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मंगलवार, 15 मार्च 2016

doha geet

दोहा गीत:
गुलफाम
*
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
*
घर से पढ़ने आये थे
लगी सियासत दाढ़,
भाषणबाजी-तालियाँ
ज्यों नरदे में बाढ़।
भूल गये कर्तव्य निज
याद रहे अधिकार,
देश-धर्म भूले, करें
अरि की जय-जयकार।
सेना की निंदा करें
खो बैठे ज्यों होश,
न्याय प्रक्रिया पर करें
व्यक्त अकारण रोष
आसमान पर थूककर
हुए व्यर्थ बदनाम
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
*
बडबोले नेता रहे
अपनी रोटी सेक,
राजनीति भट्टी जली
छात्र हो गये केक
सुरा-सुंदरी संग रह 
भूल गए पग राह, 
अंगारों की दाह पा
कलप रहे भर आह
भारत का जयघोष कर 
धोयें अपने पाप,
सेना-बैरेक में लगा 
झाड़ू मेटें शाप।
न्याय रियायत ना करे 
खास रहे या आम 
कद से ज्यादा बोलकर
आप मरे गुलफाम
***

geet

गीत
फागुन का रंग
फागुन का रंग हवा में है, देना मुझको कुछ दोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
संसद हो या जे एन यू हो, कहने की आज़ादी है
बात और है हमने अपने घर की की बर्बादी है
नहीं पंजीरी खाने को पर दिल्ली जाकर पढ़ते हैं
एक नहीं दो दशक बाद भी आगे तनिक न बढ़ते हैं
विद्या की अर्थी निकालते आजीवन विद्यार्थी रह
अपव्यय करते शब्दों का पर कभी रीतता कोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
साठ बरस सत्ता पर काबिज़, रहे चाहते फिर आना
काम न तुमको करने देंगे, रेंक रहे कहते गाना
तुम दो दूनी चार कहो, हम तीन-पाँच ही बोलेंगे
सद्भावों की होली में नफरत का विष ही घोलेंगे
नारी को अधिकार सकल दो, सुबह-शाम रिश्ते बदले
जीना मुश्किल किया नरों का, फिर भी है संतोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
दुश्मन के झंडे लहरा दूँ, अपनी सेना को कोसूँ
मौलिक हक है गद्दारी कर, सत्ता के सपने पोसूँ
भीख माँग ले पुरस्कार सुख-सुविधा, धन-यश भोग लिया
वापिस देने का नाटककर, खुश हूँ तुमको सोग दिया
उन्नति का पलाश काटूँगा, रौंद उमीदों का महुआ
करूँ विदेशों की जय लेकिन भारत माँ का घोष नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
*
होली पर होरा भूँजूँगा देश-प्रेम की छाती पर
आरक्षण की माँग, जला घर ठठा हँसूँ बर्बादी पर
बैंकों से लेकर उधार जा, परदेशों में बैठूँगा
दुश्मन हित जासूसी करने, सभी जगह घुस पैठूँगा
भंग रंग में डाल मटकता, किया रंग में भंग सदा
नाजायज़ को जायज़ कहकर जीता है कम जोश नहीं
संविधान विपरीत आचरण कर, क्यों मानूँ होश नहीं?
***

रविवार, 13 मार्च 2016

laghukatha

लघुकथा- 
कुत्ते की पूँछ
*
विश्वविद्यालय में देश के संविधान का मखौल बनाने के बाद, न्यायालय में खुद को निर्दोष बताकर, करतूतों के लिये पश्चाताप व्यक्त करना और विश्वविद्यालय में सेना पर लांछन लगाकर क्या बताना चाहता है छात्र संघ अध्यक्ष? मित्र ने पूछा।
'यही कि कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती' मैंने कहा।

navgeet

एक रचना
कनैया नई सुदरो
*
नई सुदरो, बब्बा नई सुदरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
कालिज मा जा खें
नें खोलें किताबें
भासन दें, गुंडों सें
ऊधम कराबें
अधनंगी मोंड़िन सँग
फोटू खिंचाबे
भारत मैया कीं
नाक कटाबे
फरज निभाबें मा
बा पिछरो 
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
दुसमन की जै-जै के
नारे लगाए
भारत की सैना पे
उँगरी उठाए 
पत्तल में खा-खा खें 
छिदरा गिनाए
थूके खों चाटे, नें
तनकऊ लजाए
सूकर है मैला में
जाय सपरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*