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मंगलवार, 16 जुलाई 2019

विमर्श : शैली - शैलेन्द्र

विमर्श 
दो कालजयी रचनाएँ: एक प्रश्न
*
प्रस्तुत हैं शैली और शैलेन्द्र की दो रचनाएँ. शैली की एक पंक्ति ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' और शैलेन्द्र की एक पंक्ति ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें / हम दर्द के सुर में गाते हैं'' के सन्दर्भ में कहा जाता है कि शैलेन्द्र ने शैली की पंक्ति का उपयोग शैली को श्रेय दिए बिना किया है. क्या यह साहित्यिक चोरी है?, क्या ऐसा करना ठीक है? आपकी किसी रचना से एक अंश इस तरह कोई दूसरा उपयोग कर ले तो क्या वह ठीक होगा?
आपका क्या मत है?
*
To a Skylark
BY PERCY BYSSHE SHELLEY
*
Hail to thee, blithe Spirit!
Bird thou never wert,
That from Heaven, or near it,
Pourest thy full heart
In profuse strains of unpremeditated art.
Higher still and higher
From the earth thou springest
Like a cloud of fire;
The blue deep thou wingest,
And singing still dost soar, and soaring ever singest.
In the golden lightning
Of the sunken sun,
O'er which clouds are bright'ning,
Thou dost float and run;
Like an unbodied joy whose race is just begun.
The pale purple even
Melts around thy flight;
Like a star of Heaven,
In the broad day-light
Thou art unseen, but yet I hear thy shrill delight,
Keen as are the arrows
Of that silver sphere,
Whose intense lamp narrows
In the white dawn clear
Until we hardly see, we feel that it is there.
All the earth and air
With thy voice is loud,
As, when night is bare,
From one lonely cloud
The moon rains out her beams, and Heaven is overflow'd.
What thou art we know not;
What is most like thee?
From rainbow clouds there flow not
Drops so bright to see
As from thy presence showers a rain of melody.
Like a Poet hidden
In the light of thought,
Singing hymns unbidden,
Till the world is wrought
To sympathy with hopes and fears it heeded not:
Like a high-born maiden
In a palace-tower,
Soothing her love-laden
Soul in secret hour
With music sweet as love, which overflows her bower:
Like a glow-worm golden
In a dell of dew,
Scattering unbeholden
Its a{:e}real hue
Among the flowers and grass, which screen it from the view:
Like a rose embower'd
In its own green leaves,
By warm winds deflower'd,
Till the scent it gives
Makes faint with too much sweet those heavy-winged thieves:
Sound of vernal showers
On the twinkling grass,
Rain-awaken'd flowers,
All that ever was
Joyous, and clear, and fresh, thy music doth surpass.
Teach us, Sprite or Bird,
What sweet thoughts are thine:
I have never heard
Praise of love or wine
That panted forth a flood of rapture so divine.
Chorus Hymeneal,
Or triumphal chant,
Match'd with thine would be all
But an empty vaunt,
A thing wherein we feel there is some hidden want.
What objects are the fountains
Of thy happy strain?
What fields, or waves, or mountains?
What shapes of sky or plain?
What love of thine own kind? what ignorance of pain?
With thy clear keen joyance
Languor cannot be:
Shadow of annoyance
Never came near thee:
Thou lovest: but ne'er knew love's sad satiety.
Waking or asleep,
Thou of death must deem
Things more true and deep
Than we mortals dream,
Or how could thy notes flow in such a crystal stream?
We look before and after,
And pine for what is not:
Our sincerest laughter
With some pain is fraught;
~Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.
Yet if we could scorn
Hate, and pride, and fear;
If we were things born
Not to shed a tear,
I know not how thy joy we ever should come near.
Better than all measures
Of delightful sound,
Better than all treasures
That in books are found,
Thy skill to poet were, thou scorner of the ground!
Teach me half the gladness
That thy brain must know,
Such harmonious madness
From my lips would flow
The world should listen then, as I am listening now.
-----
हैं सबसे मधुर वो गीत
शैलेन्द्र
*
~हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें
हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी
आँसू भी छलकते आते हैं
हैं सबसे मधुर...
काँटों में खिले हैं फूल हमारे
रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से
दामन को बचाए जाते हैं
हैं सबसे मधुर...
जब ग़म का अन्धेरा घिर आए
समझो के सवेरा दूर नहीं
हर रात का है पैगाम यही
तारे भी यही दोहराते हैं
हैं सबसे मधुर...
पहलू में पराए दर्द बसा के
(तू) हँसना हँसाना सीख ज़रा
तूफ़ान से कह दे घिर के उठे
हम प्यार के दीप जलाते हैं
हैं सबसे मधुर...
***
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

विमर्श

रतन टाटा के सुविचार दोहानुवाद सहित
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
***

सोमवार, 3 सितंबर 2018

vimarsh

विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पिद्दा साहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. नेयाले ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ती लिए भी? देवबली के नाम पर मरे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है की हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और पानी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारीयों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुंचाएं।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

vimarsh

विमर्श  :
भर्तृहरि का कथन है -- को लाभो गुणिसंगमः अर्थात ( लाभ क्या है? गुणियों का साथ ) । 
दिव्यनर्मदा तथा फेसबुक ने मुझे इस साल इस लाभ से परिचित करवाया है। आशा करता हूँ  नये साल में मैं इससे और भी ज्यादा लाभांवित हो सकूँगा। फेसबुक को धन्यवाद और अपने सभी फेसबुक मित्रों का कोटी-क़ोटी आभार। नये साल में हम सभी एक दूसरे के विचारों लाभ प्राप्त कर सके इसी आशा के साथ इस पुराने साल को हार्दिक विदाई। चलते-चलते परमविद्वान डा. राधाकृष्णन की कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ-
"सब से अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है। भले ही वह कितना ही कम, यहाँ तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो?" 
***

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

mukatak, kundali, vimarsh

मुक्तक
मेटते रह गए कब मिटीं दूरियाँ?
पीटती ही रहीं, कब पिटी दूरियाँ?
द्वैत मिटता कहाँ, लाख अद्वैत हो
सच यही कुछ बढ़ीं, कुछ घटीं दूरियाँ
*
कुण्डलिया
जल-थल हो जब एक तो, कैसे करूँ निबाह
जल की, थल की मिल सके, कैसे-किसको थाह?
कैसे-किसको थाह?, सहायक अगर शारदे
संभव है पल भर में, भव से विहँस तार दे
कहत कवि संजीव, हरेक मुश्किल होती हल
करें देखकर पार, एक हो जब भी जल-थल
*
एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ,
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं
भावना के सिंधु में बताशा हैं
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ
प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसके विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है?
आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

vimarsh/chintan

विमर्श / चिंतन 
ब्राह्मण और कायस्थ कौन हैं?
※※※※※※※※

सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य  अपनी योग्यता के अनुसार अपने कर्मों का संपादन कर तदनुसार वर्ण पाता है। एक वर्ण के माता-पिता से जन्मा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कर्म कर तदनुसार वर्ण पा सकता सकता है। चारों वर्ण समान हैं, कोई किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है। ब्राम्हण बुद्धिमान, क्षत्रिय वीर, वैश्य दुनदार तथा शूद्र सेवाभावी है। हर व्यक्ति प्रतिदिन चारों वर्ण हेतु निर्धारित कर्म करता है।    
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। -- यास्क मुनि  
हर व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
(ब्रम्ह कौन है? ब्रम्हं सत्यं जगन्मिथ्या ब्रम्ह सत्य है जगत मिथ्या है। ब्रम्ह भौतिक सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति या परमात्मा है अंश आत्मा के रूप में हर प्राणी ही नहीं जड़ में भी है। इसीलिए कण-कण  या कंकर-कंकर में शंकर कहा जाता है।) जब सभी में परमात्मा का  आत्मा के रूप में है तो कोई ऊँचा या नीचा कैसे हो सकता है? 
———————
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥ -- पतंजलि, (पतंजलि भाष्य ५१-११५)।
''विद्या और तप युक्त योनि में स्थित ही ब्राम्हण है जिसमें विद्या तथा तप नहीं है वह नाममात्रका ब्राह्मण है, पूज्य नहीं। '' 
—————————
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥ -महर्षि मनु 
ईश्वर द्वारा शासित अर्थात सांसारिक शक्तियों से अधिक ईश्वरीय शक्तियों  नियंत्रण माननेवाला ब्राम्हण कहा जाता है।उसका अमंगल चाहना  अनुचित है। '' (मनु; ११-३५)।
————————————
"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो" - वेदव्यास, महाभारत 
—————————
"जो निष्कारण (आसक्ति के बिना) वेदों के अध्ययन में व्यस्त और वैदिक विचार के संरक्षण-संवर्धन हेतु सक्रिय है वही ब्राह्मण हे." - -महर्षि याज्ञवल्क्य, पराशर व वशिष्ठ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति

——————————
"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है"-श्री कृष्ण, भगवदगीता             ----------------------------              
"ब्राह्मण वही है जो "पुंसत्व" से युक्त "मुमुक्षु" है। जो सरल, नीतिवान, वेदप्रेमी, तेजस्वी, ज्ञानी है।  जिसका ध्येय वेदों का अध्ययन-अध्यापन-संवर्धन है।"- शंकराचार्य विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक
—————————
केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। 
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में हैं। 

(क) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | वे ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना कर ब्राम्हण हुए | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(ख) ऐलूष ऋषि दासीपुत्र, जुआरी और दुश्चरित्र थे | बाद में बोध होने पर अध्ययनकर ऋग्वेद पर अनुसन्धान व अविष्कार किये | ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(ग) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु सत्य निष्ठा के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(घ) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
( ङ) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(च) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र क्षत्रिय, प्रपौत्र ब्राम्हण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(छ) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(ज) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(झ) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
() क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए | इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(ट) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(ठ) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(ड) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(ढ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(ण) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(त) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(थ) कश्मीर के महामंत्री कल्हण राजतरंगिणी ग्रन्थ की रचना कर ब्राम्हण हुए, उनके पिता कायस्थ, लीत्तमः ब्राम्हण तथा प्रपितामह कायस्थ थे।  
'सर्वं खल्विदं ब्रह्मं' अर्थात सकल सृष्टि ब्रम्ह है, जो अजन्मा तथा अविनाशी है। थेर्मोडायनामिक्स के अनुसार ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है, न नष्ट होती है उसका रूपांतरण (कायांतरण) ही किया जा सकता है। यह ऊर्जा ही ब्रम्ह है जो न बनाई जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है तथा जिससे सकल सृष्टि का निर्माण होता है। इस ऊर्जा का कोई रूप-आकार भी नहीं है।  यह निराकार है जो कोई भी रूप ले सकती है। निराकार होने के कारण इसका कोई चित्र नहीं है अर्थात चित्र गुप्त है।  यह ऊर्जा जब किसी काया में स्थित होती है तो कायस्थ कही जाती है 'कायस्थिते स: कायस्थ:। परम ऊर्जा ही आत्मा रूप में जड़ को चेतन बनाती है। इससे विज्ञान अभी अपरिचित है।   
परम ऊर्जा जब सृष्टि में निर्माण करती है तो ब्रम्हा, संधारण या पालन करती है तो विष्णु और विनाश करती है तो शंकर कही जाती है। जीवन है तो प्रश् हैं, उत्तर हैं। जीवन नहीं तो प्रश्न या शंकाएं नहीं, तभी शंकर शंकारि (शंका के शत्रु) अर्थात विश्वास कहे गए हैं। 
''भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ'' -तुलसीदास, मानस 
विश्वास में विष का वास भी है, इसलिए शंकर नीलकंठ हैं। 
परमऊर्जा या परमात्मा आत्मा रूप में सकल जगत में होने के कारन सबसे पहले पूज्य कहा गया है'
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनां। " अर्थात चित्र गुप्र (निराकार परमेश्वर) सबसे पहले प्रणाम के योग्य है क्योंकि वह सब देहधारियों में आत्मा रूप में वास करता है।  
*** 

सोमवार, 30 जनवरी 2017

vimarsh

विमर्श 

वीरांगना पद्मिनी का आत्मोत्सर्ग और फिल्मांकन 
*
जिन पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों से मानव जाति सहस्त्रों वर्षों तक प्रेरणा लेती रही है उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना और उन्हें केंद्र में रखकर मन-माने तरीके से फिल्मांकित करना गौरवपूर्ण इतिहास के साथ खिलवाड़ करने के साथ-साथ उन घटनाओं और व्यक्तित्वों से सदियों से प्रेरणा ले रहे असंख्य मानव समुदाय को मानसिक आघात पहुँचाने के कारण जघन्य अपराध है. ऐसा कृत्य समकालिक जन सामान्य को आहत करने के साथ-साथ भावी पीढ़ी को उसके इतिहास, जीवन मूल्यों, मानकों, परम्पराओं आदि की गलत व्याख्या देकर पथ-भ्रष्ट भी करता है. ऐसा कृत्य न तो क्षम्य हो सकता है न सहनीय.

अक्षम्य अपराध
राजस्थान ही नहीं भारत के इतिहास में चित्तौडगढ की वीरांगना रानी पद्मावती को हथियाने की अलाउद्दीन खिलजी की कोशिशों, राजपूतों द्वारा मान-रक्षा के प्रयासों, युद्ध टालने के लिए रानी का प्रतिबिम्ब दिखाने, मित्रता की आड़ में छलपूर्वक राणा को बंदी बनाने, गोरा-बादल के अप्रतिम बलिदान और चतुराई से बनाई योजना को क्रियान्वित कर राणा को मुक्त कराने, कई महीनों तक किले की घेराबंदी के कारण अन्न-जल का अभाव होने पर पुरुषों द्वारा शत्रुओं से अंतिम श्वास तक लड़ने तथा स्त्रियों द्वारा शत्रु के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने के स्थान पर सामूहिक आत्मदाह 'जौहर' करने का निर्णय लिया जाना और अविचलित रहकर क्रियान्वित करना अपनी मिसाल आप है . ऐसी ऐतिहासिक घटना को झुठलाया जाना और फिर उन्हीं पात्रों का नाम रखकर उन्हीं स्थानों पर अपमान जनक पटकथा रचकर फिल्माना अक्षम्य अपराध है. 

जौहर और सती प्रथा 
जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था. जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था. जौहर के ३ चरण होते थे - १. योद्धाओं द्वारा अंतिम दम तक लड़कर मृत्यु का वरण, २. जन सामान्य द्वारा खेतों, अनाज के गोदामों आदि में आग लगा देना, ३. स्त्रियों और बच्चियों द्वारा अग्नि स्नान. इसके पीछे भावना यह थी कि शत्रु की गुलामी न करना पड़े तथा शत्रु को उसके काम या लाभ की कोई वस्तु न मिले. वह पछताता रह जाए कि नाहक ही आक्रमण कर इतनी मौतों का कारण बना जबकि उसके हाथ कुछ भी न लगा.

पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.

हजारों पद्मिनियाँ
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.

आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है. वीरांगना देवी पद्मिनी सदियों से देशवासियों कि प्रेरणा का स्रोत हैं. आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान कि गीत में याद करें ये हैं अपना राजपुताना नाज इसे तलवारों पर ... कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे'.

आत्माहुति पाप नहीं 
मुश्किलों से घबराकर समस्त उपाय किये बिना मरना कायरता और निंदनीय है किन्तु समस्त प्रयास कर लेने के बाद भी मानवीय अस्मिता और गरिमा सहित जीवन संभव न हो अथवा जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया हो तो मृत्यु का वरण कायरता या पाप नहीं है.

देव जाति को असुरों से बचाने के लिए महर्षि दधीचि द्वारा अस्थि दान कर प्राण विसर्जन को गलत कैसे कहा जा सकता है?
क्या जीवनोद्देश्य पूर्ण होने पर भगवन राम द्वारा जल-समाधि लेने को पाप कहा जायेगा?
क्या गांधी जी, अन्ना जी आदि द्वारा किये गए आमरण अनशन भी पाप कहे जायेंगे?
एक सैनिक यह जानते हुए भी कि संखया और शास्त्र बल में अधिक शत्रु से लड़ने पर मारा जायेगा, कारन पथ पर कदम बढ़ाता है, यह भी मृत्यु का वरण है. क्या इसे भी गलत कहेंगी?
जैन मतावलंबी संथारा (एक व्रत जिसमें निराहार रहकर प्राण त्यागते हैं) द्वारा म्रत्यु का वरण करते हैं. विनोबा भावे ने इसी प्रकार देह त्यागी थी  वह भी त्याज्य कहा जायेगा?
हर घटना का विश्लेषण आवश्यक है. आत्मोत्सर्ग को उदात्ततम कहा गया है.

सोचिए-
एक पति के साथ पत्नि के रमण करने और एक वैश्य के साथ ग्राहक के सम्भोग करने में भौतिक क्रिया तो एक ही होती है किन्तु समाज और कानून उन्हें सामान नहीं मानता. एक सर्व स्वीकार्य है दूसरी दंडनीय. दैहिक तृप्ति दोनों से होती हो तो भी दोनों को समान कैसे माना जा सकता है? 

अपने जीवन से जुडी घटनाओं में निर्णय का अधिकार आपका है या आपसे सदियों बाद पैदा होनेवालों का? 

एक अपराधी द्वारा हत्या और सीमा पर सैनिक द्वारा शत्रु सैनिक कि हत्या को एक ही तराजू पर तौलने जैसा है यह कुतर्क. वीरगाथाकाल के जीवन मूल्यों की कसौटी पर जौहर आत्महत्या नहीं राष्ट्र और जाति के स्वाभिमान कि रक्षा हेतु उठाया गया धर्म सम्मत, लोक मान्य और विधि सम्मत आचरण था जिसके लिए अपार साहस आवश्यक था. १५००० स्त्रियों का जौहर एक साथ चाँद सेकेण्ड में नहीं हो सकता था, न कोई इतनी बड़ी संख्या में किसी को बाध्य कर सकता था. सैकड़ों चिताओं पर रानी पद्मावती और अन्य रानियों के कूदने के बाद शेष स्त्रियाँ अग्नि के ताप, जलते शरीरों कि दुर्गन्ध और चीख-पुकारों से अप्रभावित रहकर आत्मोत्सर्ग करती रहीं और उनके जीवनसाथी जान हथेली पर लेकर शत्रु से लड़ते हुई बलिदान की अमर गाथा लिख गए जिसका दूसरा सानी नहीं है. यदि यह गलत होता तो सदियों से अनगिनत लोग उन स्थानों पर जाकर सर न झुका रहे होते. 

अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन न करने वाले, सिर्फ मौज-मस्ती और धनार्जन को जीवनोद्देश्य माननेवाले अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता कि आड़ में सामाजिक समरसता को नष्ट कर्ण का प्रयास कैसे कर सकते हैं? लोक पूज्य चरित्रों पर कीचड उछालने कि मानसिकता निंदनीय है. परम वीरांगना पद्मावती के चरित्र को दूषित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास सिर्फ निंदनीय नहीं दंडनीय भी है. शासन-प्रशासन पंगु हो तो जन सामान्य को ही यह कार्य करना होगा.

***

बुधवार, 18 जनवरी 2017

vimarsh

विमर्श 
न्याय और दंड 
न्यायालय ने रिहा कर दिया तो क्या हुआ? हम आम लोग  सलमान खान को उनकी फिल्मों का बहिष्कार कर दंड दे सकते हैं। मैं अब सलमान खान की कोई फिल्म नहीं देखूँगा। आप?

रविवार, 15 जनवरी 2017

vimarsh

विमर्श-
गाँधी जी अपने विचारों और आचरण के लिए अनुकरणीय हैं अपने द्वारा उपयोग किये गए उपकरणों (चरखा, तकली, लाठी, चश्मा आदि) के लिए ???

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

vimarsh

विमर्श:
नाद छंद का मूल है

सृष्टि का मूल ही नाद है. योगी इसे अनहद नाद कहते हैं इसमें डूबकर परमात्म की प्रतीति होती है ऐसा पढ़ा-सुना है. यह नाद ही सबका मूल है.यह नाद निराकार है, इसका चित्र नहीं बन सकता़, इसे चित्रगुप्त कहा गया है. नाद ब्रम्ह की नियमित आवृत्ति ताल ब्रम्ह को जन्म देती है. नाद और ताल जनित तरंगें अनंत काल तक मिल-बिछुड़ कर भारहीन कण और फिर कई कल्पों में भारयुक्त कण को जन्म देती हैं. ऐसा ही एक कण 'बोसॉन' चर्चित हो चुका है. इन कणों के अनंत संयोगों से विविध पदार्थ और फिर जीवों का विकास होता है. नाद-ताल दोनों अक्षर ब्रम्ह है. ये निराकार जब साकार (लिपि) होते हैं तो शब्द ब्रम्ह प्रगट होता है. चित्रगुप्त के 3 रूप जन्मदाता, पालक और विनाशक तथा उनकी आदि शक्तियों (ब्रम्हा-महा शारदा, विष्णु-महालक्ष्मी, शिव-महाकाली) के माध्यम से सृष्टि-क्रम बढ़ता है. विष्णु के विविध अवतार विविध जीवों के क्रमिक विकास के परिचायक हैं. जैन तथा बौद्ध जातक कथाएँ स्पष्ट: is कहती हैं कि परब्रम्ह विविध जीवों के रूप में आता है. ध्वनि के विविध संयोजनों से लघु-दीर्घ वर्ण और वर्णों के सम्मिलन से शब्द बनते हैं. शब्दों का समुच्चय भाषा को जन्म देता है. भाषा भावों कि वाहक होती है. संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ भाषाश्रित होकर एक से अनेक तक पहुँचती हैं. ध्वनि के लघु-गुरु उच्चारण विविध संयोजनों से विविध लयों का विकास करते हैं. इन लयों से राग बनते हैं. शब्द-संयोजन छंद को जन्म देते हैं. लय राग और छंद दोनों के मूल में होती है. लय की अभिव्यक्ति नाद से कंठ, ताल से वाद्य, शब्द से छंद , रेखाओं से चित्र तथा मुद्राओं से नृत्य करता है.सलिल-प्रवाह की कलकल, पक्षियों का कलरव भी लय की ही अभिव्यक्ति है. लय में विविध रस अन्तर्निहित होते हैं. रसों की प्रतीति भाव-अनुभाव करते हैं. लेखन, गायन तथा नर्तन तीनों ही रसहीन होकर निष्प्राण हो जाते हैं. आलाप ही नहीं विलाप में भी लय होती है. आर्तनाद में भी नाद तो निहित है न? नाद तो प्रलाप में भी होता है, भले ही वह निरर्थक प्रतीत हो. मंत्र, श्लोक और ऋचाएँ भी विविध स पड़ा हैलयों के संयोजन हैं. लय का जानकार उन्हें पढ़े तो रस-गंगा प्रवाहित होती है, मुझ जैसा नासमझ पढ़े तो नीरसता कि प्रतीति होती है. अभ्यास और साधना ही साधक को लय में लीन होने कि पात्रता और सामर्थ्य प्रदान करते हैं.

यह मेरी समझ और सोच है. हो सकता है मैं गलत हूँ. ऐसी स्थिति में जो सही हैं उनसे मार्गदर्शन अपेक्षित है.
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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

chintan / vimarsh

चिन्तन / विमर्श 
चरण स्पर्श क्यों?
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चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता प्रदर्शन है।

रविवार, 17 जुलाई 2016

व्यंग्य लेख

व्यंग्य लेख-
अभियांत्रिकी शिक्षा और जुमलालॉजी 
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                 आजकल अभियांत्रिकी शिक्षा पर गर्दिश के बादल छाये हैं। अच्छी-खासी अभियांत्रिकी शिक्षा को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई समझ कर प्रशासनिक और राजनैतिक देवरों ने दिनदहाड़े रेपते हुए उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अंक सूची के आधार पर हो रहे चयन रूपी पति से तीन तलाक दिलाये बिना पहले पूर्व अभियांत्रिकी परीक्षा (पी. ई. टी.) नाम के गाहक और बाद में व्यापम नामक दलाल के हवाले कर दिया। फलतः, सती सावित्री की बोली लगनी आरम्भ हो गयी। कुएँ में भाग घुली हो तो गाँव में होश किसे और कैसे हो सकता है? गैर तो गैर अपने भी तकनीकी शिक्षा संस्थानों का चकलाघर खोलकर लीलावती रूपी छात्रवृत्ति और कलावती रूपी उपाधि खरीदने-बेचने में संलग्न होते भए।

                 हम तो परंपरा प्रेमी हैं। द्रौपदी का चीर-हरण होता हो तो नेत्रहीन धृतराष्ट्र में भी कुछ न कुछ देख लेने की चाह पैदा हो जाती है। ब्रह्चारी भीष्म भी निगाहें झुकी होने का प्रदर्शन कर, दर्शन करने से नहीं चूकते। द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे ब्रम्हविद असार संसार में सार खोजते हुए, कण-कण में भगवान् की उपस्थिति का साक्ष्य चीरधारिणी में पाने का प्रयास करें तो उनकी तापस प्रवृत्ति पर तामस होने का संदेह करना सरासर गलत है। और तो और विरागी विदुर और सुरागी शकुनि भी बहती गंगा में हाथ धोनेवालों में सम्मिलित रहे आते हैं किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं करते।
                 आज के अखबार में खबर है कि राजस्थान के एक विद्यालय की तीन छात्राओं ने अपनी ही कक्षा की चौथी छात्रा को रैगिंग का विरोध करने पर मार-पीटकर चीयर हरण कांड को सफलतापूर्वक संपन्न किया।यह ट्रीट तो है नहीं की कोई कृष्ण बिना आधार कार्ड देखे चीर वृद्धि कर पीड़िता की रक्षा करे। संभवत: ये होनहार छात्राएँ परंपरा प्रेमी हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण रूपी तीनों छात्राएँ भली-भाँति जानती हैं कि अभिभावक रूपी धृतराष्ट्र, प्रबंधन रूपी भीष्म और और विदुर रूपी प्रशासन चिल्ल पों के अलावा कुछ नहीं कर सकते। यह भी की नेत्रहीन पति की आँखें बनने के स्थान पर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर महासती होने का पाखण्ड रच, पद्म सम्मान पा चुकी गांधारी चीर हरण की साक्षी हो सकती थीं तो आज की पढ़ी-लिखी, सभ्य- सुसंस्कृत (?), सबला (स-बला) किशोरी क्यों पीछे रहे?
                 इसी समाचार पत्र में अन्यत्र कुछ किशोरियों द्वारा अन्यत्र एक किशोर को निर्वस्त्र करने के दुष्प्रयास (?) का भी समाचार है। ऐसी साहसी बच्चियों से देश गौरवान्वित होता है। सत्य को ब्रम्ह माननेवाले देश का भविष्य गढ़नेवाले बच्चे कपड़ों के भीतर का सच जानने का प्रयास कर अपनी सत्यनिष्ठा ही तो दर्शा रहे हैं। हमारे बच्चों में मानव के मूल स्वरूप को देखने और जानने की इस उत्कंठा का स्वागत हो या न हो, उन्हें जो करना है, कर रहे हैं। 'तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं' की दकियानूसी सोच को तिलांजलि देकर नयी पीढ़ी 'मन से मन मिलन हो न पाया क्या, तन से तन का मिलन कोई कम तो नहीं' के प्रगतिवादी सोच को मूर्त रूप दे कर क्रांति कर रही है।
                 स्त्री विमर्श की आड़ में पुरुष को देहधर्मी आरोपित कर, अपनी देह दर्शाते फिर रही आधुनिकाओं को अपनी (अपने पति की नहीं) बच्चियों के इन वीरोचित कार्यों पर भीषण गर्व अनुभव हो रहा होगा कि उनकी पीढ़ी को तो निर्वसन दौड़ने के लिए भी शिक्षा पूर्ण कर अभिनेत्री बनने तक का समय लगा पर भावी पीढ़ी यह दिशा विद्यालयों की कच्ची उम्र से ही ग्रहण कर रही है। इनका बस चले तो ये 'बाँह में हो और कोई, चाह में हो और कोई' ध्येय वाक्य हर विद्यालय के हर कक्ष में लिखवा दें ताकि पुरातनपंथी छात्र-छात्राएँ प्रेरित हो सकें।
                 भारत प्रगतिशील राष्ट्रों की क़तार में सम्मिलित हो सके इसलिए राष्ट्रवादी नेतागण अपने गृहस्थ जीवन का पथ छोड़कर, विवाहित होकर भी अविवाहित की तरह रहते हुए प्राण-प्राण से सकल विश्व की परिक्रमा कर रहे हैं। ये किशोर उनका जयकार करते हुए सेल्फी तो लेना चाहते हैं पर उनका अनुकरण नहीं करना चाहते। एक चित्रपटीय गीत में सनातन सत्य की उद्घोषणा की गयी है "इंसान था पहले बन्दर" । हमारे किशोर बंदर को निर्वसन देखकर, खुद साहस न कर सकें तो किसी अन्य को बंदर की तरह देखने का लोभ क्यों और कैसे संवरण करें? यह समझने में हमारे अभिभावक, परिवार, विद्यालय, गुरुजन, शिक्षा प्रणाली, धर्म, गुरु, न्याय व्यवस्था सभी अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इसका कारण केवल एक ही हो सकता है कि सामाजिक और सामूहिक स्तर पर स्वयं को उदासीन और संयमित प्रदर्शित करने के बाद भी हम, स्त्री-पुरुष दोनों कहीं न कहीं उर्वशियों, मेनकाओं औे रम्भाओं के प्रति आकर्षित हो उन्हें पाना या उन जैसा बनना चाहते रहे हैं। तभी तो अंतरजाल पर वयस्क तरंग-स्थल (एडल्ट वेब साइट) देखनेवालों की संख्या अन्य से बहुत अधिक है।मानव मन के चिंतन और मानव तन के आचरण के मध्य सेतु निर्मित करनेवाली अभियांत्रिकी का विकास अभी नहीं हो सका है किन्तु भविष्य में भी नहीं होगा यह तो कोई नहीं कह सकता। बंद होने का खतरा झेल रहे अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में नग्नता यांत्रिकी का पाठ्यक्रम आरम्भ करते ही छात्र-छात्राओं की ऐसी भीड़ उमड़ेगी की चप्पे-चप्पे में अभियांत्रिकी महाविद्यालय खोलने पड़ेंगे।
                 आप सहमत नहीं तो चलिए नयी दिशा तलाश करें। आज के ही समाचार पत्र में समाचार है कि न्यायालयों ने दो राज्यों में राज्यपालों की अनुशंसाओं पर केंद्र सरकार द्वारा अपदस्थ की गयी सरकारों को न केवल पुनः पदस्थ कर दिया अपितु पूर्ववर्ती वैकल्पिक सरकारों द्वारा लिए गए निर्णयों और घोषित की गयी नीतियों को भी निरस्त कर दिया। स्पष्ट है कि प्रधान मंत्री की अपार जनप्रियता को भुनाने की बचकानी शीघ्रता कर रहे दलाध्यक्ष मित-सत्ता (किसी राज्य में है, किसी में नहीं है) से संतुष्ट न होकर अमित सत्ता पाने की फिराक में हैं। वे तो अमित भी हैं और शाह भी, फिर किसी और को कहीं भी सत्तासीन कैसे देख सकते हैं? उन्होंने श्री गणेश एक दल मुक्त भारत की घोषणा कर और अपने दल के संसदीय दल-नेता से कराकर भले ही किया है किन्तु उनकी मंशा तो विपक्ष मुक्त भारत की थी, है और रहेगी। भारत का संविधान उनकी इस मंशा को मौलिक अधिकार मानकर मौन भले रहे, जनता और न्याय व्यवस्था पचा नहीं पा रही।
                 दलीय दलदल की राजनीति में कमल खिलाने, तिनके (तृण मूल) उगाने, पंजा दिखाने, लालटेन जलाने, पहिया घुमाने, हाथी चलाने, साइकिल दौड़ाने और हँसिया-हथौड़ा उठाने के इच्छुकों के सामने एक ही राह शेष है। बंद होते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों का अधिग्रहण कर उनमें अपने-अपने दल के अनुरूप सामाजिक यांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) का पाठ्यक्रम चला दें। यह घोषणा भी कर दें कि इन पाठ्यक्रमों में विशेष योग्यता प्राप्त जन ही उम्मीदवार और चुनाव प्रबंधक होंगे। आप देखेंगे की गंजों के सर पर बाल लहलहाने की तरह, सियासत की शूर्पणखा को वरने के लिये तमाम राम, लक्ष्मण, रावण और विभीषण भी क़तार में लगे मिलेंगे।
                 'राजनीति विज्ञान है या कला?' इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने में असफल रही सभ्यता की दुहाई देनेवाले क्या जानें कि राजनीति आगामी अनेक पीढ़ियों के लिए ही नहीं अगले जन्म के लिये भी धन-संपदा जोड़-जोड़कर विदेशों में रख जाने का पेशा है। दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होने को अजूबा माननेवाले कैसे समझेंगे कि राजनीति में स्वार्थनीति, सत्तानीति, दलनीति के अनुसार एक ही नेता के अनेक मत होते हैं। 'सत्य एक होता है जिसे विद्द्वज्जन कई प्रकार से कहते हैं' माननेवाले कैसे स्वीकारेंगे कि हर नेता के कई सत्य होते हैं जो संसद से सड़क तक, टी.व्ही. से बीबी तक बदलते रहते हैं।
                 कोई सत्यर्षि या ब्रम्हर्षि अपनी चादर को राज्यर्षि से अधिक सफ़ेद कैसे कह सकता है? आप ही बतायें कि एक चादर दाग न लकने पर सफेद दिखे और दूसरी का कण-कण दागों से काल होने पर भी सफ़ेद दिखाई जाए दमदार कौन सी हुई? राज्यर्षि जानता है कि 'आया सो जाएगा' इसलिए मोह-माया से पर रहता है। वह एक पत्नी की रुग्ण देह को बिस्तर पर छोड़कर, बेटी से कम उम्र की प्रेमिका की बाँह में बाँह डालकर 'चलो दिलदार चलो', ' ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ' से 'हम-तुम एक कमरे में बंद हों' गाते हुए गम गलत करता है। आम आदमी इस 'प्रेमिकालॉजी' रहस्य कैसे समझ सकते हैं? इसकी यांत्रिकी भी बंद हो रहे महाविद्यालयों को नवजीवन दे सकती है।
                 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवजीवन देने वाली एक विधा और है जिसे 'जुमलालॉजी' कहते हैं। यह नवीनतम आविष्कृत विधा है। इसमें प्रवीणता, दक्षता और कुशलता न हो तो गंजा पंजा को पराभूत कर देता है और यदि आप इस विधा के विशेषज्ञ हैं तो चाय बेचने से आरम्भ कर प्रधानमंत्री बनने तक की यात्रा कर सकते हैं। इन तमाम विधाओं की यांत्रिकी शिक्षा जो महाविद्यालय देगा उसमें प्रवेश पाने के इच्छुकों की संख्या भारत की जनसंख्या, राजनेता के झूठ, प्रगतिवादियों के पाखण्ड, आतंवादियों के दुराचार, भारतीय संसद के विवादों, खबरिया चैनलों के संवादों, आरक्षणजनित परिवादों, अभिनेत्रियों के नातों, पत्रकारों की बातों और पाकिस्तान को पड़ रही लातों की तरह 'है अनंत हरि कथा अनंता' होगी ही। नाम मात्र की नकली उपाधि लेकर शालेय शिक्षा प्राप्त करने, चिकित्सक या मानव संसाधन मंत्री बनने के इच्छुक छात्रों से प्रथम वरीयता पाकर ऐसे महाविद्यालय हेमामालिनी के गालों की तरह चिकनी सड़कें बनाने, कलम तराजू और तलवार को जूते मारने, अगणित कपडे और पादुकाएँ जुटाने, अपनी प्रतिमा आप लगवाने, दामाद को रोडपति से करोड़पति बनाने के विशेष पाठ्य चलाकर देवानंद की तरह सदाबहार हो ही जायेंगे, इसमें संदेह नहीं। 
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बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

vimarsh: shabd-arth

विमर्श: शब्द और अर्थ  

मनुष्य अपने मनोभाव अन्य तक पहुँचाने के लिए भाषा का प्रयोग करता है. भाषा सार्थक शब्दों का समुच्चय होती है. 

शब्दों के समुचित प्रयोग हेतु बनाये गए नियमों का संकलन व्याकरण कहा जाता है. भाषा जड़ नहीं चेतन होती है. यह देश-काल-परिस्थिति जनित उपादेयता के निकष पर खरी होने पर ही संजीवित होती है. इसलिए देश-काल-परिस्थिति के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते भी हैं. 

एक शब्द है 'जात' या उससे व्युत्पन्न 'जाति'। बुंदेलखंड में कोई भला दिखने वाला निम्न हरकत करे तो कहा जाता है 'जात दिखा गया' जात = असलियत, सच्चाई।  'जात  न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान' अर्थात साधु से उसकी असलियत क्या पूछना? उसका ज्ञान ही उसकी सच्चाई है. जात से ही जा कर्म = जन्म देना = गर्भ में गुप्त सचाई को सामने लाना, जातक-कथा = विविध जीवों के रूप में जन्में बोधिसत्व का सच उद्घाटित करती कथाएं आदि शब्द-प्रयोग अस्तित्व में आये। जाति शब्द को जातिवाद तक सीमित करने से वह सामाजिक बुराई का प्रतीक हो गया. हम चर्चाकारों की भी एक जाति है.  

आचार और विचार दोनों सत्य हैं. विचार मन का सत्य है आचार तन का सत्य है. एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है. मेरी माता जी मैनपुरी उत्तर प्रदेश से विवाह पश्चात जबलपुर आईं. पिताजी उस समय नागपुर में जेलर पदस्थ थे. माँ ने एक सिपाही की शिकायत पिताजी से की कि उसने गलत बात कही. पूछने पर बहुत संकोच से बताया की उसने 'बाई जी' कहा. पिताजी ने विस्मित होकर पूछा कि गलत क्या कहा? अब माँ चकराईं कि नव विवाहित पत्नी के अपमान में पति को गलत क्यों नहीं लग रहा? बार-बार पूछने पर बता सकीं कि 'बाई जी' तो 'कोठेवालियाँ' होती हैं 'ग्रहस्थिनें' नहीं। सुनकर पिता जी हँस पड़े और समझाया कि महाराष्ट्र  में 'बाई जी'' का अर्थ सम्मानित महिला है. यह नवाबी संस्कृति और लोकसंस्कृति में 'बाई' शब्द के भिन्नार्थों के कारण हुआ. मैंने बाई का  प्रयोग माँ, बड़ी बहन के लिये भी होते देखा है.

आचार्य रजनीश की किताब 'सम्भोग से समाधि' के शीर्षक को पढ़कर ही लोगों ने नाक-भौं सिकोड़कर उन पर अश्लीलता का आरोप लगा दिया जबकि उस पुस्तक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था. 'सम्भोग'  सृष्टि का मूलतत्व  है. 

सम = समान, बराबरी से (टके सेर भाजी, टके सेर खाजा वाली समानता नहीं), भोग = आनंद प्राप्त करना। जब किन्हीं लोगों द्वारा सामूहिक रूप से मिल-जुलकर आनंद प्राप्त किया जाए तो वह सम्भोग होगा। दावत, पर्व, कविसम्मेलन, बारात, मेले, कक्षा, कथा, वार्ता, फेसबुक चर्चा आदि  में  सम भोग  ही  होता है किन्तु इस शब्द को देह तक सीमित कर दिये जाने ने समस्या  खड़ी कर दी. हम-आप इस विमर्श में सैम भोगी हैं तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? गृहस्थ जीवन में हर सुख-दुःख को सामान भाव से झेलते पति-पत्नी सम्भोग कर रहे होते हैं. इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है. संतानोत्पत्ति अथवा आनंदानुभूति हेतु की गयी यौन क्रीड़ा में भी दोनों समभागी होने के कारन सम्भोग करते कहे जाते हैं किन्तु इससे शब्द केवल अर्थ तक सीमिता मान लिया जाना गलत है.  

तात्पर्य यह कि शब्दों का प्रयोग किये जाते समय सिर्फ किताबी- वैचारिक पक्ष नहीं सामाजिक-व्यवहारिक पक्ष भी देखना होता है. रचनाकार को तो अपने पाठक वर्ग का भी ध्यान रखना होता है ताकि उसके शब्दों से वही अर्थ पाठक तक पहुँचे जो वह पहुँचाना चाहता है. 

इस सन्दर्भ में आप भी अपनी बात कहें 

रविवार, 7 सितंबर 2014

vimarsh: nare aur netagiri -sanjiv

विमर्श:

नारे और नेतागिरी: 

संजीव 
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नारे और नेतागिरी का चोली- दामन का सा साथ है। नारा लगाना अर्थात अपनी बात अनगिन लोगों तक एक पल में पहुँचाना और अर्थात अनगिन लोगों की आवाज़ अपने आवाज़ में मिलवाकर उनका नायक बन जाना।  

नारा कठिन बात को सरल बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि आम आदमी भी दिमाग पर जोर दिए बिना समझ सके।   

नारा 'देखें में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तर्ज़ पर कम से कम शब्दों में लंबी बात कहता है।

नारा किसी बात को प्रभावशाली तरीके से कहता है। 

बहुधा नारा सुनते ही नारा देनेवाला स्मरण हो आता है. 'बम भोले' से भगवन शिव, 'राम-राम' से श्री राम, 'कर्मण्यवाधिकारस्ते' से श्री कृष्ण का अपने आप स्मरण हो आता है। उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' (उठो, जागो, मनचाहा प्राप्त करो) से स्वामी विवेकानंद, स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है' से लोकमान्य तिलक याद आते हैं। 'इंकलाब ज़िंदाबाद' से अमर क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह  और  'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' या 'जय हिन्द' सुनते ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में सर झुक जाता है। 'अंग्रेजों भारत छोडो' सुनकर गांधी जी, पंचशील का सार 'जियो और जीने दो' सुनकर जवाहरलाल  नेहरू, 'जय जवान जय किसान' सुनकर लाल बहादुर शास्त्री को कौन याद नहीं करता?  

भरत के प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी जी ने नारा कल को नारा विज्ञानं में परिवर्तित करने का प्रयास किया है। हर स्थान और योजना के अनुरूप विचारों को सूत्रबद्ध कर लोक-लुभावन शब्दावली में प्रस्तुत करने में मोदी जी का सानी नहीं ।  

- प्रधानमंत्री नहीं प्रधानसेवक 

- इ गवर्नेंस की तरह ईजी गवर्नेंस 

- चीन से स्पर्धा हेतु ३ एस: स्किल (कुशलता), स्केल (परिमाण/पैमाना), स्पीड (गति)

- आर्थिक छुआछूत: साधनहीनों को बैंक प्रणाली से जोड़ना 

- भारत-नेपाल रिश्ते: एच आई टी : हाई वे, इंफोर्मेशन वे, ट्रांसमिशन वे 

- लेह: ३ पी प्रकाश, पर्यावरण, पर्यटन 

- जापान ३ डी: डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी, डिमांड 

- ज़ीरो इफेक्ट - ज़ीरो डिफेक्ट 

-  मेड इन इंडिया, मेक इन इंडिया 

- किसान समस्या: लैब टू लैंड, पर ड्राप मोर क्रॉप, कम जमीन कम समय अधिक फसल 

- ५ टी: ट्रेडिशन, टैलेंट, टूरिज्म, ट्रेड, टेक्नोलॉजी 

यह है मात्र १०० दिनों की उपलब्धि, इस गति से ५ वर्षों में एक पुस्तक सूत्रों की ही तैयार हो जाएगी।

निस्संदेह ये सूत्र और नारे अख़बारों की सुर्खियां बनेंगे किन्तु इनकी द्रुत गति से बढ़ती संख्या क्या इन्हें अल्पजीवी और विस्मरणीय नहीं बना देगी? 

क्या हर दिन नया नारा देने के स्थान पर एक नारे को लेकर लंबे समय तक जनमानस को उत्प्रेरित करना अधिक उपयुक्त न होगा? 

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

vimarsh: rough- fair -S.N.Sharma 'kamal' -sanjiv

विमर्श :
आ० आचार्य जी , निम्नलिखित वाक्य में रफ और फेयर के लिए हिंदी के शब्द क्या होंगे ?
यह रफ लिखा है इसे फेयर करना है "
यह प्राथमिक/प्रारंभिक लिखा है, अंतिम रूप देना है.
रफ-फेयर के लिए कच्चा-पक्का का उपयोग मुझे कम रुचता है
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

विमर्श: अयोध्या विवाद और रचनाकार --- संजीव 'सलिल'

विमर्श:
 
अयोध्या विवाद और रचनाकार

संजीव 'सलिल'
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अवध को राजनीति ने सत्य का वध-स्थल बना दिया है. नेता, अफसर, न्यायालय, राम-भक्त और राम-विरोधी सभी सत्य का वध करने पर तुले हैं.

हम, शब्द-ब्रम्ह के आराधक निष्पक्ष-निरपेक्ष चिन्तन करें तो विष्णु के एक अवतार राम से सबंधित तथ्यों को जानना सहज ही सम्भव है. राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुसार '' राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है / कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है.''

राम का सर्वाधिक अहित राम-कथा के गायकों ने किया है. सत्य और तथ्य को दरकिनार कर राम को इन्सान से भगवान बनाने के लिये अगणित कपोल कल्पित कथाएँ और प्रसंग जोड़ेकर ऐसी-ऐसी व्याख्याएँ कीं कि राम की प्रामाणिकता ही संदेहास्पद हो गयी.

अब भगवान का फैसला इन्सान के हाथ में है. क्या कभी ऐसा करना किसी इन्सान के लिये संभव है ?

स्व. धर्मदत्त शुक्ल 'व्यथित' की पंक्तियाँ हैं:

''मेरे हाथों का तराशा हुआ, पत्थर का है बुत.
कौन भगवान है सोचा जाये?''

और स्व. रामकृष्ण श्रीवास्तव कहते हैं:

''जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं .
उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है ..
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी-
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है..''

और महाकवि दिनकर जी लिख गए हैं कि जो सच नहीं कहेगा समय उसका भी अपराध लिखेगा.

इस संवेदनशील समय में हम मौन रहें या सत्य कहें? आप सब आमंत्रित हैं अपने मन की बात कहने के लिये कि आप क्या सोचते हैं?

इस समस्या का सत्य क्या है?

क्या ऐसे प्रसंगों में न्यायालय को निर्णय देना चाहिए?

कानून और आस्था में से किसे कितना महत्त्व मिले?

निर्णय कुछ भी हो, क्या उससे सभी पक्ष संतुष्ट होंगे?

आप अपने मत के विपरीत निर्णय आने पर भी उसे ठीक मान लेंगे या अपने मत के पक्ष में आगे भी डटे रहेंगे?

उक्त बिन्दुओं पर संक्षिप्त विचार दीजिये.

सत्य रूढ़ होता नहीं, सच होता गतिशील.
'सलिल' तरंगों की तरह, कहते हैं मतिशील..

साथ समय के बदलता, करते विज्ञ प्रतीति.
आप कहें है आपकी, कैसी-क्या अनुभूति?? 

हमने जैसा अनुमाना था वैसा ही हो रहा है. न्यायालय ने चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी बाँट दी. संतुष्ट कोई भी नहीं हुआ. असंतुष्ट सभी हैं. तीनों पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में जाने को तैयार हैं. वहाँ का निर्णय होने तक न वादी-परिवादी रहेंगे... न संवादी-विवादी... बचेगी वह पीढी जो अभी पैदा नहीं हुई या जो अभी बची है. उस पीढ़ी के लिये तब की समस्याएँ अधिक प्रासंगिक होंगी और इस मुद्दे के लिये किसी के पास समय ही ना होगा. 

क्या अधिक अच्छा न होगा कि हम विरसे में विवाद नहीं संवाद छोड़ें? अवसरवादी मुलायम सिंह को मुस्लिमों की फटकार एक अच्छा संकेत है. यह भी सत्य है कि कोंग्रेस ने मुस्लिम हित-रक्षक होने की आड़ में मुसलमानों को ही ठगा और भारतीय जनता दल ने हिन्दूपरस्त होने का धों कर हिन्दुओं की पीठ में छुरा भोंका. राजनीति में दिखना और होना दो अलग-अलग बातें हैं. वस्तुतन कोंगरे और भा.ज.पा. एक ही थैली के चट्टे-बट्टे की तरह हैं. दोनों मध्यमवर्गीय पूँजीवादी दल हैं. दोनों जातिवाद की बहाती में धर्म का ईंधन लगाकर देश को आग में खोंके रखकर सत्ता पर काबिज रहना चाहती हैं. दोनों का साँझा लक्ष्य वैचारिक रूप से तीसरे और चौथे खेमे अर्थात साम्यवादियों और समाजवादियों को सत्ता में न आने देना है ताकि सत्ता पर दोनों मिल-बाँटकर काबिज़ रहें. 

दोनों को देश के पूजीपति इसलिए पाल रहे हैं कि जिसकी भी सरकार हो उनका हित सुरक्षित रहे. दोनों दल आई. ए. एस. अफसरों और जन प्रतिनिधियों को भोग-विलास का हर साधन उपलब्ध कराकर जन सामान्य का खून चूसने और गरीबों और दलितों को ठगने के हिमायती हैं. वैचारिक एकरूपता होते हुए भी ये आपस में कभी एक सिर्फ इसलिए नहीं होते कि ऐसी स्थिति में सत्ता अन्य खेमे में न चली जाए. 

अयोध्या में खुद को मुसलमानों की हितैषी बतानेवाली कोंग्रेस ने ही मंदिर के तले खुलवाये, मूर्तियाँ रखवाईं , पूजन प्राम्भ कराया और  ढाँचा गिरने तक मौन साधे रखा. इस तरह मुसलमानों को सरासर धोखा दिया. दूसरी ओर भा.ज.पा. ने सत्ता में रहते हुए भी मंदिर न बनने देकर हिन्दुओं को ठगा. भविष्य में इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आना है. वर्षों पहले भारतीय मुसलमानों को यह सलाह दी गयी थी कि अयोध्या, काशी और मथुरे की तीन मस्जिदों को हटाकर वे हिन्दू भाइयों के साथ गंगा-यमुना की तरह एक हो सकें तो सभी का भला होगा पर दोनों तरफ के विघ्न संतोषियों ने यह न होने दिया. 

देश के हर धर्म-बोली के बच्चे बिना किसी भेदभाव के आपस में शादी-ब्याह कर साझा संस्कृति विकसित करना चाहते हैं पर हम में से हर एक  आपने अहम् की खाप पंचायत में उन्हें जीते जी मरने के लिये कटिबद्ध हैं. काश मंदिर-मस्जिद को भूलकर हम नव जवान पीढी की सोच में खुद को ढाल सकें और राम-रहीम को एक साथ पूज सकें. 
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