पान बनारस वाला
पूर्णिमा बर्मन.

खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।
सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।
एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।
अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।
साभार: चोंच में आकाश.