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बुधवार, 19 दिसंबर 2012

गजल ये रात लगती लुटी लुटी सी मैत्रेयी अनुरूपा


गजल 

ये रात लगती लुटी लुटी सी 
मैत्रेयी अनुरूपा
*
ये चांदनी के उदास गेसू
ये रोशनी कुछ बुझी बुझी सी
ये
लड़खड़ाती खमोशियां हैं
ये रात लगती लुटी लुटी सी
 
जो
बाद मुद्दत के तेरे लब पे
है आई मंजूरियत मगर क्यों
मुझे है लगता कही है तुमने
बस इक इबारत रटी रटी सी
 
वो
इत्र भीगे रुमाल से भी
हसीन मुझको लगी है नेमत
जो तुमने लब से छुआ के फ़ैकी
वो एक धज्जी कटी फ़टी सी
 
ये
पेच नजरों मे बस गये हैं
उसी का शायद असर है ऐसा
जो सामने है मुजस्समे सी
वो शै भी लगती बँटी बँटी सी
______________________
maitreyee anuroopa <maitreyi_anuroopa@yahoo.com>
_____________._,_.___

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

सामयिक रचना: सेन्डी की बदगुमानी मैत्रेयी अनुरूपा


सामयिक रचना: 
अमरीका में आए तूफ़ान सैंडी पर: 
सेन्डी की बदगुमानी

मैत्रेयी अनुरूपा
 
तूफ़ान की हदों से गुजरी है ज़िन्दगानी
लेकिन न हार फिर भी लम्हे के लिये मानी
 
दो फ़ुट बरफ़ की चादर ओढ़े हुये कहा है
ए अब्र जरा बरसा कुछ और अभी पानी
 
रफ़्तार मील सत्तर चलती रहें हवायें
हमने भी नशेमन की कुव्वत है आजमानी
 
लेकर उठा है करवट फ़िर खंडहर से कोई
दरिया की आदतें ये अब हो चुकी पुरानी
 
अनुरूपा गिन न पाये जो पेड़ गिर गये हैं
गिनती है सिर्फ़ पौधें जो फिर नई लगानी
***
_______________________________ 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

एक कविता मैत्रेयी अनुरूपा

एक कविता
 
मैत्रेयी अनुरूपा
  *
उलझते रहे 
गुत्थियों की तरह
प्रश्न पर प्रश्न
और उन्हीं के उलझाव में
खो गयी ज़िन्दगी
तलशते हुए
अधूरे समीकरण का हल.
हथेलियों की ज्यामिति
सुलझी नहीं
बीजगणित से
और हम व्यर्थ में
गंवाते रहे
औसत और अनुपात के
आँकड़ों में
उलझी हुई अपनी साँसें
हल-जानते हुए भी
स्वीकारा नहीं
और फिर से
उलझ कर रह गये
प्रश्नहीन प्रश्नों में.
  *
<maitreyi_anuroopa@yahoo.com>

शनिवार, 23 जून 2012

रचना - प्रति रचना: ग़ज़ल मैत्रेयी अनुरूपा, मुक्तिका: सम्हलता कौन... संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना:


ग़ज़ल


मैत्रेयी अनुरूपा






*


बदल दें वक्त को ऐसे जियाले ही नहीं होते
वगरना हम दिलासों ने उछाले ही नहीं होते
उठा कर रख दिया था ताक पर उसने चरागों को
तभी से इस शहर में अब उजाले ही नहीं होते
कहानी रोज लाती हैं हवायें उसकी गलियों से
उन्हें पर छापने वाले रिसाले ही नहीं होते
पहन ली रामनामी जब किया इसरार था तुमने
कहीं रामेश्वरम के पर शिवाले ही नहीं होते
तरक्की वायदों की तो फ़सल हर रोज बोती है
तड़पती भूख के हक में निवाले ही नहीं होते
रखा होता अगरचे डोरियों को खींच कर हमने
यकीनन पंख फ़िर उसने निकाले ही नहीं होते
न जाने किसलिये लिखती रही हर रोज अनुरूपा
ये फ़ुटकर शेर गज़लों के हवाले ही नहीं होते
maitreyee anuroopa <maitreyi_anuroopa@yahoo.com>

मुक्तिका:
सम्हलता कौन...
संजीव 'सलिल'
*


*
सम्हलता कौन गिरकर ख्वाब गर पाले नहीं होते.
न पीते, गम हसीं मय में अगर ढाले नहीं होते..


न सच को झूठ लिखते, रात को दिन गर नहीं लिखते.
किसी के हाथ में कोई रिसाले ही नहीं होते..


सियासत की रसोई में न जाता एक भी बन्दा.
जो ताज़ा स्वार्थ-सब्जी के मसाले ही नहीं होते..


न पचता सुब्ह का खाना, न रुचता रात का भोजन.
हमारी जिंदगी में गर घोटाले ही नहीं होते..


कदम रखने का हमको हौसला होता नहीं यारों.
'सलिल' राहों में काँटे, पगों में छाले नहीं होते..


*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com