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मंगलवार, 6 जून 2023

PRAYER, गणेश, ऊँट बिलहरीवी, सविता तिवारी, आँवला, शिरीष, गीतिका छंद, आम

मुक्तिका
*
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
आँखों से नींद उनकी उड़ाई तमाम शब  

यादों के चरागों को बुझने नहीं दिया
लोभान की खुशबू सी लुटाई तमाम शब

ये चिलमनें दीदार को हैं तरसतीं हुजूर 
सुनकर नक़ाब रुख से हटाई तमाम शब

दीदार से बीमार की तबियत हुई हरी 
रुखसार की लाली जो चुराई तमाम शब

ले दिल न तुमने दिल दिया ये क्या सितम किया 
आँखों ने सुन के आँख मिलाई तमाम शब

सूरत पे मर मिटे मगर सीरत भी कम न थी 
जन्नत जमीं पे उसने बनाई तमाम शब

साँसों में साँस घोल दी, मुर्दा जिला दिया   
आने न दी या निंदिया चुराई तमाम शब
६-६-२०२३ 
***
मुक्तिका
*
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
ना जान से जाता, न वो करते सलाम रब

गो ख्वाब में वो आए या आए ही नहीं थे
जाना नहीं तो भेजता कैसे पयाम कब?

होना या ना होना मिरा कुछ मायने नहीं
मौला करूँ तेरे बिना क्यों याँ कयाम अब?

वो गौर करे या ना करे, उसका काम है
मुझको उसी से काम जो मेरा कलाम नब

आती है मिरी याद न 'संजीव' तब तलक
होती नहीं है नींद भी उनकी हराम जब
६-६-२०२३
***
PRAYER
*
O' Almighty lord Ganesh!
Words are your sword ashesh.
You are always the First.
Make best from every worst.
You are symbol of wisdom.
You are innocent and handsome.
Ultimate terror to the Demon.
Shiv and Shiva's worthy son.
You bring us all the Shubha.
You bless the devotees with Vibha.
Be kind on us mother Riddhi.
Bless us all o mother Siddhi.
O lord Ganesh the Vighnesh.
Make us success o Karunesh.
6-6-2022
***
स्मरण
रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी'
१९ वीं सदी का हिंदी साहित्य का इतिहास बाबू रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' भी के उल्लेखनीय कार्य की चर्चा किए बिना नहीं हो सकता। श्री मांगीलाल जी का स्नेह पूर्ण संबोधन संस्कारधानी जबलपुर के साहित्य जगत के सशक्त स्तंभ थे श्री राम नारायण उपाध्याय द्वारा लिखित एक लेख जो धर्म युग में १९७६ में प्रकाशित हुआ के अनुसार दधीचि की तरह जलकर हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले श्री रामलाल जी श्रीवास्तव जबलपुर तो क्या समस्त मध्यप्रदेश की तीन पीढ़ियों के हाथी स्वदे हृदय हार्थी वह द्विवेदी युगीन साहित्यकारों के स्नेह भजन छायावाद युगीन साहित्यकारों के मार्गदर्शक और आधुनिक पीढ़ी के मसीहा थे दिवंगत हिन्दी स्विमिंग संपादक श्याम चन्द्र सुमन पृष्ठ ४९६ कथाकार विमल मित्र भगवती चरण वर्मा हरिवंश राय बच्चन जैसी विभूतियों ने जिनकी प्रतिभा को नतमस्तक प्रणाम किया उनकी प्रतिभा किस कोटि की होगी इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है डॉ राजकुमार तिवारी सुमित नवीन दुनिया जबलपुर दिनांक २६ अप्रैल वास्तव में हिंदी के आंखों में मध्य प्रदेश के साहित्यकार स्वर्गीय रामू श्रीवास्तव विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं उच्च कोटि के कवि लेखक समालोचक तो थे ही प्रेमा के संपादक के रूप में उन्हें अनेक कवि लेखकों को जन्म और प्रोत्साहन देने का श्रेय भी है हिंदी ही नहीं उर्दू फारसी और अंग्रेजी भाषा के साहित्य सागर में वे गहराई से बैठे और जो मोतीलाल उनसे हिंदी का भंडार समृद्ध किया श्री रामानुज लाल श्रीवास्तव की सर्जना विशेष रूप से उनके गीतिकाव्य निधि रातें के अध्ययन अनुशीलन और मूल्यांकन से परिचित होना आवश्यक है कृतित्व व्यक्तित्व का ही प्रगति करें वह सदन करता की शारीरिक मानसिक बनावट अभावों प्रभाव सुविधाओं दुविधा कुरूपता सुंदरता के साथ ही उसकी रुचि रुचि और संभवत संबद्धता को भी प्रतिबंधित प्रतिबिंबित करता है श्री रामानुज लाल श्रीवास्तव का जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर नगर के समीप से होरा कस्बे में २८ अगस्त सन १८९८ में हुआ श्री लक्ष्मण प्रसाद श्रीवास्तव तथा श्रीमती गेंदा देवी को मां सरस्वती का यह अनुपम उपहार पुत्र रूप में प्राप्त हुआ रामायण की लाल जी का जन्म सिहोरा में हुआ कुछ दिन बिलहरी में कटे परंतु आंखें खोली राजनांदगांव में शैशव राजनांदगांव के किले या राज महल में बीता घर में माता जी रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाती और भजन गाना सिखाती पिताजी अपने उर्दू प्रेम के कारण अलीबाबा और चिराग अलादीन के कहानियाँ सुनाते थे किले के सामने घर था किले में जिस उत्साह से दशहरा मनाया जाता था उसी हौसले से मोहर्रम भी राधा कृष्ण का मंदिर भी था और अटल सैयद की समाधि भी दशहरे में नीलकंठ के दर्शन किए जाते थे और मुहर्रम में ताजिया के रामानुज जी ने घर में ही वर्णमाला सीख कर पहली कक्षा में राजनांदगांव में प्रवेश किया सन उन्नीस सौ पांच में पिताजी की अस्वस्थता के कारण मां के साथ बिलहरी जाकर रहना पड़ा लगभग 1 वर्ष वहां शिक्षा प्राप्त की पिताजी के देहांत पश्चात पुनः राजनांदगांव लौटे अध्ययन से अधिक रुचि खेलकूद में थी फतेह परिणाम संतोषजनक नहीं थे सन उन्नीस सौ आठ नौ में रायपुर में दसवीं तो तीन कर 11 में पहुंचे तीसरी बार में मैट्रिक के परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की रामानुज जी के अग्रज सन 1918 में जबलपुर के एडिशनल तहसीलदार होकर आए श्रीवास्तव जी ने जबलपुर आकर शॉर्टहैंड और टाइपिंग का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर तब संबंधी परीक्षा में सफलता प्राप्त की और नहर विभाग में लिपिक हो गए बाद में सीपी टाइम्स के संवाददाता का काम संभाला कटनी और रायपुर में भी कुछ समय गुजारा कोरिया रियासत में भी रहे सन 1919 से 1924 तक का समय कटनी में बिताया 1928 में अप्रैल माह में इंडियन एजेंट होकर जबलपुर आए और जीवन पर्यंत जबलपुर में ही रहे श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व कृतित्व जबलपुर में ही प्रवक् ता और प्रसिद्धि पाई रामानुज बाबू व्यक्तित्व संपन्न साहित्यकार थे 6 फुट 10 इंच ऊंचाई गेहुआ रंग क्लीन शेव्ड सदा से दुबले पतले कभी शाह बिल वास सूट-बूट राई कभी चूड़ीदार पजामा और हैदराबादी शेरवानी कभी धोती कुर्ता और कभी लखनवी कामदार दुप्पल्ली और मखमल का पतला कुर्ता अर्थात बनारसी सिल्क से लेकर मोटा खद्दर तक एक भाव से धारण करने वाले श्रीवास्तव जी साहित्य को तत्कालीन राजाओं महाराजाओं आला अफसरों वकील खिलाड़ियों कलाकारों व्यापारियों छत्तीसगढ़ी बुंदेलखंडी ओं से लेकर नाच गाने की महफिल तक में अपना रंग जमाने के साथ अपनी छाप छोड़ देते थे गीत गान टेनिस पुस्तक लेखन और विक्रय में समान योग्यता के धनी थी उनकी शारीरिक ऊंचाई की दृष्टि से वे संभवत भारतीय कवियों में सबसे ऊंचे थे एक सजीव और लंबी रेखा की भांति अपने कवि जीवन के प्रतीक थे विवान उधार मुक्त मनाने ही निश्चल और प्यारे मानव थी वेद दोस्ती दोस्तों के लिए दोस्ती के नाम पर सर्वस्व अर्पण करने वाले दरिया दिल दोस्तों से तभी तो प्रख्यात साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपनी पुस्तक जिन्हें नहीं भूलूंगा में लिखा है अगर है तो खैरागढ़ उपन्यास है तो चंद्रकांता विद्वान है तो लाल पदमसिंह और मित्र हैं तो रामानुज रामानुज बाबू के लिए पीना इबादत थी शुक्ल अभिनंदन साहित्य के अनुसार रामजी लाल जी निहायत के जिंदादिल लेखक पूर्वजों से विरासत में प्राप्त साहित्य अनुराग और परिवार के साहित्यिक सांस्कृतिक वातावरण में रामलाल जी की कविता के अंकुरण में योग दिया उन्होंने १ तक बंदी भैया परमानंद तुम मुझसे नहीं बने लगभग ६० वर्ष की आयु में की थी सन १९१४ में खैरागढ़ में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का पारस स्पर्श प्राप्त हुआ लेखक और गति बढ़ी पहली रचना अनुवाद प्रकाशित मासिक पत्रिका बालवीर हिंदी मनोरंजन रचनाओं का प्रकाशन होने लगा सन १९२१ में सरस्वती में दो रचनाएं प्रकाशित हुई गुहा कभी होने की मुहर लग गई सन १९२८ में जबलपुर आए और तब से व्यक्ति प्रयन्त साहित्य साधना में रत रही प्रकाशित रचनाएं काव्य एक उंदीर आते गीत संग्रह दो चला चली में तीन जज्बात आउट हास्य व्यंग रघुवीर कथा जीवनी दो हम इश्क़ के बंदे हैं कहानी संग्रह तीन जंगल की सच्ची कहानियां चार कर्बला की कुर्बानियां एक महाकवि गालिब की गजलें दो महाकवि अनीस और उनका का संपादित विवेचनात्मक बिहार दो प्रतिनिधि शोक गीत तीन दीवाने सफर श्रीवास्तव द्वारा रचित गद्य पद्य की अनेक पांडुलिपि या मौलिक अनुवादित एवं संपादित अप्रकाशित ही रह गई
***
साक्षात्कार बाल साहित्य पर:
संजीव वर्मा 'सलिल'
30 मई 2017 ·
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से एक दूर वार्ता
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
***
स्वास्थ्य दोहावली
अमृत फल है आँवला, कर त्रिदोष का नाश।
आयुवृद्धि कर; स्वस्थ रख, कहता छू आकाश।।
*
नहा आँवला नीर से, रखें चर्म को नर्म।
पौधा रोपें; तरु बना, समझें पूजा-मर्म।।
*
अमित विटामिन सी लिए, करता तेज दिमाग।
नेत्र-ज्योति में वृद्धि हो, उपजा नव अनुराग।।
*
रक्त-शुद्धि-संचार कर, पाचन करता ठीक।
ओज-कांति को बढ़ाकर, नई बनाता लीक।।
*
जठर-अग्नि; मंदाग्नि में, फँकें आँवला चूर्ण।
शहद और घी लें मिला, भोजन पचता पूर्ण।।
*
भुनी पत्तियाँ फाँक लें, यदि मेथी के साथ।
दस्त बंद हो जाएंगे, नहीं दुखेगा माथ।।
*
फुला आँवला-चूर्ण को, आँख धोइए रोज।
त्रिफला मधु-घी खाइए, तिनका भी लें खोज।।
*
अाँतों में छाले अगर, मत हों अाप निराश।
शहद आँवला रस पिएँ, मिटे रोग का पाश।।
*
चूर्ण आँवला फाँकिए, नित भोजन के बाद।
आमाशय बेरोग हो, मिले भोज्य में स्वाद।।
*
खैरसार मुलहठी सँग, लघु इलायची कूट।
मिली अाँवला गोलियाँ, कंठ-रोग लें लूट।।
*
बढ़े पित्त-कफ; वमन हो, मत घबराएँ आप।
शहद-आँवला रस पाएँ, शक्ति सकेगी व्याप।।
५-६-२०१८


***
दोहा दुनिया
शब्द विशेष :बाग़ बगीचा वाटिका, उपवन, उद्यान
*
गार्डन-गार्डन हार्ट है, बाग़-बाग़ दिल आज.
बगिया में कलिका खिली, भ्रमर बजाए साज..
*
बागीचा जंगल हुआ, देख-भाल बिन मौन.
उपवन के दिल में बसी, विहँस वाटिका कौन?
*
ओशो ने उद्यान में, पाई दिव्य प्रतीति.
अब तक खाली हाथ हम, निभा रहे हैं रीति..
*
ठिठक बगीचा देखता, पुलक हाथ ले हाथ.
कभी अधर धर चूमता, कभी लगाता माथ..
*
गुलशन-गुलशन गुल खिले, देखें लोग विदग्ध.
खिला रहा गुल कौन दल, जनता पूछे दग्ध..
६-६-२०१८
***
एक प्रयोग-
चलता न बस, मिलता न जस, तपकर विहँस, सच जान रे
उगता सतत, रवि मौन रह, कब चाहता, युग दाम दे
तप तू करे, संयम धरे, कब माँगता, मनु नाम दे
कल्ले बढ़ें, हिल-मिल चढ़ें, नित नव छुएँ, ऊँचाइयाँ
जंगल सजे, घाटी हँसे, गिरि पर न हों तन्हाइयाँ
परिमल बिखर, छू ले शिखर, धरती सिहर, जय-जय कहे
फल्ली खटर-खट-खट बजे, करतल सहित दूरी तजे
जब तक न मानव काट ले या गिरा दे तूफ़ान आ
तब तक खिला रह धूप - आतप सह, धरा-जंगल सजा
जयगान तेरा करेंगे कवि, पूर्णिमा के संग मिल
नव कल्पना की अल्पना लाख ज्योत्सना जायेगी खिल
***
गीत -
बाँहों में भर शिरीष
जरा मुस्कुराइए
*
धरती है अगन-कुंड, ये
फूलों से लदा है
लू-लपट सह रहा है पर
न पथ से हटा है
ये बाल-हठ दिखा रहा
न बात मानता-
भ्रमरों का नहीं आज से
सदियों से सगा है
चाहों में पा शिरीष
मिलन गीत गाइए
*
संसद की खड़खड़ाहटें
सुन बज रही फली
सरहद पे हड़बड़ाहटें
बंदूक भी चली
पत्तों ने तालियाँ बजाईं
झूमता पवन-
चिड़ियों की चहचहाहटें
लो फिर खिली कली
राहों पे पा शिरीष
भीत भूल जाइए
*
अवधूत है या भूत
नहीं डर से डर रहा
जड़ जमा कर जमीन में
आदम से लड़ रहा
तू एक काट, सौ उगाऊँ
ले रहा शपथ-
संघर्षशील है, नहीं
बिन मौत रह रहा
दाहों में पसीना बहा
तो चहचहाइए
***
आहार-----चिकित्सा!!
----------------------
१- रोगनिवारक आहार--
[ क ] प्रात:कालीन हलके भोजन के रूप में-- मौसमी -- -जैसे अमरूद, खीरा, ककड़ी, नाशपाती, पपीता, खरबूजा अथवा अंकुरित मूंग तथा मौसमी सब्जियां और सलाद का सेवन करना चाहिये या बीस मुनक्का, तीन सूखी अंजीर, तीन खुरमानी रात्रि में धोकर भिगोयी हुई प्रात: खाएं और उसके पानी को नींबूरस मिलाकर पी लें!!
[ ख ] दोपहर भोजन-- मोटे आटे की रोटी तथा एक पाँव उबली हुई हरी सब्जी एवं सलाद लें!
[ ग ] रात्रि-भोजन-- मोटे आते की रोटी तथा एक पाँव उबली हुई हरी सब्जी एवं फल [ यदि संभव हो तो ] ग्रहण करें!
आहार निर्धारित समय पर एवं उपयुकय मात्रा में लिया जाय,जिससे अगले भोजन के समय में स्वाभाविक भूक लगाने लगे! खूब अच्छी तरह चबाते हुए धीरे-धीरे शान्ति से भिजन किया जाय! इसमें तीस-चालीस मिनट अवश्य लगना चाहिये !!
भिजन के लिये गेहूँ के बारीक आटे [ मैदा ] के बदले मोटा आता [ सूजी के आकार का ] पिसवायें तथा दो तीन घंटा पहले गुँथवाकर रोटी बनावायें! इससे रेशाकी मात्रा छ: गुना, वित्तमं-बी चार गुना तथा खनिज पदार्थ की मात्रा चार गुना से भी ज्यादा मिलती है! फलस्वरूप शरीर की सफाई एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता पैदा करने में सहयोग मिलता है और कब्ज नहीं होने देता!
कभी भी बारीक आटे की रोटी मत बनवाओ!!
***
छंद सलिला:
गीतिका छंद
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
६-६-२०१६
***
दोहा सलिला
आम खास का खास है......
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..
आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..
पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..
दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..
छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..
लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..
चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..
तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..
हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..
लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..
आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..
'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.
उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..
चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..
१४-६-२०११
***

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

हम इश्क के बंदे

लेख
'हम इश्क के बंदे' हैं : प्रेमपरक कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की आधारशिला रखनेवाले स्वनामधन्य साहित्यकारों में रामानुजलाल जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' चिरस्मरणीय हैं। कवि, गीतकार, निबंधकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और प्रकाशक हर भूमिका में वे अपनी मिसाल आप रहे। जन जन के प्रिय 'कक्का जी' ने जब जो किया जमकर, डटकर और बेहिचक किया। दोहरे जीवन मूल्य और दोहरे चेहरे उन्हें कभी नहीं भाए। कक्का जी के जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव निरन्तर आते-जाते रहे पर वे सबको हक्का-बक्का छोड़ते हुए अविचलित भाव से जब जो करना होता, करते जाते। अट्ठइसा, रायबरेली उत्तर प्रदेश के जमींदार मुंशी गंगादीन नवाब के अत्याचारों से बचने के लिए प्रयाग होते हुए रीवा पहुँचे। महाराज रीवा ने उन्हें उमरिया के सूबेदार का खासकलम नियुक्त कर दिया। मुंशी जी के छोटे पुत्र मुंशी शिवदीन अपनी ससुराल कटनी से ९ मील दूर बिलहरी में गृह जामाता हो गए। उनके छोटे पुत्र लक्ष्मण प्रसाद जी का विवाह ग्राम कौड़िया के प्रतिष्ठित बख्शी परिवार की गेंदा बाई से हुआ। लक्ष्मण प्रसाद जी प्राथमिक और माध्यमिक प्राध्यापक विद्यालयों में प्राध्यापक रहे, आपके शिष्यों में रायबहादुर हीरालाल राय का नाम उल्लेखनीय है। लक्ष्मण प्रसाद जी की सातवीं संतान रामानुज लाल जी का जन्म हरतालिका तीज २८ अगस्त १८९८ को सिहोरा में हुआ। सन १९०० के लगभग लक्ष्मण प्रसाद राजनाँदगाँव के अवयस्क राजा राजेंद्र दास जी के शिक्षक हो गए। रामानुज लाल जी का शैशव और बचपन राजपरिवार की छत्रछाया में बीता। इस काल के साथी और अनुभव कालान्तर में उनकी कहानियों में प्रगट होते रहे। बचपन में हुई अनेक दुर्घटनाएँ रामानुजलाल जी के कथा साहित्य का हिस्सा बनीं। विद्यार्थी काल में मुस्लिम आबादी के बीच बैजनाथपारा में रहने के कारण रामानुजलाल जी सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्त रह सके। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' शीर्षक कथा संग्रह में उनकी १२ प्रतिनिधि कहानियाँ सम्मिलित हैं। वर्ष १९६० में प्रकाशित और बहुचर्चित यह संकलन ६० वर्ष बाद पुनर्प्रकाशित होना एक असामान्य और असाधारण घटना है। हिंदी साहित्य पढ़ रही नई पीढ़ी रामानुजलाल जी का नाम बमुश्किल याद भी करे तो कवि के रूप में ही याद करेगी। रामानुज लाल जी सशक्त कहानीकार भी थे, यह इस कृति को पढ़ने के बाद मानना ही होगा। यह अवश्य है कि कहानी विधा अब बहुत बदल गई है। कहानी कहने की जो कला रामानुजलाल जी में थी, वह आज भी उतनी ही लोकप्रिय होगी, जितनी तब थी।  

'हम इश्क़ के बंदे हैं' कहानी का नायक अज़ीज़, भाषा तथा घटनाक्रम, कोलकाता में हुई ठगी तथा मालिक के न पहुंचने पर भी उनकी शोहरत के किस्से सुनकर तरक्की पाने का घटनाक्रम राजनाँदगाँव के दरबार में हुई घटनाओं का रूपांतरण ही है। कहानी में उत्सुकता और रहस्यात्मकता पाठक को बांधे रखती है।    

पागल हथिनी बिजली से मुठभेड़ की घटना पर हिंदी-अंग्रेजी में लिखी गई उनकी कहानी प्रकाशित और चर्चित हुई। कथा नायिका हथिनी बिजली भी राजनाँदगाँव राजदरबार से ही जुड़ी हुई थी। 

'वीर-मंडल की महाविद्या, महामाया नहीं 
बाली की वनिता न समझो, जीव की जाया नहीं 
सत्यसागर, सूरमा, हरिचंद की रानी नहीं 
आपने यह पाँचवी तारा अभी जानी नहीं'  

यह पद्यांश क्या किसी कहानी का आरंभ हो सकता है? सामान्यत: नहीं किन्तु रामानुजलाल जी इसी से बिजली कहानी का श्री गणेश करते हैं। पाँचवी तारा को जानने की उत्सुकता, पाठक के मन में जगाने के बाद कथाकार रहस्योद्घाटन करता है कि बिजली ही पाँचवी तारा है।बिजली के पराक्रम और पागलपन का चित्रण करते हुए कथाकार बिजली के सामने प्राण संकट में पड़ने और तंग गली में घुसकर बचने की घटना इस तरह कहता है की पाठक की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाए। गजराज मोती और बिजली के रोचक संवाद कहानीकार की कथा कौशल की साक्षी देते हैं। यहाँ भी दरबारों में प्रतिष्ठित वाक् विशारदों की रोचक झलक दृष्टव्य है। मोती के प्रणय जाल में भटककर बिजली का गुलाम बनना, चतुरता से मोती को मौत के घाट उतारना, पागलपन का दौरा पड़ने पर बिसाहिन के मकान को क्षति पहुँचाना और अंत में बिजली का  न रहना, हर घटना पाठक को चौंकाती है। बुंदेलखंड में अल्हैत 'अब आगे का कौन हवाल?' गाकर श्रोता के मन में जैसी उत्सुकता जगाते हैं, वैसी ही उत्सुकता जागकर कथा-क्रम को बढ़ाना रामानुज लाल जी की विशेषता है। 

संग्रह की तीसरी कहानी 'कहानी चक्र' एक क्लर्क और एक ओवरसियर दो दोस्तों के माध्यम से आगे बढ़ती है। दाम्पत्य जीवन में संदेह का बीज किस तरह विष वल्लरी बनकर मन का अमन-चैन नष्ट कर देता है, यही इस कहानी का विषय है। घटनाक्रम और कहन का अनूठापन इस कहानी को ख़ास बनाती है। 

आदिवासी दंपत्ति रूपसाय और रुक्मिन की प्रणय गाथा 'मूंगे की माला' कहानी के केंद्र में है। जमींदारों के कारिंदों का अमानुषिक अत्याचार, सुखी दंपत्ति का नीड़ और जीवन नष्ट होना, प्रतिक्रिया स्वरूप रूपसाय का विप्लवी हो जाना, बरसों बाद बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन होने तक जारी रहा है। रूपसाय अत्याचारी दीवान को वह मारने जा रहा था तभी दीवान अंतिम समय आया जान कर 'रुक्की' का नाम लेकर चीत्कार करता है और बदले की आग में जल रहा रूपसाय यह जानते ही कि दीवान की भी कोई रुक्की है जो विधवा हो जाएगी, उसे ही नहीं बदला लेने की राह ही छोड़ देता है। सभ्य कहे जानेवालों की अमानुषिकता और असभ्य कहे जानेवाले आदिवासियों की संवेदनशीलता ने इस कहानी को स्मरणीय बना दिया है। 

इस कथा माला का पंचम कथा रत्न 'क्यू. ई. डी.' का नाम ही पाठक के मन में उत्सुकता जगाता है। ज्यामितीय प्रमेय से आरंभ और अंत होने का प्रयोग करती यह कहानी ५ भागों में पूर्ण होती है। शैलीगत अभिनव प्रयोग का कमाल यह कि कहानी का नायक दूसरा विवाह करना चाहता है। उसका पालक इसे रोकने के लिए एक यौन विशेषज्ञ की नियुक्ति करता है जो नायक की होनेवाली पत्नी, नायक, नायक की वर्तमान पत्नी से उनके न चाहने पर भी कुछ प्रश्नोत्तर करता है। इन प्रश्नों के माध्यम से पाठक उन पात्रों की मन:स्थिति से परिचित होता हुआ अंतिम अंक में विशेषज्ञ द्वारा अपने नियोक्ता को लिखा गया पत्र पढ़ता है जिससे विदित होता है कि भावी पत्नि ने विशेषज्ञ द्वारा दिखाई गयी राह पर चलते हुए अपना इरादा बदल दिया है। 

'मयूरी' कहानी का कथ्य छायावादी निबंध की तरह है। यह कथाकार की प्रिय रचना है जिसे रचने में स्व. केशव पाठक जी का विमर्श भी रहा है। कथाकार ज्ञान, संगीत, नृत्य में निमग्न हो आनंदित होते हुए प्रकृति के साहचर्य में मयूरी के प्रेम और सौंदर्य को पाने का स्वप्न देखता है जो अंतत: भग्न हो जाता है। 

कहानी 'जय-पराजय' के मूल में शासक और शासित का संघर्ष है। शासकीय उच्चाधिकारी पद के मद में मस्त हो अपने परिचारक के परिवारजनों की व्यथा को नहीं देखता, समर्थ होकर भी पीड़ितों का दर्द नहीं हरता और स्वयं पीड़ा भोगते हुए काल के गाल में समा जाता है। तुलसीदास का यह दोहा कथाक्रम को व्यक्त करता है- 
तुलसी हाय गरीब की कबहुँ न निष्फल जाय 
बिना काम के सांस के लौह भसम हो जाय 

आठवीं कहानी 'वही रफ्तार' रिक्शेवालों के माध्यम से श्रमजीवी और श्रम शोषक वर्ग संघर्ष की विद्रूपता को शब्द देते हुए श्रमजीवी का शोषण न मिटने का सत्य सामने लाती है। समाज और नेताओं पर तीखा व्यंग्य इस कहानी में है। 

'भूल-भुलैयाँ' कहानी की लखनवी पृष्ठभूमि और रामानुज बाबू की दिलचस्प किस्सागोई अमृतलाल नागर और शौकत थानवी की याद दिलाती है। बे सर-पैर की गप्प या चंडूखाने की बातें, परदेसी को ठगने की मानसिकता पूरी सचाई के साथ उद्घाटित की गई है। 

कहानी 'बहेलिनी और बहेलिया' भारत पर राज्य कर चुके अंग्रेजों की विलासिता, दुश्चरित्रता और अस्थायी वैवाहिक संबंधों को सामने लाती है। 'यहाँ नहीं है कोई किसी का, नाते हैं नातों का क्या?' अंग्रेज उच्चाधिकारी पत्नी की उपेक्षा कर शिकार पर गया और घायल होने पर अस्पताल ले जाए जाने पर उसकी पत्नी का साथ न जाना, पूछे जाने पर कहना 'मैं उसकी पत्नी नहीं हूँ, ....छुट्टियों में सैर सपाटे के लिए ऐसे एक दो उल्लू फाँस रखे हैं', दूसरी ओर यह तथ्य उद्घाटित होना कि 'वह साहब पहले भी दो बार आ चुका था, हर बार उसके साथ एक नई मेम रहती थी।' 

'आठ रूपए साढ़े सात आने' कहानी अत्यधिक धनलिप्सा के मारे धनपति की बखिया उधेड़ती है। 

इस कथा माल का अंतिम पुष्प 'माला, नारियल आदि' शीर्षक से लिखी गई कहानी है। इस कहानी में पति-पत्नी की नोंक-झोंक बेहद दिलचस्प है। भाषा में लखनवी पुट पाठक के लबों पर से मुस्कराहट हटने नहीं देता।

'हम इश्क़ के बंदे हैं' की कहानियों के कथानक 'देखन में छोटन लगें' हैं किन्तु उनकी मार इतनी तीखी है कि 'आह' और 'वाह' एक साथ निकलती है। इस कहानियों में कथोपकथन नाटकीयताप्रधान हैं। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' बात की बात में बात बना लेने की कला कोई रामानुजलाल जी की इन कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इन कहानियों का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी इन कहानियों के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। अधिकाँश कहानियाँ हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली साहित्य में दुर्लभ हो गयी है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुज लाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साथ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें। विश्ववाणीहिंदी संस्थान अभियान जबलपुट तथा अपनी ओर से मैं श्रद्धेय 'कक्का जी' रामनुजलाला जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' जी को प्रणतांजलि अर्पित करते हुए उनकी विरासत का वारिस होने की अनुभूति इस कृति को हाथ में पाकर कर रहा हूँ। संस्कारधानी की सभी साहित्यिक संस्थाएँ संकल्प कर एक-एक दिवंगत साहित्यकार की एक-एक कृति को प्रकाशित करें तो हिंदी की साहित्य मञ्जूषा से लापता हो चुके रचना रत्न पुन: माँ भारती के सारस्वत कोष को समृद्ध कर सकेंगे। 
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कहानी समीक्षा :
'हम इश्क के बन्दे हैं'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल 
हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ। 
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या? 

यह शे'र बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव की प्रसिद्ध कहानी 'हम इश्क के बन्दे हैं' के आदि और अंत में तो है ही, समूची कहानी ही इस के इर्द-गिर्द बुनी गई है। सामान्यत: कहानी में आवश्यकता होने पर काव्य पंक्ति का उपयोग उद्धरण की तरह कथानक में कर लिया जाता है अथवा किसी पात्र के मुँह से संवाद की तरह कहलवा लिया जाता है। काव्य पंक्ति का मर्म ग्रहण कर उसे किसी कहानी के घटनाक्रम और पात्रों के साथ इस तरह विकसित करना कि वे पंक्तियाँ और वह मर्म कहानी का अभिन्न अंग हो जाएँ, असाधारण चिंतन सामर्थ्य, भाषिक पकड़ तथा शैल्पिक नैपुण्य के बिना संभव नहीं होता। कहानी के आरंभ में अगली कक्षाओं में न जाने का संकल्प कर, विद्यालय की छात्र संख्या और शोभा में अभिवृद्धि करते बाप बनने की की उम्र में पहुँच चुके लड़कों की मटरगश्ती, होली के मुबारक मौके पर बांदा शहर से तशरीफ़ लाकर, नाज़ो-अदा के साथ उक्त शे'र सुनाकर, महफ़िल में हाजिर सभी कद्रदानों की जेब खाली करा लेनेवाली तवायफ द्वारा मुजरे में सुनने और यारों के साथ तमाशबीन बनकर मजे लूटने के किस्से पाठक की उत्सुकता जागते हैं। इन छात्ररत्नों में से एक मोहन बाबू की शान में कथाकार कहता है-

'उस के कूचे में सदा मस्त रहा करते हैं। 
वही बस्ती, वही नगरी, वही जंगल वही वन।।'

एक और तमाशबीन छात्र कंचन बाबू मोहन से भी कई कदम आगे थे -

'जब से उस शोख के फंदे में फँसे टूट गए। 
जितने थे मजहबी-मिल्लत के जहां में बंधन।।'

इन बिगड़ी तबीयत के साहबजादों के साथ होते हुए भी इनसे कुछ हटकर रहनेवाले मियाँ अज़ीज़ के बारे में अफसानानिगार कहता है -

'अपनी तबियत पर काबू था तो एक अज़ीज़ मियाँ को, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा ताकतवर, कमजोरों का दोस्त, दिमागवालों का दुश्मन, बड़ा चुप्पा, बड़ा मनहूस परन्तु एक गुण ऐसा था कि मंडली की मंडली बिना अज़ीज़ सूनी जान पड़ती थी। बस गुण क्या था? उससे पूछा गया -'कहिए खाँ साहब! कुछ आप के भी दिमागे-शरीफ में आया? तो उसने एक भोंड़ी सी मुस्कुराहट मुँह पर लाकर, जेब से बाँसुरी निकाली और ज्यों की त्यों तर्ज निकालकर रख दी। फिर तो वो खुशामदें हुईं अज़ीज़ मिया की, कि क्या किसी परीक्षक की हुई होगी। ज्यों ही वह बाँसुरी हाथ में लेता कि फरमाइशें होने लगतीं- 'हाँ भाई, इश्क के बंदे। हो भाई, इश्क के बंदे।' यहाँ तक कि स्पेंसर साहब भी कहते - 'लगा इश्क़ वाला बंदा लगा।' होते-होते बेचारे अज़ीज़ का नाम ही 'इश्क़ के बंदे' पड़ गया। यह खुदा का बंदा थोड़ी देर तो समा बाँध ही देता था। जान पड़ता था कि एक-एक स्वर में दिल की आह छिपी हुई है।' 

परीक्षा हुई, एक को छोड़कर सभी जहाँ के तहाँ रहे। अन्य संपन्न लड़कों के साथ अज़ीज़ मियाँ भी कलकत्ते तशरीफ़ ले गए। बरसों बाद नौकरपेशा मैंने, मालिक के काम से कोलकाता जाते समय अज़ीज़ मियाँ का पता उसके अब्बू से लिया।  हावड़ा स्टेशन पर उतरा तो 'कुली ने 'सलाम बड़ा साहब' कहकर सामान उठा लिया और टैक्सी पर रख दिया। बड़े साहब की उपाधि से प्रसन्न होकर मैंने एक चवन्नी कुली साहब के भेंट की। फिर से सलाम ठोंककर वह दो-चार कदम गया परंतु सहसा लौटकर गिड़गिड़ाने लगा 'सरकार, यह चवन्नी खोटी है, इसे बदल दीजिए।' इधर टैक्सी चलने पर थी। मैंने खोटी चवन्नी ले ली और चार इकन्नियाँ देकर सोचने लगा कि मैं तो खुद एक-एक पैसा ठोक-बजाकर लेता हूँ, यह बेईमान मेरे पास कहाँ आ गई? टैक्सी अब जोरों से भाग रही थी। ड्राइवर साहब ने कहा- 'बाबू, कुली ने आपसे आठ आने पैसे ऐंठ लिए। ' 

मैंने पूछा- 'कैसे?' 

ड्राइवर- 'यह खोटी चवन्नी उसने अपने पास से निकाली थी। आप परदेसी हैं। यहाँ के भले आदमियों से सम्हले रहिएगा।' 

चौराहे पर एक खां साहब 'पेरिस पिक्चर' की टिकिट का लिफाफा, पुलिस पीछे लगे होने का हवाला देकर ५० रु. का कहकर १ रु. में टिका गए। कलकत्ता होटल के दरवाजे पर टैक्सीवाले ने मीटर दिखाकर चार रूपए छह आने ले लिए। होटल के नौकर ने बताया स्टेशन से होटल तक का किराया एक रूपए दो आना होता है। लिफाफा फाड़कर देखा तो उसमें टिकिट नहीं मामूली तस्वीरें थीं। बार-बार ठगे जाकर जैसे-तैसे अज़ीज़ के  पते पर पहुँचे तो पता चला कि वह लापता है। बकौल कहानीकार 'अब पता चला कि गाँव के छैला शहर के बुद्धू होते हैं।' 

किराए का मकान लेकर मालिक की राह, नाटक और सिनेमा देखकर मन ऊब गया, बेगम साहिबा के लिए साड़ी  खरीदने निकले तो किस्सा कोताह यह कि दूकानदार ने साड़ी दिखाई कोई और बाँध दी कोई और। दूसरे दिन बदलने गए तो साफ़ मुकर गया कि इसी का सौदा हुआ और यह खाते में चढ़ गई, वह चाहिए तो उसे भी खरीदो। उसके अड़ोसी-पड़ोसी उसी की तरफ बोलने लगे किसी तरह 'जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्धू घर को आए'।

 अब आगे कौ सुनौ हवाल - 'एक रोज रात को भोजन करके रसा रोड पर टहल रहा था कि किसी ने धीरे से आकर कहा 'बड़ा साहब! प्राइवेट मिस साहब।' मैंने चौंककर झुँझलाकर कहा- 'क्या प्राइवेट मिस साहब रे?' उसने भेदपूर्ण स्वर में कहा -;बहुत अच्छा है हुजूर! बंबई से आया यही, नुमाइश देखने, फिर चला जाएगा, ऐसी चीज मिलने का नहीं।' मैंने देखा मैले-कुचैले कपड़े पहिने एक चुक्खी दाढ़ीवाला आदमी है।  एक शब्द कहता है तो दो बार सलाम करता है। ठीक उन लोगों की सूरत-शक्ल है जो  खपा देते हैं और कानों-कान किसी को खबर तक नहीं होती, तिस पर मैं ३-४ बच्चों का बाप और यह फन, तौबा-तौबा! परन्तु भीतर से किसी ने कहा देखिए मुंशी जी! अगर कहानी लिखने का हौसला है तो तजुर्बे इकट्ठे कीजिए, जान का क्या है ? अभी तो आपको चौरासी लाख जन्म मिलेंगे परंतु इस प्रकार का अनुभव प्रत्येक जन्म में हाथ नहीं आने का, जिन्होंने जान हथेली पर रखकर अनुभव संग्रह किए हैं, उन्हीं की तूती बोल रही है। उदाहरण के लिए देखिए श्रीयुत प्रेमचंद कृत 'सेवासदन' - सुमन के कोठे पर रईसों की धींगामस्ती तथा मरम्मत। मानते हैं कि काम खतरे का है पर अंजाम कितना नेक है यह भी तो सोचिए। लोग सौ छोटे-छोटे दोहे लिखकर अमर हो जाते हैं।  कौन जाने इसी प्लाट से आप की साढ़े साती उतर जाए।'
जनाब मुंशी जी ने विक्टोरिया बुलवाई, दलाल को खान-पान के लिए दो रूपए दिए, कपड़े बदले, कलकत्ता होटल के मैनेजर को पत्र लिखा कि फलां-फलां नंबर की गाड़ी में घूमने जा रहा हूँ, सवेरे तक लौट कर न आऊँ या मृत या घायल मिलूँ तो पुलिस को खबर कर, मालिक को तार दे दे। सूट पहनकर पिस्तौल में ६ कारतूस भरे और दो घंटे तक इन्तजार किया पर न दलाल, आया न गाड़ी, तब समझा की जान बची और लाखों पाए। 

अब बाहर निकलना ही छोड़ दिया। एक रोज पार्क में बैठा था कि वृद्ध और एक नवयुवती पास की बेंच पर आ बैठे। आध घंटे बाद चलने को हुए तो वृद्ध गश खाकर गिर पड़े, युवती चिल्लाई, सड़क पर टैक्सी रोक, वृद्ध को उनके घर ले जाकर, डॉक्टर से दवा दिला-खिलाकर, अपने डेरे पर जाकर सो गया। अगले दिन पता चला कि वे ब्रह्मसमाजी थे, डिस्ट्रिक्ट जज रह चुके थे, पुत्री की शिक्षा हेतु कलकत्ते में रह रहे थे। मालिक का तार आने पर कि वे नहीं आएँगे, मुंशी जी घर लौटे। 

'मालिक के दरबार में अपनी पेटेंट रीति से मैंने कलकत्ते के हाल-चाल सुनाए कि कैसे मालिक का नाम शहर में फ़ैल गया था, कितने बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, सवेरे-शाम मालिक के दर्शन की अभिलाषा से कोठी के चक्कर लगाया करते थे आदि-आदि और जब इन सच्ची बातों से खुश होकर मालिक ने मुझे मनचाही तरक्की दे दी। 

दो साल बाद 'कलकत्ता कथा' फिर सुनकर मालिक मुंशी जी के साथ कलकत्ते के लिए चल पड़े। मुंशी जी अपने खैरख्वाहों की तलाश में चले तो पता चला दत्त महाशय चल बसे और पुत्री ने कहीं घर बसा लिया। खिन्न मन खेल के मैदान के पास से जाते हुए भीड़ देख हॉकी का खेल देखने घुस गए, देखते हैं कि एक फुल बैक ने झपटकर गेंद पकड़ी और लगभग हो चुका गोल बचा लिया। दर्शक उछल पड़े, सबसे अधिक उछले मुंशी जी, क्योंकि वह फुल बैक अज़ीज़ था जो कहानी के आरंभ में बांसुरी बजा चुका था। अजीज ने अन्य धर्म की लड़की से शादी कर ली थी, लड़की धर्म परिवर्तन लिए तैयार नहीं थी। इस कारण न अज़ीज़ घर जा सका, न उसके पिता किसी को उसका पता देते थे की राज राज ही रहे। दोनों घर पहुँचे तो दरवाजा खुलते ही मुंशी जी बोले 'तुम?', दरवाजा खोलनेवाली मोहतरम चौंककर बोली 'आप?', अजीज ने कहा 'यह क्या? मुंशी जी ने राज खोला 'यह पिछली बार मेरी पड़ोसन थी', अजीज बोला 'अब तेरी भाभी है।' अजीज ने बताया कि वे दोनों कॉलेज में सहपाठी थे, पढ़ते-पढ़ते प्रेम करने लगे थे, शुरू में पिता को आपत्ति थी पर अंत में दोनों का हाथ मिला गए थे। 

लब्बोलुबाब यह - 'अजीज आया तो सुविमल चाय बनाने चली गई, रात हो रही थी, खिड़की से बगीचा दिख रहा था, उधर चाँद निकला हुए इधर हुगली मैया की ओर से हवा का एक ठंडा झोंका आया। अजीज उठा धीरे से टेबल पर से बांसुरी उठाई और बजाया 'हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाक़िफ़', मैंने कहा - 'वाह बेटा! सुनी तो बहुतेरों ने थी पर ठीक तर्ज एक तू ही उतार पाया।' 

आठ अंकों की यह कहानी किसी फ़िल्मी पठकथा की तरह रोचक, लगातार उत्सुकता बनाये रखनेवाली, जिंदगी के विविध रंग दिखानेवाली, पाठक को बाँधकर रखनेवाली है। कहानीकार की कहन, भाषा की रवानगी, शब्द सामर्थ्य, स्वतंत्र और मौलिक भाषा शैली के कारण इसे भुलाया नहीं जा सकता। एक तवायफ द्वारा गाई गई ग़ज़ल के एक शेर से आरंभ और अंत होती इस कहानी में कल्पना शक्ति और यथार्थ का गंगो-जमनी सम्मिश्रण इस तरह हुआ है कि पाठक न तो पूरी तरह भरोसा कर पता है, न झुठला पाता है। इस कहानी का कथोपकथन नाटकीयताप्रधान है। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' 'बात की बात में' 'बात बना लेने' की कला कोई रामानुजलाल जी की कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इस कहानई का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। यह कहानी हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली हिंदी साहित्य में दुर्लभ हो गई है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुजलाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी रहे हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साठ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें।
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