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सोमवार, 9 जून 2025

जून ९, अम्मी, शहतूत, आँसू, ओस, दोहा, नवगीत, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, सॉनेट

सलिल सृजन जून ९
*
सॉनेट
हुआ मोगरा मनुआ महका
गाल गुलाबी लाल हुआ है
छुईमुई सिर झुका हुआ है
तन पलाश होकर है दहका।
नैन-बैन हो महुआ बहका
चकित चपल चित किसे छुआ है?
माँग माँग भर करी दुआ है
आशा-पंछी कूका-चहका।

जुड़ी-चमेली हुई किशोरी
हरसिंगार सुमन चुन-चुनकर
हर सिंगार करे तरुणाई।
तितली ताके भ्रमर टपोरी
नैनों में सपने बुन-बुनकर
फुलबगिया करती पहुनाई।।
९.६.२०२५
०0०
सॉनेट  सलिला
*
सॉनेट  अंग्रेजी में कविता का एक रूप है। सॉनेट  (sonnet) एक इटालियन शब्द सॉनेट  (sonetto) से बना है जिसका अर्थ है नन्हा गीत या लघु गीत (little song)। तेरहवीं शताब्दी में आते-आते यह १४ पंक्तियोंवाली कविता हो गया। सॉनेट  की लय के आधार पर इसे लिखने के कुछ विशिष्ट नियम हैं। सॉनेट के रचयिता को सॉनेटकार (sonneteers) कहते हैं। सॉनेट के इतिहास में समय-समय पर सोनेटकार कुछ न कुछ परिवर्तन करते रहे हैं।
इटेलियन या मिलटेनियन सॉनेट
प्रसिद्ध सॉनेटकार जॉन मिल्टन ने इटालियन शिल्प पर सॉनेट लिखे। सोलहवीं शताब्दी में थॉमस याट (Wyatt) ने इटेलियाँ तथा फ्रेंच सॉनेटों का अनुवाद करने के साथ अपने सॉनेट भी लिखे। उन दिनों सॉनेट का विषय सामान्यत: प्रेम से सम्बंधित होता था। लन्दन में १५९० में जब प्लेग फैला तो सभी थियेटर आदिबंद हो गए, सभी नाटककारों को रंगमंच पर नाटक खेलना, अभिनय करना आदि प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसे दौर में शेक्सपियर ने अपने सॉनेट लिखे। १६७० के बाद काफी समय तक सॉनेट्स लिखने का शौक खत्म हो गया। फ्रांसीसी क्रांति आरंभ होने पर अचानक सॉनेट फिर लिखे जाने लगे और वर्ड्सवर्थ, मिल्टन, कीट्स, शैली आदि ने सॉनेट लिखे। इटेलियन सॉनेट में एक अठपदी (oktev) तथा एक षट्पदी या दो त्रिपदियों (sestek) का संयोजन होता है। इसका मीटर ABBAABBA CDECDE है।
इंग्लिश या शेक्सपीरियन सॉनेट
सर्वाधिक प्रसिद्ध सॉनेटकार विलियम शेक्सपियर ने १५४ सोंनेट्स इआंबिक पेरामीटर में लिखे। शेक्सपियर के सॉनेट का शिल्प विधान ABAB CDCD EFEF GG था। इसमें तीन चतुष्पदी के बाद एक द्विपदी का समायोजन है। अंग्रेजी द्विपदी (English couplets) लयबद्ध होती है जिसके अंतिम शब्द (पदांत) की समान तुक होती है।
सोनेट का रचना विधान
१. सॉनेट में १४ काव्य पक्तियाँ होती हैं।
२. प्रथम १२ पंक्तियाँ ४ - ४ पंक्तियों के ३ पद या अंतरे होते हैं।
३. हर अंतरे की पहली-तीसरी पंक्ति तथा दूसरी-चौथी पंक्तियाँ समान लय तथा पदांत की होना आवश्यक है।
४. शेष अंतिम २ पंक्तियाँ द्विपदी (couplet) होती हैं जिसकी लय तथा पदांत समान होता है।
५. सॉनेट की हर पंक्ति इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter) में लिखी होती है।
इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter):
१. इआंबिक पैरामीटर की काव्य पंक्ति २ उच्चारों के ५ ध्वनि खंडों (syllables) में विभाजित होती है।
२. इसमें ५ उच्चारों का कम जोर से (unstressed अलंबित) उच्चारण किया जाता है जबकि अन्य ५ उच्चारों का अधिक जोर से (stressed प्रलंबित) उच्चारण किया जाता है।
९.६.२०२३ 
***
तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
***
द्विपदियाँ (शे'र)
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

गुरुवार, 15 मई 2025

मई १५, लघुकथा, वस्तुवदनक छंद, सारस छंद, चित्रगुप्त, गोत्र, अल्ल, तितली, आँसू, ओस

सलिल सृजन मई १५
*
दोहा सलिला
संसार
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व मय सृष्टि।
ब्रह्म अनाहद नाद है, मूल करे शुभ वृष्टि।।
निराकार, साकार हम, मान पूजते मौन।
चित्र गुप्त हम जानते, नहीं पूछते कौन?
ध्वनि तरंग हो संघनित, बनती कण बिन भार।
भार गहें बोसान कण, मिल रचते संसार।।
कण से बने पदार्थ फिर, होते वे चैतन्य।
जाग्रत होती चेतना, उपजेन जीव अनन्य।।
बिना कोश फिर एक दो, बहुकोशी हों जीव।
जलचर थलचर गगनचर, विकसें सँग अजीव।।
जान न जानें सत्य हम, मान न मानें सत्य।
करते भरते भोगते, तजते नहीं असत्य।।
आ-रह-जा यह चक्र ही, परमेश्वर का खेल।
करें मुक्ति की चाह हम, अपनी गाड़ी ठेल।।
***
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*
***
दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
१५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस  छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म/मृत्यु प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

शुक्रवार, 9 जून 2023

शहतूत, अम्मी, आँसू, दोहा, शे'र, ब्रह्म, ब्रम्हांश, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, मुक्तिका,

तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
*
द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

स्मृति काव्य, सवैया, सॉनेट, सूरज, आँसू, मातृभाषा, मुक्तिका, नवगीत, मैथिली हाइकु, पलाश, छंद : चौबोला

भाभी श्री स्व. शकुंतला देवी जी की पुण्य स्मृति में
*
स्मृति काव्य 
हे क्षणभंगुर भव राम राम
भाभी श्री को अगणित प्रणाम।
वे जीवट की परिभाषा थीं।
वे अन्नपूर्णा आशा थीं।।
उनमें थीं शारद-रमा-उमा।
उनमें जीवित थी सदा क्षमा।।
वे अमरनाथ का संबल थीं।
वे नाद अनाहद अविचल थीं।।
सौभाग्य मिली पद-रज मुझको।
हा! चली गईं तुम तज जग को।।
सुधियों से जा न सकोगी तुम।
संबल बन सदा मिलेगी तुम।।
मुस्कान तुम्हारी माता सी।
तुम अद्भुत ममतादाता थीं।।
तुमसे पाया कितना दुलार।
प्रेरणा मिली है बार-बार।।
छोड़ी है देह, नहीं नाता।
तुम होगी साथ सदा माता।।
यादों को सिहर सहेजेंगे।
सिर पर है हाथ समझ लेंगे।।
***
सवैया
गई हो तुम नहीं, हो दिलों में बसी, गई है देह ही, रहोगी तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलोगी फिर यहीं।
*
सॉनेट
सूरज
रोज निकलता नभ पर सूरज।
उषा-धरा को तकता सूरज।
आँख सेकता घर-घर सूरज।।
फिर भी कभी न थकता सूरज।।
रुके नहीं यायावर सूरज।
दोपहरी भर रास रचाता।
झुके नहीं, पछताकर सूरज।।
संध्या को ठेंगा दिखलाता।।
रजनी को अपनाता सूरज।
सारी रैन बिताता सूरज।।
राज नहीं बतलाता सूरज।
हाथ नहीं फिर आता सूरज।।
जग में पूजा जाता सूरज।
क्यों आँखें दिखलाता सूरज।।
•••
सॉनेट
आँसू
यम सम्मुख सब झुके राम रे!
बन न सके क्यों कहो काम रे!
हाय! न यम से बचे राम रे!
मिट ही जाते सकल नाम रे!
कहें विधाता हुआ वाम रे!
हाथ न लेता कभी थाम रे!
मिटना तो क्यों दिया चाम रे!
हुई भोर की सदा शाम रे!
नाहक करते इंतिजाम रे!
यहाँ-वहाँ है कहाँ गाम रे!
कौन कहे कब हो विराम रे!
खास न कोई सभी आम रे!
काश हो सकें हम अकाम रे!
सम हो पाए छाँह-घाम रे!
२२-२-२०२२
•••
सॉनेट
मातृभाषा
माँ की भाषा केवल ममता।
वात्सल्य व्याकरण अनोखा।
हर अक्षर है प्यारा चोखा।।
खूब लुटाती नेह न कमता।।
बारहखड़ी दूध की धारा।
शब्द-शब्द का अर्थ त्याग है।
वाक्य-छंद में भरा राग है।।
कथ्य गीत का तन-मन वारा।।
अलंकार लोरी में अनगिन।
रस सागर की लहरें मत गिन।
शिशु बन हो आनंदित पल-छिन।।
पल में तोला, पल में माशा।
श्वास-श्वास दे जन्म तराशा।
माँ की भाषा दूध-बताशा।।
२२-२-२०२२
•••
मुक्तिका
*
कुछ सपने हैं, कुछ सवाल भी
सादा लेकिन बाकमाल भी
सावन - फागुन, ईद - दिवाली
मिलकर हो जाते निहाल जी
मौन निहारा जब जब तुमको
चेहरा क्यों होता गुलाल जी
हो रजनीश गजब ढाते हो
हाथों में लेकर मशाल जी
ब्रह्मानंद अगर पाना है
सलिल संग कर लो धमाल जी
२२-२-२०२०
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दोहा
अमर नाथ सेवक मरे, यह कैसा है न्याय?
अरबों लुटे न फिक्र क्या, नेता का अभिप्राय।।
२२-२-२०१८

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नवगीत
दुर्योधन
*
गुरु से
काम निकाल रहा,
सम्मान जताना
सीख न पाया
है दुर्योधन.
*
कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है.
सुनते हैं जो सबक न सीखे पछताता है.
लिखते हैं कवि-लेखक, पंडित कथा सुनाते-
पढ़ता है विद्यार्थी लेकिन बिसराता है.
खुद ही
नाम उछल रहा,
पर दाम चुकाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
*
जो बोता-उपजाता, वह भूखा मरता है.
जो करता मेहनत वह पेट नहीं भरता है.
जो प्रतिनिधि-सेवक वह करता ऐश हमेशा-
दंदी-फंदी सेठ ना डर, मन की करता है.
लूट रहा,
छल-कपट, कर्ज
लेकर लौटाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
*
वादा करता नेता, कब पूरा करता है?
अपराधी कब न्याय-पुलिस से कुछ डरता है?
जो सज्जन-ईमानदार है आम आदमी-
जिंदा रहने की खातिर पल-पल मरता है.
बात विदुर की
मान शकुनी से
पिंड छुड़ाना
जान न पाया
है दुर्योधन.
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२१.२.२०१८
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मैथिली हाइकु
(त्रुटियों हेतु क्षमा प्रार्थना सहित)
१.
ई दुनिया छै
प्रभुक बनाओल
प्रेम स रहू
२.
लिट्टी-चोखा
मधुबनी पेंटिंग
मिथिला केर
३.
सभ सs प्यार
घृणा ककरो सय
नैई करब
४.
संपूर्ण क्रांति
जयप्रकाश बाबू
बिसरि गेल
५.
बिहारी जन
भगायल जैतई
दोसर राज?
६.
चलि पड़ल
विकासक राह प'
बिहारी बाबू
७.
चलै लागल
विकासक बयार
नीक धारणा
८.
हम्मर गाम
भगवाने के नाम
लSक चलब
९.
हाल-बेहाल
जनता परेशान
मँहगाई से
१०.
लोकतंत्र में
चुनावक तैयारी
बड़का बात
***
गीत
भैया जी की जय
*
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
फ़िक्र तुम्हारी कर वे दुबले
उतने ही जिंतने हैं बगुले
बगुलों जैसा उजला कुरता
सत्ता की मछली झट निगले
लैपटॉप की भीख तुम्हें दी
जुबां नहीं अपनी खोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
बहिना पीछे रहती कैसे?
झपट उठी झट जैसे-तैसे
आम लोग लख हक्के-बक्के
अटल इरादे इनके पक्के
गगनविहारी साईकिलधारी
वजन बात का मत तोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
धन्य बुआ जी! आग उगलतीं
फूट देख, चुप रहीं सुलगतीं
चाह रहीं जनता को ठगना
चलता बस कुर्सियाँ उलटतीं
चल-फिर कर भी क्या कर लोगे?
बनो मूर्ति सब, मत डोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
भाई-भतीजा मिल दें गच्चा
क्या कर लेंगे बोलो चच्चा?
एक जताता है हक अपना
दूजा कहे चबा लूँ कच्चा
दाग लग रहा है निष्ठा पर
कथनी-करनी भी तोलो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
*
छप्पन इंची छाती-जुमले
काले धन की रौंदी फसलें
चैन न ले, ना लेने देता
करे सर्जिकल, रोके घपले
मत मत-दान करो, मत बेचो
सोच-समझ दो, फिर सो लो
भाभी जी भाषण में बोलीं
भैया जी की जय बोलो.
२२-२-२०१७ ***

एक गीत :
का बिगार दओ?
*
काए फूँक रओ बेदर्दी सें
हो खें भाव बिभोर?
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
हँस खेलत ती
संग पवन खें
पेंग भरत ती खूब।
तेंदू बिरछा
बाँह झुलाउत
रओ खुसी में डूब।
कें की नजर
लग गई दइया!
धर लओ मो खों तोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
काट-सुखा
भर दई तमाखू
डोरा दओ लपेट।
काय नें समझें
महाकाल सें
कर लई तुरतई भेंट।
लत नें लगईयो
बीमारी सौ
दैहें तोय झिंझोर
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
जिओ, जियन दो
बात मान ल्यो
पीओ नें फूकों यार!
बढ़े फेंफडे में
दम तुरतई
गाड़ी हो नें उलार।
चुप्पै-चाप
मान लें बतिया
सुनें न कौनऊ सोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
अपनों नें तो
मेहरारू-टाबर
का करो ख़याल।
गुटखा-पान,
बिड़ी लत छोड़ो
नई तें होय बबाल।
करत नसा नें
कब्बऊ कौनों
पंछी, डंगर, ढोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
बात मान लें
निज हित की जो
बोई कहाउत सयानो।
तेन कैसो
नादाँ है बीरन
साँच नई पहचानो।
भौत करी अंधेर
जगो रे!
टेरे उजरी भोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
२१-११-२०१५
कालिंदी विहार लखनऊ
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नवगीत
.
दहकते पलाश
फिर पहाड़ों पर.
.
हुलस रहा फागुन
बौराया है
बौराया अमुआ
इतराया है
मदिराया महुआ
खिल झाड़ों पर
.
विजया को घोंटता
कबीरा है
विजया के भाल पर
अबीरा है
ढोलक दे थपकियाँ
किवाड़ों पर
.
नखरैली पिचकारी
छिप जाती
हाथ में गुलाल के
नहीं आती
पसरे निर्लज्ज हँस
निवाड़ों पर
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छंद सलिला:
१५ मात्रा का तैथिक छंद : चौबोला
संजीव
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लक्षण: २ पद, ४ चरण, प्रतिचरण १५ मात्रा, चरणान्त लघु गुरु
लक्षण छंद:
बाँचौ बोला तिथि पर कथा, अठ-सत मासा भोगे व्यथा
लघु गुरु हो तो सब कुछ भला, उलटा हो तो विधि ने छला
(संकेत: तिथि = १५ मात्रा, अठ-सत = आठ-सात पर यति, लघु-गुरु चरणान्त)
उदाहरण:
१. अष्टमी-सप्तमी शुभ सदा, हो वही विधि लिखा जो बदा
कौन किसका हुआ कब कहो, 'सलिल' जल में कमल सम रहो
२. निर्झरिणी जब कलकल बहे, तब निर्मल जल धारा गहे
रुके तड़ाग में पंक घुले, हो सार्थक यदि पंकज खिले
३. लोकतंत्र की महिमा यही, ताकत जन के हाथों रही
जिसको चाहा उसको चुना, जिसे न चाहा बाहर किया
२२-२-२०१४
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