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सोमवार, 29 जुलाई 2024

जुलाई २९, Poem, RIVER, आकुल, लघुकथा, शिवताण्डवस्तोत्र, सॉनेट, हिन्दवी, मुक्तिका

सलिल सृजन जुलाई २९
*
मुक्तिका
संसद हो रही सियासत
लोकतंत्र की यही रवायत

तंत्र लोक को कुचल कह रहा
हमने कुचली आज बगावत

देता एक वसूल सैंकड़ों
शासन देता अजब रियायत

चित भी मेरी पट भी मेरी
ठेंगा दिखला कहें नियामत

नेता वानर लिए उस्तरा
हर चुनाव में करे हजामत

सच मत कहना 'सलिल' भूलकर
वरना आ जाएगी शामत
२९.७.२०२४
***सॉनेट
मर्यादा

मंत्री जी मर्यादा भूले
इसकी गलती, उस पर वार
बढ़ा रहे खुद ही तकरार
अहंकार झूले में झूले
चीख-चीख कर करते बात
सत्य-तथ्य का तनिक न जिक्र
स्वार्थ साधने की है फिक्र
मर्यादा पर कर आघात
सांसद जी की जुबां फिसलती
अवसर मिल जाता औरों को
लापरवाह करें क्यों गलती
सभाध्यक्ष निष्पक्ष न रहते
है विश्वास न सँग विपक्ष का
रीति-नीति निज दल की कहते
२९-७-२०२२
•••
सॉनेट
प्रभुता

प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं
सत्य यही, अपवाद नहीं तुम
आक्रामकता से गलबाँही
सुनते हो फरियाद नहीं तुम
फल पाकर तरु झुक, तज देता
फल पाकर मनु घमंड कर तनता
चुप रह, दे पटकी तब जनता
समय बदलता, साथ न देता
विनय, विनय का त्याग मत करो
अपने घर को राख मत करो
मिट्टी अपनी साख मत करो
हम सब एक देश के वासी
समझ सभी में अच्छी-खासी
सिर्फ श्वास को स्वार्थ मत करो
२९-७-२०२२
•••
विमर्श
*
ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इला़के को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है। यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिके’, ‘इंदिका’, लैटिन में ‘इंदिया’ तथा अंग्रेजी में ‘इंडिया’ बन गया। यह हिन्दी एवं इंडिया शब्दों की व्युत्पत्ति का भाषावैज्ञानिक इतिहास है।
अवेस्ता तथा ‘डेरियस के शिलालेख’ में ( ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व ) में ‘हिन्दु’ शब्द का प्रयोग ‘सिंध’ के समीपवर्ती क्षेत्र के निवासियों के लिए हुआ है। ‘हिन्द’ शब्द धीरे-धीरे भारत में रहने वाले निवासियों तथा फिर पूरे भारत के लिए होने लगा। भारत की भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के काल में ( ५३१ - ५७९ ईस्वी ) उसके एक दरबारी कवि द्वारा संस्कृत भाषा के ‘पंचतंत्र’ के ईरानी भाषा ‘पहलवी’ में किए गए अनुवाद ‘कलीलहउदिमना’ में पंचतंत्र की भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा गया है। सातवीं शताब्दी में महाभारत के कुछ अंशों का पहलवी में अनुवाद करने वाले विद्वान ने मूल भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा है। दसवीं शताब्दी में अब्दुल हमीद ने भी पंचतंत्र की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा है। तेरहवीं शताब्दी में मिनहाजुस्सिराज द्वारा अपने ग्रन्थ ‘तबकाते नासरी’ में भारतीय देसी भाषाओं के लिए ‘जबाने हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी तक अरबी एवं फारसी साहित्य में भारत में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’ लफ्ज़ का प्रयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति है – संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर। (संस्कृत तो कुए के पानी की तरह है। भाखा बहते पानी की तरह है।)
जिस समय मुसलमानों का यहाँ आना शुरु हुआ उस समय भारत के इस हिस्से में साहित्य-रचना शौरसेनी अपभ्रंश में होती थी। बाद में डिंगल साहित्य रचा गया। मुग़लों के काल में अवधी तथा ब्रज में साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की जो जुबान है, उस जुबान ‘हिन्दवी’ को आधार बनाकर रचना करने वालों में सबसे पहले रचनाकार का नाम अमीर खुसरो है जिनका समय १२५३ ई0 से १३२५ ई0 के बीच माना जाता है। ये फ़ारसी के भी विद्वान थे तथा इन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं मगर ‘हिन्दवी’ में रचना करने वाले ये प्रथम रचनाकार थे। इनकी अनेक पहेलियाँ इसका प्रमाण है। उदाहरण के लिए खुसरो की दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
(1) क्या जानूँ वह कैसा है। जैसा देखा वैसा है।
(2) एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।
अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा है। एक जगह उन्होने लिखा है जिसका भाव है कि मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ। ( उनकी मूल पंक्ति इस प्रकार है: ‘तुर्क हिन्तुस्तानियम हिन्दवी गोयम जवाब’)२९-७-२०२०
***
सुभाषित संजीवनी १
*
मुख पद्मदलाकारं, वाचा चंदन शीतलां।
हृदय क्रोध संयुक्तं, त्रिविधं धूर्त लक्ष्णं।।
*
कमल पंखुड़ी सदृश मुख, बोल चंदनी शीत।
हृदय युक्त हो क्रोध से, धूर्त चीन्ह त्रैरीत।।
*
***
रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
छंद परिचय : २
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं
त्याज्य भी संसार हो तुझको नहीं
देह का व्यापार जो भी कर रहा
गेह का आधार बिसरा मर रहा
*
सरस्वती कुमारी -सर,यह पियूषवर्ष छंद नहीं है क्या?
संजीव वर्मा 'सलिल'- पीयूषवर्ष और सुमेरु दोनों १९ मात्रिक छंद हैं, दोनों में १०-९ पर यति है, अंतर यह कि सुमेरु में हर पंक्ति के आरंभ में लघु अनिवार्य है जबकि पीयूषवर्ष में दो लघु या एक गुरु हो सकता है. इस उदाहरण में हर पंक्ति का आरंभ गुरु से हुआ है, लघु आरम्भ में नहीं है. इसलिए यह एक नया छंद है जिसका नामकरण करना है. यह ३५० नव आविष्कृत छंदों में से एक है. इन तीनों और अन्य अनेकों छंदों की बह्र 'फाइलातुं फाइलातुं फाइलुं' (२१२२ २१२२ २१२) ही होगी. हिंदी में १९ मात्रिक छंदों की संख्या ६७६५ है.
***
वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति भावांजलि
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
.
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
.
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
.
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
.
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
२९-७-२०१७
***
प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृकत होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।
यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी।
स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा।
यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है। इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है।
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित
इक नवगीत सुनाती जाए।
यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा। आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं।
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार
'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।
महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा।
आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।
मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।
इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।
आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।
उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।
हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।
आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)
''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।
आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
२९.७.२०१६
***
नवगीत :
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
Poem:
RIVER
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
***
26-7-2015

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पुरोवाक - हौसलों ने दिए पंख गीतिका संग्रह आकुल

ॐ 
पुरोवाक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी का साहित्य सृजन विशेषकर छांदस साहित्य इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है। किसी समय कहा गया था -  

सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास 
अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करात प्रकास 

जिन्हें 'उडुगन' अर्थात जुगनू कहा गया उन्हें आदर्श मान कर आज का कवि अपनी सृजन यात्रा आरम्भ करता है।  वे जुगनू जो रच साहित्य रच गए हैं उसकी थाह पाना आज के महारथियों के लिए भी मुमकिन है। कबीर, रहीम, रसखान, वृन्द, भूषण, घनानंद, देव, जायसी, प्रसाद, निराला, दद्दा, महीयसी, पंत, नेपाली, बच्चन, भारती, सुमन आदि-आदि यदि 'जुगनू' हैं तो आज के कवियों को क्या कहा जाए? 

स्वातन्त्र्योत्तर काल में किताबी पढ़ाई को शिक्षा और भौतिक सुविधाओं को विकास मानने की जिस मरीचिका का विस्तार हुआ उसने 'सादा जीवन उच्च विचार' की जीवन शैली को कहीं का नहीं छोड़ा। साहित्यकार भी समाज का ही अंग होता है। कुँए में ही भाँग घुली हो तो होश में कौन मिलेगा? राजनैतिक समीकरणों को साधकर सत्ता पाने को ही लक्ष्य मान लेने का दुष्परिणाम जटिल भाषा समस्या के रूप में आज तक सामने है। हिंदी को राजभाषा बनाने के बाद भी एक भी दिन हिंदी में राज ने काम नहीं किया। भारत विश्व का एकमात्र देश है जहाँ  की न्यायपालिका राजभाषा को 'अस्पृश्य' मानती है। पूर्व स्वामियों की भाषा बोलकर खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने ऐसी कॉंवेंटी पीढ़ियाँ खड़ी कर दीं जिन्हें हिंदी बोलने में 'शर्म' ही नहीं आती, हिंदी बोलनेवालों से 'घिन' की प्रतीति भी होती है। 

हर पारम्परिक विरासत को दकियानूसी कहकर ठुकराने और नकारने की मानसिकता ने समाज को वृद्धाश्रमों के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है तो साहित्य को 'अहं'-पोषण का माध्यम मात्र बना दिया है। पंडों-झंडों और डंडों की दलबंदी राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। एक समूह छंद-मुक्ति की दुहाई देते हुए छंद-हीनता तक जा पहुँचा और गीत के मरने की घोषणा करने के बाद भी जनगण द्वारा ठुकरा दिया गया। साम्यवादी दुष्प्रभाव के कारण व्यंग्य लेख, लघुकथा और नवगीत को विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव, शोषण और अरण्यरोदन का पर्याय कहकर परिभाषित किया गया। जिस साहित्य को 'सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय' का लक्ष्य लेकर 'सत-शिव-सुंदर' और 'सत-चित-आनन्द' हेतु रचा जाना था, उसे 'स्यापा' और  'रुदाली' बनाने का दुष्प्रयास किया जाने लगा। 

उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस के प्राण 'रस' में बसते हैं। 'नीरसता' को साध्य मानते साहित्य शिक्षा के प्रसार तथा नवपूँजीपतियों की यशैषणा ने साहित्य में रचनाकारों की बारह ला दी। लंबे समय तक अपनी दुरूहता और पिंगल ग्रंथों की अलभ्यता के कारण छंद प्रदूषण, लूट-खसोटी और छीना-झपटी से बचा रहा। मुद्रण के साधन सहज होते ही असंख्य रचनाकारों ने प्रतिदिन हजारों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं से जन-मन को आक्रांत कर दिया। अब पैसा-पैसा जोड़कर के किताब खरीदना और उसे बार-बार पढ़ना और पढ़वाना, घर में 'पुस्तक' को सजाना, विवाह में दहेज़ के सामान के साथ 'किताब' देना बंद हो गया और स्थिति यह है कि पुस्तक विमोचन के पश्चात् महामहिम जन उन्हें मंच या अपने कक्ष में ही फेंक जाते हैं। इससे पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री के स्तर और उपयोगिता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हिंदी गीति साहित्य में छंद विधाओं के विकास और मान्यता को देखना चाहिए।    
  
हिंदी पिंगल की सर्वमान्य कृति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छंद प्रभाकर' वर्ष १८९४ में प्रकाशित हुई थी। इसमें शास्त्रार्थ परंपरानुसार पांडित्य प्रदर्शन के साथ लगभग ७१५ छंदों का सोदाहरण प्रकाशन हुआ। तत्पश्चात लगभग हर दशक में एक-दो पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। अधिकांश छंदाचार्यों ने कुछ छंदों पर कार्य कर तथा कुछ ने भानु जी द्वारा दिए छंदों के उदाहरण बदलकर संतोष कर लिया। छंद की वाचिक परंपरा गाँवों में शहरों के अतिक्रमण ने समाप्त कर दी। छन्दाधारित चित्रपटीय गीतों के स्थान पर पाश्चात्य मिश्रित धुनों ने नव पीढ़ी तो छंदों से दूर कर दिया। हिंदी के प्राध्यापकों का छंद से कोई वास्ता ही नहीं रहा। स्थापित छंदों पर अपनी मान्यताएँ थोपने, महाकवियों के सृजन को दोषपूर्ण बताने और पूर्व छंदों के अंश की २-३ आवृत्ति (जनक) बताने, चित्र अलंकार की एक आकृति (पिरामिड) को नया छंद बताने का कौतुक आत्म तुष्टि के लिए किया जाने लगा। संस्कृत छंदों और शब्दों के फारसी में जाने पर उनका फ़ारसी रूपांतरण 'बह्र' नाम से किया गया। भारतीय शब्दों के स्थान पर फ़ारसी शब्द प्रयोग किये गए। कालांतर में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ फ़ारसी के शब्द और काव्य सीमावर्ती भारतीय भाषाओँ के साथ घुल-मिलकर उर्दू नाम ग्रहणकर भारतीय छंदों पर श्रेष्ठता जताने लगे। फ़ारसी ग़ज़ल के चुलबुलेपन और सरल रचना प्रक्रिया ने रचनाकारों को आकृष्ट किया। ग़ज़ल को फ़ारसीपण से मुक्त कर भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश ने हिंदी ग़ज़ल की  राह अलग बना दी। जीवन हुए जमीन से जुड़कर हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल ने स्वीकार नहीं किया। इस कशमकश ने हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनाने हुए उर्दू उस्तादों द्वारा खारिज किये जाने से बचाने के लिए गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, अणु गीत आदि नाम दिला दिए। गीत का लघु रूप गीतिका और मुक्तक का विस्तार मुक्तिका।गीतिका नाम से हिंदी पिंगल में वर्णिक और  मात्रिक दो छंद भी हैं। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार दो हिस्सों में बँट गए कुछ ग़ज़ल को ग़ज़ल कहते हुए उर्दू खेमे में हैं। यह स्थिति आदर्श नहीं है पर इसका समाधान समय ही देगा।

रचनाकारों  का धर्म रचना करना है। पिंगल शास्त्री छंद के विकास और नामांतरण को सुलझाते रहेंगे। इस सोच को लेकर वीर भूमि राजस्थान की परमाणु नगरी कोटा के ख्यात रचनाकार डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' सतत सृजन रत हैं। गीतिका को लेकर श्री ॐ नीरव और श्री विशम्भर शुक्ल सृजन रत हैं।

नीरव जी के अनुसार 'गीतिका एक ऐसी ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता  हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ छंदों का समादर हो। १ नीरव जी के अनुसार मात्रा भार, तुकांत विधान, मापनी, आधार छंद आदि गीतिका के तत्व हैं।

शुक्ल जी  के अनुसार "गीतिका ग़ज़ल ,जैसी है, ग़ज़ल नहीं है.... हर ग़ज़ल गीतिका गीतिका है पर हर गीतिका ग़ज़ल नहीं है।' २ वे गीतिका के दो रूप छंद-मापनी युक्त तथा छंद-मापनीमुक्त मानते हैं।

आकुल जी गीतिका को 'छोटा गीत' मानते हुए पद्यात्मकता तथा न्यूनतम पद-युग्म दो लक्षण बताते हैं। ३ आकुल जी के अनुसार गीतिका के पहले दो युग्म मुक्तक का निर्माण करते हैं और मुक्तक को अन्य युग्मों के साथ बनाई गयी रचना गीतिका है।

सामान्यत: पश्चातवर्ती का परिचय पूर्वव्रती के संदर्भ से दिया जाता है। अमुक फलाने का पोता है। पूर्ववर्ती के नाम से पश्चात्वर्ती का परिचय नहीं दिया जा सकता। रचना पहले मुक्तक ही रचा जाता है। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के  पंक्तियाँ जोड़ते जाने पर बनी रचना को मुक्तिका कहने का तो आधार है, गीतिका कहने का नहीं है। गीत के अंग मुखड़ा और अंतरा हैं। अंतरे के अंत में मुखड़े समान पंक्ति रखकर मुखड़े आवृत्ति की जाती है।
ऐसा गीतिका में नहीं होता। अस्तु, नामकरण समय के हवाले कर रचनामृत का पान करना श्रेयस्कर है।

आकुल जी ने ३४ मापनियों पर आधारित सौ तथा मापनी मुक्त सौ कुल दो सौ रचनाओं को इस संग्रह में स्थान दिया है। कृति का वैशिष्ट्य 'छंद आधारित प्रख्यात रचनाएँ' आलेख है जिसमें कुछ प्रसिद्ध चित्रपटीय गीतों  का उल्लेख है। इससे नव रचनाकारों को उस मापनी के छंद को लयबद्ध कर गेयतायुक्त करने में सहजता हो सकती है। उल्लेखनीय है कि एक ही मापनी पर आधारित गीति रचनाओं की लय में भिन्नता सहज दृष्टव्य है। इसका कारण यति संख्या, यति स्थान, कभी-कभी आलाप, शब्द-युति, तथा कल विभाजन है। इन रचनाओं को गुनगुनाने  होता है कि आकुल जी ने इन्हें 'लिखा' नहीं, तन्मय होकर 'रचा' है। इसीलिए इनकी मात्रा गणना किताबी नहीं वाचिक परंपरा का पालन करती है। पहली रचना ही इस तथ्य को स्पष्ट कर देती है। 
छंद- अनंगशेखर
मापनी- 12122 12122 12122 12122
पदांत- है बारिशों की
समांत- आयें
चमक रही है गगन में’ बिजली, घिरी घटायें हैं' बारिशों की.
लुभा रही है, चमन में’ ठंडी, चली हवायें,हैं’ बारिशों की  

गुरु उच्चार को  ' द्वारा इंगित करना दर्शाता है कि आकुल जी रचना कर्म की शुद्धता के प्रति कितने सजग हैं।
आकुल जी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। वे किताबी भाषिक शुद्धता के पक्षधर नहीं हैं। लोकोक्ति है 'ताले चोरों नहीं शरीफों के लिए होते हैं।' इसी बात को आकुल जी अपने अंदाज़ में कहते हैं - 
चौकसी, ताले​ हैं फिर भी ​चोरियाँ
चोर को ताले नहीं प्रहरी नहीं 

अंग्रेजी की कहावत 'ऑल इस फेयर इन लव एन्ड वार' का उपयोग करते हुए आकुल कहते हैं- 
युद्ध में अरु प्रेम में जायज है' सब,
है जुनूं तो है झुका संसार भी.

भाषिक समन्वय - 

आकुल जी भाषिक समन्वय के समर्थक हैं। उनके दादुर और पखेरू अदावतों समुंदरों और दुआओं से परहेज नहीं करते। - पृष्ठ २० 

जीवन सुख-दुःख, जीत-हार और धूप-छाँव का संगम है। आकुल जी इस जीवन दर्शन को जानते और  जीत में मिलती रही है हार भी तथा संग फूलों के मिलेंगे ख़ार भी जैसी पंक्तियों से व्यक्त करते हैं। 

दौरे दुनिया एक दूसरे को अधिक से अधिक चोट पहुँचाने का है। आकुल इस रहे-रस्म के कायल नहीं हैं- 
लेखनी से तू कभी ना, दद4 दे,
जो न कर पाये भलाई, ग़म न कर

नीतिपरकता -
हिंदी साहित्य में नीति के दोहे कहने का चलन है। संस्कृत में सुभाषित और अंगरेजी में कोट्स की परंपरा है। आकुल जी नीति की बात भी इस तरह कहते हैं की वह ुपदेश न लगे- 
तू उड़ान बाज सी भरना सदा.
हौसला फौलाद सा रखना सदा.
बात हो तलवार क तो ढाल से,
वार हो तो घात से बचना सदा.
जोश म बरसात सा आवेश हो,
शांत िनझ4र सा नह' बहना सदा.
T यान म बक कोिशश हो काक सी,
च' टय सा कम4रत रहना सदा.
*
कर सको तो Wोध पर काबू करो,
मौन को आदत बनाना चािहए
*
लोकगायन, नृS य, झूले,
उS स घर घर म मनाना.
है यही सं%कृित हमारी,
गीत %वागत म सुनाना

जीवन दर्शन 

ज़िंदगी के फ़लसफ़ों को काव्य पंक्तियों में ढालने आकुल सानी नहीं है -
<ार_ ध म है उतना िमलेगा, कोई भरेगा नह' Bजदगी म ,
V यादा न आशा करना कभी भी, ये Bजदगी म छलती रहेगी.

मुहावरों का सटीक प्रयोग 
कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में जान पड़ जाती है। आकुल जी यह भली-भांति जानते हैं। 'कहावत मन चंगा तो कठौती में गंगा' का गीतिकाकरण देखिए। 
न जा सक जो ह रdार गंगा,
भर क चंगा मन हो कठौती. 
*
जैसे ही’ चार होत' आख लग' िमलाने,
किलयाँ कई दवानी भँवरे लग' रझाने
*
साँच को भी आँच ना हो
सS य क भी जाँच ना हो.

सार नहीं श्रृंगार बिन 
जीवन में श्रृंगार रास का अपना महत्व है। यह सत्य 'गोपाल कृष्ण' से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें इसीलिये लीला बिहारी कहा जाता है की वे रास में प्रवीण हैं और रस रंग के पर्याय हैं- 
मान रख आना पड़ा मुझको ते’री मनुहार पर.
ह सम\पत गीितका मेरी ते’रे शृंगार पर.
शोभते मिणबंध, कंकण, उर कनक हारावली,
कंचुक का भेद िलखती व\णका अिभसार पर.
(प यौवन को िलखूँ, गजगािमनी हो नाियका,
पंिiका कैसे िलखूँ म ^ककणी यलगार पर.
रेशमी पM लव X यिथत ह , हाथ म थामे $ए
कण4फूल से सजी अलकाव ली ह dार पर.
अंगराग से $ई सुरिभत ते’री मह फल ि<ये,
धj य म जो िलख सका इक गीितका गुलनार पर.
*
<ेम का संदेश प$ँचाय िeितज ​​तक लो चलो,
पा सको तो जीत लो मन उड़ सकोगे D यार सँग.
कM पना के लोक क , प रकM पना है <ेम ही,
िलख सको िलख आना’ इक पैगाम तुम भी D यार सँग.

रंगों की रंगीनियां 
उत्सवधर्मी भारतीय मानस प्रकृति में बिखरे रंगों को भावनाओं, कामनाओं और मानवीय प्रवृत्तियों से जोड़ता है। लाल-पीला होना, रतनारी आँखें, मन हरियाना, पीला पड़ना आदि में रंग ही परिस्थिति बता देते हैं। इस मनोविज्ञान से आकुल जी अपरिचित नहीं हैं- 
रंग हो सूखा गुलाबी लाल पीला केसरी,
ह सभी बस रंग काला पोतने का डर न हो.

शब्दवृत्ति 
शब्द सौंदर्य से भाव और लय दोनों का चारुत्व बढ़ता है। रचना में गीतिमयता की वृद्धि उसे श्रवणीयता संपन्न करते है। शब्दावृत्ति से भाषिक सौंदर्य उत्पन्न करने का उदाहरण देखिए- 
चलना सँभल-सँभल के, यह Bजदगी समर है.
फूल का मत समझना, काँट भरा सफर है.
*
है वो सुखी यहाँ पर, चलता रहे समय सँग,
रखता कदम-कदम को, जो फूँक-फूँक कर है.

 शब्द युग्म - 
शब्द युग्म से आशय दो या अधिक शब्दों का प्रयोग है जो एक साथ प्रयोग किये जाते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। कभी दोनों शब्द समानार्थी होते हैं, कभी भिन्नार्थी, कभी पूरक, कभी विपरीत, कभी निरर्थक भी - 
कर गुजर भूल जा िगले-िशकवे,
एक दन तो बरफ िपघलती है
*
yंथ कहते िपता <जापित है.
माँ-िपता के िबना नह' गित है.
_
छw-छाया रहे सदा इनक ,
सृिO क दी अमूM य सL पित है.
*
धम4 एवं सSय क हो जीत यह,
सu यता-सं% कृित हमारी हो सदा.
*
बुिIमS ता, शौय4 अ7 धन-धाj य हो,
िमwता उससे भी’ भारी हो सदा

कर्म योग 
गीता का कर्म योग सिद्धांत 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' आकुल जी को प्रिय -है 
कर िमलेगा Qम सदा, <ितफल तुझे,
तीथ4 जाके पाप तू, धोना नह'
*
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे.
अगर दो कदम भी न आगे बढ़ोगे.
िमलेगी नह' मंिजल जान लो तुम,
हमेशा सफर म अकेले चलोगे.

सामाजिक सद्भाव 
वर्तमान में समाज में घटता सद्भाव, एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव आकुल जी को चिंतित करता है- 
गरीब भी रह दुखी,
अमीर के <भाव से
नह' सुखी अमीर भी
दुखी रह तनाव से

वे परिस्थिति को सुधरने की राह भी ेदीखते हैं 
न सीख ल न सीख द
खुशी व खूब चाव से
अमोल Bजदगी िमली
रह िजय िनभाव से

इस भौतिकताप्रधान समय में भोगवासना में फंसकर मनुष्य भक्ति भाव भूल रहा है। आकुल जी जानते हैं कि भक्ति ही सही राह है- 
आओ सभी दरबार म आओ,
माँ को चुन रया तो चढ़ानी है.
िनत ड|िडयाँ गरबा कर सारे,
माँ को रझाएँ मातरानी है.
समृिI सुख वरदाियनी देवी,
दुगा4 जया गौरी भवानी है
हे शारदे पथ*k ट होऊँ ना,
तुझसे सदा स}बुिI पानी है.

कर्तव्य भाव 
हम सब अधिकारों के प्रति सचेष्ट हैं कइँती कर्तव्य की अनदेखे करते रहते हैं. बहुत सी समस्याओं का कारण यही है। आकुल जी इस स्थिति पर चिंतित हैं और राह भी सुझाते हैं -
जंगली सा,
6 य बना है.
नाग रक हो,
सोचना है.
िसI करनी
कM पना है.
% वग4 को य द
खोजना है.
अितWमण को,
रोकना है.

राष्ट्रीयता 
कोई भी देश अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता के बिना सशक्त नहीं हो सकता।  आकुल जी यह जानते हैं, इसलिए लिखते हियँ- 
गूँज गी अब चार दशा, झूम गे’ अब धरती गगन,
समवेत % वर म राk गा(न) गाय गे’ जब सब मान से
हमको रहेगा गव4 जीवन भर शहीद का करम,
उनसे ही’ तो ह जी रहे हम आज इतमीनान से.
ह कम दल म दू रयाँ, अब हौसले कम ह नह', ,
अब देश ही सवŽE च हो, D यारा हो’ अपनी जान से.
हो खS म अब आतंक, *k ट आचारण, दुk कम4 सब,
ह बढ़ रहे खतरे समझ ना पा रहे 6 य T यान से

नारी विमर्श 
आजकल नारी अपराधों का शिकार हो रही हैआकुल जी इस परिस्थिति से चिंतित हैं- 
नारी िबना दो कदम भी बढ़ोगे नह'.
सफलता क सी ढ़ याँ भी चढ़ोगे नह'.
अब नह' ह ना रयाँ िनब4ल ये’ जान ले,
इितहास कभी कोई, गढ़ सकोगे नह'.
अपसं% कृित, असu यता, बढ़ेगी रात दन,
नारी के आदश4 को जो मढ़ोगे नह'.
जान पाओगे नह', जो शिi नारी’ क ,
युग के इितहास को जो पढ़ोगे नह'.
*
 कसी मोरचे पर नारी को, कभी न कम आँके मानव,
अब तो दुिनया को मुी म , करने को तS पर नारी.
कोई भी हो कम4 eेw म , % वयंिसI करती है वह,
छोटा हो या बड़ा गँवाती, नह' कह' अवसर नारी.
*
कहाँ नह' वच4% व नारी’ का, अब यह भी जग जाना है.
अंत रe म गई, चाँद पर, अब परचम फहराना है.
राजनीित हो, या तकनीक , सेना हो या िव…ालय,
आज िच कS सा, j याय X यव% थ ा म भी उसको माना ह्.ै
घर के उS तरदाियS व म , कभी नह' वह पीछे थी,
कत4X य , अिधकार म भी, अिyम हो, यह ठाना है.

भाषा समस्या 
राजनीति ने भारत में भाषा को भी समस्या बना दिया है। राजभाषा हिंदी के प्रति यत्र-तत्र विरोध और द्वेष भाव से चिंतित आकुल जी कहते हैं- 
Bहदी आभूषण है इसको, अब शोिभत कर
Bहदी वण4माल से कृितयाँ, अब पोिषत कर .
हम कृताथ4 ह जाएँ य द, िसर पर हाथ हो
मधुर राk वाणी से सब को, संबोिधत कर .
बस मन-वचन-कम4 से इसको, अपनाय सभी,
अिभX यिi क है % वतंwता, न ितरोिहत कर .

जमीन से जुड़ाव 
आकुल जी की सृजन भूमि राजस्थान है। वे जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। देशज भषा भी उन्हें उतने ेहे प्रिय है जितनी आधुनिक हिंदी 
जात-पाँत, रीत-भाँत, मन नैकूँ हो न शांत,
सूखे ह जो पेट आँत, सपन न आत ह .
भीख ले के हो <सj न, पशु के समe अj न
फ कवे स„ नायँ नैकूँ, होनो जानो कछू भी.

नगरीकरण 
तथाकथित विकास की अंधे ेमें गाँवों से शहरों की ओर पलायन का दुष्चक्र आकुल जी को चिंता करता है -
चौपाल , पनघट सूने, ह कुँए बावड़ी सूनी ह ,
वृe काट खुश है मानव उसक भी पाली आएगी.
ना ही फूट गे टेसू, कचनार, हारBसगार यहाँ,
छायेगा न बसंत व होली भी न गुलाली आएगी.
‘आकुल’ बढ़ कर रोक कटते पेड़ को द संरeण,
लहराय गे वृe देखना देव दवाली आएगी.

वैकल्पिक ऊर्जा 
मनुष्य ने प्राकृतिक उपादानों को इतनी तेजी और निर्दयता से नष्ट किया है की भविष्य में इनका आभाव झेलना पड़ेगा। इससे बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अपनाना ही कमात्र उपाय है- 
अतुिलत ऊजा4 ले <ाची से, जब सूयŽदय होता है.
जन जीवन का ऊजा4 से ही, तब अu युदय होता है.
इस ऊजा4 से चाँद िसतारे, <कृित धरा भी है रोशन,
अंितम X यिi बने ऊज4% वी, वह अंS योदय होता है.
युग युग से धरती घूमे, बाँट रही घर घर ऊजा4,
जब लेते सापेिeक ऊजा4, तब भा) योदय होता है.
ऊजा4 का <ाकृितक zोत यह, राk ोj नित का मूल बने,
इस ऊजा4 से सव4तोभZ, वह सवŽदय होता है.
<कृित ने दये इस ऊजा4 से, शोक अशोक % वभाव कई,
कभी कभी तो सूय4 % वयं भी, तो y%तोदय होता है.

प्रशासनिक विसंगति 
स्वतंत्रता के समय जनगण की शासन-प्रशासन से जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई। विदेशी अंग्रेज गए तो दषी अंग्रेज सत्तासीन हो गए। नेताओं ने बभी देश को लौटने में कोइ कसर नहीं छोड़ी  
इक थैली के च‰े-ब‰े, साठ-गाँठ मािहर नेता,
साम-दाम अ7 दंड-भेद म , आफत के परकाले ह .
मूक देखते j यायालय भी, दंडिवधान,<शासन भी,
को िविध िनकले राह तीसरी, कूटनीित म ढाले ह .
चोर चोर मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेर ,
साथ रख कल-पुज–-कुंदे, महँगी कार वाले ह .
कहते ह चाण6 य-िवदुर भी, छल-बल िबना न राज चले,
इसीिलए शतरंज म आधे, होते खाने काले ह

'हौसलों ने दिए पंख' शीर्षक यह काव्य कृति सम-सामयिक परिस्थियों का दस्तावेज है। आकुल जी सजग चिंतक और कुशल कवि हैं। वे कल्पना विलास में विश्वास नहीं करते। चतुर्दिक घाट रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे साहित्य सृजन को यज्ञ  संपन्न करते हैं।  पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर विषय वस्तु और कथ्य पर तार्किक चिंतन कर, समाधान सुझाते हुए विसंगतियों को इंगित  काव्य को पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी युक्त करता है। आज आवश्यकता इस बात के है की शिल्प के किसी एक पहलू पर सारा विमर्श केंद्रित कर किये जा रहे विवादों को भूलकर साहित्य की कसौटी उद्देश्यपरकता हो। आकुल जी इस निकष पर सौ टके खरे साहित्यकार है और उनका साहित्य समय का दस्तावेज है। 
संदर्भ : १. गीतिकालोक -ॐ नीरव, २. दृगों में इक समंदर है -विशंभर शुक्ल, ३. चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँ संदेश -आकुल
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com  
ध्यान दें -
पृष्ठ २१. कोयला सुलगता है, दीपक जलता है। 
पृष्ठ २४ म तिनक थोड़ा झुका होता वह' तनिक और थोड़ा समानार्थी हैं. दुहराव दोष है। 
 क्र, १३ और १८ पर एक ही रचना है। 
पृष्ठ ५२ भावना कMयाणकारी हो सदा.
कम4णा भी सदाचारी हो सदा.​ कर्मणा नहीं कामना ​

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

purowak

प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली 
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
                   [पुस्तक विवरण- जब से मन की नाव चली, नवगीत संग्रह, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', वर्ष २०१६, पृषठ १०८, मूल्य १००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, अनुष्टुप प्रकाशन, १३ गायत्री नगर, सोडाला, जयपुर ३२४००६, दूरभाष ०१४१ २४५०९७१, नवगीतकार संपर्क ०७४४ २४२४८१८, ९४६२१८२८१७]

गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है। 

                    यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए  "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी। 
                    स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा। 

                    यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है।  इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है। 
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का 
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित 
इक नवगीत सुनाती जाए। 

                    यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा।  आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं। 
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश 
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया 
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार

                    'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।  

                    महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा। 

                    आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।

                    मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।

                    इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।

                    आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।

                    उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों  में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह  मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।

                    हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने  'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है।  संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ।  किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।

                    आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है।  इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है।  गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)

                    ''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा।  समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।

                    आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
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