद था- = २६
अधरों की शोभा पान बनारसी नवाब था = २५
१८-१-२०१५ 
-----.

सोमवार, 22 जुलाई 2019

कार्यशाला : घनाक्षरी

कार्यशाला : घनाक्षरी
माँ कोख में न मारिए, गोद में ले दुलारिए, प्यार से पुचकारिए, बेटी उपहार है। सजाती घर आँगन, बहाती रस पावन, लगती मनभावन, घर की शृंगार है। तपस्वी साधिका वह, श्याम की राधिका वह ब्रज की वाटिका वह, बरसाती प्यार है दो कुल की शान बेटी, देश की गुमान बेटी, माँ की अभिमान बेटी अमि रसधार है।
*
विमर्श: सरस्वती कुमारी रचित उक्त मनहरण
घनाक्षरी में ८-८-८-७ का वर्ण संतुलन होते हुए
भी लय का अभाव है। उनकर आग्रह पर कुछ
बदलाव के साथ इसे पढ़िए और परिवर्तनों का
कारण व प्रभाव समझिये।
कोख में न मारिए माँ, गोद में दुलारिए भी,
प्यार से पुकार कहें, बेटी उपहार है। शोभा घर-अँगना की, बहे स्नेह सलिला सी, लगे मनभावन, ये घर का शृंगार है। तापसी है साधिका है, गोकुल की राधिका है, शिवानी भवानी भी है, बरसाती प्यार है। दो कुलों की शान बेटी, देश का गुमान बेटी, माँ की अभिमान बेटी, अमि रसधार है।

बुधवार, 10 जुलाई 2019

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया
*
अपना तो कुछ है नहीं,सब हैं माया जाल। 
धन दौलत की चाह में,रूचि न सुख की दाल।।  -शशि पुरवार 
रुची न सुख की दाल, विधाता दे पछताया।
मूर्ख मनुज क्या हितकर यह पहचान न पाया।।
सत्य देख मुँह फेर, देखता मिथ्या सपना।

चाह न सुख संतोष, मानता धन को नपना।।  संजीव 'सलिल'

*
कुण्डलिया के विविध अंत: 

पहली पंक्ति का उलट फेर 


सब हैं माया जाल, नहीं है कुछ भी अपना

एक चरण 

सत्य देख मुख फेर, दुःख पाता फिर-फिर वहीं 

कहते ऋषि मुनि संत, अपना तो कुछ है नहीं 

शब्द समूह 

सत्य देख मुख फेर, सदा माला जपना तो 

बनता अपना जगत, नहीं कुछ भी अपना तो 

एक शब्द

देता धोखा वही, बन रहा है जो अपना 

एक अक्षर 

खाता धोखा देख, अहर्निश मूरख सपना 

एक मात्रा 

रो-पछताता वही, नहीं जो जाग सम्हलता

*

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

दोहा कार्यशाला:

प्रदत्त शब्द :- आभूषण, गहना
दिन :- बुधवार
तारीख :- ११-०७-२०१८
विधा :- दोहा छंद (१३-११)
*
आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*

बुधवार, 8 नवंबर 2017

samasya purti karya shala

समस्या पूर्ति कार्यशाला- ७-११-१७ 
आज का विषय- पथ का चुनाव 
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं। 
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें। 
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
जनक छंद
*
झेल हर संकट-अभाव
करें कोशिश से निभाव
कीजिए पथ का चुनाव
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, पंक्त्यांत रगण नगण)
*
प्रेरणा गुप्ता, कानपुर

दिव्य दृष्टि से
ही पथ का चुनाव
करना राही।

सदा सहज
है पथ का चुनाव
मन चेते तो।

सही दिशा में
पथ का चुनाव तू
करते जाना।

याद रखना
पथ का चुनाव हो
सत्य की यात्रा।

पीड़ा में डूबों
को पथ का चुनाव
करना सिखा।

रखना ध्यान
पथ का चुनाव हो
सत्य अहिंसा।

सच्चे राही ही
तो पथ का चुनाव
करते सही।
*
कल्पना भट्ट, भोपाल
पथ का चुनाव आप करें देख भालकर
क्यों चलें इधर उधर सब कुछ जानकार
रखें कदम हर पथ पर सम्भल सम्भलकर
मिल ही जायेगी मन्ज़िल किसी पथ पर ।
*
साधना वैद,
धूप छाँह शूल फूल सब हमें क़ुबूल हैं
पंथ की कठिनाइयों को सोचना भी भूल है
लक्ष्य हो अभीष्ट और सही हो पथ का चुनाव
फिर किसी आपद विपद की धारणा निर्मूल है !
***

salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८
www.divyanarmada.in,#हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

basanti kundali

रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१


ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी 

वसंत -२ 




बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये 
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये 

वसंत-३ 











दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की 

वसंत-४ 


.
वर गेहूँ बाली सजा, खड़ी फ़सल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ, सरसों पीली गात।।
सरसों पीली गात, हथेली मेंहदी सजती
पवन पीटता ढोल, बाँसुरी मन में बजती
छतरी मंडप तान, खड़ी है एक टाँग पर
खड़ी फसल बारात, सजा बाली गेहूँ वर

वसंत-५ 


















ऋतु के मोखे सब खड़े, पाने को सौगात।

मानक बाँटे छाँट कर, टेसू ढाक पलाश।।
टेसू ढाक पलाश, काष्ठदु कनक छेवला
किर्मी, याज्ञिक, यूप्य, सुपर्णी, लाक्षा सुफला
वक्रपुष्प,राजादन, हस्तिकर्ण दुःख सोखे
पाने को सौगात, खड़े सब ऋतु के मोखे
वसंत-६ 

















कहें तितलियाँ फूल से, चलो हमारे संग
रंग सजा कर पंख में, खेलें आज वसंत
खेलें आज बसंत, संत भी जप-तप छोड़ें
बैरागी चुन राग-राह, बरबस पग मोड़ें
शिव भी हो संजीव, सुनाएँ सुनें बम्बुलियाँ
चलो हमारे संग, फूल से कहें तितलियाँ


वसंत-७ 
















फूल बसंती हँस दिया, बिखराया मकरंद
यहाँ-वहाँ सब रच गए, ढाई आखर छं
ढाई आखर छंद, भूल गति-यति-लय हँसते
सुनें कबीरा झूम, सुनाते जो वे फँसते
चटक चन्दनी धूप-रूप सँग सूर्य फँस गया
बिखराया मकरंद, बसंती फूल हँस दिया
वसंत-८ 



आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज
मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज
तन सारा ऋतुराज, हरितिमा हुई बसंती
पवन झूमता-छेड़, सुनाता जैजैवंती
कनकाभित जल-लहर, पुकारता पिक को सुआ
धरती सब पुखराज, आसमान टेसू हुआ

वसंत-९ 
















भँवरे तंबूरा हुए, मौसम हुआ बहार
कनक गुनगुनी दोपहर, मन कच्चा कचनार।।    
मन कच्चा कचनार, जागते देखे सपने
नयन मूँद श्लथ गात, कहे आ जा रे अपने!
स्वप्न न टूटे आज, प्रकृति चुप निखरे-सँवरे
पवन गूंजता छंद, तंबूरा थामे भँवरे।। 
***