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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

कार्य शाला

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***

१.१२.२०१८ 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

कार्य शाला छंद बहर दोउ एक हैं

कार्य शाला
छंद बहर दोउ एक हैं
संजीव
*
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र य ग
पदभार - २१२ २१२ १२२ २
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता
जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता
नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता
भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता
कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?
छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता
कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
***
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र ज ल ग
पदभार - २१२ २१२ १२१ १२
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते
जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते
जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते
प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते
दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते
जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते
नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
***
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ
बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है।
वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२
अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन
बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश)
रदीफ़ - है
इस धुन पर गीत
1. फिर छिड़ी रात बात फूलों की
2. तेरे दर पे सनम चले आये
3. आप जिनके करीब होते हैं
4. बारहा दिल में इक सवाल आया
5. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो,
6. तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
7. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद
9. आज फिर जीने की तमन्ना है
10. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

कार्य शाला दोहा

छंद चर्चा:
दोहा गोष्ठी:
*
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
***
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।

रविवार, 1 दिसंबर 2019

कार्य शाला: दोहा से कुण्डलिया

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
१.१२.२०१८

बुधवार, 20 नवंबर 2019

कार्य शाला छंद बहर दोउ एक हैं

कार्य शाला
छंद बहर दोउ एक हैं
संजीव
*
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र य ग
पदभार - २१२ २१२ १२२ २
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता

जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता

नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता

भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता

कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?

छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता

कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
***
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र ज ल ग
पदभार - २१२ २१२ १२१ १२
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते

जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते

जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते

प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते

दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते

जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते

नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
***
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ
बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है।
वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२   
अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन
बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश)
रदीफ़ - है
इस धुन पर गीत  

1. फिर छिड़ी रात बात फूलों की
2. तेरे दर पे सनम चले आये
3. आप जिनके करीब होते हैं
4. बारहा दिल में इक सवाल आया
5. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो,
6. तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
7. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद
9. आज फिर जीने की तमन्ना है
10. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा 

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

दोहा कार्यशाला:

प्रदत्त शब्द :- आभूषण, गहना
दिन :- बुधवार
तारीख :- ११-०७-२०१८
विधा :- दोहा छंद (१३-११)
*
आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

basanti kundali

रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१


ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी 

वसंत -२ 




बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये 
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये 

वसंत-३ 











दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की 

वसंत-४ 


.
वर गेहूँ बाली सजा, खड़ी फ़सल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ, सरसों पीली गात।।
सरसों पीली गात, हथेली मेंहदी सजती
पवन पीटता ढोल, बाँसुरी मन में बजती
छतरी मंडप तान, खड़ी है एक टाँग पर
खड़ी फसल बारात, सजा बाली गेहूँ वर

वसंत-५ 


















ऋतु के मोखे सब खड़े, पाने को सौगात।

मानक बाँटे छाँट कर, टेसू ढाक पलाश।।
टेसू ढाक पलाश, काष्ठदु कनक छेवला
किर्मी, याज्ञिक, यूप्य, सुपर्णी, लाक्षा सुफला
वक्रपुष्प,राजादन, हस्तिकर्ण दुःख सोखे
पाने को सौगात, खड़े सब ऋतु के मोखे
वसंत-६ 

















कहें तितलियाँ फूल से, चलो हमारे संग
रंग सजा कर पंख में, खेलें आज वसंत
खेलें आज बसंत, संत भी जप-तप छोड़ें
बैरागी चुन राग-राह, बरबस पग मोड़ें
शिव भी हो संजीव, सुनाएँ सुनें बम्बुलियाँ
चलो हमारे संग, फूल से कहें तितलियाँ


वसंत-७ 
















फूल बसंती हँस दिया, बिखराया मकरंद
यहाँ-वहाँ सब रच गए, ढाई आखर छं
ढाई आखर छंद, भूल गति-यति-लय हँसते
सुनें कबीरा झूम, सुनाते जो वे फँसते
चटक चन्दनी धूप-रूप सँग सूर्य फँस गया
बिखराया मकरंद, बसंती फूल हँस दिया
वसंत-८ 



आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज
मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज
तन सारा ऋतुराज, हरितिमा हुई बसंती
पवन झूमता-छेड़, सुनाता जैजैवंती
कनकाभित जल-लहर, पुकारता पिक को सुआ
धरती सब पुखराज, आसमान टेसू हुआ

वसंत-९ 
















भँवरे तंबूरा हुए, मौसम हुआ बहार
कनक गुनगुनी दोपहर, मन कच्चा कचनार।।    
मन कच्चा कचनार, जागते देखे सपने
नयन मूँद श्लथ गात, कहे आ जा रे अपने!
स्वप्न न टूटे आज, प्रकृति चुप निखरे-सँवरे
पवन गूंजता छंद, तंबूरा थामे भँवरे।। 
***                

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

karyashala, navgeet, geet, abha saxena, sanjiv,

कार्य शाला : आइये कविता करें: ४

संजीव, पद्य, नवगीत, गीत, आभा सक्सेना,  

इस श्रंखला में फिर श्रीमती आभा सक्सेना जी की एक रचना विचाराधीन है. अन्य सहभागी भी अपनी रचनाएँ चर्चा हेतु लाएं तो सभी को कुछ न कुछ लाभ होगा। यह एक नवगीत है. 


नवगीत के शिल्प और भाषा के सम्बन्ध में कुछ संकेत:
*
१. नवगीत के २ हिस्से होते हैं १. मुखड़ा २. अंतरा।


२. मुखड़ा की पंक्तिसंख्या या पंक्ति में वर्ण या मात्रा संख्याका कोई बंधन नहीं होता पर मुखड़े की प्रथम या अंतिम एक पंक्ति के समान पदभार की पंक्ति अंतरे के अंत में आवश्यक है ताकि उसके बाद मुखड़े को दोहराया जा सके तो निरंतरता की प्रतीति हो।


३. सामान्यतः २ या ३ अंतरे होते हैं। अन्तरा सामान्यतः स्वतंत्र होता है पर पूर्व या पश्चात्वर्ती अंतरे से सम्बद्ध नहीं होता। अँतरे में पंक्ति या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा का कोई बंधन नहीं होता किन्तु अंतरे की पंक्तियों में एक लय का होना तथा वही लय हर अन्तरे में दोहराई जाना आवश्यक है।


४. नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता।


५. संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, बेधकता, स्पष्टता, सामयिकता, सहजता-सरलता नवगीत के गुण या विशेषतायें हैं।


६. नवगीत की भाषा में देशज शब्दों के प्रयोग से उपज टटकापन या अन्य भाषिक शब्द विशिष्टता मान्य है, जबकि लेख, निबंध में इसे दोष कहा जाता है।


७. नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है, गीत में विस्तार होता है।


८. नवगीत में आम आदमी की या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है।


९. नवगीत में अप्रचलित छंद या नए छंद को विशेषता कहा जाता है। छंद मुक्तता भी स्वीकार्य है पर छंदहीनता नहीं।


१०. नवगीत में अलंकारों की वहीं तक स्वीकार्यता है जहाँ तक वे कथ्य की स्पष्ट-सहज अभिव्यक्ति में बाधक न हों।


११. नवगीत में प्रतीक, बिम्ब तथा रूपक भी कथ्य के सहायक के रूप में ही होते हैं।


सारत: हर नवगीत अपने आप में पूर्ण तथा गीत होता है पर हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत का अपरिहार्य गुण उसका गेय होना है।


नव गीत (एक नया प्रयास)........


आभा सक्सेना


काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं।
छत के ऊपर बादल आये
हाथ पांव मेरे फुलवाये
इत दौड़ूं या उत दौड़ूं main
बात समझ ना मेरे आये
पानी की बूंदें भी टिपटिप
करके दुगना शोर मचाये
मन में बादल से मैं कहती
काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं।

अब खयाल आया है मुझको
बच्चों को स्कूल से लाना
bachchon ko shala se lana
देखूं अब क्या समय हुआ है
बच्चों को है देना khana
अंगना का सामान भीगता
कैसे उसको अन्दर डालूं
इतने सारे काम बचे है
तुरत फुरत कैसे निबटाऊँ
काम पड़े हैं कितने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं
काम बचे है इतने सारे
गिलहरी ने शोर मचाया 15
shor machati hai gilhariya = 16

कूद-कूद कर शोर मचाये
पेड़ की शाखों पर जो पकता
फल आम का कूद गिराये
उसको कोई होश नहीं है
चाहे बारिश कितनी आये
छोटे छोटे रूई के गोले
टहनी पर चाहे लेजाना
हिम्मत की तो कमी नहीं
पेड़ पर जाना और सुस्ताना
काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं
आभा जी का यह नवगीत सराहनीय है.कथ्य स्पष्ट, यथा संभव संक्षिप्त तथा सहज ग्रहणीय है. भाषा में टटकापन, मार्मिकता, लक्षिणकता अभ्यास से क्रमशः आती है. अंतरों में पंक्ति साम्य तथा पंक्तियों में मात्रिक संतुलन पर कुछ और सजगता चाहिए। आरम्भ की दृष्टि से यह प्रयास उत्तम है. आभा जी को बधाई.
सुझाव:
अंतरों की पंक्ति संख्या समान हो तो बेहतर. यह अनिवार्य नहीं है पर समानता से लालित्य वृद्धि होती है. अंतिम अंतरे को एक बार और देख लें. हड़बड़ी में कुछ त्रुटि रह गयी हैं, आप गुनगुनाकर दोहराएंगी तो अपने आप दूर कर लेंगी। अच्छे प्रयास हेतु फिर से बधाई।