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सोमवार, 20 मार्च 2023

जनक छंद,रमण महर्षि,नवगीत,चिरैया,शारद! अमृत रस बरसा दे।,बाल कविता,मोदी

सॉनेट 
स्वस्ति
स्वस्ति होना अस्ति का परिणाम।
नास्ति हो तो मत करें स्वीकार।
स्वस्ति नहिं हो तो विधाता वाम।।
नास्ति सत् से भी करे इंकार।।
अस्ति से आस्तिक बने संसार।
दे सके, पा भी सके मन प्यार। 
नास्तिक हो तो न बेड़ा पार।।
ऊर्जा हो व्यर्थ सत्य नकार।।
अस्ति खुश अस्तित्व की जय बोल।
नास्ति नाखुश बाल अपने नोच।
स्वस्ति नीरस में सके रस घोल।।
स्वस्ति सबका शुभ सके सच सोच।।
स्वार्थ का सर्वार्थ में बदलाव।
तभी जब हो स्वस्ति सबका चाव।।
२०-३-२०२३
जनक छंद
*
रमण आप में आप कर।
मौन; आप का जाप कर।
आप आप में व्याप कर।।

मौन बोलता है, सुनो।
कहने के पहले गुनो।
व्यर्थ न अपना सर धुनो।।

अति सीमित आहार कर।
विषयों का परिहार कर।
मन मत अधिक विचार कर।।

नाहक सपने मत बुनो।
तन बनकर क्यों तुम घुनो।
दो न, एक को चुप चुनो।।

मन-विचार दो नहीं हैं।
दूर नहीं प्रभु यहीं हैं।
गए नहीं वे कहीं हैं।।

बनो यंत्र भगवान का।
यही लक्ष्य इंसान का।
पुण्य अमित है दान का।।

जीवन पंकिल नहीं है।
जो कुछ उज्ज्वल; यहीं है।
हमने कमियाँ गहीं हैं।।

है महत्त्व अति ध्यान का।
परमपिता के भान का।
उस सत्ता के गान का।।

कर नियमन आहार का।
नित अपने आचार का।
मन में उठे विचार का।।

राही मंज़िल राह भी।
हैं मानव तू आप ही।
आह न केवल वाह भी।।

कोष न नफरत-प्यार का।
बोझ न भव-व्यापार का।
माध्यम पर उपकार का।।

जन्म लिया; भर आह भी।
प्रभु की कर परवाह भी।
है फ़क़ीर तू शाह भी।।

भीतर-बाहर है वही।
कथा न निज जिसने कही। 
जिसकी महिमा सब कहीं।।
*
***
रमण महर्षि
भारत के तामिलनाडू प्रान्त में मदुरै से ३० मील दक्षिण तिरुचुली नामक एक गाँव है जहाँ एक प्राचीन शिव मंदिर है जिसकी अभ्यर्थना, महान तमिल संत एंव कवि सुन्दरमूर्ति एवं माणिक्क वाचकर ने अपने गीतों में की | उन्नीसवीं सदी के अन्त मे इस पवित्र गांव में सुन्दर अय्यर नामक वकील एवं उनकी पत्नी अलगम्माल रहते थे| ये आदर्श दम्पति भक्ति, उदारशीलता एवं दानशीलता से युक्त थे| सुन्दर अय्यर बहुत ही उदार थे जबकि अलगम्माल एक आदर्श हिन्दू पत्नी थीं| वेंकटरामन, उनसे द्वितीय पुत्र के रूप में पैदा हुए जो बाद में समस्त विश्व में भगवान श्री रमण महर्षि के रूप में जाने गये| हिन्दुओं के पावन दिन आरुद्रा-दर्शन, ३० दिसम्बर १८७९ को उनका जन्म हुआ| प्रत्येक वर्ष इस पावन दिन को नटराज शिव की मूर्ति को जनसामान्य के दर्शन हेतु एक समारोह के रूप में निकाला जाता है ताकि लोग शिव के अनुग्रह को अनुभव एवं प्राप्त कर सकें| आरुद्रा (१८७९) के दिन नटराज की मूर्ति तिरुचुली के मंदिर से विभिन्न समारोह के साथ नगर में निकली थी तथा पुनः मंदिर में प्रवेश करने वालि थी, उसी क्षण वेंकटरामन का जन्म हुआ|
जीवन के आरम्भिक वर्षो में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था| वे एक सामान्य बालक के रुप में विकसित हुए| उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में भेजा गया| जब वे बारह वर्ष के थे तो उनके पिता का देहावसान हो गया| ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ, अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी| मदुरै में उन्हें पहले स्काट मीडिल स्कूल तथा बाद में अमेरिकन मिशन हाईस्कूल में भेजा गया| यद्यपि वह तीव्र बुद्धि एवं तीव्र स्मरण शक्ति सम्पन्न थे किन्तु अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं थे। वह स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर युक्त थे तथा उनके साथी उनकी ताकत से डरते थे| उनसे से यदि कभी किसी को नाराजगी रहती तो वे उनकी गहरी निद्रावस्था में बदला लेते थे| उन्हें सोया जानकर कहीं दूर जाकर पीटते थे तो भी उनकी नींद नहीं रवुलती थी| रमण महर्षि (1879-1950) अद्यतन काल के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है।
मुदुरै में भी ऐसी घटनाएं अक्सर ही घटती थी, वहां रमण स्कूल में पढ़ते थे जब किसी लड़के से उनकी खटपट हो जाती, तब दिन में जागते हुए तो वह उनसे कुछ कह न पाता, क्योंकि रमण का स्वास्थ्य अच्छा था, पर उनके सो जाने पर वह अपने मन की मुराद पूरी कर लेता। वह अपने साथियों की मदद से सोए हुए रमण को उठाकर कहीं ले जाता और मन भर पीटने के बाद फिर वहीं सुला जाता। बालक रमण में इस तरह की गहरी नींद के साथ-साथ अर्द्ध निद्रा में रहने की भी आदत थी। ये दोनों ही बातें उनकी धार्मिक वृत्तियों की परिचायक है। गहरी नींद एक ओर तो अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है और दूसरी ओर इस बात का संदेश देती है कि यदि कोई व्यक्ति ध्यान में लीन हो जाए, तो पूरी तरह निमग्न रह सकता है - अर्द्धनिद्रावस्था यह दर्शाती है कि व्यक्ति आंखें खुली रहने पर भी, संसार के काम करते हुए भी, आत्मा अथवा परमात्मा में लीन हो सकता है।
रमण महर्षि ने अद्वैतवाद पर जोर दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि परमानंद की प्राप्ति 'अहम्‌' को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है। रमण ने संस्कृत, मलयालम, एवं तेलुगु भाषाओं में लिखा। बाद में आश्रम ने उनकी रचनाओं का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में किया।
वकील सुंदरम्‌ अय्यर और अलगम्मल को 30 दिसम्बर 1879 को तिरुचुली, मद्रास में जब द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम वेंकटरमन रखा गया। रमण की प्रारंभिक शिक्षा तिरुचुली और दिंदिगुल में हुई। उनकी रुचि शिक्षा की अपेक्षा मुष्टियुद्ध व मल्लयुद्ध जैसे खेलों में अधिक थी तथापि धर्म की ओर भी उनका विशेष झुकाव था।
दक्षिण के शैव लोग “अरुदर्शन” (अर्थात् जब शिव ने अपने भक्तों को नटराज के रूप में दर्शन दिए) का त्यौहार बड़े जोर-शोर और श्रद्धा-भक्ति से मनाते हैं। ३० दिसंबर १८७९ को इसी पवित्र त्यौहार के दिन तमिलनाडु के तिरुचुली नामक छोटे से कस्बे में श्री सुंदरम् अय्यर के घर एक बालक का जन्म हुआ, जो आगे चलकर महर्षि रमण के रूप में विख्यात हुआ। कुछ लोग महर्षि रमण को भगवान शिव का अवतार मानते हैं। बचपन से ही वह संन्यासियों जैसा आचरण करते थे। समाधिस्थ होना उनका सहज स्वभाव था। बचपन में वे अपने चाचा के घर किण्डीगुल में थे। घर में कोई समारोह था, सब लोग समारोह के बाद मंदिर चले गए। रमण उनके साथ नहीं गये। वह चुपचाप बैठे पढ़ते रहे। फिर जब नींद आने लगी तो कुंडे-दरवाजे बंद कर सो गए। घर के लोग जब वापस लोटे, तो उन्होंने बहुतेरा खटखटाया और शोर मचाया, पर रमण की नींद न टुटी| आखिर वे लोग किसी दूसरे के घर से होकर अपने घर में आए और रमण को जगाने के लिए पीटने लगे| घर के सब बच्चों ने उन्हें पीटा, चाचा ने भी पीटा, पर उनकी आंखे न खुली| वह पूर्ववत सोए रहे। रमण को उस मार-पीट का कुछ भी पता नहीं लगा। वह तो सुबह घर के लोगो ने उन्हे बतलाया, तो उन्हें पता चला कि रात को उनकी पिटाई भी हुई था।
तपस्या
लगभग 1895 ई. में अरुचल (तिरुवन्नमलै) की प्रशंसा सुनकर रामन अरुंचल के प्रति बहुत ही आकृष्ट हुए। वे मानवसमुदाय से कतराकर एकांत में प्रार्थना किया करते। जब उनकी इच्छा अति तीव्र हो गई तो वे तिरुवन्नमलै के लिए रवाना हो गए ओर वहाँ पहुँचने पर शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण कर सहस्रस्तंभ कक्ष में तपनिरत हुए। उसी दौरान वे तप करने पठाल लिंग गुफा गए जो चींटियों, छिपकलियों तथा अन्य कीटों से भरी हुई थी। 25 वर्षों तक उन्होंने तप किया। इस बीच दूर और पास के कई भक्त उन्हें घेरे रहते थे। उनकी माता और भाई उनके साथ रहने को आए और पलनीस्वामी, शिवप्रकाश पिल्लै तथा वेंकटरमीर जैसे मित्रों ने उनसे आध्यात्मिक विषयों पर वार्ता की। संस्कृत के महान्‌ विद्वान्‌ गणपति शास्त्री ने उन्हें 'रामनन्‌' और 'महर्षि' की उपाधियों से विभूषित किया।
महर्षि रमण का बचपन का नाम वेंकटरमण था, पर साधारणतः लोग उन्हें रमण के नाम से ही पुकारते थे | अपने नाम के अनुरूप ही वह अध्यात्म की दुनिया में रमण भी करते थे | उस समय उनकी उम्र १७ वर्ष की रही होगी। वह अपने चाचा के घर आए हुए थे। वहां एक विचित्र घटना घटी। वह घटना स्वयं उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :
“मैं कभी बीमार नहीं हुआ था। स्वास्थ्य ठीक था। पर एक दिन एकाएक मैंने महसूस किया कि मैं मर रहा हूं। मौत के भय ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया। पर उस समय यह नहीं सूझा कि किसी डाक्टर के पास जाऊं, अथवा किसी मित्र को बुलाऊं। मैं अपने आप में ही उलझ गया, मौत के भय ने एकाएक मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मैं मर रहा हूँ। पर तभी दिमाग में एक बिजली कौंधी - मैं कहां मर रहा हूं, मर तो शरीर रहा है। और मैं मौत का नाटक करने लगा। मैं लेट गया - सांस रोक ली और सब हरकतें भी बंद कर दी। तब मैंने अपने से कहा - यह शरीर तो मर गया। इसके मरने में और कसर ही क्या है? इसे जला दिया जाएगा, पर इस शरीर के मरने से मैं मर गया क्या? यदि मैं मर गया, तो शक्ति कैसे अनुभव करता हूं? मेरा व्यक्तित्व तो इससे अलग है। मैं इस शरीर की आत्मा हूं। शरीर मर जाएगा - पर मेरी आत्मा नहीं मरेगी। मैं तो कभी मरूंगा ही नहीं। और, इसके साथ ही, मौत का भय एकदम चला गया | मैं पुनःसशक्त हो गया। तब से मैंने शरीर में विशेष दिलचस्पी लेनी छोड़ दी।“
1922 में जब रमण की माता का देहांत हो गया तब आश्रम उनकी समाधि के पास ले जाया गया। 1946 में रमण महर्षि की स्वर्ण जयंती मनाई गई। यहाँ महान्‌ विभूतियों का जमघट लगा रहता था। असीसी के संत फ्रांसिस की भाँति रामन सभी प्राणियों से - गाय, कुत्ता, हिरन, गिलहरी, आदि - से प्रेम करते थे।
14 अप्रैल 1950 की रात्रि को आठ बजकर सैंतालिस मिनट पर जब महर्षि रमण महाप्रयाण को प्राप्त हुए, उस समय आकाश में एक तीव्र ज्योति का तारा उदय हुआ एवं अरुणाचल की दिशा में अदृश्य हो गया।
शास्त्र हमें बताते हैं कि एक ऋषि द्वारा अपनाये गये पथ को मालूम करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार से अपने पंखों से उड़‌कर आकाश में पहुँची एक चिड़िया का पथ रेखांकित करना । अधिकांश व्यक्तियों को लक्ष्य की ओर धीमी एवं श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़‌ती है किन्तु कुछ व्यक्ति, समस्त अस्तित्वों के स्रोत – सर्वोच्च आत्मा में निर्विघ्न उड़ने के लिए जन्मजात प्रतिभा लिए पैदा होते हैं । जब कभी ऎसा कोई ऋषि प्रकट होता है तो सामान्यतया मानवजाति उसे अपने हृदय में स्थान देती है। यद्यपि उनके साथ गति रखना संभव नहीं होता किन्तु उनकी उपस्थिति एवं सान्निध्य में उस आन्नद की अनुभूति होती है जिसके समक्ष सांसारिक सुख नहीं के बराबर होते हैं । महर्षि श्री रमण के जीवनकाल में तिरुवण्णामलै पहुँचने वाले असंख्य व्यक्तियों का यह अनुभव है। उन्होंने उनमें, संसार से पूर्ण विरक्त ऋषि, अतुल्य पावन संत तथा वेदान्त के शाश्वत सत का एक साक्षी देखा। किन्तु जब कभी ऐसी घटना घटित होती है तो उससे समस्त मानव जाति लाभान्वित होती तथा उसके समक्ष आशा का एक नया आयाम खुल जाता है ।
वेंकटरामन ने वचपन से ही अपनी अन्त: स्फुर्णा से अनुभव किया कि अरुणाचल कुछ महान, रहस्यमय एवं पहुँच से बाहर है | उनकी आयु के सोलहवें वर्ष में एक वृद्ध रिश्तेदार उनके घर मदुरै पहुँचे| लड़के ने उनसे पूछा कि वे कहाँ से आये हैं । ‘अरुणाचल से’, रिश्तेदार का उत्तर था| अरुणाचल के नाम मात्र से वेंकटरामन रोमांचित हो गये तथा अपनी उत्तेजना में उन्होंने कहा “क्या? अरुणाचल से! यह कहाँ हैं?” उनको उत्तर मिला कि तिरुवण्णामलै ही अरुणाचल है | उस घटना को संबोधित करते हुए बाद में ऋषि अपनी रचना अरुणाचल स्तुति में कहते है ।
‘ओ महान आश्चर्य! एक अचल पर्वत के रुप में यह खड़ा है किन्तु इसके क्रियाकलाप को समझना हर किसी के लिए कठिन है| बचपन से ही मेरी स्मृति में था की अरुणाचल कोई बहुत महान सत्ता है किन्तु जब मैने किसी से जाना कि यह तिरुवण्णामलै मे है तो इसका अर्थ नहीं समझ सका । मेरे मन को स्थिर कर जब इसने मुझे अपनी ओर आकार्षित किया और मैं निकट आया तो पाया कि यह अचल था’|
वेंकटरामन के ध्यान को अरुणाचल पर आकर्षित करने की इस घटना के शीघ्र वाद एक दूसरी घटना घटी जिसने उनकी आध्यात्मिक उत्कंठा को तीव्र किया| उन्हें पेरिय पुराण की तमिल पुस्तक देखने को मिली जो प्रसिद्ध ६३ शैव संतों के जीवन का वर्णन करती है| पुस्तक पढ़‌ते ही वह रोमांचित हो उठे | धार्मिक साहित्य की यह प्रथम पुस्तक थी जो उन्होंने पढ़ी | संतो के उदाहरण ने उन्हें रोमांचित किया तथा उनके हृदय को स्पर्श किया | संतों के भगवान के प्रति प्रेम एवं वैराग्ययुक्त जीवन अपनाने की इच्छा उनके भीतर प्रबल हुई:
उन्होंने साधारण जनों को रास्ता बताया कि मानव को उसके दैनिक कार्यों को करते हुए किस प्रकार उस परम तत्त्व की वंदना करनी है, कैसे आत्मा की शुद्धि करके जन्म-मरण के चक्करों से पार पाना है। यदि हम अपने दायित्वों का निर्वाह ही नहीं कर सकते तो हमें इस पृथ्वी पर मानव बनकर रहने का क्या अधिकार है! इस जगत् में ज्ञान की वास्तविक परिभाषा, जीवन की गहराइयाँ महर्षि रमण जैसे ज्ञानी पुरुषों ने ही हमें समझाई है।
ध्यान विधि
उसके बाद यदि कोई उनसे कुछ कहता-झगड़ता, तो वह जवाब नहीं देते। जो कुछ भी खाने को मिलता, खा लेते। धीरे-धीरे स्कूल में भी उनकी दिलचस्पी समाप्त हो गई। खेल-कुद से तो मन हट ही गया। एक संन्यासी सा जीवन बन गया | फिर एक दिन चरम स्थिति भी आ पहुंची। स्कूल में काम नहीं किया था - इसलिए अंग्रेजी व्याकरण के एक अभ्यास को तीन बार नकल करने की सजा मिली। दो बार तो उन्होंने नकल कर ली, पर उसके बाद न जाने मन में क्या उमंग उठी कि सभी किताबें एक ओर फेंक दीं और समाधि लगाकर ध्यान करने बैठ गए। फिर, कुछ देर बाद, उन्होंने स्कूल जाने का बहाना किया, कहा कि वहां स्पेशल क्लास लगेगी। चलने लगे, तो बड़े भाई ने पांच रुपये दिए, कालेज में अपनी फीस जमा करवाने को।
रमण ने सोचा कि अरुणाचलम् पहुंचने में तीन रुपये लगेंगे। सो, उन्होंने तीन रुपये तो अपने पास रखे और एक चिट लिख दी – “मैं अपने परम पिता की तलाश में, उसी की आज्ञा से, जा रहा हूँ। यह एक महान कार्य है - इसके लिए दुख करने और खोज में रुपया खर्च करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी कालेज की फीस जमा नहीं करवा रहा। दो रुपये इसके साथ नत्थी हैं।“ इसके बाद वह घर से निकले, स्टेशन पर आए, टिकट लिया और गाड़ी में बैठ गए। राह में दो दिन भटके भी, परंतु आखिर में अपने आराध्य भगवान शिव के स्थान अरुणाचलम् पहुंच ही गए। जब वह अपने घर से चले थे, तो कानों में सोने की बालियां थी। राह में भटक जाने पर उन्होंने वे बालियां एक गृहस्थ को चार रुपये में दे दी। अरुणाचलम् पहुंचने पर एक आदमी ने उनसे पूछा - "चुटिया मुंड़वाओगे?"
उन्होंने कहा-"हां।"
फलतः वह उन्हें एक जगह ले गया, जहां अनेक नाई बैठे यही काम कर रहे थे। चोटी मुड़वाकर उन्होंने अपनी जनेऊ भी अपने आप उतार दी। धोती फाड़कर फेंक दी और उसमें से कोपीन या लंगोटी के लायक कपड़ा रख लिया। बाल कटवाने के बाद हिंदू रीति के अनुसार स्नान करना चाहिए, पर रमण तो शरीर की सेवा के पक्ष में थे ही नहीं, सो मंदिर की ओर चल पड़े। परंतु मंदिर के द्वार में घुसने से पहले ही जोरों की बूंदें पड़ी और उनका स्नान हो गया।
इस प्रकार, दुनिया से मुंह मोड़कर, और सारी इच्छाओं को त्यागकर, महर्षि रमण भगवान शिव के चरणों में साधनालीन हो गए। मंदिर के बड़े दालान में एक ओर उन्होंने आसन जमा दिया। कई सप्ताह तक वह बिना हिले-डुले, बोले-चाले, वहीं बैठे रहे। संसार से उनका नाता टूट चुका था। वह आत्मा की खोज में लीन थे। शीघ्र ही, लोग उन्हें “ब्राह्मणस्वामी” कहने लगे और शेषाद्रिस्वामी नाम के एक सज्जन ने, जो कुछ साल से वहां आए हुए थे, उनकी देखभाल का काम अपने जिम्मे ले लिया। लोग रमण महर्षि को “छोटा शेषाद्वि” भी कहने लगे। उनके घर से गायब होने के बाद स्वभावतः ही लोग उनकी खोज में लग गए और एक दिन उनकी माता उनके पास आ पहुंची। पर वह चुप रहे, कुछ नहीं बोले। अंततः एक व्यक्ति के कहने पर उन्होंने लिखा – “नियंता की आज्ञा और प्रारब्ध कर्मों के अनुसार जो कुछ नहीं होगा, वह कभी नहीं होगा इसलिए अच्छा है कि जो होता है, उसे होने दो।“
लगभग तीन वर्ष तक रमण ने कठोर तपस्या की। इन दिनों कोई व्यक्ति जो कुछ मुंह में डाल देता, वही खा लेते, पर दिन में केवल एक बार, और वह भी उतना ही, जिससे शरीर का आधार बना रहे। कुछ दिनों तक तो जिस पानी मिले दूध से मंदिर का फर्श धुलता था, वही उन्हें पिलाया गया। अरुणाचलम् की पहाड़ी के चारों ओर बहुत रूखा-सा वातावरण है। इस चोटी के दक्षिण में, नीचे की ओर, महर्षि रमण का आश्रम है। इस आश्रम की भी एक कथा है| महर्षि रमण की माता ने जब और कोई चारा न देखा, तो वह उन्हीं के पास रहने लगी और उनके भक्तों-शिष्यों की सेवा करने लगी। धीरे-धीरे उन्हें भान होता गया कि रमण अद्भुत शक्ति संपन्न दैवी पुरुष हैं। एक बार तो रमण के रूप में साक्षात भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और वह चिल्ला पड़ी -"बेटा, इन सांपों को दूर करो। ये तुम्हें काट खाएंगे।"
जब माता की मृत्यु हुई, तो उनकी समाधि आज के आश्रम के स्थान पर बना दी गई। उन दिनों महर्षि रमण अरुणाचलम् की एक गुफा में रहते थे और माता की समाधि पर प्रतिदिन घूमने जाते थे। एक दिन वहां गए, तो वहीं ठहर गए। उनके शिष्यों को चिंता हुई कि वह कही चले गए। सो, वे उन्हें खोजने लगे। अंत में, उन्होंने उन्हें अपनी माता की समाधि पर बैठे पाया। पूछने पर वह बोले, "भगवान् का यही आदेश है।" फलतः वहां आश्रम बना दिया गया। अब तो आश्रम एक पूरी बस्ती ही बन गया है, पर पहले-पहल महर्षि के रहने के लिए वहां केवल घांस-फूंस की एक झोपड़ी डाली गई थी।
चिंतन
महर्षि रमण की आध्यात्मिक उन्नति की बात शीघ्र ही सारे संसार में फेल गई । विभिन्न देशों के लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे | अच्छे प्रतिष्ठित और विचारवान व्यक्ति उनके पास आते और उनके सत्संग का लाभ उठाकर अपना जीवन सफल मानते। उनका कहना था कि सारे प्राणी, सारी आत्माएं, एक हैं। सभी आत्माओं को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील होना ही ईश-भक्ति है। इसीलिए वह दुखियों, रोगियों, आदि की भरपूर सेवा करते थे कहते हैं कि कुछ ईसाई पादरी एक बार उनकी परीक्षा के लिए आए। वे महर्षि को पाखंडी मानते थे। पर जब उन्होंने उन्हें एक कोढ़ी दंपति की सेवा में लीन देखा, तो उनकी आंखें खुल गई और उन्होंने कहा, "आज हमने साक्षात् यीशू मसीह के दर्शन किए हैं।"
आज हमारे बीच महर्षि रमण तो नहीं हैं, पर उनकी शिक्षाएं उनके उपदेश और उनके सिद्धांत आज भी हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वह कहते थे – “भगवान, गुरु और आत्मा एक समान हैं।“
गुरु की परिभाषा वह इस तरह करते थे – “गुरु वह है जो हर समय आत्मा की गहराई में निवास करता है। उसे गलतफहमियों और भेद-भावों से दूर रहना चाहिए। वह स्वतंत्र और बंधनमुक्त होना चाहिए। उसे कभी चिंतित नहीं होना चाहिए।“
वह यह भी कहते थे कि – “जो व्यक्ति अपने को नहीं जानता, वह दूसरे को क्या ज्ञान दे सकता है? वह अद्वैत सिद्धांत को मानने वाले थे। वह अधिक बोलते नहीं थे, परंतु लोगों को उनके दर्शन मात्र से शांति प्राप्त होती थी | बात यह थी कि वह स्वयं ज्ञानपूर्ण थे और सदा दूसरों के कष्ट दूर करने अथवा अपने ऊपर रखने की भावना रखते थे।
महर्षि रमण अपने शरीर की बिल्कुल परवाह नहीं करते थे। इसी वजह से वह असमय में ही बुढ़े हो गए |१९४७ के बाद तो वह बहुत ही कमजोर हो थे। फिर,१९५० में उनकी आंख में एक भयंकर फोड़ा निकला। इस फोड़े का कई बार आपरेशन हुआ, परंतु वह ठीक न हुआ और अंत में उसी की वजह से वह महासमाधि में लीन हो गए।
इस तरह, यद्यपि महर्षि रमण हमारे बीच से चले गए हैं, पर उनका संदेश आज भी हमें बार-बार सावधान करता है – “सभी प्राणी एक हैं। सबके कल्याण में ही तुम्हारा कल्याण है ।
सभी जीव सदैव आनन्द (ख़ुशी) की इच्छा रखते हैं, ऐसा आनन्द जिसमें दु:ख का कोई स्थान न हो,।
"जबकि हर व्यक्ति अपने आप से सब से अधिक प्रेम करता है. इस प्रेम का केवल एक कारण आनन्द है, इसलिए आनन्द अपने स्वयं के भीतर हमेशा होना चहिए.."
2 :: मन क्या हैं? मन अंतरआत्मा की एक आश्चर्यजनक शक्ति है. जो शरीर के भीतर मैं के रुप “में” उदित होता है,
" वह मन है. जब सूक्ष्म मन, मस्तिष्क एवं इन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी होता है, तो स्थूल नाम, रुप की पहचान होती है"
3 :: जब वह हृदय में रहता है तो नाम, रुप विलुप्त हो जाते है. यदि मन हृदय में रहता है तो "मै" या अहंकार जो समस्त विचारों का स्रोत है, चला जाता हैं और केवल आत्मा या वास्तविक शाश्वत "मैं" प्रकाशित होगा. जहाँ अहंकार लेशमात्र नहीं होता, वहाँ आत्मा है।
4 :: केवल शांति अस्तित्वमान है. हमें केवल शांत रहन है. शांति ही हमारी वास्तविक प्रकृति है. हम इसे नष्ट करते हैं. इसे नष्ट करने की आदत को बंद करने की जरुरत है।
5 :: जब तक इंसान अज्ञानी रहता है, तभी तक पुनर्जन्म का अस्तित्व बना रहता है. वास्तव में पुनर्जन्म है ही नहीं ना वह पहले था, न अभी है, न आगे होगा. यही एक सत्य है।
6 :: मृत्यु शरीर को मार सकती है, "अहं-मैं-आत्मा" अनिश्वर है, अमर है, मृत्यु की हर एक सीमा से बाहर है।
7 :: मन दो नहीं हैं अच्छा और बुरा. वासना के अनुरूप अच्छे और बुरे मन का स्वरूप हमारे सामने आ जाता है।
8 :: सबसे उत्कृष्ट दान ज्ञान-दान है।
9 :: परमात्मा और आत्मा एक ही वस्तु तत्व के दो नाम हैं।
10 :: अहंकार मूल पाप है. लोभ, क्रोध व मोह ऐसी की छायाएं हैं।
11 :: हृदय गुहा के मध्य में केवल ब्रह्म आत्मा के रूप में अहम् -अहम् की स्फुरणा के साथ चमकता है. श्वाँस-नियमन या एकाग्रचित्त आत्म-विचार द्वारा अपने भीतर गोता लगाकर हृदय में पहुँचो. इस प्रकार से आप आत्मा में स्थिर हो जायेंगे।
12 :: अपने आपको जानो आत्मज्ञान परमोच्च ज्ञान है, सत्य का ज्ञान है।
13 :: दुःख का कारण बाहर नहीं है. यह तो अपने भीतर है. दुःख की उत्पत्ति अहंकार से होती है।
14 :: मौन की भाषा शांतिमयी वाणी में जो सक्रियता और शक्ति है, वह भाषण प्रवचन कदापि नहीं है।
15 :: व्यक्ति समाज से तिरस्कृत होने पर दार्शनिक, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारी से अनादृत होने पर देवता बनता है।
16 :: स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था में कोई अन्तर नहीं है, सिवाय इसके कि स्वप्न छोटा तथा जाग्रत अवस्था लम्बी होती है. दोनो ही मन के परिणाम है. वास्तविक अवस्था जिसे तुरिया (चतुर्थ) कहा जाता है, जाग्रत, स्वप्न एवं नींद के पार है।
17 :: इस बात का विचार मत करो कि तुम मरने के बाद क्या होंगे, समझना तो यह है कि तुम इस समय क्या हो।
18 :: ईश्वर को जानने के पहले अपने आपको जानना चाहिए आत्मा से भिन्न ईश्वर की स्थिति नहीं है. संसार आत्मा को न जानने के कारण ही दुखी हैं।
19 :: तुम भविष्य की क्यों चिंता करते हो. तुम तो अपना वर्तमान ही नहीं जानते हो, वर्तमान को संभालो, भविष्य स्वयं अपने आप ठीक हो जाएगा।
20 :: विधाता प्राणियों के भाग्य का उनके कर्म के अनुसार निपटारा करते हैं. जो नहीं होना है, वह नहीं होगा।
21 :: सर्वोत्तम और परम शक्तिमयी भाषा मौन है, मौन शांति का भूषण है. उपदेश तो नितान्त मौन रहकर दिया जा सकता है।
“ हालांकि दुष्ट-बुद्धि (या मक्कार) लोगों से भी तुम्हारा सामना हो सकता है, किन्तु उनसे नफरत या घृणा करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। पसंद और नापसंद, प्यार और नफरत भी समान रूप से त्याज्य हैं। मन के लिये यह उचित नहीं है, कि उसको हमेशा भौतिक पदार्थों या सांसारिक विषयों के चिन्तन में लगाये रखा जाये। जहां तक ​​संभव हो, दूसरों के मामलों में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"
“ यह प्रतीयमान जगत,विचार के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। जब मन सभी प्रकार के विचारों से मुक्त हो जाता है, उस समय व्यक्ति की दृष्टि से यह जगत-प्रपंच भी ओझल हो जाता है, और मन - निजानन्द या स्वयं के आनंद का भोग करता है। इसके विपरीत, जब जगत दिखाई देता है, अर्थात जब विचार प्रकट होने लगते हैं, उस समय मन दर्द और पीड़ा का अनुभव करता है। “
“ जिस प्रकार मकड़ी अपने ही भीतर से जाला के धागे को बाहर निकालती है, और फिर अपने भीतर खींच लेती है, ठीक उसी तरह से मन अपने भीतर के जगत को बाहर प्रक्षिप्त करता है, और स्वयं ही उसको अपने भीतर समाहित कर लेता है।”
“ किसी मनुष्य को अपने उन व्यक्तिगत स्वार्थों (कामिनी-कांचन में आसक्ति ) को त्याग देना चाहिये जो उसे इस नश्वर जगत से बाँध देता है। मिथ्या अहंकार (मैं -पन ) को त्याग देना ही सच्चा त्याग है। “
“ प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः दिव्य और ओजस्वी है। जो कुछ दुर्बल और अशुभ दिख रहे हैं, वे उसकी आदतें, वासनायें और विचार हैं, किन्तु वह स्वयं वैसा नहीं है।”
“ वे जो अपना जन्मदिन मनाना चाहते हों,-सुने ! तुम पहले यह खोजो कि तुम्हारा जन्म कब हुआ था ? किसी व्यक्ति का वास्तविक जन्मदिन वह है, जिस दिन (१४-४-१९९२) वह अपने को एक अजन्मा, अविनाशी, अमृत-सन्तान के रूप में पहचान लेता है !
" किसी व्यक्ति को कम से कम, अपने जन्मदिन के अवसर पर, इस संसार (जन्म-मृत्यु के चक्र) में प्रविष्ट होने की मूर्खता के लिये अफ़सोस प्रकट करना चाहिये। क्योंकि शरीर-यौवन पर गौरवान्वित होना और जश्न मनाना तो किसी लाश को अलंकृत करने, या शव का श्रृंगार करने जैसा है। अपनी आत्मा की खोज करना, और स्वयं में विलीन हो जाना -- इसीको ज्ञान या अपने सत्य-स्वरुप की पहचान कहते हैं।”
“ एकाकी आत्मा या ‘स्व’ ही जगत् है, 'मैं' और भगवान (ब्रह्म) है! यह सारी कायनात, या जिस वस्तु का भी अस्तित्व है, वह सब किन्तु, उसी ब्रह्म (Supreme-परम) की अभिव्यक्ति है ! "“The Self alone is the world, the ‘I’ and God. All that exists is but the manifestation of the Supreme.”
“ (3H-) वह चेतना…. जो इस भौतिक शरीर में ‘मैं' के रूप में पैदा होती है, ‘मन’ (mind या Head) है। यदि कोई व्यक्ति यह पता लगाने की चेष्टा करे, कि शरीर (body या Hand) के किस स्थान से ‘मैं’-पन का विचार उठता है--तो उसे पहला दृष्टान्त यही मिलेगा कि वह विचार सर्वप्रथम ‘हृदयम्’ या ‘Heart’ से उतपन्न होता है।” 3H - That which arises in the physical body as ’I′ is the mind..(Head) If one enquires whence the ’I′ thought in the body (Hand) arises in the first instance, it will be found that it is from ‘hrdayam’ or the (Heart).”
" जो कुछ भी हम दूसरों को अर्पित करते हैं, वह सब कुछ वास्तव में अपने आप को ही अर्पित करना है; और जिसे केवल इसी सच्चाई का एहसास हो गया हो, वह भला दूसरों को कुछ भी देने से कैसे मना कर सकता है?”
"कर्म-मय जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नही है। यदि आप हर दिन एक या दो घंटे के लिए ध्यान करें तो आप अपने जीवन के कर्तव्यों को आसानी से जारी रख सकते हैं।” “The life of action need not be renounced. If you meditate for an hour or two every day, you can then carry on with your duties.”
“ कोई एक सत्ता अवश्य है, जो इस जगत् को नियंत्रित (governs) करती है, और यह उसकी चौकसी या निगेहबानी है कि वह दुनिया की रखवाली कैसे करती है, या इसे कैसे सँभालती है ? वही सत्ता (माँ जगद्धात्री) इस दुनिया का बोझ उठाती है, न कि तुम उठाते हो ! "
" मन के सात्विक गुणों को विकसित करने का सबसे अनुकूल तरीका, सर्वोत्कृष्ट आचार-नीति है - आहार का नियमन; अर्थात केवल सात्विक आहार- ग्रहण करना, वह भी परिमित मात्रा में।“
“ प्रश्न : मैं जगत् की सहायता करना चाहता हूँ, क्या मैं संसार का मददगार या उपकारी नहीं बन सकता? उत्तर : हाँ ! स्वयं की सहायता करके, आप जगत् की सहायता करते हैं। आपकी स्थिति जगत में इस प्रकार है ---कि आप ही जगत हैं। आप जगत से भिन्न नहीं हैं, और न यह जगत ही आपसे अलग है। “
“ जब आप लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, अर्थात आप ज्ञाता को भी जान लेते हैं, उसके बाद यदि आप लंदन में एक घर में रहते हैं, या आप किसी जंगल के एकांत में रहते हैं, --दोनों के बीच आपको कोई अंतर महसूस नहीं होता। " “When the goal is reached, when you know the knower, there is no difference between living in a house in London and living in the solitude of a jungle.”
“ मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता, वह है जिसने पूरी तरह से केवल भगवान पर ध्यान किया, और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ब्रह्म-समुद्र में डूबो दिया, तथा उसे तब तक भुलाये रखा है जब तक वह केवल भगवान का एक यंत्र नहीं बन जाता। और अब जब उसका मुंह खुलता है, तो वह बिना अग्रचिंता किये ही भगवान के शब्द बोलता है, और जब वह अपना हाथ उठाता है, तब पुनः भगवान की कृपा ही कोई चमत्कार करने के लिए, उस के माध्यम से बहती है। "
"महर्षि रमण की एक और विशेषता यह है, कि वे जब खाने के लिए बैठते हैं, तो अपना भोजन ग्रहण करने के पूर्व वे दूसरों के बारे में पूछते हैं, और यह देखते हैं, कि वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की सेवा निष्पक्ष होकर की जा रही है, या नहीं ? यदि कोई चावल नहीं लेता हो, तो उसके लिये फल या जो कुछ भी वह पसन्द करता हो, उसे परोसने की व्यवस्था रहती है।”
" आत्मा में एक अद्वितीय शक्ति है - मन, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति में विचार प्रकट होते हैं। यदि इस बात का सूक्ष्म परिक्षण किया जाय, कि सभी विचारों के समाप्त हो जाने के बाद क्या बच जाता है ? तो यही पाया जायेगा कि विचार से अलग मन नामक कोई वस्तु है ही नहीं। तोफिर, इससे यही सिद्ध होता है कि विचार खुद ही के मन का निर्माण करता है।"
" मन के स्वभाव के बारे में एक नियमित और निरन्तर अन्वेषण करने से, मन उस वस्तु में रूपान्तरित हो जाता है, जिसे हमलोग ‘मैं’ कहकर उद्धृत करते है, और जो वास्तव में आत्मा ही है।”
" हमारा मन में असंख्य विषय-वासनायें ( इन्द्रिय-भोगों की परितुष्टि देने वाली वस्तुओं के संबंध में मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों), सागर की लहरों की तरह एक के बाद एक करके उठती-गिरती रहती हैं, जिसके कारण मन हमेशा चंचल बना रहता है। तथापि अपने आत्मस्वरूप पर ध्यान करने से या आत्मा पर ध्यान करने से, वे विचार कम होते जाते हैं, और प्रगतिशील अभ्यास के साथ अंत में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं. "
२०-३-२०२३
***
नवगीत
चिरैया!
*
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
***
शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
२०-३-२०२१

***
साथ मोदी के
*
कर्ता करता है सही, मानव जाने सत्य
कोरोना का काय को रोना कर निज कृत्य

कोरो ना मोशाय जी, गुपचुप अपना काम
जो डरता मरता वही, काम छोड़ नाकाम

भीत न किंचित् हों रहें, घर के अंदर शांत
मदद करें सरकार की, तनिक नहीं हों भ्रांत

बिना जरूरत क्रय करें, नहीं अधिक सामान
पढ़ें न भेजें सँदेशे, निराधार नादान

सोमवार को किया था, हम सबने उपवास
शास्त्री जी को मिली थी, उससे ताकत खास

जनता कर्फ्यू लगेगा, शत प्रतिशत इस बार
कोरोना को पराजित, कर देगा यह वार

नमन चिकित्सा जगत को, करें झुकाकर शीश
जान हथेली पर लिए, बचा रहे बन ईश

देश पूरा साथ मिलकर, लड़ रहा है जंग
साथ मोदी के खड़ा है, देश जय बजरंग
१९-३-२०२०
***

बाल कविता:
जल्दी आना ...
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.
*
माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
२०-३-२०१३
***

सोमवार, 6 मार्च 2023

फाग,होली,मोदी,तुम,त्रिभंगी,रामकृष्ण देव,लघुकथा,कविता,प्रभाती, दोहा,गीत,ग़ज़ल,बंधु,अहीर छंद,

फाग- 
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें

ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
...

होली पर भोजपुरी गीत :
*
कईसे मनाईब होली ? हो मोदी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
*
मीटिंग के गईला त मतदाता अईला
एक गिरउला, तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
दंग विपच्छी तू मौका न दईला
निगली का भंग की गोली? हो मोदी!
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
*
रोएँ बिरोधी मउका तऽ चाही
हाथ मिलाएँ चउका तऽ चाही
सरकारन का रउआ रे टोटा
राहुल की दुनिया में होवे हँसाई
माया की रीती झोली, हो राजा !
खिलके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
मारे ममता दीदी रह-रह के बोली
नीतीश-अखिलेश कऽ बिसरी ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अमित भाई कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल ठाकरे है मुँह लटका
नानी शिंदे ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जमके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
***
फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु की हार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
ढपली-मादल, अम्बर बादल
हरित-पीत पत्ते नच पागल
लाल पलाश कुसुम्बी रंग बन
तन पर पड़े, करे मन घायल
करिया-गोरिया नैन लड़ायें
बैरन झरबेरी
सम भौजी छार हो फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
अररर पकड़ो, तररर झपटा
सररर भागा, फररर लपटा
रतनारी भई सदा सुहागन
रुके न चम्पा कितनऊ डपटा
'सदा अनंद रहे' गा-गाखें
गुझिया-पपड़ी
खाबे खों तकरार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।
***
पुण्य स्मरण
रामकृष्ण देव
*
विश्व के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक रामकृष्ण देव ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण देव मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फ़रवरी १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी का नाम चंद्रमणि देवी था। रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ। उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में प्रकाशपुंज को प्रवेश करते हुए देखा। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को शिक्षण तथा आजीविका के लिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
निरंतर प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। १८५५ में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रासमणि द्वारा बनाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। १८५६ में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया।रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता हैं कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं "घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनंत, तट-विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।
रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यों में लगे रहते थे।परम आध्यात्मिक संत रामकृष्ण देव की बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। अफवाह फ़ैल गयी थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। गदाधर की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर उनका विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आई ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।कालान्तर में बड़े भाई देहावसान से गदाधर व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन न होते हुए भी, गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे पागल समझने लगे। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में स्थित गाँव जयरामबाटी में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर में पा सकते हैं। १८५९ में ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और २३ वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती रहीं और १८ वर्ष की आयु होने होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। गदाधर तब भी संन्यासी का जीवन जीते थे।
इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस। इसके बाद उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। सन् १८८६ ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दी। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
६-३-२०२२
***
लघुकथा
एक अधुनातन अतिबुद्धिजीवी पुत्री ने पिता को भारत में संदेश भेजा - 'डैड! मुझे एक लड़के से प्यार हो गया है। वह रूस में है मैं अमेरिका में। उसके माता-पिता चीन में हैं।हम एक दूसरे का पता मैरिज वेब साइट से मिला। हम डेटिंग वेबसाइट पर मिले। फेसबुक पर मित्र बने। वॉट्सऐप पर हमने कई बार बातचीत की। वीडियो चैट पर एक दूसरे को देखा। स्काइप पर मैंने उसे प्रोपोज़ किया। उसने टेलीग्राम पर एक्सेप्ट किया। हम एक साल से वाइबर पर रिलेशनशिप में हैं। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिता ने झुमरीतलैया से मेटा पर उत्तर दिया - 'क्या वाकई? विचित्र किन्तु सत्य। ट्विटर पर आमंत्रण पत्र भेजो, टैंगो पर विवाह करो, अमेज़न से बच्चे गोद लेकर और पेपाल से भेज दो। पति से मन भर जाए तो उसे ईबे पर बेचने से मत हिचकना।
***
आओ! कविता करना सीखें -
यह स्तंभ उनके लिए है जो काव्य रचना करना बिलकुल नहीं जानते किन्तु कविता करना चाहते हैं। हम सरल से सरल तरीके से कविता के तत्वों पर प्रकाश डालेंगे। जिन्हें रूचि हो वे अपने नाम सूचित कर दें। केवल उन्हीं की शंकाओं का समाधान किया जाएगा जो गंभीर व नियमित होंगे। जानकार और विद्वान साथी इससे जुड़कर अपने समय का अपव्यय न करें।
*
कविता क्यों?
अपनी अनुभूतियों को विचारों के माध्यम से अन्य जनों तक पहुँचाने की इच्छा स्वाभाविक है। सामान्यत: बातचीत द्वारा यह कार्य किया जाता है। लेखक गद्य (लेख, निबंध, कहानी, लघुकथा, व्यंग्यलेख, संस्मरण, लघुकथा आदि) द्वारा, कवि पद्य (गीत, छंद, कविता आदि) द्वारा, गायक गायन के माध्यम से, नर्तक नृत्य द्वारा, चित्रकार चित्रों के माध्यम से तथा मूर्तिकार मूर्तियों के द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। यदि आप अपने विचार व्यक्त करना नहीं चाहते तो कविता करना बेमानी है।
कविता क्या है?
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है।
कविता के तत्व
विषय
कविता करने के लिए पहला तत्व विषय है। विषय न हो तो आप कुछ कह ही नहीं सकते। आप के चारों और दिख रही वस्तुएँ प्राणी आदि, ऋतुएँ, पर्व, घटनाएँ आदि विषय हो सकते हैं।
विचार
विषय का चयन करने के बाद उसके संबंध में अपने विचारों पर ध्यान दें। आप विषय के संबंध में क्या सोचते हैं? विचारों को मन में एकत्र करें।
अभिव्यक्ति
विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त किया जा सकता है। इसे अभिव्यक्त करना कहते हैं।जब विचारों को व्याकरण के अनुसार वाक्य बनाकर बोला या लिखा जाता है तो उसे गद्य कहते हैं। जब विचारों को छंद शास्त्र के नियमों के अनुसार व्यक्त किया जाता है तो कविता जन्म लेती है।
लय
कविता लय युक्त ध्वनियों का समन्वय-सम्मिश्रण करने से बनती है। मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के उपादानों के साहचर्य में विकसित हुई हैं। प्रकृति में बहते पानी की कलकल, पक्षियों का कलरव, मेघों का गर्जन, बिजली की तडकन, सिंह आदि की दहाड़, सर्प की फुफकार, भ्रमर की गुंजार आदि में ध्वनियों तथा लय खण्डों की विविधता अनुभव की जा सकती है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनकर आप उसके सुख या दुःख का अनुमान कर सकते हैं। माँ शिशु के रोने से पहचान जाती है कि वह भूखा है या उसे कोई पीड़ा है।
कविता और लोक जीवन
कविता सामान्य जान द्वारा अपने विचारों और अनुभूतियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करने से उपजाति है। कविता करने के लिए शिक्षा नहीं समझ आवश्यक है। कबीर आदि अनेक कवि निरक्षर थे। शिक्षा काव्य रचना में सहायक होती है। शिक्षित व्यक्ति को भाषा के व्याकरण व् छंद रचना के नियमों की जानकारी होती है। उसका शब्द भंडार भी अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। इससे उसे अपने विचारों को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने में आसानी होती है।
आशु कविता
ग्रामीण जन अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित होने पर भी लोक गीतों की रचना कर लेते हैं। खेतों में मचानों पर खड़े कृषक फसल की रखवाली करते समय अकेलापन मिटाने के लिए शाम के सुनसान सन्नाटे को चीरते हुए गीत गाते हैं। एक कृषक द्वारा गाई गई पंक्ति सुनकर दूर किसी खेत में खड़ा कृषक उसकी लय ग्रहण कर अन्य पंक्ति गाता है और यह क्रम देर रात रहता है। वे कृषक एक दूसरे को नहीं जानते पर गीत की कड़ी जोड़ते जाते हैं। बंबुलिया एक ऐसा ही लोक गीत है। होली पर कबीरा, राई, रास आदि भी आकस्मिक रूप से रचे और गाए जाते हैं। इस तरह बिना पूर्व तैयारी के अनायास रची गई कविता आशुकविता कहलाती है। ऐसे कवी को आशुकवि कहा जाता है।
कविता करने की प्रक्रिया
कविता करने के लिए विषय का चयन कर उस पर विचार करें। विचारों को किसी लय में पिरोएँ। पहली पंक्ति में ध्वनियों के उतार-चढ़ाव को अन्य पंक्तियों में दुहराएँ।
अन्य विधि यह कि पूर्व ज्ञान किसी धुन या गीत को गुनगुनाएँ और उसकी लय में अपनी बात कहने का प्रयास करें। ऐसा करने के लिए मूल गीत के शब्दों को समान उच्चारण शब्दों से बदलें। इस विधि से पैरोडी (प्रतिगीत) बनाई जा सकती है।
हमने बचपन में एक बाल गीत मात्राएँ सीखते समय पढ़ा था।
राजा आ राजा।
मामा ला बाजा।।
कर मामा ढमढम।
नाच राजा छमछम।।
अब इस गीत का प्रतिगीत बनाएँ -
गोरी ओ गोरी।
तू बाँकी छोरी।।
चल मेले चटपट।
खूब घूमें झटपट।।
लोकगीतों और भजनों की लय का अनुकरण कर प्रतिगीत की रचना करना आसान है।
६-३-२०२१
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
६-३-२०२१
***
दोहा-दोहा अलंकार
*
होली हो ली अब नहीं, होती वैसी मीत
जैसी होली प्रीत ने, खेली कर कर प्रीत
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ा भंग में रंग
होली की हड़बोंग है, हुरियारों के संग
*
आराधा चुप श्याम को, आ राधा कह श्याम
भोर विभोर हुए लिपट, राधा लाल ललाम
*
बजी बाँसुरी बेसुरी, कान्हा दौड़े खीझ
उठा अधर में; अधर पर, अधर धरे रस भीज
*
'दे वर' देवर से कहा, कहा 'बंधु मत माँग,
तू ही चलकर भरा ले, माँग पूर्ण हो माँग
*
'चल बे घर' बेघर कहे, 'घर सारा संसार'
बना स्वार्थ दे-ले 'सलिल', जो वह सच्चा प्यार
*
जितनी पायें; बाँटिए, खुशी आप को आप।
मिटा संतुलन अगर तो, होगा पश्चाताप।।
***
हिंदी ग़ज़ल
*
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
६-३-२०२०
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***
कृति चर्चा:
प्यास के हिरन : नवगीत की ज्योतित किरण
*
[कृति विवरण:प्यास के हिरन, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, वर्ष १९९८, पृष्ठ ९४, मूल्य ४०/-, प्रकाशक पराग दिल्ली, नवगीतकार संपर्क:९८६८४४४६६६, rsbandhu2 @gmail.com]
मानवीय सभ्यता के विकास के साथ ध्वनियों की पहचान, इनमें अन्तर्निहित संवेदनाएँ. इनकी पुनर्प्रस्तुति, इनके विविध संयोजन और उनके अर्थ, संवेदनाओं को व्यक्त करते शब्द, शब्द समुच्चयों के आरोह-अवरोह और उनसे अभिव्यक्त होती भावनायें, छलकती सरसता क्रमशः लोकगीतों का रूप लेती गयी. सुशिक्षित अभिजात्य वर्ग में रचनाओं के विधान निश्चित करने की चेतना ने गीतों और गीतों में छांदस अनुशासन, बिम्ब, प्रतीकों और शब्दावली परिवर्तन की चाह के द्वार पर आ खड़ी हुई है.
नवगीतों और छंदानुशासन को सामान कुशलता से साध सकने की रूचि, सामर्थ्य और कौशल जिन हस्ताक्षरों में है उनमें से एक हैं राधेश्याम बंधु जी. बंधु जी का नवगीत संकलन प्यास के हिरन के नवगीत मंचीय दबावों में अधिकाधिक व्यावसायिक होती जाती काव्याभिव्यक्ति के कुहासे में सांस्कारिक सोद्देश्य रचित नवगीतों की अलख जगाता है. नवगीतों को लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम माननेवालों में बंधु जी अग्रणी हैं. वे भाषिक और पिन्गलीय विरासत को अति उदारवाद से दूषित करने को श्रेयस्कर नहीं मानते और पारंपरिक मान्यताओं को नष्ट करने के स्थान पर देश-कालानुरूप अपरिहार्य परिवर्तन कर लोकोपयोगी और लोकरंजनीय बनाने के पथ पर गतिमान हैं.
बंधु जी के नवगीतों में शब्द-अर्थ की प्रतीति के साथ लय की समन्विति और नादजनित आल्हाद की उपस्थिति और नियति-प्रकृति के साथ अभिन्न होती लोकभावनाओं की अभिव्यक्ति का मणिकांचन सम्मिलन है. ख्यात समीक्षक डॉ. गंगा प्रसाद विमल के अनुसार’ बंधु जी में बडबोलापन नहीं है. उनमें रूपक और उपमाओं के जो नये प्रयोग मिलते हैं उनसे एक विचित्र व्यंग्य उभरता है. वह व्यंग्य जहाँ स्थानिक संबंधों पर प्रहार करता है वहीं वह सम्पूर्ण व्यवस्था की विद्रूपता पर भी बेख़ौफ़ प्रहार करता है. बंधु जी पेशेवर विद्रिही नहीं हैं, वे विसंगत के प्रति अपनी असहमति को धारदार बनानेवाले ऐसे विद्रोही हैं जिसकी चिंता सिर्फ आदमी है और वह आदमी निरंतर युद्धरत है.’
प्यास के हिरन (२३ नवगीत), रिश्तों के समीकरण (२७ नवगीत) तथा जंग जारी है (७ नवगीत) शीर्षक त्रिखंदों में विभक्त यह नवगीत संकलन लोक की असंतुष्टि, निर्वाह करते रहने की प्रवृत्ति और अंततः परिवर्तन हेतु संघर्ष की चाह और जिजीविषा का दस्तावेज है. ये गीति रचनाएँ न तो थोथे आदर्श का जय घोष करती है, न आदर्शहीन वर्तमान के सम्मुख नतमस्तक होती हैं, ये बदलाव की अंधी चाह की मृगतृष्णा में आत्माहुति भी नहीं देतीं अपितु दुर्गन्ध से जूझती अगरुबत्ती की तरह क्रमशः सुलगकर अभीष्ट को इस तरह पाना चाहती हैं कि अवांछित विनाश को टालकर सकल ऊर्जा नवनिर्माण हेतु उपयोग की जा सके.
बाजों की / बस्ती में, धैर्य का कपोत फँसा / गली-गली अट्टहास, कर रहे बहेलिये, आदमकद / टूटन से, रोज इस तरह जुड़े / सतही समझौतों के प्यार के लिए जिए, उत्तर तो / बहरे हैं, बातूनी प्रश्न, / उँगली पर ठहर गये, पर्वत से दिन, गुजरा / बंजारे सा एक वर्ष और, चंदा तो बाँहों में / बँध गया, किन्तु लुटा धरती का व्याकरण, यह घायल सा मौन / सत्य की पाँखें नोच रहा है, आदि-आदि पंक्तियों में गीतकार पारिस्थितिक वैषम्य और विडम्बनाओं के शब्द चित्र अंकित करता है.
साधों के / कन्धों पर लादकर विराम / कब तक तम पियें, नये सूरज के नाम?, ओढ़ेंगे / कब तक हम, अखबारी छाँव?, आश्वासन किस तरह जिए?, चीर हरणवाले / चौराहों पर, मूक हुआ क्यों युग का आचरण?, आश्वासन किस तरह जिए? / नगरों ने गाँव डंस लिये, कल की मुस्कान हेतु / आज की उदासी का नाम ताक न लें?, मैंने तो अर्पण के / सूर्य ही उगाये नित / जाने क्यों द्विविधा की अँधियारी घिर आती, हम उजाले की फसल कैसे उगाये?, अपना ही खलिहान न देता / क्यों मुट्ठी भर धान, जैसी अभिव्यक्तियाँ जन-मन में उमड़ते उन प्रश्नों को सामने लाती हैं जो वैषम्य के विरोध की मशाल बनकर सुलगते ही नहीं शांत मन को सुलगाकर जन असंतोष का दावानल बनाते हैं.
जो अभी तक / मौन थे वे शब्द बोलेंगे / हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे, धूप बनकर / धुंध में भी साथ दो तो / ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ सरल हो जाए, बाबा की अनपढ़ / बखरी में शब्दों का सूरज ला देंगे, अनब्याहे फासले / ममता की फसलों से पाटते चलो, परिचय की / शाखों पर, संशय की अमरबेल मत पालो, मैं विश्वासों को चन्दन कर लूँगा आदि में जन-मन की आशा-आकांक्षा, सपने तथा विश्वास की अभिव्यक्ति है. यह विश्वास ही जनगण को सर्वनाशी विद्रोह से रोककर रचनात्मक परिवर्तन की ओर उन्मुख करता है. क्रांति की भ्रान्ति पालकर जीती प्रगतिवादी कविता के सर्वथा विपरीत नवगीत की यह भावमुद्रा लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिये सक्षम व्यवस्था का आव्हान करती है.
बंधु जी के नवगीत सरस श्रृंगार-सलिला में अवगाहन करते हुए मनोरम अभिव्यक्तियों से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं. यादों के / महुआ वन, तन-मन में महक उठे / आओ! हम बाँहों में, गीत-गीत हो जायें, तुम महकते द्वीप की मुस्कान / हम भटकते प्यार के जलयान / क्यों न हम-तुम मिल, छुअन के छंद लिख डालें? क्यों न आदिम गंध से, अनुबंध लिख डालें, आओ, हँ-तुम मिल / प्यार के गुणकों से / रिश्तों के समीकरण, हल कर लें, दालानों की / हँसी खनकती, बाजूबंद हुई / आँगन की अठखेली बोली, नुपुर छंद हुई, चम्पई इशारों से / लिख-लिख अनुबंध / एक गंध सौंप गयी, सौ-सौ सौगंध, खिड़की में / मौलश्री, फूलों का दीप धरे / कमरे का खालीपन, गंध-गीत से भरे, नयनों में / इन्द्रधनुष, अधरोंपर शाम / किसके स्वागत में ये मौसमी प्रणाम? जैसी मादक-मदिर अभिव्यक्तियाँ किसके मन को न मोह लेंगी?
बंधु जी का वैशिष्ट्य सहज-सरल भाषा और सटीक शब्दों का प्रयोग है. वे न तो संस्कृतनिष्ठता को आराध्य मानते हैं, न भदेसी शब्दों को ठूँसते हैं, न ही उर्दू या अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर अपनी विद्वता की धाक जमाते हैं. इस प्रवृत्ति के सर्वथा विपरीत बंधु जी नवगीत के कथ्य को उसके अनुकूल शब्द ही नहीं बिम्ब और प्रतीक भी चुनने देते हैं. उनकी उपमाएँ और रूपक अनूठेपन का बना खोजते हुए अस्वाभाविक नहीं होते. धूप-धिया, चितवन की चिट्ठी, याद की मुंडेरी, शतरंजी शब्द, वासंती सरगम, कुहरे की ओढ़नी, रश्मि का प्रेमपत्र आदि कोमल-कान्त अभिव्यक्तियाँ नवगीत को पारंपरिक वीरासा से अलग-थलग कर प्रगतिवादी कविता से जोड़ने के इच्छुक चंद जनों को भले ही नाक-भौं चढ़ाने के लिये विवश कर दे अधिकाँश सुधि पाठक तो झूम-झूम कर बार-बार इनका आनंद लेंगे.
नवगीत लेखन में प्रवेश कर रहे मित्रों के लिए यह नवगीत संग्रह पाठ्य पुस्तक की तरह है. हिंदी गीत लेखन में उस्ताद परंपरा का अभाव है, ऐसे संग्रह एक सीमा तक उस अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हैं.
रिश्तों के इन्द्रधनुष, शब्द पत्थर की तरह आदमी की भीड़ में शीर्षक ३ मुक्तिकाएँ (हिंदी गज़लें) तथा आदमी शीर्षक एकमात्र मुक्तक की उपस्थिति चौंकाती है. इसने संग्रह की शोभा नहीं बढ़ती. तमसा के तट पर, मेरा सत्य हिमालय पर नवगीत अन्य सम्मिलित नवगीतों की सामान्य लीक से हटकर हैं. सारतः यह नवगीत संग्रह बंधु जी की सृजन-सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज होने के साथ-साथ आम पाठक के लिये रस की गागर भी है. ***
***
कृति चर्चा:
नवगीत के नये प्रतिमान : अनंत आकाश अनवरत उड़ान
*
[कृति विवरण: नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी जेकेट युक्त, वर्ष २०१२, पृष्ठ ४६४, मूल्य ५००/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
समकालिक हिंदी काव्य के केंद्र में आ चुका नवगीत अपनी विकास यात्रा के नव पड़ावों की ओर पग रखते हुए नव छंद संयोजन से लोक धुनों और लोक गीतों की ओर कदम बढ़ा रहा है. बटोही, कजरी, आल्हा. पंथी आदि सहोदरों से गले मिलकर सहज उल्लास के स्वर गुंजाने लगा है. छायावाद की अमूर्तता और साम्यवादी प्रगतिवाद के भटकाव से निकलकर नवगीत जन-मन की व्यथा, जन-जीवन की छवि तथा जनाशाओं का उल्लास लोक में चिरकाल से व्याप्त शब्दों, धुनों, गीतों में ढालकर व्यक्त करने की ओर प्रयाण कर चुका है. विशिष्ट शब्दावली, छंद पंक्तियों में गति-यति स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर नव छंद रचने के व्यामोह से मुक्त होकर नवगीत अब अपनी अस्मिता की खोज में अपनी जमीन में जमी जड़ों की ओर जा रहा है जो निराला की दिशा थी.
नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है. फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं. नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने. नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है. यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है.
परिचर्चा खंड में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है. यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता. वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं.
sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ. शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ. श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ. प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ. भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ. सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ. वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ. राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं.
विराsसत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ. शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है. यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है.
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं. ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है. इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है.
बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं. वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं. फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना. व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं. इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा.
डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ. राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा.’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा.
‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता. सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है. यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है. इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती.
ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है. पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है.
६-३-२०१५
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छंद सलिला:
अहीर छंद
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लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
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मुक्तक
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नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
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चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
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खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
६-३-२०१४

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गीत :
किस तरह आए बसंत?...
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मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आए बसंत?...
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होरी कैसे छाए टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गई डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाए बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चराए?
सूखी नदिया कहाँ नहाए?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाए.
तकें सियासत चुप मुँह बाए.
खुद से खुद ही हैं शरमाए.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
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नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गई 'सलिल' चुप
किस तरह लाए बसंत?...
६-३-२०१०
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