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शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

सामयिक कुण्डलियाँ: संजीव 'सलिल'

सामयिक कुण्डलियाँ:
संजीव 'सलिल'
*
नार विदेशी सोनिया, शेष स्वदेशी लोग.
सबको ही लग गया है, राजनीति का रोग..
राजनीति का रोग, चाहते केवल सत्ता. 
जनता चाहे काट न पाये इनका पत्ता.
'सलिल' आयें जब द्वार पर दें इनको दुत्कार.
दल कोई भी हो सभी चोरों के सरदार..
*
दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग.
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग..
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना.
करें देश-निर्माण पंथ ही केवल वरना.
कहे 'सलिल' कवि, करें योग्यता को मत ओझल.
आरक्षण को कर समाप्त, योग्यता ही हो संबल..

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

कुण्डलियाँ: -- संजीव 'सलिल'


कुण्डलियाँ:                                       

संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल.

फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल..

तज भेदों के, शूल अनवरत, रहें सृजनरत.

मिलें अंगुलिका, बनें मुष्टिका, दुश्मन गारत..

तरसें लेनें. जन्म देवता, विमल विनयरत.

'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत..

*

कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान.

हुए पराजित पलों में, कोटि-कोटि विद्वान..

कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर.

तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर..

जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर.

'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर..

*

सुंदरियाँ घातक; सलिल' पल में लें दिल जीत.

घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत.

जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर.

बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर.

असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ.

नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ..

*


गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जन्माष्टमी पर कुण्डलियाँ: बजे बाँसुरी कृष्ण की: --संजीव 'सलिल'

जन्माष्टमी पर कुण्डलियाँ:

बजे बाँसुरी कृष्ण की

 संजीव 'सलिल'
*















*
बजे बाँसुरी कृष्ण की, हर तन-मन की पीर.
'सलिल' आपको कर सके, सबसे बड़ा अमीर..
सबसे बड़ा अमीर, फकीरी मन को भाए.
पिज्जा-आइसक्रीम फेंक, दधि-माखन खाए.
पद-धन का मद मिटे, न पनपे वृत्ति आसुरी.
'सलिल' जगत में पुनः कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजे बाँसुरी कृष्ण की,  कटें न जंगल-वृक्ष.
गोवर्धन गिरि ना खुदे, बचे न कंस सुदक्ष..
बचे न कंस सुदक्ष, पूतनाएँ दण्डित हों.
कौरव सत्तासीन न, महिमा से मंडित हों.
कहे 'सलिल' कविराय, न यमुना पाये त्रास री.
लहर-लहर लहराए, कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजे बाँसुरी कृष्ण की, यमुना-तट हो रास.
गोप-गोपियों के मिटें, पल में सारे त्रास.
पल में सारे त्रास, संगठित होकर जूझें.
कौन पहेली जिसका हल वे संग न बूझें..
कहे 'सलिल' कवि, तजें न मुश्किल में प्रयास री.
मंजिल चूमे कदम, कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, दुर्योधन हैरान.
कैसे यह सच-झूठ को लेता है पहचान?
लेता है पहचान, कौन दोषी-निर्दोषी?
लालच सके न व्याप, वृत्ति है चिर संतोषी..
राजमहल तज विदुर-कुटी में खाए शाक री.
द्रुपदसुता जी गयी, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, हुए पितामह मौन.
तोड़ शपथ ले शस्त्र यह दौड़ा आता कौन?
दौड़ा आता कौन, भक्त का बन संरक्षक.
हर विसंगति हर बुराई का है यह भक्षक.
साध कनिष्ठा घुमा रहा है तीव्र चाक री.
समयचक्र थम गया, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की,आशाओं को सींच.
पांडव वंशज सुरक्षित, आया दुनिया बीच..
आया दुनिया बीच, अबोले कृष्ण रहे कह.
चलो समेटो जाल, लिखेगा नई कथा यह..
सुरा-मोह ने किया यादवी कुल-विनाश री.
तीर चरण में लगा, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, कुल-वधु लूटें भील.
निबल धनञ्जय रो रहे, हँसते कौए-चील..
हँसते कौए-चील, गया है हार धनञ्जय.
कहीं न दिखते विदुर, कर्ण, धृतराष्ट्र, न संजय..
हिमगिरि जाते पथिक काल भी भरे आह री.
प्रगट हुआ कलिकाल, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, सूरदास बेचैन.
मीरा ने पाया नहीं, पल भर भी सुख-चैन..
पल भर भी सुख-चैन न जब तक उसको देखें.
आज न ऐसा कोई कथा हम जिसकी लेखें.
रुक्मी कौरव कंस कर्ण भी हैं उदास री.
कौन सुने कब-कहाँ कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुधवार, 4 अगस्त 2010

अभिनव प्रयोग: हाइकु / कुण्डली गीत: मन में दृढ विश्वास संजीव 'सलिल'

अभिनव प्रयोग:

हाइकु / कुण्डली  गीत:

मन में दृढ विश्वास

संजीव 'सलिल'
*












*
मन में दृढ
विश्वास रख हम
करें प्रयास...
*
अपनी क्या सामर्थ्य है?, लें हम पहले तोल.
और बाद में निकालें, अपने मुँह से बोल..
अपने मुँह से बोल, निकालें सरस हुलसकर.
जो सुन ले, प्रोत्साहित होकर मिले पुलककर..
कहे 'सलिल' कविराय, लक्ष्य साजन श्रम सजनी.
यही विनय है दैव!, चुके ना हिम्मत अपनी..
*
जब भी पायें
त्रास, तब मंजिल
रहती पास...
*
अपनी रचना से करें, मानव का अभिषेक.
नव विकास के दीप शत, जला सकें सविवेक..
जला सकें सविवेक, प्रकाशित हो सब दुनिया.
कान्हा-राधा से, घर-घर हों मुन्ना-मुनिया..
कहे 'सलिल' कविराय, पूर्णिमा हो हर रजनी.
प्रभु जैसी कथनी, वैसी हो करनी अपनी ..
*
दिखे सभी में
निज सदृश, प्रभु
का है आवास...
*
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

हास्य कुण्डली: संजीव 'सलिल'
















हास्य कुण्डली:

संजीव 'सलिल'
*
घरवाली को छोड़कर, रहे पड़ोसन ताक.
सौ चूहे खाकर बने बिल्ली जैसे पाक..
बिल्ली जैसे पाक, मगर नापाक इरादे.
काश इन्हें इनकी कोई औकात बतादे..
भटक रहे बाज़ार में, खुद अपना घर छोड़कर.
रहें न घर ना घाट के, घरवाली को छोड़कर..
*
सूट-बूट सज्जित हुए, समझें खुद को लाट.
अंगरेजी बोलें गलत, दिखा रहे हैं ठाठ..
दिखा रहे हैं ठाठ, मगर मन तो गुलाम है.
निज भाषा को भूल, नामवर भी अनाम है..
हुए जड़ों से दूर, पग-पग पर लज्जित हुए.
घोडा दिखने को गधे, सूट-बूट सज्जित हुए..
*
गाँव छोड़ आये शहर, जबसे लल्लूलाल.
अपनी भाषा छोड़ दी, तन्नक नहीं मलाल..
तन्नक नहीं मलाल, समझते खुद को साहब.
हँसे सभी जब सुना: 'पेट में हैडेक है अब'..
'फ्रीडमता' की चाह में, भटकें तजकर ठाँव.
होटल में बर्तन घिसें, भूले खेती-गाँव..
*

सोमवार, 28 जून 2010

कुण्डली : आँख का पानी -- संजीव 'सलिल'


कुण्डली  :

आँख का पानी
 
संजीव 'सलिल'
*






















*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय सृष्टि.
कंकर में शंकर दिखे, अगर खुली हो दृष्टि. .
अगर खुली हो दृष्टि, न तेरा-मेरा सूझे.
पल में हर सवाल को मानव हँसकर बूझे..
नहीं आँख का पानी सूखे, हो न अमंगल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित कलकल-कलकल..
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'रहिमन' पानी राखिए, बिन पानी सब सून.
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून..
मोती मानस चून, न चाहें तनिक मलिनता.
जो निर्मल उसके, जीवन में रहे विमलता..
कहे 'सलिल' कविराय, न बोलें कड़वी बानी.
बहे न, रोकें मीत प्रीत की आँख का पानी..
(रहीम के दोहे पर कुण्डली)
******
भाव बिम्ब लय छंद रस, खोज रहे हैं ठाँव.
शब्दाक्षर से मिल गले, पहुँचे कविता-गाँव..
पहुँचे कविता-गाँव, आँख का पानी बोले
दरवाज़े दिल के दिल खातिर रखना खोले..
.अलंकार से मिल गले, दे सबको आनंद.
काव्य-कामिनी मोह ले भाव बिम्ब लय छंद..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

कुण्डली : हिंदी की जय बोलिए -संजीव 'सलिल'












कुण्डली

संजीव 'सलिल'

हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें समुद ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूज उठे, फिर हिंदी की  जय..
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम