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बुधवार, 7 अगस्त 2019

लघुकथा शर संधान, निज स्वामित्व, दूषित वातावरण

लघुकथा 
शर संधान 
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ। 
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***

लघुकथा 
निज स्वामित्व 
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं। 
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व? 
***

लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***


लघुकथा बेपेंदी का लोटा

लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।

प्रवचन से ऊब चुका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
******
संजीव
७९९९५५९६१८ 

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

लघुकथा

लघुकथा:
काल की गति 
'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की.
' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी .
' क्यों प्रभु?'
'काल की गति.'
'मैं कुछ समझा नहीं.'
'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊँगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी?
भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति.
*****
१-८-२०१६
salil.sanjiv@gmail.com
#divyanarmada.blogspot.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 27 जुलाई 2019

लघुकथा

लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
***
९.३.२०१६
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

लघुकथा धर्म संकट


लघुकथा 
धर्म संकट 
*
वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया। 
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है। 
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा। 
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं। 
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट। 
***

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

लघुकथा सफेदपोश तबका

लघुकथा सफेदपोश तबका
देश के विकास और निर्माण की कथा जैसी होती है वैसी दिखती नहीं, और जैसी दिखती है वैसी होती नहीं.... क्या कहा?, नहीं समझे?... कोई बात नहीं समझाता हूँ.
किसी देश का विकास उत्पादन से होता है. उत्पादन सिर्फ दो वर्ग करते हैं किसान और मजदूर. उत्पादनकर्ता की समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक, तकनीक हेतु अभियंता तथा स्वास्थ्य हेतु चिकित्सक, शांति व्यवस्था हेतु पुलिस तथा विवाद सुलझाने हेतु न्यायालय ये पाँच वर्ग आवश्यक हैं. शेष सभी वर्ग अनुत्पादक तथा अर्थ व्यवस्था पर भार होते हैं. -वक्ता ने कहा.
फिर तो नेता, अफसर, व्यापारी और बाबू अर्थव्यवस्था पर भार हुए? क्यों न इन्हें हटा दिया जाए?-किसी ने पूछा.
भार ही तो हुए. ये कितने भी अधिक हों हमेशा खुद को कम बताएँगे और अपने अधिकार, वेतन और सुविधाएं बढ़ाते जायेंगे. यह शोषक वर्ग प्रशासन के नाम पर पुलिस के सहारे सब पर लद जाता है. उत्पादक और उत्पादन-सहायक वर्ग का शोषण करता है. सारे काले कारनामे करने के बाद भी कहलाता है 'सफेदपोश तबका'.
***

गुरुवार, 27 जून 2019

लघुकथा दुहरा चेहरा

लघुकथा
दुहरा चेहरा 
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

बुधवार, 15 मई 2019

लघुकथा: प्यार ही प्यार

लघुकथा:
प्यार ही प्यार 
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।' 
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
***

मंगलवार, 14 मई 2019

लघुकथा कानून के रखवाले

लघुकथा
कानून के रखवाले 
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।

१४.५.२०१६
***

गुरुवार, 9 मई 2019

लघुकथा धुँधला विवेक

लघुकथा 
धुँधला विवेक 
संसार में अन्याय, अत्याचार और पीड़ा देखकर संदेह होता है कि ईश्वर नहीं है. जरा से बच्चे को इतनी बीमारियाँ, बेईमानों को सफलता, मेहनती की फाकाकशी देखकर जगता है या तो ईश्वर है ही नहीं या अविवेकी है? - एक ने कहा. 
संसार में आनेवाले और संसार से जानेवाले हर जीव के कर्मों का खाता होता है. ठीक वैसे ही जैसे बैंक में घुसने और बैंक से निकलनेवाले का होता है. कोई खाली हाथ जाकर गड्डियाँ लाता है तो कोई गड्डी ले जाकर खाली हाथ निकलता है. हम इसे अंधेरगर्दी नहीं कहते क्योंकि हम जानते हैं कि कोई पहले जमा किया धन निकाल रहा है, कोई आगे के लिए जमा कर रहा है या कर्ज़ चुका रहा है. किसी जीव की कर्म पुस्तक हम नहीं जानते, इसलिए उसे मिल रहा फल हमें अनुचित प्रतीत होता है.
ईश्वर परम न्यायी और निष्पक्ष है तो वह करुणासागर नहीं हो सकता. कोई व्यक्ति कितना ही प्रसाद चढ़ाए या प्रार्थना करे, अपने कर्म फल से बच नहीं सकता. दूसरे ने समझाया.
ऐसा है तो हर धर्म में पुजारी वर्ग कर्मकांड और पूजा-पाठ क्यों करता है?
पेट पालने के लिए और यजमान को गलत राह पर ले जाता है किसी भी प्रकार राहत पाने की इच्छा और उसका धुंधला विवेक.
***

लघुकथा

लघुकथा
मीठा-मीठा गप्प
*
आपको गंभीर बीमारी है. इसकी चिकित्सा लंबी और खर्चीली है. हम पूरा प्रयास करेंगे पर सफलता आपके शरीर द्वारा इलाज के प्रति की जाने वाली प्रतिक्रिया पर निर्भर है. तत्काल इलाज न प्रारंभ करने पर यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है. तब इसका कोई उपचार संभव नहीं होता. आप निराश न हों, अभिशाप में वरदान यह है की आरम्भ में ही चिकित्सा हो तो यह पूरी तरह ठीक हो जाती है. चिकित्सक अपनी तरफ से मेरा मनोबल बढ़ाने का पूरा - पूरा प्रयास कर रहा था.
मरता क्या न करता? किसी तरह धन की व्यवस्था की और चिकित्सा आरम्भ हुई. मझे ईश्वर से बहुत शिकायत थी कि मैंने कभी किसी का कुछ बुरा नहीं किया. फिर साथ ऐसा क्यों हुआ? अस्पताल में देखा मेरी अपेक्षा बहुत कम आर्थिक संसाधन वाले, बहुत कम आयु के बच्चे, कठिन चिकित्सा प्रक्रिया से गुजर रहे थे. मुझे उनके आगे अपनी पीड़ा बिसर जाती. उनके दुःख से अपना दुःख बहुत कम प्रतीत होता.
अस्पताल प्रांगण में स्थापित भगवान् की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लगा भगवान् पूछ रहे हैं मैं निर्मम हूँ या करूँ इसकी जाँच हर व्यक्ति अपने-अपने कष्ट के समय ही क्यों करता है, आनंद के समय क्यों नहीं करता? खुशियाँ तुम्हारे कर्म का परिणाम है तो कष्ट के लिए भी तुम्हारे कर्म ही कारण हैं न?. मैं कुछ पाती इसके पहले ही अपना पल्लू खिंचते देख पीछे मुड़कर देखा. कीमोथिरेपी कराकर बाहर आया वही छोटा सा बच्चा था जिसे मैंने वादा किया था कि बीमारी के कारण उसकी पढ़ाई की हानि नहीं हो इसलिए मुझसे पूछ लिया करे. एक हाथ में किताब लिए पूछ रहा था- इस मुहावरे का अर्थ बताइए 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू.'
***

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

laghukatha

लघुकथा:
निपूती भली थी
*

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आई.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे. दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीडाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- 'ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

* * * * *

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

laghukatha

लघुकथा 
खाँसी 
*
कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती. सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए. 
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे. मैंने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है. जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे.
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी.
***

laghukatha

लघुकथा-
गुरु जी 
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बनानहीं सिखायेंगे? 
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए 
सहमति दे दी. रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा.
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं. फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं. मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती. आइंदा ऐसा किया तो...' आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकडे कि अब नहीं बनायेंगे किसी को शिष्या और नहीं बनेंगे किसी के गुरु.
***

शनिवार, 5 जनवरी 2019

laghukatha katar,

लघुकथा- 
कतार 
*
दूरदर्शनी बहस में नोटबन्दी के कारण लग रही लंबी कतारों में खड़े आम आदमियों के दुःख-दर्द का रोना रो रहे नेताओं के घड़ियाली आँसुओं से ऊबे एक आम आदमी ने पूछा-
'गरीबी रेखा के नीचे जी रहे आम मतदातों के अमीर जनप्रतिनिधियों जब आप कुर्सी पर होते हैं तब आम आदमी को सड़कों पर रोककर काफिले में जाते समय, मन्दिरों में विशेष द्वार से भगवान के दर्शन करते समय, रेल और विमान यात्रा के समय विशेष द्वार से प्रवेश पाते समय क्या आपको कभी आम आदमी की कतार नहीं दिखी? यदि दिखी तो अपने क्या किया? क्या आपको अपने जीवन में रुपयों की जरूरत नहीं होती? होती है तो आप में से कोई भी बैंक की कतार में क्यों नहीं दिखता?
आप ऐसा दोहरा आचरण कर आम आदमी का मजाक बनाकर आम आदमी की बात कैसे कर सकते हैं? कालाबाजारियों, तस्करियों और काला धन जुटाते व्यापारियों से बटोर चंदा उपयोग न कर पाने के कारण आप जन गण द्वारा चुनी सरकार से सहयोग न कर जनमत का अपमान करते हैं तो जनता आप के साथ क्यों जुड़े?
सकपकाए नेता को कुछ उत्तर न सूझा तो जन समूह से आवाज आई 'वहां मत बैठे रहो, हमारे दुःख से दुखी हो तो हमारा साथ दो। तुम सबको बुला रही है कतार।
*

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

laghukatha

लघुकथा

एकलव्य

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'

- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'

- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'

-हाँ बेटा.'

- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****

रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं।

***

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

laghukatha

लघुकथा:
ठण्ड 
*
संजीव 
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया। 
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया। 
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएं-बाएं देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड। 
१८-१२-२०१८
***    

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

laghukatha

तीन काल खंड तीन लघु कथाएँ :

१. जंगल में जनतंत्र

जंगल में चुनाव होनेवाले थे।

मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'


' मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी खुश हुए।

तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धाँसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिएरखिए' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।

विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '

१९९४

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२. समरसता
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भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५
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३. मी टू

वे लगातार कई दिनों से कवी की रचनाओं की प्रशंसा कर रही थीं। आरंभ में अनदेखी करने करने के बाद कवि ने शालीनतावश उत्तर देना आवश्यक समझा। अब उन्होंने कवि से कविता लिखना सिखाने का आग्रह किया। कवि जब भी भाषा के व्याकरण या पिंगल की बात करता वे अपने नए चित्र के साथ अपनी उपेक्षा और शोषण की व्यथा-कथा बताने लगतीं।
एक दिन उन्होंने कविता सीखने स्वयं आने की इच्छा व्यक्त की। कवि ने कोई उत्तर नहीं दिया। इससे नाराज होकर उन्होंने कवि पर स्त्री की अवमानना करने का आरोप जड़ दिया। कवि फिर भी मौन रहा।

ब्रम्हास्त्र का प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने निर्वसन चित्र भेजते हुए कवि को अपने निवास पर या कवि के चाहे स्थान पर रात गुजारने का आमंत्रण देते हुए कुछ गज़लें देने की माँग कर दी, जिन्हें वे मंचों पर पढ़ सकें।
कवि ने उन्हें प्रतिबंधित कर दिया। अब वे किसी अन्य द्वारा दी गयीं ३-४ गज़लें पढ़ते हुए मंचों पर धूम मचाए हुए हैं। कवि स्तब्ध जब एक साक्षात्कार में उन्होंने 'मी टू' का शिकार होने की बात कही। कवि समय की माँग पर लिख रहा है स्त्री-विमर्श की रचनाएँ पर उसका जमीर चीख-चीख कर कह रहा है 'मी टू'।
११.१२.२०१८
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बुधवार, 28 नवंबर 2018

लघुकथा- विकल्प

पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।

सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।

गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
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शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

laghukatha

लघुकथा :
सोई आत्मा 
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मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....

वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा। 
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