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गुरुवार, 10 अगस्त 2023

सोनेट, मुक्तिका, अरिल्ल छन्द, बुन्देली, नवगीत, साधन, शलभ, सन्नाटा, छाया, सृष्टि

सॉनेट छाया • छाया की माया अप्रतिम है, कौन बिंब, प्रतिबिंब कौन है?, उलट-पलट देखो सब सम है, रहता निर्मल सलिल मौन है। द्वैत बुद्धि संशय उपजाती, भेद भेद का खोजें बेकल, है सर्वत्र अभेद न पाती, हाथ मले, सिर धुन पछताती। मति अद्वैत आस्था पाले, चुन श्रद्धा-विश्वास मस्त है, सुख-दुख सम सह-कह मुस्का ले, कभी न पाया पस्त-त्रस्त है। काया छाया, छाया काया। एक-अनेक? भूल हर्षाया।। १०-८-२०२३ •••
सॉनेट सृष्टि • जन्म सृष्टि का हुआ नाद से, केंद्र एक वर्तुल अनेक हैं, पुरुष भटकता है वर्तुल में, शक्ति केंद्र हो जोड़े रखती। शिव विराग वर आत्मलीन हों, उमा वरें, अनुराग पालतीं, शंकर सृष्टि हेतु सक्रिय हों, जग माता पार्वती पालतीं। बापू यही सत्य कहते हैं, महीयसी हम तक पहुंँचातीं, केंद्र-परिधि जब जुड़ रहते हैं, शक्ति शांति तब बढ़तीँ जातीँ। नर-नारी पूरक जानें सच। जिएंँ विहँस संघर्षों से बच।। १०-८-२०२३ •••
सॉनेट सन्नाटा • कलकल कलरव नाद जिंदगी, मरघट में पलता सन्नाटा, सॉनेट रच नव रस बरसाएँ, निष्क्रियता को कहिए टा टा। स्वर-व्यंजन मिल व्यक्त भाव कर, मन से मन को जब जोड़ेंगे, धारा तट के बीच बहाकर, फैला सन्नाटा तोड़ेँगे। सॉनेट नाव, अंतरे लंगर, थाम रखो पतवार दोपदी, गिरि अनुभूति बहाए निर्झर, लहर बनें बहें नेकी-बदी । रहें शांत, हो ज्वार न भाटा। अंतर्मन ने अंतर पाटा।। १०-८-२०२३ •••
सॉनेट
शलभ
ज्योति आराधक शलभ है
तपस्वी साधक शलभ है
वरण करता उजाले की
तिमिर-पथ बाधक शलभ है
शलभ सुर लय तान वरता
छंद गति-यति-लय विचरता
भ्रमर जैसे गीत गाता
प्रीत पाता, हँस सिहरता
कोशिशें करता निरंतर
मंजिलें नित नई ले वर
तिलक कर तकनीक का, बढ़
लिखे अपना भाग्य यह फिर
शलभ बनना ही नियति है
शलभ बनना ही प्रगति है
१०-८-२०२२
•••
मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल
.
किस सा किस्सा?, कहे कहानी
गल्प- गप्प हँस कर मनमानी
.
कथ्य कथा है जी भर बाँचो
सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी
.
बोध करा दे सत्य-असत का
बोध-कथा जो कहती नानी
.
देते पर उपदेश, न करते
आप आचरण पंडित-ज्ञानी
.
लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें
कभी पहेली, पर ज़िद ठानी
***
[ सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय, अरिल्ल छन्द]
२३-५-२०१६
विमर्श : बुद्धिमान कौन?
*
बिल्ली के सामने मिट्टी या पत्थर का चूहा बना कर रख दें, वह उस पर नहीं झपटती जबकि इंसान मिट्टी-पत्थर की मूरत बनाकर उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है और इसे धर्म कहता है।
कबीरदास कह गए -
काँकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार
ताते या चाकी भली पीस खाय संसार
मूँड़ मुँड़ाए हरि मिलै, सब कोउ लेय मुड़ाय
बार-बार के मूड़ते, भेद न बैकुंठ जाय
*
मेरे हाथों का बनाया हुआ
पत्थर का है बुत
कौन भगवान है सोचा जाए?
*
कंकर कंकर में बसे हैं शंकर भगवान
फिर मूरत क्यों बनाता, रे! मानव नादान?
***
विमर्श:
साधना क्या है....
पत्थर पर एकाएक बहुत सा पानी डाल दिया जाए तो पत्थर केवल भीगेगा, फिर पानी बह जाएगा और पत्थर सूख जाएगा किन्तु वह पानी पत्थर पर एक ही जगह पर बूँद-बूँद गिरता रहेगा, तो पत्थर में छेद होगा और कुछ दिनों बाद पत्थर टूट भी जाएगा। कुएं में पानी भरते समय एक ही स्थान पर रस्सी की रगड़ से पत्थर और लोहे पर निशान पड़कर अंत में वह टूट जाता है 'रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान'। इसी प्रकार निश्चित स्थान पर ध्यान की साधना की जाएगी तो उसका परिणाम अधिक होता है ।
चक्की में दो पाटे होते हैं। उनमें यदि एक स्थिर रहकर, दूसरा घूमता रहे तो अनाज पिस जाता है और आटा बाहर आ जाता है। यदि दोनों पाटे एक साथ घूमते रहेंगे तो अनाज नहीं पिसेगा और परिश्रम व्यर्थ होगा। इसी प्रकार मनुष्य में भी दो पाटे हैं; एक मन और दूसरा शरीर। उसमें मन स्थिर पाटा है और शरीर घूमने वाला पाटा है।
अपने मन को ध्यान द्वारा स्थिर किया जाए और शरीर से सांसारिक कार्य करें। प्रारब्ध रूपी खूँटा शरीर रूपी पाटे में बैठकर उसे घूमाता है और घूमाता रहेगा लेकिन मन रूपी पाटे को सिर्फ भगवान के प्रति स्थिर रखना है। देह को प्रारब्ध पर छोड़ दिया जाए और मन को ध्यान में मग्न कर दिया जाए; यही साधना है।
***
बुन्देली नवगीत :
जुमले रोज उछालें
*
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
खेलें छिपा-छिबौउअल,
ठोंके ताल,
लड़ाएं पंजा।
खिसिया बाल नोंच रए,
कर दओ
एक-दूजे खों गंजा।
खुदा डर रओ रे!
नंगन सें
मिल खें बेंच नें डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
लड़ें नई,मैनेज करत,
छल-बल सें
मुए चुनाव।
नूर कुस्ती करें,
बढ़ा लें भत्ते,
खेले दाँव।
दाई भरोसे
मोंड़ा-मोंडी
कूकुर आप सम्हालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
बेंच सिया-सत,
करें सिया-सत।
भैंस बरा पे चढ़ गई।
बिसर पहाड़े,
अद्धा-पौना
पीढ़ी टेबल पढ़ रई।
लाज तिजोरी
फेंक नंगई
खाली टेंट खंगालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
भारत माँ की
जय कैबे मां
मारी जा रई नानी।
आँख कें आँधर
तकें पड़ोसन
तज घरबारी स्यानी।
अधरतिया मदहोस
निगाहें मैली
इत-उत-डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
पाँव परत ते
अंगरेजन खें,
बाढ़ रईं अब मूँछें।
पाँच अंगुरिया
घी में तर
सर हाथ
फेर रए छूँछे।
बचा राखियो
नेम-धरम खों
बेंच नें
स्वार्थ भुना लें।
***
मुक्तिका
*
'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.
.
चंद्रमा में चाँदनी भी और धब्बे-दाग भी.
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.
.
होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.
.
खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.
.
एक उँगली उठाता है, जब भी गैरों पर सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
***
गीत
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
१०-८-२०१७
...
नवगीत
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ताली पीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रहो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जां गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
१०-८-२०१५
*

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

शिव, शक्ति और सृष्टि , गीत, सुग्गा, माफ करो, Water, संज्ञा, धूप, व्याकरण दोहे, सवैया, सॉनेट गट्टू,

सॉनेट
गट्टू
• 
नटखट-चंचल है गट्टू, 
करे शरारत जी भरकर, 
सीधा-साधा है बिट्टू, 
रहे मस्त पुस्तक पढ़कर। 

तुहिना जीजी के प्यारे, 
भैया सनी लड़ाते लाड़, 
दादी के चंदा-तारे, 
बब्बा करते जान निसार। 

शैंकी जी को दुलराते, 
धमाचौकड़ी करते खूब, 
मिल चिंकी को दुलराते, 
हिल-मिल रहें स्नेह में डूब। 

खड़ी करें मिल सबकी खाट। 
एक एक से बढ़कर ठाठ।। 
१३-७-२०२३ 
•••
सॉनेट 
• 
प्राण निकलते गर्मी से, नवगीतों में गाया, 
धरती की छाती फटती, सुन इंद्र देव पिघले, 
झुलस रहा लू से तन-मन, सूरज को गरियाया, 
रूठा छिपा मेघ पीछे, बोला जी भर जल ले। 

हुई मूसलाधार वृष्टि, हो कुपित गिरी बिजली, 
वन काटे रूठे पर्वत, हो गीले फिसल गिरे, 
कर विनाश कहकर विकास, हँस राजनीति पगली, 
अच्छे सोच बुरे दिन पा, जुमलों से लोग घिरे। 

पानी मरा आँख का तो, तू पानी-पानी हो, 
रौंद प्रकृति को ठठा रहा, पानी आँखों में भर, 
भोग कर्म का दंड न अब, तुझसे नादानी हो, 
हाय हाय क्यों करता है, गलती करने से डर। 

गीत खुशी के मत बिसरा, गा बंबुलिया कजरी। 
पूज प्रकृति को सुत सम तब देखे हालत सुधरी।। 
१३-७-२०२३ 
•••
नवान्वेषित द्वि इंद्रवज्रा सवैया
२ x (त त ज ग ग), २२ वर्ण, सम पदांत।
*
दूरी मिटा दे मिल ले गले आ, श्वासें करेंगी मनुहार तेरा।
आँखें मिलीं तो हट ही न पाई, आसें बनेंगी गलहार तेरा।
तू-मैं किनारे नद के भले हों, है सेतु प्यारी शुभ प्यार तेरा।
पूरा करेंगे हम वायदों को, जीना मुझे है बन हार तेरा।
१३-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण
*
*ध्वनि*
कान सुन रहे वह ध्वनि, जो प्रकृति में व्याप्त।
अनहद ध्वनि गुंजरित है, सकल सृष्टि में आप्त।।
*
*रसानुभूति*
ध्वनि सुनकर प्रतिक्रिया हो, सुख-दुख की अनुभूति।
रस अनुभूति सजीव को, जड़ को हो न प्रतीति।।
*
*उच्चार*
जो स्वतंत्र ध्वनि बोलते, वह ही है उच्चार।
दो प्रकार लघु-गुरु कहें, इनको मात्रा भार।।
*
*अर्थ*
ध्वनि सुनकर जो समझते, उसको कहते अर्थ।
अगर न उसका भान तो, बनता अर्थ अनर्थ।।
*
*सार्थक ध्वनि*
कलकल कलरव रुदन में, होता निश्चित अर्थ।
शेर देख कपि हूकता, दे संकेत न व्यर्थ।।
*
*निरर्थक ध्वनि*
अंधड़ या बरसात में, अर्थ न लेकिन शोर।
निरुद्देश्य ध्वनि है यही, मंद या कि रव घोर।।
*
*सार्थक ध्वनि*
सार्थक ध्वनियाँ कह-सुनें, जब हम बारंबार।
भाव-अर्थ कह-समझते, भाषा हो साकार।।
*
*भाषा*
भाषा वाहक भाव की, मेटे अर्थ अभाव।
कहें-गहें हम बात निज, पड़ता अधिक प्रभाव।।
*
*लिपि*
जब ध्वनि को अंकित करें देकर चिन्ह विशेष।
चिन्ह देख ध्वनि विदित हो, लिपि विग्यान अशेष।।
*
*अक्षर*
जो घटता-कमता नहीं,
ऐसा ध्वनि-संकेत।
अक्षर अथवा वर्ण से,
यही अर्थ अभिप्रेत।।
*
*मात्रा*
लघु-गुरु दो उच्चार ही, लघु-गुरु मात्रा मीत।
नीर-क्षीर वत वर्ण से, मिल हों एक सुनीत।।
*
*वर्ण माला*
अक्षर मात्रा समुच्चय, रखें व्यवस्थित आप।
लिख-पढ़ सकते हैं सभी, रखें याद कर जाप।।
*
*शब्द*
वर्ण जुड़ें तो अर्थ का, और अधिक हो भान।
अक्षर जुड़कर शब्द हों, लक्ष्य एकता जान।।
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मधु-रस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
.
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
.
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
*
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
.
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
.
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
.
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
*
*ध्वनि खंड*
कुछ सार्थक उच्चार मिल, बनते हैं ध्वनि खंड।
ध्वनि-खंडों के मिलन से, बनते छंद अखंड।।
*
*छंद*
कथ्य भाव रस बिंब लय, यति पदांत मिल संग।
अलंकार सज मन हरें, छंद अनगिनत रंग।।
*
*पिंगल*
वंदन पिंगल नाग ऋषि, मिला बीन फुँफकार।
छंद-शास्त्र नव रच दिया, वेद-पाद रस-सार।।
*
*पाद*
छंद-पाद हर पंक्ति है, पग-पग पढ़-बढ़ आप।
समझ मजा लें छंद का, रस जाता मन व्याप।।
*
*चरण*
चरण पंक्ति का भाग है, कदम-पैर संबंध।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, करें सहज अनुबंध।।
*गण*
मिलें तीन उच्चार जब, तजकर लघु-गुरु भेद।
अठ गण बन मिल-जुल बनें, छंद मिटा दें खेद।।
.
यमत रजभ नस गण लगग, गगग गगल के बाद।
गलग लगल फिर गलल है, ललल ललग आबाद।।
*वाक्*
वाक् मूल है छंद का, ध्वनि-उच्चार स-अर्थ।
अर्थ रहित गठजोड़ से, रचना करे अनर्थ।।
*
*गति*
निर्झर-नीर-प्रवाह सम, तीव्र-मंद हो पाठ।
गति उच्चारों की सधे, कवि जनप्रियता हों ठाठ।।
.
कथ्य-भाव अनुरूप हो, वाक्-चढ़ाव-उतार।
समय कथ्य जन ग्राह्य हो, करतल गूँज अपार।।
*
*यति*
कुछ उच्चारों बाद हो, छंदों में ठहराव।
है यति इसको जानिए, यात्रा-मध्य पड़ाव।।
.
यति पर रुककर श्वास ले, पढ़िए लंबे छंद।
कवित-सवैया का बढ़े, और अधिक आनंद।।
.
श्वास न उखड़े आपकी, गति-यति लें यदि साध।
शुद्ध रखें उच्चार तो, मिट जाए हर व्याध।।
*
*उप यति*
दो विराम के मध्य में, निश्चित जो न विराम।
स्थिर न रहें- जो बदलते, उपरति उनका नाम।।
*
*विराम चिह्न*
मध्य-अंत में पाद के, यति संकेत-निशान।
रखता कवि पाठक सके, उनको झट पहचान।।
*
विस्मय संबोधन कहाँ, कहाँ प्रश्न संकेत।
कहाँ उद्धरण या कथन, चिन्हों का अभिप्रेत।।
१२-७-२०१९
***
एक रचना:
*
मन-वीणा पर चोट लगी जब,
तब झंकार हुई.
रिश्तों की तुरपाई करते
अँगुली चुभी सुई.
खून जरा सा सबने देखा
सिसक रहा दिल मौन?
आँसू बहा न व्यर्थ
पीर कब,
बाँट सका है कौन?
१३-७-२०१८
*
दोहा सलिल- रूप धूप का दिव्य
*
धूप रूप की खान है, रूप धूप का दिव्य।
छवि चिर-परिचित सनातन, पल-पल लगती नव्य।।
*
रश्मि-रथी की वंशजा, या भास्कर की दूत।
दिनकर-कर का तीर या, सूर्य-सखी यह पूत।।
*
उषा-सुता जग-तम हरे, घोर तिमिर को चीर।
करती खड़ी उजास की, नित अभेद्य प्राचीर।।
*
धूप-छटा पर मुग्ध हो, करते कलरव गान।
पंछी वाचिक काव्य रच, महिमा आप्त बखान।।
*
धूप ढले के पूर्व ही, कर लें अपने काम।
संध्या सँग आराम कुछ, निशा-अंक विश्राम।।
*
कलियों को सहला रही, बहला पत्ते-फूल।
फिक्र धूप-माँ कर रही, मलिन न कर दे धूल।।
*
भोर बालिका; यौवना, दुपहर; प्रौढ़ा शाम।
राग-द्वेष बिन विदा ले, रात धूप जप राम।।
*
धूप राधिका श्याम रवि, किरण गोपिका-गोप।
रास रचा निष्काम चित, करें काम का लोप।।
*
धूप विटामिन डी लुटा, कहती- रहो न म्लान।
सूर्य-़स्नान कर स्वस्थ्य हो, जीवन हो वरदान।।
*
सलिल-लहर सँग नाचती, मोद-मग्न हो धूप।
कभी बँधे भुजपाश में, बाँधे कभी अनूप।।
*
रूठ क्रोध के ताप से, अंशुमान हो तप्त।
जब तब सोनल धूप झट, हँस दे; गुस्सा लुप्त।।
*
आशुतोष को मोहकर, रहे मेघ ना मौन।
नेह-वृष्टि कर धूप ले, सँग-सँग रोके कौन।।
*
धूप पकाकर अन्न-फल, पुष्ट करे बेदाम।
अनासक्त कर कर्म वह, माँगे दाम न नाम।।
*
कभी न ब्यूटीपारलर, गई एक पल धूप।
जगती-सोती समय पर, पाती रूप अनूप।।
*
दिग्दिगंत तक टहलती, खा-सो रहे न आप।
क्रोध न कर; हँसती रहे, धूप न करे विलाप।।
१३-७-२०१८
***
कुंडलिया / कुंडली
*
विधान: एक दोहा + एक रोला
अ. २ x १३-११, ४ x ११-१३ = ६ पंक्तियाँ
आ. दोहा का आरंभिक शब्द या शब्द समूह रोला का अंतिम शब्द या शब्द समूह
इ. दोहा का अंतिम चरण, रोला का प्रथम चरण
*
परदे में छिप कर रहे, हम तेरा दीदार।
परदा ऐसा अनूठा, तू भी सके निहार।।
तू भी सके निहार, आह भर, देख हम हँसे।
हँसे न लेकिन फँसे, ह्रदय में शूल सम धँसे।।
मुझ पर मर, भर आह, न कहना कर में कर दे।
होजा तू संजीव, हटाकर आजा परदे।।
१४-७-२०१७
***
हाइकु सलिला
*
कल आएगा?
सोचना गलत है
जो करो आज।
*
लिखो हाइकु
कागज़-कलम ले
हर पल ही।
*
जिया में जिया
हर पल हाइकु
जिया ने रचा।
*
चाह कलम
मन का कागज़
भाव हाइकु।
*
शब्द अनंत
पढ़ो-सुनो, बटोरो
मित्र बनाओ।
*
शब्द संपदा
अनमोल मोती हैं
सदा सहेजो।
*
श्वास नदिया
आस नद-प्रवाह
प्रयास नौका।
*
ध्यान में ध्यान
ध्यान पर न ध्यान
तभी हो ध्यान।
*
मुक्ति की चाह
रोकती है हमेशा
मुक्ति की राह।
*
खुद से ऊब
कैसे पायेगा राह?
खुद में डूब।
***
एक कुण्डलिया
औकात
अमिताभ बच्चन-कुमार विश्वास प्रसंग
*
बच्चन जी से कर रहे, क्यों कुमार खिलवाड़?
अनाधिकार की चेष्टा, अच्छी पड़ी लताड़
अच्छी पड़ी लताड़, समझ औकात आ गयी?
क्षमायाचना कर न समझना बात भा गयी
रुपयों की भाषा न बोलते हैं सज्जन जी
बच्चे बन कर झुको, क्षमा कर दें बच्चन जी
१३-७-२०१७
***
मुक्तक
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
१३-७-२०१६
***
मुक्तिका:
*
जिसे भी देखिये वो बात कर रहा प्रहार की
नहीं किसी को फ़िक्र तनिक है यहाँ सुधार की
सुबह से शाम चीखते ही रह गये न बात की
दूरदर्शनी बहस न आर की, न पार की
दक्षिणा लिये बिना टले न विप्र द्वार से
माँगता नगद न बात मानता उधार की
सियासती नुमाइशें दिखा रही विधायिका
नफरतों ने लीं वसूल कीमतें गुहार की
बाँध बनाने की योजना बना रहे हो तुम
ज़िक्र कर नहीं रहे हो तुम तनिक दरार की
***

1. Water
There is an ocean
In every drop of water.
Can you see it?
There is a life
In every drop of water
Can you live it?
There is a civilization
In every drop of water
Can you save it?
If not:
See by Heart and not through Eyes
You will certainly notice that
There is Past
There is Present
There is Future
There is Culture
In every drop of water.
If You will forget Heart
And will see through Eyes
You will say with fear that
There is flood
There is death
There is an end.
It depend upon you
What do you want to see?
Try to be neat, clean and
Transparent as Water.
Then only You will be
Able to witness
Water in it's reality & totality.
***
विमर्श
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१. हिंदी साहित्य कोष, सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. धर्मवीर भारती, श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार,
१३-७-२०१५
***
गीतः
सुग्गा बोलो
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
***
गीत:
हम मिले…
*
हम मिले बिछुड़ने को
कहा-सुना माफ़ करो...
*
पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े
उन्नत माथ रहे
गैरों से चाहो क्योँ?
खुद ही इन्साफ करो...
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा
अक्षर ने क्षर गाया
का खा गा, ए बी सी
सीन अलिफ काफ़ करो…
*
नर्मदा मचलती है
गोमती सिहरती है
बाँहों में बाँह लिये
चाह जब ठिठकती है
डाह तब फिसलती है
वाह तब सँभलती है
लहर-लहर घहर-घहर
कहे नदी साफ़ करो...
१३-७-२०१४
***
एक कविता:
सीखते संज्ञा रहे...
संजीव 'सलिल'
*
सीखते संज्ञा रहे हम.
बन गये हैं सर्वनाम.
क्रिया कैसी?
क्या विशेषण?
कहाँ है कर्ता अनाम?
कर न पाये
साधना हम
वंदना ना प्रार्थना.
किरण आशा की लिये
करते रहे शब्द-अर्चना.
साथ सुषमा को लिये
पुष्पा रहे रचना कमल.
प्रेरणा देती रहें
नित भावनाएँ नित नवल.
****
१३-७-२०११

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

दोहे : सृष्टि का मूल

सृष्टि का मूल
*
अगम अनाहद नाद हीं, सकल सृष्टि का मूल
व्यक्त करें लिख ॐ हम, सत्य कभी मत भूल

निराकार ओंकार का, चित्र न कोई एक
चित्र गुप्त कहते जिसे, उसकाचित्र हरेक

सृष्टि रचे परब्रम्ह वह, पाले विष्णु हरीश
नष्ट करे शिव बन 'सलिल', कहते सदा मनीष

कंकर-कंकर में रमा, शंका का कर अन्त
अमृत-विष धारण करे, सत-शिव-सुन्दर संत

महाकाल के संग हैं, गौरी अमृत-कुण्ड
सलिल प्रवाहित शीश से, देखेँ चुप ग़ज़-तुण्ड

विष-अणु से जीवाणु को, रचते विष्णु हमेश
श्री अर्जित कर रम रहें, श्रीपति सुखी विशेष

ब्रम्ह-शारदा लीन हो, रचते सुर धुन ताल
अक्षर-शब्द सरस रचें, कण-कण देता ताल

नाद तरंगें संघनित, टकरातीं होँ एक
कण से नव कण उपजते, होता एक अनेक

गुप्त चित्र साकार हो, निराकार से सत्य
हर आकार विलीन हो, निराकार में नित्य

आना-जाना सभी को, यथा समय सच मान
कोई न रहता हमेशा, परम सत्य यह जान

नील गगन से जल गिरे, बहे समुद मेँ लीन
जैसे वैसे जीव हो, प्रभु से प्रगट-विलीन

कलकल नाद सतत सुनो, छिपा इसी में छंद
कलरव-गर्जन चुप सुनो, मिले गहन आनंद

बीज बने आनंद ही, जीवन का है सत्य
जल थल पर गिर जीव को, प्रगटाता शुभ कृत्य

कर्म करे फल भोग कर, जाता खाली हाथ
शेष कर्म फल भोगने, फ़िर आता नत माथ

सत्य समझ मत जोड़िये, धन-सम्पद बेकार
आये कर उपयोग दें, ओरों को कर प्यार

सलिला कब जोड़ें सलिल, कभी न रीते देख
भर-खाली हो फ़िर भरे, यह विधना का लेख
२९-४-२०१४

सोमवार, 13 जुलाई 2015

शिव, शक्ति और सृष्टि  



सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव  ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.  

शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है. 

शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में  ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.         
  
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?

वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया. 

वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं। 

विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती  है।

संदर्भ: 
१. 
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव 
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार,