कुल पेज दृश्य

contemporary hindi poetry लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
contemporary hindi poetry लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 17 जून 2012

गीत: संग समय के... --संजीव 'सलिल'

गीत:
संग समय के...
संजीव 'सलिल'
*
 
*
संग समय के चलती रहती सतत घड़ी.
रहे अखंडित कालचक्र की मौन कड़ी.....
*


छोटी-छोटी खुशियाँ मिलकर जी पायें.
पीर-दर्द सह आँसू हँसकर पी पायें..
सभी युगों में लगी दृगों से रही झड़ी.....
*


अंकुर, पल्लव, कली, फूल, फल, बीज बना.
सीख न पाया झुकना तरुवर रहा तना।
तूफां ने आ शीश झुकाया व्यथा बड़ी.....
*


दूब डूब जाती पानी में- मुस्काती.
जड़ें जमा माटी में, रक्षे हरियाती..
बरगद बब्बा बोले रखना जड़ें गडी.....
*
 

वृक्ष मौलश्री किसको हेरे एकाकी.
ध्यान लगा खो गया, नगर अब भी बाकी..
'ओ! सो मत', ओशो कहते: 'तज सोच सड़ी'.....
*


शैशव यौवन संग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे, बहल रहा..
रुक, झुक, चुक मत, आगे बढ़ ले 'सलिल' छड़ी.....
*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



मंगलवार, 29 मई 2012

मुक्तिका: दिल में दूरी... --संजीव 'सलिल'

 
मुक्तिका:
दिल में दूरी...
संजीव 'सलिल'

*
 
*
दिल में दूरी हो मगर हाथ मिलाये रखना.
भूख सहकर भी 'सलिल' साख बचाये रखना..

जहाँ माटी ही न मजबूत मिले छोड़ उसे.
भूल कर भी न वहाँ नीव के पाये रखना..

गैर के डर से न अपनों को कभी बिसराना.
दर पे अपनों के न कभी मुँह को तू बाये रखना..

ज्योति होती है अमर तम ही मरा करता है.
जब भी अँधियारा घिरे आस बचाये रखना..

कोई प्यासा ले बुझा प्यास, मना मत करना.
जूझ पत्थर से सलिल धार बहाये रखना..

********


रविवार, 20 मई 2012

गीत: अनछुई ये साँझ --संजीव 'सलिल'

गीत:
अनछुई ये साँझ
संजीव 'सलिल'
*
 
*
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
दिन की चौपड़ पर सूरज ने,
जमकर खेले दाँव.
उषा द्रौपदी के ज़मीन पर,
टिक न सके फिर पाँव.

बाधा मरुथल, खे आशा की नाव री
प्रसव पीढ़ा बाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*
अमराई का कतल किया,
खोजें खजूर की छाँव.
नगर हवेली हैं ठाकुर की,
मुजरा करते गाँव.

सांवरा सत्ता पे, तजकर साँवरी
बज रही दरबार में है झाँझ.
साँवरे की याद में है बाँवरी 
अनछुई ये साँझ...
*

सोमवार, 14 मई 2012

गीत : जैसा चाहो... --संजीव 'सलिल'

गीत :
जैसा चाहो...
संजीव 'सलिल'
*

*
जैसा चाहो मुझसे खेलो,
कृपा करो चरणों में ले लो...
*
मैं हूँ रचना देव! तुम्हारी,
कण-कण में छवि नित्य निहारी.
माया भरमाती है मन को-
सुख में तेरी याद बिसारी.

याद दिलाने तुमने ब्याही
अपनी पीड़ा बिटिया प्यारी.
सबक सिखाने की विधि न्यारी-
करी मौज अब पापड़ बेलो...
*
मैं माटी तुम कुम्भकार हो,
जग असार बस तुम्हीं सार हो.
घृणा, लोभ, मद, मोह, द्वेष हम-
नेह नर्मदा तुम अपार हो.

डुबकी एक लगा लेने दो,
जलप्रवाह तुम धुआंधार हो.
घाट सरस्वती पर उतरें हम-
भक्ति-मुक्ति दे गोदी ले लो...
*
बंदरकूदनी में खा गोता,
फटी पतंग, टूटता जोता.
जाग रहे पंछी कलरव कर-
आँखें मूंदें मानव सोता.

चाह रहा फल-फूल अपरिमित
किन्तु राह में काँटें बोता.
'मरा'  जप रहा पापी तोता-
राम सीखने तक चुप झेलो...
*****

गुरुवार, 10 मई 2012

गीत: खो बैठे पहचान... --संजीव 'सलिल'

गीत:
खो बैठे पहचान...
संजीव 'सलिल'
*

*
खो बैठे पहचान
हाय! हम भीड़ हो गये...
*
विधि ने किया विचार
एक से सृज अनेक दूँ.
करूँ सृष्टि संरचना
संवेदन-विवेक दूँ.

हो अनेक से एक
सृजें सब अपनी दुनिया.
जुडें एक से एक
तजें हँस अपनी दुनिया.

समय हँसा, घर नहीं रहा
हम नीड़ हो गये...
*
धरा-बीज से अंकुर फूटे,
पल्लव विकसे.
मिला शाख पर आश्रय
पंछी कूके-विहँसे.

कली-पुष्प बन सुरभि
बिखेरी- जग आनंदित.
चढ़े ईश-चरणों में
बनकर हार सुवंदित.

हुई जीत मनमीत
अहं जड़, पीड़ हो गये...
*
छिना मायका, मिला
सासरा- स्नेह नदारत.
व्यर्थ हुईं साधना
वंदना प्रेयर आयत.

अमृत छकने गये,
हलाहल हर पल पाया.
नीलकंठ हो सके न
माया ने भरमाया.
बाबुल खोया सजन
न पाया- हीड़ हो गये...
*
टीप: हीड़ना बुन्देली शब्द = मन-प्राण से याद करना.
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



रविवार, 13 नवंबर 2011

गीत : राह हेरता... संजीव 'सलिल'


गीत

मीत तुम्हारी राह हेरता...

संजीव 'सलिल'

*

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

सुधियों के उपवन में तुमने

वासंती शत सुमन खिलाये.

विकल अकेले प्राण देखकर-

भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.

चाह जगा कर आह हुए गुम

मूँदे नयन दरश करते हम-

आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

मन बौराये, तन भरमाये..

मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

मन ही मन में तुम्हें टेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में

तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.

बाहर खोजा, भीतर पाया-

खुद को तुम पर वार गया हूँ..

नेह नर्मदा के निनाद सा

अनहद नाद सुनाते हो तुम-

ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!

पार न पाकर पार गया हूँ.

ताना-बाना बुने बुने कबीरा

किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*****************

दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

नवगीत:


कम लिखता हूँ...


--संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...

***************

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

एक नवगीत: भोर हुई... संजीव 'सलिल'

एक नवगीत:                                                                           
भोर हुई...
संजीव 'सलिल'
*
भोर हुई, हाथों ने थामा
चैया-प्याली संग अखबार.
अँखिया खोज रहीं हो बेकल
समाचार क्या है सरकार?...
*
कुर्सीधारी शेर पोंछता
खरगोशों के आँसू.
आम आदमी भटका हिरना,
नेता चीता धाँसू.
जनसेवक ले दाम फूलता
बिकता जनगण का घर-द्वार....
*
कौआ सुर में गाये प्रभाती,
शाकाहारी बाज रे.
सिया अवध से है निष्कासित,
व्यर्थ राम का राज रे..
आतंकी है सादर सिर पर
साधु-संत, सज्जन हैं भार....
*
कामशास्त्र पढ़ते हैं छौने,
उन्नत-विकसित देश बजार.
नीति-धर्म नीलाम हो रहे
शर्म न किंचित लेश विचार..
अनुबंधों के प्रबंधों से
संबंधों का बन्टाधार .....
*****
Acharya Sanjiv Salil

बुधवार, 27 जुलाई 2011

मुक्तिका ......मुझे दे. --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
......मुझे दे.
संजीव 'सलिल'
*
ए मंझधार! अविरल किनारा मुझे दे.
कभी जो न डूबे सितारा मुझे दे..

नहीं चाहिए मुझको दुनिया की सत्ता.
करूँ मौज-मस्ती गुजारा मुझे दे..

जिसे पूछते सब, न चाहूँ मैं उसको.
रिश्ता जो जगने  बिसारा मुझे दे..

खुशी-दौलतें सारी दुनिया ने चाहीं.
नहीं जो किसी को गवारा मुझे दे..

तिजोरी में जो, क्या मैं उसका करूँगा?
जिसे घर से तूने बुहारा मुझे दे..

ज़हर को भी अमृत समझकर पियूँगा.
नहीं और को दैव सारा मुझे दे..

रह मत 'सलिल' से कभी दूर पल भर.
रहमत के मालिक सहारा मुझे दे..

********************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

दोहा सलिला: यमक झमककर मोहता --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक झमककर मोहता
--संजीव 'सलिल'
*
हँस सहते हम दर्द नित, देते हैं हमदर्द.
अपनेपन ने कर दिए, सब अपने पन सर्द..
पन = संकल्प, प्रण.
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम.
नहीं राम से पूछते, ग्रहण करें आ राम..
*
गरज रहे बरसे नहीं, आवारा घन श्याम.
रुक्मिणी-राधा अधर पर, वेणु मधुर घनश्याम..
*
कृष्ण-वेणु के स्वर सुनें, गोप सराहें भाग.
सुन न सके जो वे रहे, श्री के पीछे भाग..
भाग = भाग्य, पीछा करना.
*
हल धरकर हलधर चले, हलधर-कर थे रिक्त.
हल धरकर हर प्रश्न का, हलधर कर रस-सिक्त..
हल धरकर = हल रखकर, किसान के हाथ, उत्तर रखकर, बलराम के हाथ.
*
बरस-बरस घन बरसकर, करें धराको तृप्त.
गगन मगन विस्तार लख, हरदम रहा अतृप्त..
*
असुर न सुर को समझते, सुर से रखते बैर.
ससुरसुता पर मुग्ध हो, मना रहे सुर खैर..
असुर = सुर रहित / राक्षस - श्लेष
सुर = स्वर, देवता. यमक
ससुर = सुर सहित, श्वसुर श्लेष.
*
ससुर-वाद्य संग थिरकते, पग-नूपुर सुन ताल.
तजें नहीं कर ताल को,बजा रहे करताल..
ताल = तालाब, नियमित अंतराल पर यति/ताली बजाना.
कर ताल = हाथ द्वारा ताल का पालन, करताल = एक वाद्य
*
ताल-तरंगें पवन सँग, लेतीं विहँस हिलोर.
पत्ते झूमें ताल पर, पर बेताल विभोर..
ताल = तालाब, नियमित अंतराल पर यति/ताली बजाना.
पर = ऊपर / के साथ, किन्तु.
*
दिल के रहा न सँग दिल, जो वह है संगदिल.
दिल का बिल देता नहीं, ना काबिल बेदिल..
सँग दिल = देल के साथ, छोटे दिलवाला.
*
यमक झमककर मोहता, खूब सोहता श्लेष.
प्यास बुझा अनुप्रास दे, छोड़े हास अशेष..
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 6 जुलाई 2011

एक गीत: हार चढ़ाने आये... संजीव 'सलिल;

एक गीत:
हार चढ़ाने आये...
संजीव 'सलिल;
*
हार चढ़ाने आये दर पर, बोझिल दिल ले हार कर.
सजल नयन ले देख रहे सब, हमें टँगा दीवार पर...

कर्म-अकर्म किये अगणित मिल, साथ कभी रह दूर भी.
आँखें रहते सत्य न देखा, देख लजाते सूर भी.
निर्दय-सदय काल का बंधन, उठा-गिरा था रहा सिखा-
ले तम का आधार जला करता, दीपक ले नूर भी..
किया अस्वीकारों ने भी, स्वीकार नयन जल ढार कर...

नायक, खलनायक, निर्देशक, दर्शक, आलोचक बनकर.
रहे बजाते ताली झुककर, 'सलिल' कभी अकड़े तनकर.
योग-भोग साकार हमीं में, एक साथ हो जाते थे-
पहनी, फाड़ी, बेची चादर, ज्यों की त्यों आये धरकर..
खिझा, रुला, चुप करा, मनाया, नित जग ने मनुहार कर...

संबंधों के अनुबंधों ने, प्रतिबंधों से बाध्य किया.
साधन कभी बनाया हँसकर, कभी रुलाकर साध्य किया.
जग ने समझा ठगा, सोचते हम थे हमसे ठगा गया-
रहे पूजते जिसे उसी ने, अब हमको आराध्य किया.
सोग जताने आयी तृष्णा फिर सोलह सिंगार कर...

*****************************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 19 जून 2011

घनाक्षरी छंद : राजनीति का अखाड़ा..... --संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी छंद :
राजनीति का अखाड़ा.....
संजीव 'सलिल'
*
अपनी भी कहें कुछ, औरों की भी सुनें कुछ, बात-बात में न बात, अपनी चलाइए.
कोई दूर जाए  गर, कोई रूठ जाए गर, नेह-प्रेम बात कर, उसको मनाइए.
बेटी हो, जमाई हो  या, बेटा-बहू, नाती-पोते, भूल से भी भूलकर, शीश न चढ़ाइए.
दूसरों से जैसा चाहें, वैसा व्यवहार करें, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
*
एक देश अपना है, माटी अपनी है एक, भिन्नता का भाव कोई, मन में न लाइए.
भारत की, भारती की, आरती उतारकर, हथेली पे जान धरें, शीश भी चढ़ाइए..
भाषा-भूषा, जात-पांत,वाद-पंथ कोई भी हो, हाथ मिला, गले मिलें, दूरियाँ मिटाइए.
पक्ष या विपक्ष में हों, राष्ट्र-हित सर्वोपरि, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..
**
सुख-दुःख, धूप-छाँव, आते-जाते जिंदगी में, डरिए न धैर्य धर, बढ़ते ही जाइये.
संकटों में, कंटकों में, एक-एक पग रख, कठिनाई सीढ़ी पर, चढ़ते ही जाइये..
रसलीन, रसनिधि, रसखान बनें आप, श्वास-श्वास महाकाव्य, पढ़ते ही जाइये.
शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी मैया! मेवा वरें, शक्ति-साधना का पंथ, गढ़ते ही जाइये..
***

शुक्रवार, 17 जून 2011

दोहा सलिला: भू को फिरसे हरा कर संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
भू को फिरसे हरा कर
संजीव 'सलिल'

*
अग्नि वृष्टिकर प्रभाकर, देता हमको दंड.
भू को फिरसे हरा कर, रे मानव उद्दंड..

क्यों अम्बर का ईश यह, देख रहा चुपचाप?
बरस, बहा कचरा सकल, 'सलिल' सके जग-व्याप..

जग-ज्योतित कर प्रभाकर, पाए वंदना नित्य.
बागी भी धर्मेन्द्र बन, दे आलोक अनित्य..
 
पूनम सी खिल-खिल हँसे, फिर 'मावस की रात.
समय समय का फेर है- समय समय की बात....
 
आयें पानी आँख में, सक्रिय हों फिर हाथ.
पौध लगा, पानी बचा, ऊंचा हो सर-माथ..
 
अम्बरीश पानी पिला, करे धरा को तृप्त.
हरियाली चूनर पहन, धरा रहे संतृप्त..
 
बागी बनकर रोप दें, परिवर्तन की पौध.
'सलिल' धरा फिर बन सके, हरियाली की सौध..
 
भोग-योग का संतुलन, मेटे सकल विकार.
जग-जीवन आलोक पा, बाँटे-पाए प्यार..
 
मरुथल में कर हरीतिमा, चित्र करें साकार.
धर्म यही है एक अब, भू का करें सिंगार..
 
एक द्विपदी:
वंदना हो वृष्टि की जब, प्रार्थना हो पेड़ की तब.
अर्चना हो आयु की अब, साधना हो साधु सी रब..
*

गुरुवार, 16 जून 2011

एक घनाक्षरी ये तो सब जानते हैं संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी
ये तो सब जानते हैं
संजीव 'सलिल'
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना.
मायका सभी को लगे, भला किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना..
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, 
भुजहार अभिसार, प्यार बिन चले ना.
रागी हो विरागी हो या, हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, नार बिन चले ना..
***********

एक कविता: हुआ क्यों मानव बहरा? संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कविता:
हुआ क्यों मानव बहरा?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
***

मंगलवार, 14 जून 2011

दोहा सलिला: आम खास का खास है...... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                    
आम खास का खास है......
संजीव 'सलिल'
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..

आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..

पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..

दर्प न सहता है तनिक,  बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..

छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..

लंगड़ा, हापुस, दशहरी,  कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..

चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..

तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..

हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..

लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..

आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..

'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..

चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..

*******

 

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल * लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार. असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार.. योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार. नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार.. आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार. आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार.. बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार. शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार.. राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार. देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार.. अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार. काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार.. जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार. कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार? सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार. श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार.. सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार. सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार.. लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार. 'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार.. 'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार. अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार.. *************

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

शनिवार, 11 जून 2011

घनाक्षरी: नार बिन चले ना.. -----संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
नार बिन चले ना..
*
घर के न घाट के हैं, राह के न बाट के हैं, जो न सच जानते हैं, प्यार बिन चले ना.
जीत के भी हारते हैं, जो न प्राण वारते हैं, योद्धा यह जानते हैं, वार बिन चले ना..
दिल को जो जीतते हैं, कभी नहीं रीतते हैं, मन में वे ठानते हैं, हार बिन चले ना.
करते प्रयास हैं जो, वरते उजास हैं जो, सत्य अनुमानते हैं, नार बिन चले ना..
*
रम रहो राम जी में, जम रहो जाम जी में, थम रहो काम जी में, यार बिन चले ना.
नमन करूँ वाम जी, चमन करो धाम जी, अमन आठों याम जी, सार बिन चले ना..
कौन सरकार यहाँ?, कौन सरदार यहाँ?, कौन दिलदार यहाँ?, प्यार बिन चले ना.
लगाओ कचनार जी, लुभाओ रतनार जी, न तोडिये किनार जी, नार बिन चले ना..
*
वतन है बाजार जी, लीजिये उधार जी, करिए न सुधार जी, रार बिन चले ना. 
सासरे जब जाइए, सम्मान तभी पाइए, सालीजी को लुभाइए, कार बिन चले ना..
उतार हैं चढ़ाव हैं,  अभाव हैं निभाव हैं, स्वभाव हैं प्रभाव हैं, सार बिन चले ना.
करिए प्रयास खूब, वरिए हुलास खूब, रचिए उजास खूब, नार बिन चले ना..
*
नार= ज्ञान, पानी, नारी, शिशु जन्म के समय काटे जाने वाली नस.

शुक्रवार, 3 जून 2011

नवगीत : बिना पढ़े ही... --- संजीव 'सलिल'

नवगीत :
बिना पढ़े ही...
संजीव 'सलिल'
*
बिना पढ़े ही जान, बता दें
क्या लाया अख़बार है?
पूरक है शुभ, अशुभ शीर्षक,
समाचार-भरमार है.....
*
सत्ता खातिर देश दाँव पर
लगा रही सरकार है.
इंसानियत सिमटती जाती
फैला हाहाकार है..
देह-देह को भोग, 
करे उद्घोष, कहे त्यौहार है.
नारी विज्ञापन का जरिया
देश बना बाज़ार है.....
*
ज्ञान-ध्यान में भेद कई पर
चोरी में सहकार है.
सत-शिव त्याज्य हुआ 
श्री-सुन्दर की ही अब दरकार है..
मौज मज़ा मस्ती पल भर की
पालो, भले उधार है.
कली-फूल माली के हाथों
होता नित्य शिकार है.....
*
वन पर्वत तालाब लीलकर
कहें प्रकृति से प्यार है.
पनघट चौपालों खलिहानों 
पर काबिज बटमार है.
पगडन्डी को राजमार्ग ने 
बेच किया व्यापार है.
दिशाहीनता का करता खुद 
जनगण अब सत्कार है...
*


 

नवगीत: करो बुवाई...... --संजीव 'सलिल'

नवगीत: 

करो बुवाई...... 

--संजीव 'सलिल'

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*