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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

फरवरी 12, उल्लाला गीत, मुक्तिका, सवैया, तलाक, सॉनेट, गणतंत्र, हिंग्लिश ग़ज़ल, वेलेंटाइन, कुंभ

सलिल सृजन १२ फरवरी
*
मुक्तक महाकुंभ ० नहा रहे जितने जन उतने, पौधे रोपें महाकुंभ में। स्वच्छ करें सब सब नदियों को, तट कर ऊँचे महाकुंभ में।। वन कुंजों में कलकल-कलरव सुनने सभी देवता आएँ- भक्ति करें निष्काम भाव से, आँखें मीचे महाकुंभ में।। 0 पूज नर्मदा कृष्णा गंगा कावेरी झेलम क्षिप्रा नित। ब्रह्मपुत्र सरयू साबरमती अरपा यमुना चंबल प्रमुदित।। महाकुंभ हो गाँव-गाँव में, जलस्रोतों की करें सफाई- तीर्थराज हो देश समूचा, पर्यावरण प्रकृति कर रक्षित।।
0
जिसने किए पाप जा धोए, मुक्त न फिर भी हो पाता है।
लौट कुंभ से माया-ममता लीन न निर्मल मति पाता है।।
भोगी-रोगी मुक्ति चाहते, छले गए श्रद्धा के मारे-
अटल कर्मफल जो जाने नित, घर में कुंभ नहा पाता है।।
0
चित्र गुप्त है परम ब्रह्म का, जैसा बोया काटो वैसा।
नहीं बदलती नियति, कमाकर रुपया दान करो यदि पैसा।।
परंपराएँ सत्य बतातीं, सब समान हैं भेद न कोई-
सुविधा भोग कैसे जाने, तप में मिलता है सुख कैसा?
0
कुम्भ-स्नान कर पुण्य कमाने, चले तोड़ कानून।
मिटा रहे संपत्ति देश की, कर नियमों का खून।।
पुण्य गँवाकर पाप कमाया, चित्र गुप्त का न्याय-
निश्चय दंड भोग रोएँगे, सारे अफलातून।। १२.२.२०२५ ०००
हिंग्लिश ग़ज़ल
वेलेंटाइन
*
आओ! मनाएँ Velentine.
Being fine paying fine.
रोज Rose day हो तज फाइट।
जब propose day पी ले wine.
Chocolate Day Chalk late दे।
Teachar पर भी 'मारो लाइन'।
Teddy day भालू बन मिलना।
प्रीत बेल से निकले bine.
वादा कर जुमला बतला दो।
Promis day कह मत दो Dine.
मत हग भर, जी भरकर Hug कर।
जहाँ वहीं हो love का shrine.
खुल्लमखुल्ला चिपको चूमो।
एक गिनो तुम kiss कर Nine.
bine = अंकुर, लाइन मारना (मुहावरा) = निकट जाने की कोशिश करना, dine = भोज, shrine = तीर्थ ।
१२.२.२०२४
***
सॉनेट
विडंबना
*
अपना दीपक आप बनो रे!
बुद्ध कह गए हमने माना।
दीप जलाना मन में ठाना।।
भूले अँखिया खोल रखो रे।।
घर झुलसा घर के दीपक से।
बैठे हैं हम आग तापते।
भोग लगा वरदान माँगते।।
केवल इतना नाता प्रभु से।।
जपें राम पर काम न करते।
तजें न सत्ता, काम सुमिरते।
भवबंधन में खुद को कसते।।
आँख न खोलें नाम नयनसुख।
निज करनी से पाते हैं दुख।
रब को कैसे दिखलाएँ मुख?
१२-२-२०२२
•••
गीत
अगिन नमन गणतंत्र महान
जनगण गाए मंगलगान
*
दसों दिशाएँ लिए आरती
नजर उतारे मातु भारती
धरणि पल्लवित-पुष्पित करती
नेह नर्मदा पुलक तारती
नीलगगन विस्तीर्ण वितान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
ध्वजा तिरंगी फहरा फरफर
जनगण की जय बोले फिर फिर
रवि बन जग को दें प्रकाश मिल
तम घिर विकल न हो मन्वन्तर
सत्-शिव-सुंदर मूल्य महान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
नीव सुदृढ़ मजदूर-किसान
रक्षक हैं सैनिक बलवान
अभियंता निर्माण करें नव
मूल्य सनातन बन इंसान
सुख-दुख सह समभाव सकें हँस
श्वास-श्वास हो रस की खान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
केसरिया बलिदान-क्रांति है
श्वेत स्नेह सद्भाव शांति है
हरी जनाकांक्षा नव सपने-
नील चक्र निर्मूल भ्रांति है
रज्जु बंध, निर्बंध उड़ान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
कंकर हैं शंकर बन पाएँ
मानवता की जय जय गाएँ
अडिग अथक निष्काम काम कर
बिंदु सिंधु बनकर लहराएँ
करे समय अपना जयगान
२६-१-२०२१
***
मुक्तिका
*
आज खत का जवाब आया है
धूल में फूल मुस्कुराया है
*
याद की है किताब हाथों में
छंद था मौन; खिलखिलाया है
*
नैन नत बोलते बिना बोले
रोज डे रोज ही मनाया है
*
कौन किसको प्रपोज कब करता
चाह ने चाहकर बुलाया है
*
हाथ बढ़ हाथ थामकर सिहरा
पैर ने पैर झट मिलाया है
*
देख मुखड़ा बना लिया मुखड़ा
अंतरिम अंतरा बनाया है
*
दे दिया दिल न दिलरुबा छोड़ा
दिलवरी की न दिल दुखाया है
१२-२२०२१
***
तीन तलाक - दोहे
*
तीन तलाक दीजिए, हर दिन जगकर आप
नफरत, गुस्सा, लोभ को, सुख न सकेंगे नाप
जुमलों धौंस प्रचार को, देकर तीन तलाक
दिल्ली ने कर दिया है, थोथा गर्व हलाक
भाव छंद रस बिंब लय, रहे हमेशा साथ
तीन तलाक न दें कभी, उन्नत हो कवि-माथ
आँसू का दरिया कहें, पर्वत सा दर्द
तीन तलाक न दे कभी, कोई सच्चा मर्द
आँखों को सपने दिए, लब को दी मुस्कान
छीन न तीन तलाक ले, रखिए पल-पल ध्यान
दिल से दिल का जोड़कर, नाता हुए अभिन्न
तीन तलाक न पाक है, बोल न होइए भिन्न
अल्ला की मर्जी नहीं, बोलें तीन तलाक
दिल दिलवर दिलरुबा का, हो न कभी भी चाक
जो जोड़ा मत तोड़ना, नाता बेहद पाक
मान इबादत निभाएँ बिसरा तीन तलाक
जो दे तीन तलाक वह, आदम है शैतान
आखिर दम तक निभाए, नाता गर इंसान
***
सवैया
२७ वर्णिक
यति १४-१३
*
ये सवेरा तीर की मानिंद चुभता है, चलो आशा का नया सूरज उगाएँ
घेर लें बादल निराशा के अगर तो, हौसलों की हवा से उनको उड़ाएँ
मेहनत है धर्म अपना स्वेद गंगा, भोर से संझा नहा नवगीत गाएँ
रात में बारात तारों की सजाकर, चाँदनी घर चाँद को दूल्हा बनाएँ
१२-२-२०२०
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ उल्लाला
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के ४ चरणों के पश्चात् उल्लाला के २ दल (पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के २ रूप कहा गया है। उल्लाला १३-१३ मात्राओं के २ सम चरणों का छंद है। उल्लाल १५-१३ मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में १३ कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर ( अर्थात ११ वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के ४ विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह १३-१३ मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन ८+३+२ है अंत में १ गुरु या २ लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
१. २ पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के ४ चरण
२. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
३. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
४. चरणान्त में एक गुरु या २ लघु हों।
५. सम चरणों (२, ४) के अंत में समान तुक हो।
६. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरूप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में
उदाहरण :
१.नारायण दास वैष्णव
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
२. घनानंद
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
३. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार'
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
******
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
१२-२-२०१६
***
नवगीत:
.
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
१२-२-२०१५
.
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
.
मुक्तिका
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..
गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..
मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..
कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..
नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..
मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..
कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..
***
मुक्तिका
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..
पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..
समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..
मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..
जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..
लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..
पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..
छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..
सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..
१२-२-२०११

*** 

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

शिव छंद, गणतंत्र, लघुकथा, गीत, मुक्तिका, तिरंगा, राजेंद्र प्रसाद, सोरठा, राममनोहर सिन्हा

गीत
देश हमारा है
*
देश हमारा है, सरकार हमारी है,
क्यों न निभाई, हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी कहाँ सुधारी हैं?...
*
भाँग कुएँ में घोल, हुए मदहोश सभी
किसके मन में किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें मति गई मारी है...
*
एक अँगुली जब तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे थी भरमाई।
सोचें क्या-कब हमने दशा सुधारी है?...
*
जैसा भी है तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन, सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी जिसमें कुछ खुद्दारी है...
*
कौन सुधारे किसको? आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी, न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला, सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी सारे जग से न्यारी है ...
•••
प्रथम राष्ट्रपति महामानव देशरत्न राजेंद्र बाबू

डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार अपने गाँव जीरादेई (ज़िला सिवान, बिहार) गए। भव्य तरीके से उनका स्वागत हुआ। ढोल और गाजे-बाजे की आवाज के साथ उनका सम्मान हुआ। गाँववालों के साथ वे अपने घर पहुँचे और पैर छूकर अपनी दादी का आशीर्वाद लिया। दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "सुनअ तनी कि बउवा बहुत बड़का आदमी बनअ गईल। जुग जुग जिय औरउ आगे बढ़अ। इतना बड़ आदमी जाई कि गाँव में ज सिपाही रही ओकर से भी बड़ -उ बहुते तंग करतअ हमरा परिवार के।" (सुना कि तुम बहुत बड़े आदमी बन गए हो। जुग जुग जियो, और भी आगे बढ़ो। इतना बड़ा आदमी कि ये गाँव में जो सिपाही है उससे बड़े आदमी- वो सिपाही हमारे परिवार को बहुत तंग करता है।)

बहुत सादा जीवन था उनका, स्वभाव भी सरल। पहनावा-ओढ़ावा और रहन सहन बेहद साधारण। मोज़े के जोड़े का एक मोजा फट जाए तो उसे फेंकते नहीं थे, दूसरे रंग के मोज़े के साथ पहन लेते कि इसे बनाने में जिसने श्रम किया है, उसका अपमान न हो।
राष्ट्रपति बनने के बाद उन्हें दिल्ली में आवंटित निवास राष्ट्रपति भवन में व्यवस्थित होना था। रेल के माध्यम से उनका सारा सामान पटना से दिल्ली ले जाया रहा था। व्यक्तिगत रूप से इस्तेमाल होने वाली सामग्री तो १-२ सूटकेस में समाहित हो गए पर सबसे बड़ा ज़खीरा था- बाँस से बने सूप ,डलिया, चलनी इत्यादि का। गाँवों में श्रीमती राजवंशी देवी इसका इस्तेमाल अनाज से भूसा, कंकड़ और धूल इत्यादि निकालने के लिए करती रहीं। उन्होंने और उनकी पत्नी ने ये परंपरा राष्ट्रपति भवन में भी बरक़रार रखी।

कुछ दिनों बाद प्रख्यात कवयित्री महादेवी जी दिल्ली गईं तो राजेंद्र बाबू और राजवंशी देवी जी से मिलने बहुत संकोच के साथ गईं कि सर्वोच्च पद पाने के बाद न जाने कैसा व्यवहार करें। राजेंद्र बाबू कार्यालय में थे, इसलिए वे सीधे राजवंशी देवी के पास रसोई घर में बैठ गईं। हाल-चाल जानने के बाद पूछा कि कैसा लग रहा है? राजवंशी जी ने कहा कि गाँव की बहुत याद आती है। यहाँ कोई अपना नहीं है। महादेवी जी ने चलते समय पूछा कि यहाँ तो किसी चीज की कमी नहीं होगी? राजवंशी देवी ने सँकुचाते हुए कहा कि गाँव जैसे सूपे नहीं मिलते। कुछ दिनों बाद महादेवी जी का फिर दिल्ली जाना हुआ तो वे राजवंशी देवी के लिए कुछ सूपे ले जाना न भूलीं। सूपे पाकर राजवंशी जी बहुत प्रसन्न हुईं हुए बगल में सूपे रखकर दोनों बातचीत करने लगीं। महादेवी जी के आने का समाचार मिलने पर कुछ देर में राजेंद्र बाबू भी रसोई में आ गए। सूपे देखकर पूछ कि कहाँ से आए तो राजवंशी देवी ने बताया कि बीबी जी (ननद) लाई हैं। राजेंद्र बाबू ने नाज़िर को बुलवाया और बोले सूपे तोशाखाने (वह स्थान जहाँ बेशकीमती उपहार रखे जाते हैं) में रखवा दो और राजवंशी देवी से बोले कि मैं सरकारी पद पर हूँ, मुझे जो उपहार मिले वह सरकार का होता है, हम उसे अपने काम में नहीं ला सकते। राजवंशी जी और महादेवी जी देखती रह गईं और नाज़िर ने वे सूपे तोशाखाने में जमा करवा दिए। आज हर अधिकारी और नेता सरकारी सुख, सुविधा और संपत्ति पर अपना अधिकार समझता है, क्या कोई राजेंद्र बाबू का अनुकरण करेगा?

बारह वर्षों के लिए राष्ट्रपति भवन राजेंद्र बाबू का घर था। उसकी राजसी भव्यता और शान सुरुचिपूर्ण सादगी में बदल गई थी। राष्ट्रपति का एक पुराना नौकर था, तुलसी। एक दिन सुबह कमरे की झाड़पोंछ करते हुए उससे राजेन्द्र प्रसाद जी के डेस्क से एक हाथी दांत का पेन नीचे ज़मीन पर गिर गया। पेन टूट गया और स्याही कालीन पर फैल गई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बहुत गुस्सा हुए। यह पेन किसी की भेंट थी और उन्हें बहुत ही पसन्द थी। तुलसी पहले भी कई बार लापरवाही कर चुका था। उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुरंत तुलसी को अपनी निजी सेवा से हटा दिया। उस दिन वह बहुत व्यस्त रहे। कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और विदेशी पदाधिकारी उनसे मिलने आये। मगर सारा दिन काम करते हुए उनके दिल में एक काँटा सा चुभता रहा था। उन्हें लगता रहा कि उन्होंने तुलसी के साथ अन्याय किया है। जैसे ही उन्हें मिलने वालों से अवकाश मिला राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया। पुराना सेवक अपनी ग़लती पर डरता हुआ कमरे के भीतर आया। उसने देखा कि राष्ट्रपति सिर झुकाए और हाथ जोड़े उसके सामने खड़े हैं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा- "तुलसी मुझे माफ कर दो।"
तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया।
राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया- "तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?"
इस बार सेवक और स्वामी दोनों की आँखों में आँसू आ गए।
***
मुक्तिका
*
जनगण सेवी तंत्र बने राधे माधव
लोक जागृति मंत्र बने राधे माधव
प्रजा पर्व गणतंत्र दिवस यह अमर रहे
देश हेतु जन यंत्र बने राधे माधव
हों मतभेद न पर मनभेद कभी हममें
कोटि-कोटि जन एक बने राधे माधव
पक्ष-विपक्ष विनम्र सहिष्णु विवेकी हों
दाऊ-कन्हैया सदृश सदा राधे माधव
हों नर-नारी पूरक शंकर-उमा बनें
संतति सीता-राम रहे राधे माधव
हो संजीवित जग जीवन की जय बोलें
हो न महाभारत भारत राधे माधव
आर्यावर्त बने भारत सुख-शांतिप्रदा
रिद्धि-सिद्धि-विघ्नेश बसें राधे माधव
देव कलम के! शब्द-शक्ति की जय जय हो
शारद सुत हों सदा सुखी राधे माधव
जगवाणी हिंदी की दस दिश जय गूँजे
स्नेह सलिल अभिषेक करे राधे माधव
२०.१.२०२०
***
सोरठे गणतंत्र के
जनता हुई प्रसन्न, आज बने गणतंत्र हम।
जन-जन हो संपन्न, भेद-भाव सब दूर हो।
*
सेवक होता तंत्र, प्रजातंत्र में प्रजा का।
यही सफलता-मंत्र, जनसेवी नेता बनें।।
*
होता है अनमोल, लोकतंत्र में लोकमत।
कलम उठाएँ तोल, हानि न करिए देश की।।
*
खुद भोगे अधिकार, तंत्र न जन की पीर हर।
शासन करे विचार, तो जनतंत्र न सफल है।।
*
आन, बान, सम्मान, ध्वजा तिरंगी देश की।
विहँस लुटा दें जान, झुकने कभी न दे 'सलिल'।।
*
पालन करिए नित्य, संविधान को जानकर।
फ़र्ज़ मानिए सत्य, अधिकारों की नींव हैं।।
*
भारतीय हैं एक, जाति-धर्म को भुलाकर।
चलो बनें हम नेक, भाईचारा पालकर
२६-१-२०१८
***
बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
२२-१-२०१८
***
लघुकथा-
तिरंगा
*
माँ इसे फेंकने को क्यों कह रही हो? बताओ न इसे कहाँ रखूँ? शिक्षक कह रहे थे इसे सबसे ऊपर रखना होता है। तुम न तो पूजा में रखने दे रही हो, न बैठक में, न खाने की मेज पर, न ड्रेसिंग टेबल पर फिर कहाँ रखूँ?
बच्चा बार-बार पूछकर झुंझला रहा था.… इतने में कर्कश आवाज़ आयी 'कह तो दिया फेंक दे, सुनाता है कि लगाऊँ दो तमाचे?'
अवाक् बच्चा सुबकते हुए बोला 'तुम बड़े लोग गंदे हो। सही बात बताते नहीं और डाँटते हो, तुमसे बात नहीं करूंगा'। सुबकते-सुबकते कब आँख लगी पता ही नहीं चला उसके सीने से अब भी लगा था तिरंगा।
***
नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
२२-८-२०१६
***
मुक्तिका :
*
तुममें मैं हूँ , मुझमें तुम हो
खोज न बाहर, मिलकर हम हो
*
ईश-देश या नियति-प्रकृति सँग
रहो प्रकाशित, शेष न तम हो
*
पीर तुझे हो, दर्द मुझे हो
सुख-दुःख में मिल अँखियाँ नम हो
*
संबंधों के अनुबंधों में
साधक संयम और नियम हो
*
मंतर मार सकें कुछ ऐसा
अंतर से ही अंतर गुम हो
*
मन-प्राणों को देह टेरती
हो विदेह सुख वही परम हो
*
देना-पाना, मिल-खो जाना
आना-जाना संग धरम हो
२६.१.२०१६
***
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
*
२८-४-२०१४
***
छंद सलिला:
शिव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
एकादश रुद्रों के आधार पर ग्यारह मात्राओं के छन्दों को 'रूद्र' परिवार का छंद कहा गया है. शिव छंद भी रूद्र परिवार का छंद है जिसमें ११ मात्राएँ होती हैं. तीसरी, छठंवीं तथा नवमी मात्रा लघु होना आवश्यक है. शिव छंद की मात्रा बाँट ३-३-३-३-२ होती है.
छोटे-छोटे चरण तथा दो चरणों की समान तुक शिव छंद को गति तथा लालित्य से समृद्ध करती है. शिखरिणी की सलिल धर की तरंगों के सतत प्रवाह और नरंतर आघात की सी प्रतीति कराना शिव छंद का वैशिष्ट्य है.
शिव छंद में अनिवार्य तीसरी, छठंवीं तथा नवमी लघु मात्रा के पहले या बाद में २-२ मात्राएँ होती हैं. ये एक गुरु या दो लघु हो सकती हैं. नवमी मात्रा के साथ चरणान्त में दो लघु जुड़ने पर नगण, एक गुरु जुड़ने पर आठवीं मात्र लघु होने पर सगण तथा गुरु होने पर रगण होता है.
सामान्यतः दो पंक्तियों के शिव छंद की हर एक पंक्ति में २ चरण होते हैं तथा दो पंक्तियों में चरण साम्यता आवश्यक नहीं होती। अतः छंद के चार चरणों में लघु, गुरु, लघु-गुरु या गुरु-लघु के आधार पर ४ उपभेद हो सकते हैं.
उदाहरण:
१. चरणान्त लघु:
हम कहीं रहें सनम, हो कभी न आँख नम
दूरियाँ न कर सकें, दूर- हों समीप हम
२. चरणान्त गुरु:
आप साथ हों सदा, मोहती रहे अदा
एक मैं नहीं रहूँ, भाग्य भी रहे फ़िदा
३. चरणान्त लघु-गुरु:
शिव-शिवा रहें सदय, जग तभी रहे अभय
पूत भक्ति भावना, पूर्ण शक्ति कामना
४. चरणान्त गुरु लघु:
हाथ-हाथ में लिये, बाँध मुष्टि लब सिये
उन्नत सर-माथ रख, चाह-राह निज परख
------
***
२६ जनवरी:
भारत का राष्ट्रीय पर्व गणतन्त्र दिवस प्रति वर्ष २६ जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन १९५० को भारत का संविधान लागू किया गया था।
इतिहास
सन १९२९- दिसंबर में जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार २६ जनवरी १९३० तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। २६ जनवरी, 1930 तक अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा कर अपना आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक २६ जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। तदनंतर स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन १५ अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। २६ जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए विधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई।
गणतंत्र दिवस समारोह
२६ जनवरी को भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय राष्ट्र ध्वज को फहराने के बाद सामूहिक रूप में खड़े होकर राष्ट्रगान गाया जाता है। हर साल एक भव्य परेड इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन (राष्ट्रपति के निवास) तक राजपथ नई दिल्ली में आयोजित की जाती है| इस भव्य परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट ,वायुसेना, नौसेना आदि भाग लेते हैं। समारोह में भाग लेने के लिए देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कडेट कोर व विभिन्न विद्यालयों से बच्चे आते हैं , समारोह में भाग लेना एक सम्मान ही नहीं सौभाग्य भी है। परेड प्रारंभ करते हुए प्रधानमंत्री अमर जवान ज्योति पर पुष्प माल चढ़ाते हैं, शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए लड़े युद्ध व स्वतंत्रता आंदोलन में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के बलिदान का एक स्मारक है। इसके बाद प्रधानमंत्री, अन्य व्यक्तियों के साथ राजपथ पर स्थित मंच तक आते हैं, राष्ट्रपति बाद में अवसर के मुख्य अतिथि के साथ आते हैं। परेड में विभिन्न राज्यों से चलित शानदार प्रदर्शिनी भी होती है ,प्रदर्शिनी में हर राज्य के लोगों की विशेषता, उनके लोक गीत व कला का दृश्यचित्र प्रस्तुत किया जाता है| हर प्रदर्शिनी भारत की विविधता व सांस्कृतिक समृद्धि प्रदर्शित करती है। परेड और जलूस राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित होता है और देश के हर कोने में करोड़ों दर्शकों के द्वारा देखा जाता है। भारत के राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री के भाषण सुनने अगणित जनगण लाल किले पर एकत्रित होता है।
भारत में गणतन्त्र दिवस
ऑस्ट्रेलिया में ऑस्ट्रेलिया दिवस
प्रमुख घटनाएँ:
१५५६- हुमायूँ निधन।
१७८८- ऑस्ट्रेलिया ब्रिटेन का उपनिवेश बना।
१९०५- दुनिया का सबसे बड़ा हीरा 'क्यूलियन' (वजन ३१०६ कैरेट) दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया में मिला।
१९२४- पेट्रोग्राद (सेंट पीट्सबर्ग) का नाम बदलकर 'लेनिनग्राद' किया गया।
१९३१- सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार से बातचीत के लिए महात्मा गांधी रिहा किये गए।
१९३७- भारतीय संघीय न्यायालय का नाम सर्वोच्च न्यायालय कर दिया गया।
१९५०- भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित हुआ, भारत का संविधान लागू हुआ। स्वतंत्र भारत के पहले और अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपने पद से त्यागपत्र दिया, डा. राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने।
उत्तर प्रदेश के सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ के शेरों को राष्ट्रीय प्रतीक की मान्यता मिली।
भारतीय युद्ध पोत एचएमआईएस दिल्ली काअ नाम कारण आईएनएस दिल्ली हुआ, ३० जून १९७८ को सेवामुक्त।
१९७२- युध्द में शहीद सैनिकों की याद में दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति स्थापित।
१९८० - इसरायल और मिस्र के बीच राजनयिक संबंध फ़िर से बहाल ।
१९८१- पूर्वोत्तर भारत में हवाई यातायात सुगम बनाने को ध्यान में रखते हुए हवाई सेवा 'वायुदूत' शुरू।
१९८२-भारतीय रेल ने पैलेस आन व्हील्स सेवा शुरू की।
१९९४- रोमानिया ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन 'नाटो' के साथ सैन्य सहयोग समझौते पर दस्तखत किए।
१९९६- अमरीकी सीनेट ने रूस के साथ परमाणु हथियार व मिसाइल की होड़ घटाने हेतु समझौता स्टार्ट 2 मंजूर किया।
२००१- गुजरात के भुज में ७.७ तीव्रता के भीषण भूकंप में लाखों लोग मारे गए थे।
२००३- मार्टिना नवरातिलोवा (अमेरिका) टेनिस का ग्रैंड स्लैम खिताब जीतनेवाली सबसे उम्रदराज खिलाड़ी बनी।
***

संविधान के चित्रकार ब्यौहार राममनोहर सिन्हा

संविधान के इस मुख पृष्ठ को तो लगभग सभी ने कभी न कभी देखा होगा, लेकिन हम लोगों में से कितने ये जानते होंगे कि इस आवरण को अलंकृत करने वाले महान चित्रकार जबलपुर के थे, जी हाँ उनका नाम था ब्योहार राममनोहर सिन्हा, शान्तिनिकेतन में देश के सर्वकालिक महान चित्रकारों में से एक नन्दलाल बोस के प्रिय शिष्य ब्योहार राममनोहर सिन्हा जी ने हमारे देश के संविधान का मुख्य पृष्ठ बनाया था, और वो भी सिर्फ 20 वर्ष की उम्र में..वो किस्सा भी बहुत रोचक है..


हुआ यूँ कि देश जब आजाद हुआ तो इसका अपना संविधान होना भी ज़रूरी था तो एक तरफ संविधान के निर्माता, देश के लिए कानून बनाने के लिए माथापच्ची कर रहे थे तब जवहारलाल नेहरु इसे हर तरह से अद्वतीय बनाने के लिए कृत संकल्पित थे, और इसी चाह को मन में रखकर वे पहुंचे शान्तिनिकेतन उस समय के सबसे मशहूर चित्रकार नन्दलाल बोस के पास, और नन्दलाल बोस ने भरोसा जताया अपने प्रिय शिष्य ब्यौहार राममनोहर सिन्हा के ऊपर और उन्हें संविधान के मुख्य पृष्ठ के रूपांकन (डिजाइन) का जिम्मा सौंपा, सिन्हा जी ने भी पूरी लगन और ईमानदारी से वो काम पूरा किया और बनाया हुआ पृष्ठ लेकर जब जवाहरलाल नेहरु को दिखाया तो नेहरु जी ने उसे देखकर कहा कि ये बना तो बेहतरीन है लेकिन इस कला के बेजोड़ नमूने को मैं स्वीकार नहीं कर सकता क्यूंकि इसमें कला तो है लेकिन कलाकार नदारद, क्यूंकि हर कला के नमूने को जीवंत उसे बनाने वाले कलाकार के हस्ताक्षर करते हैं जो इसमें नहीं है इसीलिए मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता, तब 20 वर्षीय उस युवा ने जो जवाब दिया वो लाजवाब था, ब्यौहार राममनोहर सिन्हा ने नेहरु जी से कहा कि चूँकि ये मात्र कला नहीं है ये देश के लिए मेरा योगदान है और उसमे मेरा नाम आये मैं ये ज़रूरी नहीं मानता लेकिन जब नेहरु नहीं माने तो उन्होंने अपने नाम को भी पृष्ठ के दायें निचले कोने में इस तरह संयोजित किया कि उस कवर की डिजाईन में "राम" आ भी गया और समा भी गया।

उस महान कलाकार की महानता और का एक और किस्सा है, १९५७ के आसपास जब भारत के चीन से रिश्ते बिगड़ने लगे तो नेहरु ने फिर ब्यौहार राममनोहर सिन्हा को राहुल संस्क्रतायन के साथ चीन भेजा, आर्ट डिप्लोमेसी का दायित्व सौंप कर, और दोनों ने चीन जाकर भारतीय और चीनी चित्रकला की वो जुगलबंदी बनाई कि थोड़े दिनों में दोनों देशों के संबंधों में सुधार देखने मिला, और "हिंदी चीनी भाई भाई " के नारे गूँजने लगे, हालाँकि ये दोस्ती बाद के कुछ वर्षों तक कायम नहीं रह पाई।
***

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:

लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
*
लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
भारत माता का वंदन...
हम सब माता की संतानें,
नभ पर ध्वज फहराएंगे.
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
'जन गण मन' गुन्जायेंगे.
'झंडा ऊंचा रहे हमारा',
'वन्दे मातरम' गायेंगे.
वीर शहीदों के माथे पर
शोभित हो अक्षत-चन्दन...
नेता नहीं, नागरिक बनकर
करें देश का नव निर्माण.
लगन-परिश्रम, त्याग-समर्पण,
पत्थर में भी फूंकें प्राण.
खेत-कारखाने, मन-मन्दिर,
स्नेह भाव से हों संप्राण.
स्नेह-'सलिल' से मरुथल में भी
हरिया दें हम नन्दन वन...
दूर करेंगे भेद-भाव मिल,
सबको अवसर मिलें समान.
शीघ्र और सस्ता होगा अब
सतत न्याय का सच्चा दान.
जो भी दुश्मन है भारत का
पहुंचा देंगे उसे मसान.
सारी दुनिया लोहा मने
विश्व-शांति का हो मंचन...
२६.१.२०१३
***
त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१४-२-२०१३
***
गीत :
किस तरह आये बसंत?...
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गयी 'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
६-३-२०१०
***
लघुकथा
शब्द और अर्थ
*
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गन विहीन गन तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गन मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा।
२३.३.२००९
***

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

सॉनेट, गणतंत्र, मुक्तिका, दोहे, तलाक, सवैया, उल्लाला, पटवारी

सॉनेट
विडंबना
*
अपना दीपक आप बनो रे!
बुद्ध कह गए हमने माना।
दीप जलाना मन में ठाना।।
भूले अँखिया खोल रखो रे।।
घर झुलसा घर के दीपक से।
बैठे हैं हम आग तापते।
भोग लगा वरदान माँगते।।
केवल इतना नाता प्रभु से।।
जपें राम पर काम न करते।
तजें न सत्ता, काम सुमिरते।
भवबंधन में खुद को कसते।।
आँख न खोलें नाम नयनसुख।
निज करनी से पाते हैं दुख।
रब को कैसे दिखलाएँ मुख?
१२-२-२०२२
•••

अगिन नमन गणतंत्र महान
जनगण गाए मंगलगान
*
दसों दिशाएँ लिए आरती
नजर उतारे मातु भारती
धरणि पल्लवित-पुष्पित करती
नेह नर्मदा पुलक तारती
नीलगगन विस्तीर्ण वितान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
ध्वजा तिरंगी फहरा फरफर
जनगण की जय बोले फिर फिर
रवि बन जग को दें प्रकाश मिल
तम घिर विकल न हो मन्वन्तर
सत्-शिव-सुंदर मूल्य महान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
नीव सुदृढ़ मजदूर-किसान
रक्षक हैं सैनिक बलवान
अभियंता निर्माण करें नव
मूल्य सनातन बन इंसान
सुख-दुख सह समभाव सकें हँस
श्वास-श्वास हो रस की खान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
केसरिया बलिदान-क्रांति है
श्वेत स्नेह सद्भाव शांति है
हरी जनाकांक्षा नव सपने-
नील चक्र निर्मूल भ्रांति है
रज्जु बंध, निर्बंध उड़ान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
कंकर हैं शंकर बन पाएँ
मानवता की जय जय गाएँ
अडिग अथक निष्काम काम कर
बिंदु सिंधु बनकर लहराएँ
करे समय अपना जयगान
२६-१-२०२१
***
मुक्तिका
*
आज खत का जवाब आया है
धूल में फूल मुस्कुराया है
*
याद की है किताब हाथों में
छंद था मौन; खिलखिलाया है
*
नैन नत बोलते बिना बोले
रोज डे रोज ही मनाया है
*
कौन किसको प्रपोज कब करता
चाह ने चाहकर बुलाया है
*
हाथ बढ़ हाथ थामकर सिहरा
पैर ने पैर झट मिलाया है
*
देख मुखड़ा बना लिया मुखड़ा
अंतर में अंतरा बसाया है
*
दे दिया दिल न दिलरुबा छोड़ा
दिलवरी की न दिल दुखाया है
१२-२२०२१
***
तीन तलाक - दोहे
*
तीन तलाक दीजिए, हर दिन जगकर आप
नफरत, गुस्सा, लोभ को, सुख न सकेंगे नाप
जुमलों धौंस प्रचार को, देकर तीन तलाक
दिल्ली ने कर दिया है, थोथा गर्व हलाक
भाव छंद रस बिंब लय, रहे हमेशा साथ
तीन तलाक न दें कभी, उन्नत हो कवि-माथ
आँसू का दरिया कहें, पर्वत सा दर्द
तीन तलाक न दे कभी, कोई सच्चा मर्द
आँखों को सपने दिए, लब को दी मुस्कान
छीन न तीन तलाक ले, रखिए पल-पल ध्यान
दिल से दिल का जोड़कर, नाता हुए अभिन्न
तीन तलाक न पाक है, बोल न होइए भिन्न
अल्ला की मर्जी नहीं, बोलें तीन तलाक
दिल दिलवर दिलरुबा का, हो न कभी भी चाक
जो जोड़ा मत तोड़ना, नाता बेहद पाक
मान इबादत निभाएँ बिसरा तीन तलाक
जो दे तीन तलाक वह, आदम है शैतान
आखिर दम तक निभाए, नाता गर इंसान
***
सवैया
२७ वर्णिक
यति १४-१३
*
ये सवेरा तीर की मानिंद चुभता है, चलो आशा का नया सूरज उगाएँ
घेर लें बादल निराशा के अगर तो, हौसलों की हवा से उनको उड़ाएँ
मेहनत है धर्म अपना स्वेद गंगा, भोर से संझा नहा नवगीत गाएँ
रात में बारात तारों की सजाकर, चाँदनी घर चाँद को दूल्हा बनाएँ
१२-२-२०२०
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ उल्लाला
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के ४ चरणों के पश्चात् उल्लाला के २ दल (पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के २ रूप कहा गया है। उल्लाला १३-१३ मात्राओं के २ सम चरणों का छंद है। उल्लाल १५-१३ मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में १३ कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर ( अर्थात ११ वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के ४ विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह १३-१३ मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन ८+३+२ है अंत में १ गुरु या २ लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
१. २ पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के ४ चरण
२. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
३. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
४. चरणान्त में एक गुरु या २ लघु हों।
५. सम चरणों (२, ४) के अंत में समान तुक हो।
६. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरुप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में
उदाहरण :
१.नारायण दास वैष्णव
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
२. घनानंद
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
३. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार'
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
४. अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
संजीव 'सलिल'
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
******
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
१२-२-२०१६
***
नवगीत:
.
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
१२-२-२०१५
.
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
.
मुक्तिका
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..
***
मुक्तिका
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..
१२-२-२०११
***

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

राजेंद्र बाबू , छंद त्रिभंगी, बसंत, दोहा ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल, गणतंत्र , प्रजातंत्र, जनतंत्र, नवगीत, लघुकथा

त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१४-२-२०१३
***
गीत :
किस तरह आये बसंत?...
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गयी 'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
६-३-२०१०
***
बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
२२-१-२०१८
***

मुक्तिका
*
जनगण सेवी तंत्र बने राधे माधव
लोक जागृति मंत्र बने राधे माधव
प्रजा पर्व गणतंत्र दिवस यह अमर रहे
देश हेतु जन यंत्र बने राधे माधव
हों मतभेद न पर मनभेद कभी हममें
कोटि-कोटि जन एक बने राधे माधव
पक्ष-विपक्ष विनम्र सहिष्णु विवेकी हों
दाऊ-कन्हैया सदृश सदा राधे माधव
हों नर-नारी पूरक शंकर-उमा बनें
संतति सीता-राम रहे राधे माधव
हो संजीवित जग जीवन की जय बोलें
हो न महाभारत भारत राधे माधव
आर्यावर्त बने भारत सुख-शांतिप्रदा
रिद्धि-सिद्धि-विघ्नेश बसें राधे माधव
देव कलम के! शब्द-शक्ति की जय जय हो
शारद सुत हों सदा सुखी राधे माधव
जगवाणी हिंदी की दस दिश जय गूँजे
स्नेह सलिल अभिषेक करे राधे माधव
गणतंत्र दिवस २०२०
***
सोरठे गणतंत्र के
जनता हुई प्रसन्न, आज बने गणतंत्र हम।
जन-जन हो संपन्न, भेद-भाव सब दूर हो।
*
सेवक होता तंत्र, प्रजातंत्र में प्रजा का।
यही सफलता-मंत्र, जनसेवी नेता बनें।।
*
होता है अनमोल, लोकतंत्र में लोकमत।
कलम उठाएँ तोल, हानि न करिए देश की।।
*
खुद भोगे अधिकार, तंत्र न जन की पीर हर।
शासन करे विचार, तो जनतंत्र न सफल है।।
*
आन, बान, सम्मान, ध्वजा तिरंगी देश की।
विहँस लुटा दें जान, झुकने कभी न दे 'सलिल'।।
*
पालन करिए नित्य, संविधान को जानकर।
फ़र्ज़ मानिए सत्य, अधिकारों की नींव हैं।।
*
भारतीय हैं एक, जाति-धर्म को भुलाकर।
चलो बनें हम नेक, भाईचारा पालकर
२६-१-२०१८ 
***
नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
२२-८-२०१६
***
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
*
२८-४-२०१४
***
गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:
लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
*
लोकतंत्र की वर्ष गांठ पर
भारत माता का वंदन...
हम सब माता की संतानें,
नभ पर ध्वज फहराएंगे.
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
'जन गण मन' गुन्जायेंगे.
'झंडा ऊंचा रहे हमारा',
'वन्दे मातरम' गायेंगे.
वीर शहीदों के माथे पर
शोभित हो अक्षत-चन्दन...
नेता नहीं, नागरिक बनकर
करें देश का नव निर्माण.
लगन-परिश्रम, त्याग-समर्पण,
पत्थर में भी फूंकें प्राण.
खेत-कारखाने, मन-मन्दिर,
स्नेह भाव से हों संप्राण.
स्नेह-'सलिल' से मरुथल में भी
हरिया दें हम नन्दन वन...
दूर करेंगे भेद-भाव मिल,
सबको अवसर मिलें समान.
शीघ्र और सस्ता होगा अब
सतत न्याय का सच्चा दान.
जो भी दुश्मन है भारत का
पहुंचा देंगे उसे मसान.
सारी दुनिया लोहा मने
विश्व-शांति का हो मंचन...
२६-१-२०१३
***
लघु कथा
शब्द और अर्थ
*
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गन विहीन गन तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गन मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा।
२९-३-२००९
***
महामानव देशरत्न राजेंद्र बाबू 

डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार अपने गाँव जीरादेई (ज़िला सिवान, बिहार) गए।  भव्य तरीके से उनका स्वागत हुआ। ढोल और गाजे-बाजे की आवाज के साथ उनका सम्मान हुआ। गाँववालों के साथ वे अपने घर पहुँचे और पैर छूकर अपनी दादी का आशीर्वाद लिया। दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "सुनअ तनी कि बउवा बहुत बड़का आदमी बनअ गईल। जुग जुग जिय औरउ आगे बढ़अ। इतना बड़ आदमी जाई कि गाँव में ज सिपाही रही ओकर से भी बड़ -उ बहुते तंग करतअ हमरा परिवार के।" (सुना कि तुम बहुत बड़े आदमी बन गए हो। जुग जुग जियो, और भी आगे बढ़ो। इतना बड़ा आदमी कि ये गाँव में जो सिपाही है उससे बड़े आदमी- वो सिपाही हमारे परिवार को बहुत तंग करता है।)

बहुत सादा जीवन था उनका, स्वभाव भी सरल। पहनावा-ओढ़ावा और रहन सहन बेहद साधारण। मोज़े के जोड़े का एक मोजा फट जाए तो उसे फेंकते नहीं थे, दूसरे रंग के मोज़े के साथ पहन लेते कि इसे बनाने में जिसने श्रम किया है, उसका अपमान न हो। 

राष्ट्रपति बनने के बाद उन्हें दिल्ली में आवंटित निवास राष्ट्रपति भवन में व्यवस्थित होना था। रेल के माध्यम से उनका सारा सामान पटना से दिल्ली ले जाया रहा था। व्यक्तिगत रूप से इस्तेमाल होने वाली सामग्री तो १-२ सूटकेस में समाहित हो गए पर सबसे बड़ा ज़खीरा था- बाँस से बने सूप ,डलिया, चलनी इत्यादि का। गाँवों में श्रीमती राजवंशी देवी इसका इस्तेमाल अनाज से भूसा, कंकड़ और धूल इत्यादि निकालने के लिए करती रहीं। उन्होंने और उनकी पत्नी ने ये परंपरा राष्ट्रपति भवन में भी बरक़रार रखी। 

कुछ दिनों बाद प्रख्यात कवयित्री महादेवी जी दिल्ली गईं तो राजेंद्र बाबू और राजवंशी देवी जी से मिलने बहुत संकोच के साथ गईं कि सर्वोच्च पद पाने के बाद न जाने कैसा व्यवहार करें। राजेंद्र बाबू कार्यालय में थे, इसलिए वे सीधे राजवंशी देवी के पास रसोई घर में बैठ गईं। हाल-चाल जानने के बाद पूछा कि कैसा लग रहा है? राजवंशी जी ने कहा कि गाँव की बहुत याद आती है। यहाँ कोई अपना नहीं है। महादेवी जी ने चलते समय पूछा कि यहाँ तो किसी चीज की कमी नहीं होगी? राजवंशी देवी ने सँकुचाते हुए कहा कि गाँव जैसे सूपे नहीं मिलते। कुछ दिनों बाद महादेवी जी का फिर दिल्ली जाना हुआ तो वे राजवंशी देवी के लिए कुछ सूपे ले जाना न भूलीं। सूपे पाकर राजवंशी जी बहुत प्रसन्न हुईं हुए बगल में सूपे रखकर दोनों बातचीत करने लगीं। महादेवी जी के आने का समाचार मिलने पर कुछ देर में राजेंद्र बाबू भी रसोई में आ गए। सूपे देखकर पूछ कि कहाँ से आए तो राजवंशी देवी ने बताया कि बीबी जी (ननद) लाई हैं। राजेंद्र बाबू ने नाज़िर को बुलवाया और बोले सूपे तोशाखाने (वह स्थान जहाँ बेशकीमती उपहार रखे जाते हैं) में रखवा दो और राजवंशी देवी से बोले कि मैं सरकारी पद पर हूँ, मुझे जो उपहार मिले वह सरकार का होता है, हम उसे अपने काम में नहीं ला सकते। राजवंशी जी और महादेवी जी देखती रह गईं और नाज़िर ने वे सूपे तोशाखाने में जमा करवा दिए। आज हर अधिकारी और नेता सरकारी सुख, सुविधा और संपत्ति पर अपना अधिकार समझता है, क्या कोई राजेंद्र बाबू का अनुकरण करेगा?  

बारह वर्षों के लिए राष्ट्रपति भवन राजेंद्र बाबू का घर था। उसकी राजसी भव्यता और शान सुरुचिपूर्ण सादगी में बदल गई थी। राष्ट्रपति का एक पुराना नौकर था, तुलसी। एक दिन सुबह कमरे की झाड़पोंछ करते हुए उससे राजेन्द्र प्रसाद जी के डेस्क से एक हाथी दांत का पेन नीचे ज़मीन पर गिर गया। पेन टूट गया और स्याही कालीन पर फैल गई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बहुत गुस्सा हुए। यह पेन किसी की भेंट थी और उन्हें बहुत ही पसन्द थी। तुलसी पहले भी कई बार लापरवाही कर चुका था। उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुरंत तुलसी को अपनी निजी सेवा से हटा दिया। उस दिन वह बहुत व्यस्त रहे। कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और विदेशी पदाधिकारी उनसे मिलने आये। मगर सारा दिन काम करते हुए उनके दिल में एक काँटा सा चुभता रहा था। उन्हें लगता रहा कि उन्होंने तुलसी के साथ अन्याय किया है। जैसे ही उन्हें मिलने वालों से अवकाश मिला राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया। पुराना सेवक अपनी ग़लती पर डरता हुआ कमरे के भीतर आया। उसने देखा कि राष्ट्रपति सिर झुकाए और हाथ जोड़े उसके सामने खड़े हैं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा- "तुलसी मुझे माफ कर दो।"

तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया।

राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया- "तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?"

इस बार सेवक और स्वामी दोनों की आँखों में आँसू आ गए।
***