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बुधवार, 24 नवंबर 2010

लघुकथा: अस्तित्व --- रवीन्द्र खरे 'अकेला'

लघुकथा:

अस्तित्व

रवीन्द्र खरे 'अकेला'
*
शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।

तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?

अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी रहती है और रामू काका कितने प्यार से मेरी परवरिश करते हैं और तेरे ऊपर रखकर ही वे किसानों, मजदूरों के लिये खुरपी, कुंदाली में धार बनाते हैं, ठोक-ठोक कर-निहारी (कुप्पे) से हथौड़े ने पूछा।

‘‘भला तुमने कभी सोचा है यदि मैं ही नहीं रहूँ तो तुम्हारा भला लुहार काका के घर में क्या काम? पड़ी रहेगी किसी अनजान-वीराने में, उल्टे कोई राह चलते तुझसे टकराकर गिर ही जायेगा तो बगैर गाली दिये आगे बढ़ेगा नहीं...’’

निहारी को अपनी भलू का अहसास हो गया था, उसने तुरन्त अपनी गलती स्वीकारते हुये कहा-""हां हथौड़े भइया! तुम ठीक ही कह रहे हो श्रम का फल मीठा होता है। भला लुहार काका और हथौड़े भइया तुम्हारे बिना मेरा क्या अस्तित्व?""
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शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : १९ 'अग' से प्रारंभ शब्द : ६. ---संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १९       संजीव 'सलिल'*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     
'अग' से प्रारंभ शब्द : ६.
संजीव 'सलिल'*
अग्नि - स्त्री. सं. आग, पंच महाभूतों/पंचतत्वों में से तेज तत्व, प्रकाश, उष्णता, गर्मी, गरमी, जठराग्नि, पित्त, अग्निकर्म जलने की क्रिया, सोना, ३ की संख्या (वैद्यक/आयुर्वेद के अनुसार अग्नि के ३ भेद: १. भौमाग्नि=काष्ठादि  से उत्पन्न, २. दिव्याग्नि = उल्का, विद्युत्, तड़ित आदि, ३. जठराग्नि = उदार/पेट में उत्पन्न अग्नि. कर्मकांड के अनुसार ३ अग्नियाँ: गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि. शरीरस्थ १० अग्नियाँ: भ्राजक, रंजक, क्लेदक, स्नेहक, धारक, बंधक, द्रावक,व्यापक, मापक, श्लेष्मक), चित्रक, नीबू, भिलावाँ,' र' का प्रतीक.-कण-पु. चिंगारी, चिन्गारी.-कर्म/कर्मन -पु. अग्निहोत्र, शवदाह, अंत्येष्टि, गर्म लोहे से दागना.-कला-स्त्री. अग्नि के दशविध अवयवों-वर्णों या मूर्तियों में से कोई एक.-काण्ड/कांड-पु.
आग लगाना, जलाना, आगजनी.-कारिका-स्त्री. 'अग्निदूतं पुरोदधे...' मन्त्र जिससे अग्न्याध्यान किया जाता है.-कार्य- पु. अग्नि में आहुति देना, लोहे से दागना, गर्म तेल आदि से अर्बुद/मस्से आदि को जलाना, देखें 'प्रतिसारण'.-काष्ठ- पु. अरणीकी लकड़ी.-कीट-पु. समंदर नामक कीड़ा.-कुण्ड/कुंड-पु. वेदी, हवनकुंड.-कुक्कुट-पु. लूका.-कुमार-पु. शिवके पुत्र कार्तिकेय, एक अग्निवर्धक रस. -कुल-पु.क्षत्रियों का एक वंश जिसकी उत्पत्ति अग्निकुंड से मान्य है: परमार, 
परिहार,चालुक्य/सोलंकी, चौहान/चव्हाण.-केतु-पु. धुआँ, शिव, रावण सेना के दो राक्षस जो राम द्वारा मारे गये थे.-कोण-पु., आग्नेय-पु.-दिक्/दिशा-स्त्री. पूर्व-दक्षिण का कोना,-क्रिया-स्त्री. शव का दाह, दागना.-क्रीड़ा-स्त्री. आतिशबाजी, रंग-बिरंगी विद्युत्-सज्जा, बिजली से सजावट.-गर्भ- वि.जिसके अन्दर आग हो, जिससे आग उत्पन्न हो. पु. अरनी, सूर्यकांत मणि, आतिशी शीशा. -पर्वत-पु. ज्वालामुखी पहाड़,.-गर्भा-स्त्री. शमी वृक्ष, महाज्योतिष्मती लता, पृथ्वी.-गृह-पु.होमाग्नि रखने का स्थान.-चक्र-शरीर के अन्दर के ६ चक्रों में से एक योग.-चय/चयन- पु. अग्न्याधान/अग्न्याधान करने का मन्त्र,-चित-अग्निहोत्री,-/जन्/जन्मा/जात-पु. अग्निजार वृक्ष, सुवर्ष, कार्तिकेय, विष्णु.वि. अग्नि से उत्पन्न, अग्नि उत्पन्न करनेवाला/अग्निद, पाचक.-जार/जा-पु.सिन्धुफला, गजपिप्पली का पेड़.-जिव्ह-पु. देवता, वाराह रूपधारी विष्णु, वि. अग्नि ही जिसकी जीभ है.-जिव्हा-स्त्री. आग की लपट, अग्नि की ७ जीभें काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता,धूम्रवर्णा, उग्रा, प्रदीप्ता, लांगली वृक्ष, जिसकी जीभ आग उगलती हो, जिसके बोलने से सुननेवाले को आग लगने की तरह प्रतीत हो.-जीवी/विन-पु. अग्नि के आधार पर काम करनेवाला/जिसका काम बिना अग्नि के न हो सके-सुनार, लुहार, हलवाई आदि. -ज्वाल- पु. शिव.-ज्वाला-स्त्री.
आग की लपट, जलपिप्पली, घातकी.-टुंडावती-स्त्री. अजीर्ण दूर करने की एक गोली आयु.-तेजा/तेजस- वि. अग्नि सदृश तेजधारी.-त्रय- पु.-त्रेता/त्रयी- स्त्री. यथाविधि स्थापित ३ प्रकार की अग्नि गार्हपत्य, आहवनीय, रक्षित. -दंड- पु. आग में जलाने का दंड.-- पु. आग देने/लगाने वाला दाहक, जलानेवाला.-दग्ध-वि. चिता पर विधिवत जलाया गया.पु. एक पितृवर्ग.-दमनी-स्त्री. एक क्षुप.-दाता/तृ-पु. अंतिम कृत्य (दाहकर्म) करनेवाला. -दान-पु. जलाना, शवदाह,-दिव्य-पु.अग्निपरीक्षा,-दीपक-वि. पाचनशक्तिवर्धक,-दीपन-पु. जठराग्नि का दीपन, पाचनशक्ति की वृद्धि, पाचनशक्तिवर्धक औषधि. -दीप्ता- स्त्री. महाज्योतिष्मती लता.-दूत-पु. यज्ञ, यज्ञ में आवाहित देवता.-देव-अग्नि भगवान -'प्रगटे अगिनी देव चरु लीन्हें' राम.-देवा-स्त्री. कृत्तिका नक्षत्र.-धान- पवित्र अग्नि रखने का स्थान.-नक्षत्र-कृत्तिका नक्षत्र.-निर्यास- पु. अग्निजार वृक्ष.-नेत्र- पु. देवता मात्र.-पक्व-वि. आगपर पकाया हुआ.-पथ-पु. जलते अंगारे जिन पर भक्त चलते हैं, डॉ. हरिवंशराय बच्चन की प्रसिद्ध कविता, अमिताभ बच्चन अभिनीत हिन्दी चलचित्र. 
-परिक्रिया-स्त्री. अग्निचर्या, होमादि करना.-परिगृह-पु. शास्त्रोक्त अग्नि को अखंड रखने का व्रत.-परिधान-पु. यज्ञाग्नि को परदेसे घेरना.-परीक्षा-स्त्री. अग्नि द्वारा परीक्षा,जलती आग या खौलते तेल से किसी के दोषी/
निर्दोष होने की जाँच, सोने-चाँदीआदि को आग में तपकर परखना, कठिन परीक्षा.-पर्वत-पु. ज्वालामुखी पहाड़ -पुराण-पु. महर्षि व्यास द्वारा लिखे गये १८ महापुराणों में
से एक जिसे अग्नि ने सर्वप्रथम वशिष्ठ ऋषि को सुनाया था.-पूजक-पु. आग की पूजा करनेवाला, पारसी.-प्रणयन-पु. अग्निहोत्रकी अग्नि का मन्त्रपूर्वक संस्कार करना.-प्रतिष्ठा-स्त्री. धार्मिक कृत्यों विशेषकर विवाह के अवसर पर अग्नि का आवाहन-पूजन.-प्रवेश-पु. आग में प्रवेश, स्त्री का पति की चिता में प्रवेश.-प्रस्तर-पु. चकमक पत्थर.-बाण- वह तीर जिससे आग की लपट निकले.बाहु-धुआँ, स्वायंभुव मनु का एक पुत्र.-बीज- सोना, 'र' अक्षर.--पु. सोना, कृत्तिका नक्षत्र. वि. अग्नि जैसा चमकनेवाला.-भक्षक/भक्षी-आग खानेवाला. -भू-पु.कार्तिकेय.-भूति-अंतिम तीर्थ करके लौटे ११ शिष्यों में से एक.-मंथ/मंथन-अरणी से रगड़कर आग उत्पन्न करना/इस हेतु प्रयुक्त मंत्र, गनयारी का पेड़.-मथ-पु. अरनी की दो टहनियों से रगड़कर आग उत्पन्न करनेवाला याज्ञिक, अग्निमंथनका मंत्र. अरणीकी लकड़ी.-मणि- पु. सूर्यकांत मणि, आतिशी शीशा.-मान्द्य-पु. जठराग्नि का मंद हो जाना, मन्दाग्नि, हाजमें की खराबी.-मारुति-पु. अगस्त्य ऋषि.-मित्र-पु. शुंगवंशका एक राजा, पुष्यमित्र का बेटा.मिसाइल-स्त्री.भारत का  प्रक्षेपास्त्र जो सुदूर लक्ष्य का अचूक भेदन करने में सक्षम है.-मुख-ब्राम्हण, देवता, प्रेत, अग्निहोत्री, चीते का पेड़,
भिलावाँ, एक अग्निवर्धक चूर्ण.-मुखी-स्त्री. गायत्री मंत्र, भिलावाँ, पाकशाला.-युग-पु. ज्योतिष में मानेगये ५ युगों में से एक.-योजन-पु. अग्नि प्रज्वलित करने की क्रिया.-रंजक-वि. आग से मनोरंजन करनेवाला.-रंजन-आग से खेलकर मनोरंजन करने की कला.-रजा/रजस-पु. बीरबहूटी, वर्षाकाल के बाद हरी घास में मिलनेवाला लाल-मखमली कीड़ा, सोना.-रहस्य-पु. अग्नि की उपासना का रहस्य, शतपथ ब्राम्हण का दसवाँ काण्ड.-रक्षक-पु. आगसे बचानेवाला/लड़नेवाला, फायरफाइटर.-रुहा-स्त्री. मांसरोहिणी नामक पौधा,-रेता/रेतस-पु. सोना.-रोधक- पु. वि. वारक, आग से बचनेवाला, जिस पर आग असर न करे, फायरप्रूफ देखें अग्निसह.इ.-रोहिणी-स्त्री. काँख में
निकलनेवाला फोड़ा जिसमें ज्वर होता है, कँखौरी.-लिंग-पु. आग की लपट
देखकर शुभाशुभ बताने की विद्या.-लोक- पु. अग्निदेव का लोक.-वंश- पु. अग्निकुल.-वधु-स्त्री. स्वाहा.-वर्च/वर्चस-पु. अग्नि का तेज.-वर्ण-वि. अग्नि जैसे रंगवाला.-वर्णा-स्त्री. तेज शराब.-वर्धक/न-वि. पाचनशक्ति बढ़ानेवाला.-वर्षा- स्त्री. बंदूक की गोली, तोप के गोले, बम आदि लगातार गिरना/मिलना/पड़ना.-वल्लभ-पु. अग्निदेव, शाल वृक्ष, राल.-वारक-पु. वि. रोधक, आग से बचनेवाला, जिस पर आग असर न करे, फायरप्रूफ देखें अग्निसह.-वासा/सस-वि. अग्नितुल्य शुद्ध वस्त्रवाला, जो लाल कपड़े पहने हो.-वाह-धुआँ, बकरा.वि. अग्निवाहक.-वाहन- पु. बकरा.-बिंदु-चिंगारी.-विद-वि. अग्निहोत्र जाननेवाला, पु. अग्निहोत्री.-विद्या- स्त्री. अग्निहोत्र, आग से लड़ने/को
नियंत्रित करने की विद्या.-विसर्प-पु. अर्बुद/बवासीर रोगजनित जलन.-वीर्य-अग्नि जैसे तेजवाला. पु. अग्नि का तेज, सोना.-वेश-अग्नि जैसे तेजस्वी, एक आयुर्वेदाचार्य/प्राचीन ऋषि.-शर्मा/शर्मन-अति क्रोधी, एक ऋषि.-शामक दल-दमकल, अग्नि बुझानेवाला प्रशिक्षित दल.-शाला-स्त्री. अग्न्याधान का स्थान.-शिख-पु. कुसुम का वृक्ष, केसर, सोना, दीपक, बाण.-वि. अग्नि जैसी शिखा, ज्वाला या दीप्तिवाला.-शिखा-स्त्री. आग की ज्वाला/लपट, कलियारी पौधा.-शुद्धि-स्त्री. आग में तपाकर शुद्ध करना, अग्निपरीक्षा.-शेखर-पु. केसर, कुसुम, सोना.-ष्टोम-पु. यज्ञविशेष.-ष्ठ-वि. आग पर रखा हुआ, आग पर स्थित, विस्फोटक स्थिति.-ष्वात्त-पु. पितरों का एक गण/वर्ग.-संभव-वि. आग से उत्पन्न. पु.अरन्यकुसुम, सोना, भोजन का रस.-संस्कार-पु. आग जलाना/लगाना, तप्त/गरम करना, अग्नि द्वारा शुद्धि करना, मृतक-दाह, श्राद्ध में एक विधि,-संहिता-स्त्री. अग्निवेश-रचित चिकित्सा-ग्रन्थ,-सखा/सहाय-पु. वायु, धुआँ, जंगली कबूतर,-समाधि-स्त्री.
यौगिक क्रिया द्वारा अपने शरीर को जलाना.-सह-जिस पर अग्नि का असर न हो, जो अग्नि/ताप को सहन करले, अदाह्य, जिसे जलाया न जा सके, फायरप्रूफ इ.-साक्षिक-वि. अग्नि जिसका साक्षी हो, अग्नि को साक्षी कर किया 
गया कार्य.-सात-वि. आग में जलाया हुआ, भस्मसात.-सार-पु. रसांजन.-सेवन- आग तपना/सेंकना.-स्तंभ/स्तंभन-पु. अग्नि की दाहक शक्ति रोकने की क्रिया.हेतु मन्त्र/औषधि.-स्तोक-पु. चिंगारी.-स्नान-पु. आग में जल जाना.-होत्र-पु. वैदिक मन्त्रों से अग्नि में आहुति देना, विवाह की साक्षीभूत अग्नि में नियमपूर्वक हवन करना.-होत्री/त्रिन-वि. पु. अग्निहोत्र करनेवाला.

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: करवा चौथ संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

करवा चौथ

संजीव 'सलिल'
*
करवा चौथ मनाने आया है चंदा.
दूर चाँदनी छोड़ भटकता क्यों बंदा..

खाली जेब हुई माँगे उपहार प्रिया.
निकल पड़ा है माँग-बटोरे कुछ चंदा..

घर जा भैये, भौजी पलक बिछाए है.
मत महेश के शीश बैठ होकर मंदा..

सूरज है स्वर्णाभ, चाँद पीताभ सलिल'
साँझ-उषा अरुणाभ, निशा का तम गंदा..

हर दंपति को जी भर खुशियाँ दे मौला.
'सलिल' मनाता शीश झुका आनंदकंदा..


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शनिवार, 18 सितंबर 2010

दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला :

भू-नभ सीता-राम हैं...

संजीव 'सलिल' 

*     
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..

चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..

दीपावली मना रहा, जग- जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप..

जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..

दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..

नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..

खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष. .
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..

चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

सामायिक लेख: हिन्दी : आज और कल संजीव 'सलिल'

 सामायिक लेख:                                                          

हिन्दी : आज और कल

संजीव 'सलिल'

भाषा के प्रश्न पर चर्चा करते समय लिपि की चर्चा भी आवश्यक है. रोमन लिपि और देवनागरी लिपि के गुण-दोषों की भी चर्चा हो. अन्य भारतीय लिपियों  की सामर्थ्य और वैज्ञानिकता को भी कसौटी पर कसा जाये. क्या हर प्रादेशिक भाषा अलग लिपि लेकर जी सकेगी? यदि सबकी लिपि देवनागरी हो तो उन्हें पढना सबके लिये सहज हो जायेगा. पढ़ सकेंगे तो शब्दों के अर्थ समझ कर विविध भाषाएँ बोलना और लिखना आसान हो जायेगा. प्रादेशिक भाषाओँ और हिन्दी की शब्द सम्पदा साझी है. अंतर कर्ता, क्रिया और कारक से होता है किन्तु इतना नहीं कि एक रूप को समझनेवाला अन्य रूप को न समझ सके. 

                 संस्कृत सबका मूल होने पर भी भी पूरे देश में सबके द्वारा नहीं बोली गयी. संस्कृत संभ्रांत औत पंडित वर्ग की भाषा थी जबकि प्राकृत और अपभ्रंश आम लोगों द्वारा बोली जाती थीं. अतीत में गड़े मुर्दे उखाड़कर किसी भी भाषा का भला नहीं होना है. वर्तमान में हिन्दी अपने विविध रूपों (आंचलिक भाषाओँ / बोलिओँ, उर्दू भी) के साथ सकल देश में बोली और समझी जाती है. राजस्थान में भी हिन्दी साहित्य मंडल नाथद्वारा जैसी संस्थाएँ हिन्दी को नव शक्ति प्रदान करने में जुटी हैं. राजस्थानी तो अपने आपमें कोई भाषा है ही नहीं. राजस्थान में मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावाटी, हाडौती आदि कई भाषाएँ प्रचलित हैं. इनमें से एक भाषा के क्षेत्र में अन्य प्रादेशिक भाषा का विरोध अधिक है हिन्दी का कम. क्या मैथिली भाषी भोजपुरी को, अवधी वाले मैथिली को, मेवाड़ी हदौती को, बघेली बुन्देली को, मालवी निमाड़ी को स्वीकारेंगे? यह कदापि संभव नहीं है जबकि हिन्दी की सर्व स्वीकार्यता है. विविध प्रदेशों में प्रचलित रूपों को उनके राजकीय काम-काज की भाषा घोषित करने के पीछे साहित्यिक-सांस्कृतिक चिंतन कम और स्थानीय राजनीति अधिक है.

                     भारतीय भाषा में रोमन लिपि और अंग्रेजी को सर्वाधिक चुनौती देने की सामर्थ्य है? इस पर विचार करें तो हिन्दी के सिवा कोई नाम नहीं है. क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि कभी मेवाड़ी, अंगिका, छत्तीसगढ़ी, काठियावाड़ी, हरयाणवी या अन्य भाषा विश्व भाषा हो सकेगी? स्थानीय राजनैतिक लाभ के लिये भाषावार प्रान्तों की संरचना कर भारत के राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करने की अदूरदर्शी नीति ने भारत और हिन्दी को महती हानि पहुँचायी है. यदि सरकारें ईमानदारी से प्रादेशिक भाषाओँ को बढ़ाना चाहतीं तो अंग्रेजी के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा को बंद कर प्रादेशिक भाषा के माध्यम से पहले प्राथमिक फिर क्रमशः माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्नातक स्तर की शिक्षा की नीति अपनातीं. खेदजनक है कि देश के विदेशी शासकों की भाषा अंग्रेजी का मोह नहीं छूट रहा जबकि उसे समझनेवाले अत्यल्प हैं. 
 
                       यह तथ्य है कि विश्व भाषा बनने की सामर्थ्य सभी भारतीय भाषाओँ में केवल हिन्दी में है. आवश्यकता हिन्दी के शब्दकोष में आंचलिक भाषाओँ के शब्दों को जोड़ने की है. आवश्यकता हिन्दी में विज्ञान के नए आयामों को देखते हुए नए शब्दों को गढ़ने और कुछ अंग्रेजी शब्दों को आत्मसात करने की है. आवश्यकता नयी पीढ़ी को हिन्दी के माध्यम से हर विषय को पढाये जाने की है. आवश्यकता अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा को प्रतिबंधित किये जाने की है. हिन्दी का भारत की किसी भी भाषा से कोई बैर नहीं है. भारत के राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की वाहक सिर्फ हिन्दी ही है. समय के साथ सभी अंतर्विरोध स्वतः समाप्त होते जाएँगे. हिन्दी-प्रेमी मौन भाव से हिन्दी की शब्द-सामर्थ्य और अभिव्यक्ति-क्षमता बढ़ाने में जुटे रहें. वीवध विषयों और भाषाओँ का साहित्य हिन्दी में और हिन्दी से लगातार अनुवादित, भाषांतरित किया जाता रहे तो हिन्दी को विश्व-वाणी बनने से कोई नहीं रोक सकता. 

                           हिन्दीभाषियों द्वारा मातृभाषा के रूप में प्रांतीय भाषा को लिखाकर हिंदीभाषियों की संख्या कम दर्शाने और अंग्रेजी को राजभाषा घोषित करने का प्रशासनिक अधिकारियों का षड्यंत्र इस देश की जागृत जनता कभी सफल नहीं होने देगी. समय साक्षी है जब-जब हिन्दी की अस्मिता को चुनौती देने की कोशिशें हुईं वह दुगनी शक्ति के साथ आगे बढ़ी है. अमेरिका का राष्ट्रपति बार-बार अमरीकियों से हिन्दी सीखने का आव्हान अकारण नहीं कर रहे. वे समझते हैं कि भविष्य में विश्व-वाणी बनने और अंग्रेजी का स्थान लेने की क्षमता केवल हिन्दी में है. यहाँ तक कि अंतरिक्ष में अन्य आकाश गंगाओं में संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की जिन भाषाओँ में संकेत भेजे गए हैं उनमें भारत से केवल हिन्दी ही है. विश्व के वैज्ञानिकों ने ध्वनि विज्ञान और इलेक्ट्रोनिक्स के मानकों के आधार पर केवल हिन्दी और संस्कृत में यह क्षमता पायी है कि उनके शब्दों को विद्युत तरंगों में बदलने और फिर तरंगों से भाषिक रूप में लाये जाने पर वे यथावत रहते हैं. यही नहीं इन्हीं दो भाषाओँ में जो बोला जाता है, वही लिखा और समझा जाता है. 
 
                   अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा.
 
                      हिन्दी के विकास के लिये सतत समर्पित रहनेवाले अनेक साहित्यकार अहिंदीभाषी हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी आंचलिक भाषा से प्यार नहीं है. वस्तुतः वे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भाषिक प्रश्न को ठीक से देख और समझ पाते हैं. इसलिए वे अपनी आंचलिक भाषा के साथ-साथ हिन्दी में भी सृजन करते हैं. अनेक ऐसे हिन्दीभाषी रचनाकार हैं जो हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ में निरंतर लिख रहे हैं. अन्य कई सृजनधर्मी विविध भाषाओँ के साहित्य को अनुवादित कर रहे हैं. वास्तव में ये सभी सरस्वती पुत्र हिन्दी के  ही प्रचार-प्रसार  में निमग्न हैं. उनका योगदान हिन्दी को समृद्ध कर रहा है.                                                                                                                                              
                  अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा. आइये, हम सब भारत माता के माथे की बिंदी हिन्दी को धरती माता के माथे की बिंदी बनाने के लिये संकल्पित-समर्पित हों.                                                                                                                     -- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 
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