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गुरुवार, 11 सितंबर 2025

सितंबर ११, कुण्डलिया, बुंदेली, दोहा, पुराण, बघेली, हाइकु, पूर्णिका, महादेवी, आग्नेय महापुराण, स्कन्द पुराण

सलिल सृजन सितंबर ११
*
मुक्तक 
दोस्त हों गर जिंदगी में जिंदगी हो जिंदगी सी
दोस्त ही जब जिंदगी हों जिंदगी हो बंदगी सी
दोसत बिन सुनसान बियाबान होती जिंदगी
दोस्त जब भुजपाश में ले जिंदगी हो चंदनी सी
***
पूर्णिका 
० 
भोर दिन साँझ झुककर नमन कीजिए 
ईश को नित सुमिरिए भजन कीजिए 
आचरण से न मन हो किसी का दुखी 
मीत! ऐसा ही निशि-दिन जतन कीजिए 
हाथ थामा अगर छोड़ना फिर नहीं 
दीप-बाती सी मन की लगन कीजिए 
प्रेम करिए, न डरिए किसी से कभी 
श्वास सुधि से सुवासित हवन कीजिए 
काम से काम हो किंतु निष्काम हो 
नाम गुमनाम रख, मन मगन कीजिए 
है बिछौना धरा, हैं दिशाएँ वसन 
आसमां छत प्रकृति को सदन कीजिए 
धूप हो, छाँह हो, शीत हो, घाम हो 
हो न विचलित सलिल, चुप सहन कीजिए
११.९.२०२५
०००
राधा जयंती
आ राधे आराधे तुझको सरला वसुधा कर संतोष।
छाया पा रुचि भक्ति सुनीता, सुमन मुकुल अर्पित जयघोष।।
धारा राधा को उर में, कर लीला लाला अमर हुआ।
सलिल कर रहा पद प्रक्षालन, मिले कृपा है यही दुआ।।
११.९.२०२४
•••
कुण्डलिया
है अनामिका नाम पर खूब कमाया नाम।
रामानुज तनया बनीं प्राध्यापक सरनाम ।।
प्राध्यापक सरनाम नृत्य-संगीत प्रवीणा।
कंठ शारदा-वास, वाक् ज्यों बाजे वीणा।।
'सलिल' करे अभिषेक, कर्मरत रहीं निष्काम।
नाम मिल भरपूर पर, है अनामिका नाम।।
११.९.२०२४
***
हिंदी साहित्य की सरस्वती महादेवी जी
*
जन्म और परिवार
महादेवी का जन्म २६ मार्च १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें कुल की देवी, महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं। वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, मांसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद्र जोशी एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा
महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
वैवाहिक जीवन
सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके संबंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।
महादेवी का रचना संसार
महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।
१. नीहार (१९३०)
२. रश्मि (१९३२)
३. नीरजा (१९३४)
४. सांध्यगीत (१९३६)
५. दीपशिखा (१९४२)
६. सप्तपर्णा (अनूदित-१९५९)
७. प्रथम आयाम (१९७४)
८. अग्निरेखा (१९९०)
कविता संग्रह
श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी (१९६५), यामा (१९३६), गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका, नीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि।
महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य
रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३),
संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२) और संस्मरण (१९८३)
चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४)
निबंध: श्रृंखला की कड़ियाँ (१९४२), विवेचनात्मक गद्य (१९४२), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), संकल्पिता (१९६९)
ललित निबंध: क्षणदा (१९५६)
कहानियाँ: गिल्लू
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३),
अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
महादेवी वर्मा का बाल साहित्य
महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं।
ठाकुरजी भोले हैं
आज खरीदेंगे हम ज्वाला
डाकटिकट
उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले।
१९४३ में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद १९५२ में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। १९५६ में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी। १९७९ में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं।[20] 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया।
सन १९६९ में विक्रम विश्वविद्यालय, १९७७ में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, १९८० में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा १९८४ में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।
इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये १९३४ में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, १९४२ में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए। ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की ५० सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।
१९६८ में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर नीचे।[
१६ सितंबर १९९१ को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में २ रुपए का एक युगल टिकट भी जारी किया है।
कार्यक्षेत्र
महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। १९३२ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी १८ काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ। वे हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं।महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। १९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बँगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मंदिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। श्रृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके संपूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।
उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११ सितंबर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।
साहित्य में महादेवी वर्मा का आविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ीबोली का आकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्ण काम किया जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। शचीरानी गुर्टू ने भी उनकी कविता को सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण माना है। उन्होंने अपने गीतों की रचना शैली और भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथ ही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींच देता है। छायावादी काव्य की समृद्धि में उनका योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। छायावादी काव्य को जहाँ प्रसाद ने प्रकृतितत्त्व दिया, निराला ने उसमें मुक्तछंद की अवतारणा की और पंत ने उसे सुकोमल कला प्रदान की वहाँ छायावाद के कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का गौरव महादेवी जी को ही प्राप्त है। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता उनके काव्य की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-हिलोरों का ऐसा सजीव और मूर्त अभिव्यंजन ही छायावादी कवियों में उन्हें ‘महादेवी’ बनाता है। वे हिन्दी बोलने वालों में अपने भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद की जाती हैं। उनके भाषण जन सामान्य के प्रति संवेदना और सच्चाई के प्रति दृढ़ता से परिपूर्ण होते थे। वे दिल्ली में १९८३ में आयोजित तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। इस अवसर पर दिये गये उनके भाषण में उनके इस गुण को देखा जा सकता है।
यद्यपि महादेवी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उनके लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, भूमिकाओं और ललित निबंधों में जो गद्य लिखा है वह श्रेष्ठतम गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना और काव्यरूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में कितना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनके गद्य में वैचारिक परिपक्वता इतनी है कि वह आज भी प्रासंगिक है।[ञ] समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता से संबंधित उनके विचारों में दृढ़ता और विकास का अनुपम सामंजस्य मिलता है। सामाजिक जीवन की गहरी परतों को छूने वाली इतनी तीव्र दृष्टि, नारी जीवन के वैषम्य और शोषण को तीखेपन से आंकने वाली इतनी जागरूक प्रतिभा और निम्न वर्ग के निरीह, साधनहीन प्राणियों के अनूठे चित्र उन्होंने ही पहली बार हिंदी साहित्य को दिये।
मौलिक रचनाकार के अलावा उनका एक रूप सृजनात्मक अनुवादक का भी है जिसके दर्शन उनकी अनुवाद-कृत ‘सप्तपर्णा’ (१९६०) में होते हैं। अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे उन्होंने वेद, रामायण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है। आरंभ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के सम्बंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है।
क. ^ छायावाद के अन्य तीन स्तंभ हैं, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत।
ख. ^ हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी, स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी ―निराला
ग. ^ उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को दीपशिखा का गौरव दिया और व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। ―निशा सहगल[29]
घ. ^ “इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक ये वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।” ―आचार्य रामचंद्र शुक्ल
ङ. ^ “महादेवी का ‘मैं’ संदर्भ भेद से सबका नाम है।” सच्चाई यह है कि महादेवी व्यष्टि से समष्टि की ओर जाती हैं। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा और दुखवाद में विश्व की कल्याण कामना निहित है। ―हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
च. ^ वस्तुत: महादेवी की अनुभूति और सृजन का केंद्र आँसू नहीं आग है। जो दृश्य है वह अन्तिम सत्य नहीं है, जो अदृश्य है वह मूल या प्रेरक सत्य है। महादेवी लिखती हैं: “आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के” और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान। ये आँसू सहज सरल वेदना के आँसू नहीं हैं, इनके पीछे जाने कितनी आग, झंझावात प्रलय-मेघ का विद्युत-गर्जन, विद्रोह छिपा है। ―प्रभाकर श्रोत्रिय
छ. महादेवी जी की कविता सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण है ―शचीरानी गुर्टू
ज. महादेवी के प्रगीतों का रूप विन्यास, भाषा, प्रतीक-बिंब लय के स्तर पर अद्भुत उपलब्धि कहा जा सकता है। ―कृष्णदत्त पालीवाल
झ. एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और ‘गद्य कवीतां निकषं वदंति’ उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। ―रामजी पांडेय[33]
ञ. महादेवी का गद्य जीवन की आँच में तपा हुआ गद्य है। निखरा हुआ, निथरा हुआ गद्य है। १९५६ में लिखा हुआ उनका गद्य आज ६५ वर्ष बाद भी प्रासंगिक है। वह पुराना नहीं पड़ा है। ―राजेन्द्र उपाध्याय
***
बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
११.९.२०२०
***
विमर्श: पुराणों में क्या है???
*
सामान्य धारणा है कि वेद-पुराण-उपनिषद आदि धार्मिक ग्रंथ हैं किंतु वास्तविकता सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: इनमें जीवन से जुड़े हर पक्ष विज्ञान, कला, याँत्रिकी, चिकित्सा, सामाजिक, आर्थिक आदि विषयों का विधिवत वर्णन है। अग्नि पुराण में साहित्य से संबंधित कुछ जानकारी निम्नानुसार है।
आग्नेय महापुराण अध्याय ३२८
छंदों के गण और गुरु-लघु की व्यवस्था
"अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं वेद मन्त्रों के अनुसार पिन्गलोक्त छंदों का क्रमश: वर्णन करूँगा। मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, और तगण ये ८ गण होते हैं। सभी गण ३-३ अक्षरों के हैं। इनमें मगण के सभी अक्षर गुरु (SSS) और नगण के सब अक्षर लघु होते हैं। आदि गुरु (SII) होने से 'भगण' तथा आदि लघु (ISS) होने से 'यगण' होता है। इसी प्रकार अन्त्य गुरु होने से 'सगण' तथा अन्त्य लघु होने से 'तगण' (SSI) होता है। पाद के अंत में वर्तमान ह्रस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है। विसर्ग, अनुस्वार, संयुक्त अक्षर (व्यंजन), जिव्हामूलीय तथाउपध्मानीय अव्यहित पूर्वमें स्थित होने पर 'ह्रस्व' भी 'गुरु' माना जाता है, दीर्घ तो गुरु है ही। गुरु का संकेत 'ग' और लघु का संकेत 'ल' है। ये 'ग' और 'ल' गण नहीं हैं। 'वसु' शब्द ८ की और 'वेद' शब्द ४ की संज्ञा हैं, इत्यादि बातें लोक के अनुसार जाननी चाहिए। १-३।।
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराण में 'छंदस्सार का कथन' नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।३२८।।
*
अध्याय ३२९- गायत्री छंद, अध्याय ३३०- जगती छंद, अध्याय ३३१- वैदिक छंद, अध्याय ३३२- विषम छंद, अध्याय ३३३अर्द्धसमवृत्त छंद, अध्याय ३३४- समवृत्त छंद। अध्याय ३३५- प्रस्तार निरूपण, अध्याय ३३६ शिक्षा निरूपण, अध्याय ३३७ काव्य, अध्याय ३३८ नाटक, अध्याय ३३९ रस, भाव, नायक, अध्याय ३४० रीति, अध्याय ३४१ नृत्य, अध्याय ३४२अभिनय-अलंकार, अध्याय ३४३ शब्दालंकार, अध्याय ३४४ अर्थालंकार, अध्याय ३४५ शब्दार्थोभयालंकार, अध्याय ३४६ काव्य गुण, ३४७ काव्य दोष, अध्याय ३४८ एकाक्षर कोष, अध्याय ३४९ व्याकरण सार, अध्याय ३३८ नाटक, संधि, अध्याय ३५१-३५३ लिंग, अध्याय ३५४ कारक, अध्याय ३५५ समास, अध्याय ३५६ प्रत्यय, अध्याय ३५७ शब्द रूप, अध्याय ३५८ विभक्ति, अध्याय ३५९ कृदंत, अध्याय ३६० स्वर्ग-पाताल, अध्याय ३६१ अव्यय।
अध्याय ३२९- गायत्री आदि छंद।
अध्याय ३३०- जगती, त्रिष्टुप, उष्णिक, ककुप उष्णिक, त्रिपाद अनुष्टुप, बृहती, उरो बृहती, न्यंगुसरणी बृहती, पुरस्ताद बृहती, पंक्ति, सतपंक्ति, आस्तार पंक्ति, संस्तार पंक्ति, अक्षर पंक्ति, पद पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती-ज्योतिष्मती, पुरस्ताज्ज्योति, उपरिष्टाज्ज्योसि, शंकुमती, ककुदमती, यवमध्य छंद।
अध्याय ३३१- वैदिक छंद: उत्कृति, अभिकृति, विकृति, प्रकृति, अधिकृति, धृति, अत्यष्टि, आश्ती, अतिशक्वरि, शक्वरि, अतिजगती। लौकिक छंद: त्रिष्टुप, बृहती, अनुष्टुप, उष्णिक, गायत्री, सुप्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा, मध्या, अत्युक्तात्युक्त, आदि छंद। छंद के ३ प्रकार गण छंद, मात्र छंद, अक्षर छंद। छंद का चौथाई भाग पाद या चरण। गण, आर्य, गीति, उपगीति, उद्गीति, आर्यागीति। मात्रा छंद- वैतालीय, औपच्छंदसक, प्राच्य वृत्ति, उदीच्य वृत्ति, प्रवृत्तिक, चारुहासिनी, अपरांतिका, मात्रासमक, वानवसिका, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, पादाकुवक, गीतयार्या, ज्योति, सौम्या, चूलिका।
अध्याय ३३२- विषम वृत्त: समानी, प्रमाणी, वितान, वक्त्र, अनुश्तुब्वक्त्र, विपुला, पदचतुरुर्ध्व, आपीड़, प्रत्यापीड़, मंजरी, लवली, अमृतधारा, उद्गता, सौरभ, ललित, प्रचुपित, वर्धमान, विराषभ छंद।
अध्याय ३३३अर्द्धसम वृत्त: उपचित्रक, द्रुतमध्या, वेगवती, भद्रविराट, केतुमती, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, यवमती, शिखा छंद।
अध्याय ३३४- समवृत्त:।
[आभार: कल्याण, अग्निपुराण, गर्ग संहिता, नरसिंहपुराण अंक, वर्ष ४५, संख्या १, जनवरी १९७१, पृष्ठ ५४६, सम्पादक- हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक गीताप्रेस, गोरखपुर।]
११.९.२०१८
***
स्कन्द पुराण में प्रमुख पाँच खण्ड के साथ साथ अन्य दो खण्ड और है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
माहेश्वरखण्ड
पहले खण्ड का नाम माहेश्वर खण्ड है, यह परम पवित्र तथा विशाल कथाओं से परिपूर्ण है, इसमें सैकडों उत्तम चरित्र है। माहेश्वर खण्ड के भीतर केदार माहात्मय में पुराण आरम्भ हुआ है, उसमें पहले दक्ष यज्ञ की कथा है, इसके बाद शिवलिंग पूजन का फ़ल बताया गया है, इसके बाद समुद्र मन्थन की कथा और देवराज इन्द्र के चरित्र का वर्णन है, फ़िर पार्वती का उपाख्यान और उनके विवाह का प्रसंग है, तत्पश्चात कुमार स्कन्द की उत्पत्ति और तारकासुर के साथ उनके युद्ध का वर्णन है, फ़िर पाशुपत का उपाख्यान और चण्ड की कथा है, फ़िर दूत की नियुक्ति का कथन और नारदजी के साथ समागम का वृतान्त है, इसके बाद कुमार माहात्म्य के प्रसंग में पंचतीर्थ की कथा है, धर्मवर्मा राजा की कथा तथा नदियों और समुद्रों का वर्ण है, तदनन्तर इन्द्रद्युम्न और नाडीजंग की कथा है, फ़िर महीनदी के प्रादुर्भाव और दमन की कथा है, तत्पश्चात मही साकर संगम और कुमारेश का वृतान्त है, इसके बाद नाना प्रकार के उपाख्यानों सहित तारक युद्ध और तारकासुर के वध का वर्णन है, फ़िर पंचलिंग स्थापन की कथा आयी है, तदनन्तर द्वीपों का पुण्यमयी वर्णन ऊपर के लोकों की स्थिति ब्रह्माण्ड की स्थिति और उसका मान तथा वर्करेशकी कथा है, फ़िर वासुदेव का मात्म्य और कोटितीर्थ का वर्णन है। तदनन्तर गुप्तक्षेत्र में नाना तीर्थों का आख्यान कहा गया है, पाण्डवों की पुण्यमयी कथा और बर्बरीक की सहायता से महाविद्या के साधन का प्रसंग है, तत्पश्चात तीर्थयात्रा की समाप्ति है, तदनन्तर अरुणाचल का माहात्मय है तथा सनक और ब्रह्माजी का संवाद है। गौरी की तपस्या का वर्णन तथा वहां के भिन्न भिन्न तीर्थों का वर्णन है, महिषासुर की कथा और उसके वध का परम अद्भुत प्रसंग कहा गया है।
वैष्णव-खण्ड[संपादित करें]
वैष्णवखण्ड
इसमें पहले भूमि और वाराह भगवान के संवाद का वर्णन है, फ़िर कमला की पवित्र कथा और श्रीनिवास की स्थिति का वर्णन है, तदनन्तर कुम्हार की कथा तथा सुवर्णमुखरी नदी के माहात्मय का वर्णन है, फ़िर अनेक उपाख्यानों से युक्त भरद्वाज की अद्भुत कथा है, इसके बाद मतंग और अंजन के पापनाशक संवाद का वर्णन है, फ़िर उत्कल प्रदेश के पुरुषोत्तम क्षेत्र का माहात्मय कहा गया है, तत्पश्चार मार्कण्डेयजी की कथा, राजा अम्बरीष का वृतान्त, इन्द्रद्युम्न का आख्यान और विद्यापति की शुभ कथा का उल्लेख है। ब्रह्मन ! इसके बाद जैमिनि और नारद का आख्यान है, फ़िर नीलकण्ठ और नृसिंह का वर्णन है, तदनन्तर अश्वमेघ यज्ञ की कथा और राजा आ ब्रह्मलोक में गमन कहा गया है, तत्पश्चात रथयात्रा विधि और जप तथा स्नान की विधि कही गयी है। फ़िर दक्षिणामूर्ति का उपाख्यान और गुण्डिचा की कथा है, रथ रक्षा की विधि और भगवान के शयनोत्सव का वर्णन है, इसके बाद राजा श्वेत का उपाख्यान कहा गय अहै विर पृथु उत्सव का निरूपण है, भगवान के दोलोत्सव तथा सांवत्सरिक व्रत का वर्णन है, तदनन्तर उद्दालक के नियोग से भगवान विष्णु की निष्काम पूजा का प्रतिपादन किया गया है, फ़िर मोक्ष साधन बताकर नाना प्रकार के योगों का निरूपण किया गया है, तत्पश्चात दशावतार की कथा अर स्नान आदि का वर्णन है, इसके बाद बदरिकाश्रम तीर्थ का पाप नाशक माहात्मय बताया गया है, उस प्रसंग में अग्नि आदि तीर्थों और गरुण शिला की महिमा है, वहां भगवान के निवास का कारण बताया गया है। फ़िर कपालमोचन तीर्थ पंचधारा तीर्थ और मेरुसंस्थान की कथा है, तदनन्तर कार्तिक मास का माहात्म्य प्रारम्भ होता है, उसमे मदनालस के माहात्मय का वर्णन है, धूम्रकेशका उपाख्यान और कार्तिक मास में प्रत्येक दिन के कृत्य का वर्णन है, अन्त में भीष्म पंचक व्रत का प्रतिपादन किया गया है, जो भोग और मोक्ष देने वाला है। तत्पश्चात मार्गशीर्ष के माहात्म्य में स्नान की विधि बतायी गयी है, फ़िर पुण्ड्रादि कीर्तन और माला धारण का पुण्य कहा गया है, भगवान को पंचामृत से स्नान करवाने तथा घण्टा बजाने आदि का पुण्यफ़ल बताया गया है। नाना प्रकार के फ़ूलों से भगवत्पूजन का फ़ल और तुलसीदल का माहात्म्य बताया गया है, भगवान को नैवैद्य लगाने की महिमा, एकादशी के दिन कीर्तन अखण्ड एकादसी व्रत रहने का पुण्य और एकादशी की रात में जागरण करने का फ़ल बताया गया है। इसके बाद मत्स्योत्सव का विधान और नाममाहात्म्य का कीर्तन है, भगवान के ध्यान आदि का पुण्य तथा मथुरा का माहात्म्य बताया गया है, मथुरा तीर्थ का उत्तम माहात्मय अलग कहा गया है और वहां के बारह वनों की महिमा वर्णन किया गया है। तत्पश्चात इस पुराण में श्रीमदभागवत के उत्तम माहात्म्य का प्रतिपादन किया गया है इस प्रसंग में बज्रनाभ और शाण्डिल्य के संवाद का उल्लेख किया गया है जो ब्रज की आन्तरिक लीलाओं का प्रशासक है। तदनन्तर माघ मास में स्नान दान और जप करने का माहात्म्य बताया गया है, जो नाना प्रकार के आख्यानों से युक्त है, माघ माहात्म्य का दस अध्यायों में प्रतिपादन किया गया है, तत्पश्चात बैशाख माहात्म्य में शय्यादान आदि का फ़ल कहा गया है, फ़िर जलदान की विधि कामोपाख्यान शुकदेव चर्त व्याध की अद्भुत कथा और अक्षयतृतीया आदि के पुण्य मा विशेष रूप से वर्णन है, इसके बाद अयोध्या माहात्म्य प्रारम्भ करके उसमे चक्रतीर्थ ब्रह्मतीर्थ ऋणमोचन तीर्थ पापमोचन तीर्थ सहस्त्रधारातीर्थ स्वर्गद्वारतीर्थ चन्द्रहरितीर्थ धर्महरितीर्थ स्वर्णवृष्टितीर्थ की कथा और तिलोदा-सरयू-संगम का वर्णन है, तदनन्तर सीताकुण्ड गुप्तहरितीर्थ सरयू-घाघरा-संगम गोप्रचारतीर्थ क्षीरोदकतीर्थ और बृहस्पतिकुण्ड आदि पांच तीर्थों की महिमा का प्रतिपादन किया गया है, तत्पश्चात घोषार्क आदि तेरह तीर्थों का वर्णन है। फ़िर गयाकूप के सर्वपापनाशक माहात्म्य का कथन है, तदननतर माण्डव्याश्रम आदि, अजित आदि तथा मानस आदि तीर्थों का वर्णन किया गया है।
***
मुक्तक
*
जन्म दिवस पर बहुत बधाई
पग-तल तुमने मन्ज़िल पाई
शतजीवी हो, गगन छू सको
खुशियों की नित कर पहुनाई
*
अपनी ख्वाहिश नहीं मरने देना
मन को दुनिया से न डरने देना
हौसलों को बुलंद ही रखना
जी जो चाहे उसे करने देना
११-९-२०१६
***
बुंदेली दोहांजलि
*
जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
*
संध्या बंदन कर रए, महाबीर जी मौन
खरे बुंदेला हम भए, करी साधना जौन
*
सब जग भओ असोक जब, भईं बंदना साथ
सीस प्रार्थना को नबा, खुस अनूप जगनाथ
***
मुक्तक:
*
मरघट में है भीड़ पनघट है वीरान
मोल नगद का न्यून है उधार की शान
चमक-दमक की चाह हुई सादगी मौन
सब अपने में लीन किसको पूछे कौन
११-९-२०१४
***
कुण्डलिया :
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे.....
*
दन्त-पंक्ति श्वेता रहे, सदा आपकी मीत.
मीठे वचन उचारिये, जैसे गायें गीत..
जैसे गायें गीत, प्रीत दुनिया में फैले.
मिट जायें सब झगड़े, झंझट व्यर्थ झमेले..
कहे 'सलिल' कवि, सँग रहें जैसे कामिनी-कंत.
जिव्हा कोयल सी रहे, मोती जैसे दन्त.
११.९.२०११
***

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

अप्रैल १२, सोनेट, महादेवी, एकांकी, दोहा, मुक्तिका, सीता, शेर, बुंदेली, गीत,

सलिल सृजन १२ अप्रैल, २०२४

*

सॉनेट याद • याद झुलाती झूला पल पल श्वासों को, पेंग उठाती ऊपर, नीचे लाती है, धीरज रस्सी थमा मार्ग दिखलाती है, याद न मिटने देती है नव आसों को। याद न चुकने-मिटने देती त्रासों को, घूँठ दर्द के दवा बोल गुटकाती है, उन्मन मन को उकसाती हुलसाती है, याद ऊगाती सूर्य मिटा खग्रासों को। याद करे फरियाद न गत को बिसराना, बीत गया जो उसे जकड़ रुक जाना मत, कल हो दीपक, आज तेल, कल की बाती। याद बने बुनियाद न सच को ठुकराना, सुधियों को संबल कर कदम बढ़ाना झट, यादों की सलिला, कलकल कल की थाती। १२.४.२०२४ •••

दोहा सलिला
***
निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।
जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।
पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।
*
डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।
मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।।
*
कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।
मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।
१२.४.२०२४
***
स्मरण महीयसी महादेवी जी:
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु एकांकी
(इसे विद्यालयों में अल्प सज्जा के साथ अभिनीत भी किया जा सकता है)
राह
*
मंच सज्जा - मंच पर एक कमरे का दृश्य है। दीवारें, दरवाजे सफेद रंग से पुते हैं। एक दीवार पर खिड़की के नीचे एक तख़्त बिछा है जिस पर सफ़ेद चादर, सफ़ेद तकिया है। सिरहाने सफेद रंग की कृष्ण जी की मूर्ति रखी है। समीप ही एक मेज पर कुछ पुस्तकें कलम, सफेद कागज, लोटे में पानी हुए २ गिलास रखे हैं। एक कुर्सी पर बैठी एक युवती कुछ लिख रही है। युवती सफ़ेद साड़ी-जंपर (कमर तक का ब्लाउज) पहने हैं, आँखों पर चश्मा है। सर पर पल्ला लिए है। कमरे में अन्य दीवारों से लगकर ४ कुर्सियाँ है जिन पर सफ़ेद आसंदी बिछी है।
एक सुशिक्षित, सुदर्शन युवक जिसने पेंट-कमीज-कोट पहने है, गले में टाई बाँधे है, पैरों में जूते-मोज़े पहने है, दरवाजे की कुण्डी खटखटाता है। युवती उठकर दरवाजा खोलती है। दोनों एक-दूसरे को नमस्कार करते है।
युवती- 'आइए! बैठिए?
दोनों कमरे में प्रवेश कर कुर्सियों पर बैठते हैं। युवती लोटे से पानी निकाल कर देती है।
युवती - 'घर पर सब कुशल-मंगल है?'
युवक - 'हाँ सब ठीक है।'
युवती - 'कहिए, कैसे आना हुआ?'
युवक - 'चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।
युवती - 'अरे! कहाँ चलना है?'
युवक - 'और कहाँ?, अपनी गृहस्थी बसाने।'
युवती - 'लेकिन हम तो नहीं चल सकतीं, आप बसा लीजिए अपनी गृहस्थी।'
युवक - 'आपके बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? आपके साथ ही तो गृहस्थी बसाना है। मैं कई इतने वर्षों तक लखनऊ मेडिकल कॉलेज में पढ़ता रहा। अब पढ़ाई पूरी हो गई है।'
युवती - 'बधाई आपको। अब अपना विवाह कीजिए और घर बसाइए।'
युवक - विवाह? मेरा विवाह तो हो चुका है, तुम्हारे साथ, बचपन में ही। तुम्हें याद न हो तो अपने माता-पिता से पूछ लो।'
युवती - 'पूछना क्या है? हमें धुँधली सी याद है। तब तो हम विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। कई पीढ़ी बाद कुल में कन्या का जन्म हुआ था। अपने जीते जी कन्या दान का पुण्य पाने के लिए दादा जी ने पिताजी के विरोध को दरकिनार कर यह आयोजन कर दिया था। बारात आई तो हम, सबके बीच खड़े होकर बारात देखति रहीं। हमें व्रत रखने को कहा गया था लेकिन घर में तरह-तरह की मिठाई बनी थी, सो हमने डटकर मीठी खाई और सो गईं। बारात आई तो सबके मन करने पर भी बारात देखी। शांम को नींद आई तो सो गईं, सवेरे उठकर देखा तो कपड़ों में गाँठ बँधी थी। पूछने पर बताया गया नाउन ने गोद में उठाकर ब्याह करा दिया था। हमें तो कुछ पता ही नहीं चला। हमने गाँठ खोली और खेलने लगीं। कब-क्या हुआ, कुछ नहीं पता। ऐसे संबंध का कोई अर्थ नहीं है।'
युवक - 'आप ठीक कहती हैं। मैं भी बच्चा ही था, विवाह का अर्थ क्या समझता? बड़ों ने जो कराया, करता चला गया। बड़ों ने ही बताया कि घर आकर आप बहुत रोईं, किसी प्रकार चुप ही नहीं हुईं। किसी के समझने-बहलाने का कोई असर नहीं हुआ तो आपको सवेरा होते ही वापिस आपके घर पहुँचाना पड़ा था।'
युवती - 'जो हुआ सो हुआ, हम दोनों ही इस संबंध का अर्थ नहीं समझते थे, इसलिए सहमति-असहमति या पसंद -नापसंद का तो कोई प्रश्न न था, न है। हम अपनी पढ़ाई पूरी कर साहित्य और समाज के कार्य में लगी रहीं।'
युवक - 'कुछ-कुछ जानता हूँ। हमारी सहमति न रही तो भी विवाह तो हो ही चुका है, उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। इसलिए अपना मन बनाइए और चलिए, हम बड़ों के फैसले का मान रखते हुए घर बसाएँ और उनके अरमान पूरे करें।'
युवती - 'बड़ों के अरमान पूरे करना चाहिए लेकिन हमारा मन बचपन से अब तक कभी घर-गृहस्थी में रमा ही नहीं। बच्चियाँ गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाती हैं लेकिन हमने कभी इस सबमें रुचि नहीं ली। बिना मन के हम कुछ नहीं कर पाती।'
युवक - (हँसते हुए) हाँ, यह तो सब जानते हैं तभी तो तो सवेरा होते ही आपको वापिस घर पहुँचाया गया था। इसीलिए मैं खुद बहुत हिम्मत कर आपके पास आया हूँ। एक बात का भरोसा दिलाता हूँ कि मेडिकल की पढ़ाई के दौरान भी मैंने कभी किसी लड़की की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती - यह क्या कह रहे हैं आप? हम आप पर पूरा भरोसा करती हैं। ऐसा कुछ तो हम आपके बारे में सोच भी नहीं सकतीं।'
युवक - 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ कि आप साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन कामों से जुड़ चुकी हैं। विश्वास रखिए, गृहस्थी के कारण आपके किसी भी काम में कभी कोई बाधा नहीं आ सकेगी। मैं खुद आपके सब कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।'
युवती - 'हमको आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हैं, खुद से भी अधिक, लेकिन हम गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकतीं।'
युवक - 'एक बात बता दूँ कि घर के बड़े-बूढ़े कोई भी आपको घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, आपको पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात करने के बाद ही आया हूँ।'
युवती - 'अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले हमसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि हमारा मन गृहस्थी बसाने का है ही नहीं और बिना मन के हम कुछ नहीं करतीं।'
युवक - 'ओफ्फोह! मैं भी कितना नासमझ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, अगर कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता मत कीजिए। आप जब-जैसा चाहेंगी, अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज करा लेंगे, जब तक आप पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएँ और आपका मन न हो मैं आपको कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती - 'हम यह भी जानती हैं। इस कलियुग में कोई आदमी इतना सज्जन और संवेदनशील भी होता है, औरत को इतना मान देता है, कौन मानेगा?'
युवक - 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, आपके अलावा।'
युवती - 'लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।'
युवक - 'अब आप ही बताओ, मैं ऐसा क्या करूँ जो आप मान जाएँ और गृहस्थी बसा सकें। आप जो भी कहेंगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती - ' हम जानती हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम कहें और आप न करें पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम करने के लिए कहें सिवाय इसके कि हम घर-गृहस्थी नहीं बसा सकतीं।
युवक - 'तुम्हें विवाह होने का स्मरण नहीं है तो ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती - 'आप भी कैसे-कैसे तर्क खोज लाते हैं लेकिन हम अब विवाह कर ही नहीं सकतीं, जब आप मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे तभी हमने ने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?'
युवक - 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती - 'चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन हम जानती हैं कि आप हमारी इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप हमारा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह हम अच्छे से जानती हैं।'
युवक - 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? आप तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती - 'रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। हम सन्यासिनी हैं, हमारे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी नियम भंग करने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन हम आपको मना नहीं कर सकतीं? हम नियम भंग का प्रायश्चित्य गुरु जी से पूछ कर कर लेंगीं।"
युवक - 'ऐसा करिए, हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
युवती - 'आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?'
युवक - 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा आपके किसी दूसरे या दूसरी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती - 'लेकिन हम तो सोचती हैं, सबके बारे में और सब सोचते हैं हमारे बारे में क्योंकि हम समाज में रहते हैं जिसमें हर तरह की सोच के लोग हैं। हम आपके भरोसे सन्यासिनी तो हो गईं लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दें तो क्या विधाता हमें क्षमा करेंगे? विधाता की छोड़ भी दूँ तो हमारा अपना मन मुझे हमें कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न हमारा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से हमने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें, वहाँ विवाह करें। हम खुश हैं कि आपके जैसे सुलझे हुए व्यक्ति से संबंध हुआ था, इसलिए खुले मन से अपनी बात कह सकीं। आप अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।'
युवक - 'आप तो हिमालय की तरह हैं पवित्र और दृढ़। शायद मुझमें ही आपका साथी होने की पात्रता नहीं है। ठीक है, आपकी ही बात रहे। हम दोनों प्रायश्चित्य करेंगे, मैंने अनजाने में ही सही आपका नियम भंग कर आपसे अकेले में बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। आप जब जहाँ जो भी करें उसमें मेरी पूरी सहमति मानिए। जिस तरह आपने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी आपके भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी आपका या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचें तो पूर्व परिचित सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह बात करने से या कभी आवश्यकता पर मुझसे एक सामान्य सहयोगी की तरह सहायता लेने से आप खुद को नहीं रोकेंगी, मुझे खबर करेंगी। आपसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ।'
युवक उठ खड़ा हुआ, दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते किया और पर्दा गिरा गया।
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उद्घोषक : दर्शकों! अभी हमने एक दिव्य विभूति के जीवन में घटी कुछ घटनाओं की झलक देखी। यह एकांकी निराधार नहीं है। इसके लेखन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेते हुए घटनाओं को कल्पना से विस्तार दिया गया है।
क्या आज की किशोर और युवा पीढ़ी जो परिवार और विवाह संस्थाओं को नकारते हुए सह जीवन (लिव इन) की ओर बढ़ रही है यह सोच भी सकेगी कि बाल विवाह में बँधे स्त्री-पुरुष भी बिना किसी कटुता के जीवन में एक-दूसरे को इतना मान दे सकते हैं। इस एकांकी में वर्णित घटनाओं को वास्तविकता में जिया महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके पति डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा ने। इन दोनों का बाल विवाह हुआ था १९१६ में जब महादेवी जी ९ वर्ष की थी और स्वरूप नारायण जी लगभग १६-१७ वर्ष के। उक्त घटनाक्रम के बाद भी दोनों में सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह मित्रतापूर्ण संबंध थे, दोनों में पत्राचार होता था और यदा-कदा भेंट भी हो जाती थी। इस एकांकी के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को मूल घटना के संबंध में उनकी बुआश्री महीयसी महादेवी जी ने स्वयं बताया था।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तिका
रदीफ़- 'हो गए'
बावफ़ा थे, बेवफ़ा वो हो गए।
हाशिया थे, अब सफ़ा वो हो गए।।
वायदों को कह रहे जुमला मियाँ।
कायदा से फायदा वो हो गए।।
थे गए काशी, कभी काबा फिरे।
रायता से फीरनी वो हो गए।।
पाल बैठे कई चेले-चेलियाँ।
मसनवी से रुबाई वो हो गए।।
सल्तनत पाई, जुदा खुद से हुए।
हैं नहीं लेकिन खुदा वो हो गए।।
आदमी के साथ साया भी न था।
काम शैतां का, नबी वो हो गए।।
धूप-छैयाँ साथ होकर भी न हों।
साथ चंदा-सूर्य से वो हो गए।।
आदमी जो आम वो ही राम है।
बोलते जो, ख़ास वो ही हो गए।।
है सुरा सत्ता, नशा सब पे चढ़े।
क्या हुआ जो शराबी वो हो गए।।
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सॉनेट
सीता
वसुधातनया जनकदुलारी।
रामप्रिया लंकेशबंदिनी।
अवधमहिष वनवासिन न्यारी।।
आश्रमवासी लव-कुश जननी।।
क्षमामूर्ति शुभ-मंगलकारी।
जनगण पूजे करे आरती।
संतानों की विपदाहारी।।
कीर्ति कथा भव सिंधु तारती।।
योद्धा राम न साथ तुम्हारे।
रण जीते, सत्ता अपनाई।
तुम्हें गँवा, खुद से खुद हारे।।
सरयू में शरणागति पाई।।
सियाराम हैं लोक-हृदय में।
सिर्फ राम सत्ता-अविनय में।।
१२-४-२०२२
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कृति समालोचना -
"भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार" - मानवता का सिपहसालार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, विश्व कायस्थ समाज
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम, पूर्व महामंत्री राकाम
चैयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर
*
[कृति विवरण: भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार, लेखक - सर्वेश्वर चमन श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०२२, आकार - २४ से.मी. x १८.५ से.मी., पृष्ठ १५४, मूल्य - अमूल्य, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक लेमिनेटेड, संदर्भ प्रकाशन भोपाल]
*
मानव सभ्यता और संस्कृति में शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि का योगदान अभूतपूर्व है। सच कहें तो इनके बिना मानव जाति जीवित तो होती पर अन्य पशु-पक्षियों की तरह। ग़ालिब कहता है -'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना', मेरा मानना है कि आदमी को इंसान बनाने के महायात्रा में 'काया' में अवस्थित निराकार 'चित' जिसका चित्र गुप्त है, जो निराकार है, जो हर आकार में समाहित है, उस परमब्रह्म परमेश्वर, कर्मेश्वर, गुप्तेश्वर की ही प्रेरणा है जिसने खुदको उसका अंशज -वंशज माननेवाले ''कायस्थ'' विशेषण को अपनी पहचान बनानेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को उक्त षड उपहारों शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि से अलंकृत किया। 'शब्द ब्रह्म' सबका, सबके लिए है, इसलिए शब्द-साधना कर निपुणता अर्जित करनेवाले 'कायस्थ' अपना उपास्य शब्देश्वर सर्वेश्वर चित्रगुप्त तथा उनकी आदिभौतिक एवं आधिदैविक शक्तियों (नंदिनी और इरावती) को मानें, यह स्वाभाविक ही है। अपनी इष्ट देव मूर्तियों तथा अपने पूर्वजों को जानकर, उनकी विरासत को सम्हालकर, अपनी भावी पीढ़ी को प्रगतिपथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने के पवित्र उद्देश्य से इस कृति का प्रयत्न लेखक चमन श्रीवास्तव ने पूरे मनोयोग से किया है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है अपितु यह लेखा-जोखा है वेद पूर्व काल से अब तक आदमी के इंसान बनने की महायात्रा में औरों की अंगुली थामकर उन्हें आगे बढ़ानेवाली जातीय परंपरा का।
संस्कृति सेतु कायस्थ
पुस्तक में वर्णित श्री चित्रगुप्त जी निराकार परात्पर परमब्रह्म ही हैं। पुराणकार कहता है ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहीनाम्'' अर्थात उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सभी प्राणियों में आत्मा रूप में विराजमान हैं। लोकश्रुति है ''आत्मा सो परमात्मा'', उपनिषद ''अहं ब्रह्मास्मि'', ''शिवोsहं'' आदि कहता है। हर काया में स्थित परब्रह्म चित्रगुप्त सृष्टि का सृजन कर सके विस्तार हेतु साकार होते हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में सृष्टि रचना-पालन और विनाश की भूमिकाएँ निभाते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'चाइल्ड इस द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात ; बच्चा तो है बाप बाप का'। निराकार परब्रह्म चित्रगुप्त जी स्वयं अपने ही अंश 'ब्रह्मा' के माध्यम से साकार देहज अवतार धारण कर देव कन्या 'नंदिनी' और नाग कन्या 'इरावती' से विवाहकर विश्व का प्रथा अंतर्सांस्कृतिक विवाह कर ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' तथा ''वसुधैव नीड़म्'' का जीवन सूत्र मनुष्य को देते हैं। काल क्रम में 'कश्यप' ऋषि, शारदा लिपि, कश्मीर प्रदेश और कैकेयी कायस्थों की कर्म कुशलता की कथा कहते हैं। आज से सहस्त्रब्दियों पूर्व कायस्थ भी कश्मीर से निष्क्रमित हुए थे। इतिहास खुद को दुहराता है, अब पंडितों का निष्क्रमण हम देख रहे हैं। चमन जी ने अतीत के म कुछ पन्नों को पलटा है, समूची महागाथा एक बार में, एक साथ कह पाना असंभव है।
गत-आगत से आज का संवाद
यह कृति गतागत का आज से संवाद का सुप्रयास है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं -''हम कौन थे?, क्या हो गए हैं?, और क्या होंगे अभी?, आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी''। लेखन 'कौन थे? और 'क्या हो गए हैं?' में मध्य संवाद सेतु के रूप में इस कृति का प्रकाश कर रहे हैं। वे इसके दूसरे भाग के प्रकाशन का संकेत कर बताते हैं कि 'और क्या होंगे अभी?' की बात अगली कृति में होगी। स्पष्ट है कि यह पुस्तक 'विगत' और 'आगत' के मध्य स्थित 'वर्तमान' की करवट है। किसी ऐसे समाज जो अपनी ही नहीं अपने देश और अपने साथियों के साथ सकल सभ्यता का निर्माता, विकासकर्ता और पारिभाषिक रहा हो, के लिए निरंतर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन करना अपरिहार्य हो जाता है। जिला १९७६ में प्रातस्मरणीय ब्योहार राजेंद्र सिंह जी (कक्का जी) के मार्गदर्शन में जिला कायस्थ सभा से आरंभ कर प्रातस्मरणीय डॉ. रतनचन्द्र वर्मा के नेतृत्व में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, प्रातस्मरणीय दादा लोकेश्वर नाथ जी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, वर्ल्ड कायस्थ कॉन्फ्रेंस आदि में सक्रिय रहकर मैंने यह जाना है कि बुद्धिजीवियों को एकत्र कर एकमत कर पाना मेंढकों को तौलने से अधिक कठिन कार्य है। ऐसा होना स्वाभाविक है 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना'। यह भी सत्य है कि कठिन होने से कार्य असंभव नहीं हो जाता, कठिन को संभव बनाने के लिए स्नेह, समानता, सद्भाव, संकल्प और साहचर्य आवश्यक होता है।
सुनहरा अवसर
विवेच्य कृति का संयोजन भारत के १५ करोड़ से अधिक कायस्थों से जुड़ने का सद्प्रयास सचमुच सुनहरा अवसर है जब हम मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह बलि का बकरा न बनकर, चक्रव्यूह भेदनकर, एक साथ मिलकर 'योग: कर्मसु कौशलम्' के पथ पर चलें। याद रखें अकेली अँगुली झुक जाती पर सभी अँगुलियाँ एक साथ मिलकर मुट्ठी बन जाएँ तो युग बदल सकती हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला तक जाएगा, सब मिल बोझ उठाना' की भावना हममें से हर एक में हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमारी राह नहीं रोक सकती। 'कायस्थ एक नज़र में' के अंतरगत अपने प्रेरणा पुरुषों का उल्लेख, हममें सहभागिता का भाव जगाता है कि ये सब हम सबके हैं, हम सब इनके हैं।कायस्थ महापुरुषों के सूची वास्तव में इतनी लंबी है कि सहस्त्रों पृष्ठ भी कम पड़ जाएँ इसलिए बतौर बानगी कुछ नामों का उल्लेख कर दिया जाता है। यह गौरवमयी विरासत आदिकाल से अब तक अक्षुण्ण है।
'चमन' आबाद तब होगा, 'विनय' का भाव जब जागे
'कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति एवं चित्रगुप्त भगवान का परिवार परिचय' शीर्षक अध्याय मत-मतांतर को महत्व न देकर, नई पीढ़ी के सम्मुख सिलसिलेवार जानकारियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, बहुविधि कहहिं-सुनहिं सब संता।'' चित्रगुप्त जी तो सकल सृष्टि जिसमें देव भी सम्मिलित हैं, के मूल हैं। उनकी कथाओं में विविधता होना स्वाभाविक है। प्रागट्य संबंधी अनेकता में एकता यह है कि वे कर्मेश्वर हैं, कर्म विधाता हैं, सबसे पहले पूज्य हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक असम से गुजरात तक कायस्थों की कर्मनैपुण्यता किस्सों में कही जाती है. विस्मय से सुनी जाती है पर इसके बाद भी शिखर पर कायस्थों की संख्या घटती जाती है इसका एक कारण यह है कि कायस्थ लोकतंत्र में 'लोक' की तरह एक जुट होकर 'तंत्र' को उपकरण बनाने की ओर अग्रसर नहीं हो सके।
चमन आबाद तब होगा, विनय का भाव जब जागे
सभी आगे बढ़ेंगे तब, बढ़े एक-एक जब आगे
नहीं माँगा, न माँगेंगे कभी अनुदान हम साथी -
करें खुद को बुलंद इतना, ज़माना दान आ माँगे
'कान्त सहाय' तभी होते जब होता भक्त 'सुबोध'
'भगवान् चित्रगुप्त का स्तवन' शीर्षक अध्याय में विविध ग्रंथों से सकल प्राणियों के भाग्य विधाता चित्रगुप्त जी की वंदना के उद्धरण, प्रभु की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। वास्तव में गीता में 'कृष्ण जो अपने विषय में कहते हैं, वह सब चित्रगुप्त जी के लिए भी सत्य है। त्रेता में, कुरुक्षेत्र में कृष्ण 'कर्ता' थे, नियामक थे। जहाँ कृष्ण वहीं धर्म, जहाँ धर्म वहीं विजय। सभी युगों में, सभी स्थानों पर, सभी प्राणियों के लिए चित्रगुप्त जी एकमात्र करता है, नियामक हैं, भाग्य विधाता हैं इसलिए सकल दैवीय रूप चित्रगुप्त जी के हैं। सब साधनाएँ, सब वंदनाएँ, सब प्रार्थनाएँ चित्रगुप्त जी की ही हैं। विविध देव पर्वत हैं तो चित्रगुप्त जी हिमालय हैं। विविध देव नदियाँ हैं तो चित्रगुप्त जी महासागर हैं। वे सुरों-असुरों, यक्षों-गंधर्वों, भूत-प्रेतों, नर-वानरों, पशु-पक्षियों, जड़-चेतन, जन्मे-अजन्मे के कर्मदेवता हैं। इसीलिए वे सबके पूज्य और सब उनके अनुगामी हैं। किसी भी रूप की, किसी भी भाषा में, किसी भी भाव से, किसी भी छंद में स्तुति करें वह चित्रगुप्त जी की ही स्तुति हो जाती है, हम मानें या न मानें, कोई जाने या न जाने, इस सनातन सत्य पर आँच नहीं आती किन्तु चित्रगुप्त जी की कृपा के वही कर्मफल से मुक्त होता है जो अपना हर काम निष्काम भाव से उन्हें समर्पित कर करे। सबके कान्त (स्वामी) चित्रगुप्त जी की कृपा पाने के लिए भक्त को सुबोध होना होता है।
'कान्त सहाय' तभी होते जब, होता भक्त 'सुबोध'
रावण सा विद्वान् मिट गया, हो स्वार्थी दुर्बोध
सकल सृष्टि 'कायस्थ' है
कायस्थों के इतिहास का सूक्ष्म उल्लेख 'कायस्थों के प्रकार' नामक अध्याय में है। हकीकत यह है कि सब कायाधारी कायस्थ हैं क्योंकि उनकी 'काया' में वह जो सबसे पहले पूज्य है, आत्मा रूप में स्थित है। यहाँ 'कायस्थ' शब्द से आशय मानव समाज से हैं जो इस तथ्य को जानता और मानता है। हैं तो शेष जन भी 'कायस्थ' किन्तु वे इस सत्य को या तो जानते नहीं या जानकर भी मानते नहीं। इसे इस तरह भी समझें कि कायस्थ ब्रह्म (सत्य) को जानकर पौरोहित्य, वैद्यक, शिक्षण कर्म करने के कारण ब्राह्मण, शासन-प्रशासन प्रमुख होने के नाते क्षत्रिय, विविध व्यवसाय करने में दक्ष होने के कारण वैश्य तथा सकल सृष्टि की सेवा कर दीनबंधु होने के नाते शूद्र हैं किन्तु उन्हें इन चरों में कोई समाज अपना 'अंश' या 'अंग' नहीं मान सकता क्योंकि वे 'अंश' नहीं 'पूर्ण' हैं। कायस्थ पंचम वर्ण नहीं अपितु चरों वर्णों का समन्वित समग्र विराट रूप हैं। कायस्थों के अंश ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही नहीं बौद्ध, जैन, सिख, यवन आदि भी हैं इसीलिये दुनिया के किसी पूजालय, पंथ, संप्रदाय, महापुरुष को कायस्थ नकारते नहीं, वे सबके सद्गुणों को स्वीकारते हैं और असदगुणों से दूर रहते हैं।
सकल सृष्टि कायस्थ है, मान सके तो मान।
भव बंधन तब ही कटे, जब हो सच्चा इंसान।।
कण कण प्रभु का लेख है, देख सके तो देख
कायस्थों संबंधी शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि से पुरातत्व के ग्रंथ भरे पड़े हैं। उन अभिलेखों की एक झलक के माध्यम से नई पीढ़ी को गौरवमय अतीत से परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है चमन जी ने। समसामयिक व्यक्तित्वों के चित्र व जीवनियाँ नई पीढ़ी को अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक प्रतीत होती है क्योंकि अन्यत्र भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। सारत:, ''भारत में १५ करोड़ से अधिक कायस्थों का महापरिवार'' ग्रंथ गागर में सागर' संहित करने का श्लाघ्य प्रयास है। ऐसे प्रयास हर जिले, हर शहर से हों तो अनगिन बिंदु मिलकर सिंधु बना सकेंगे। लंबे समय बाद कायस्थों की महत्ता प्रतपदित करने का यह गंभीर प्रयास सराहनीय है, प्रशंसनीय है। भाई चमन जी को इस सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद।
१२-४-२०२२
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द्विपदि सलिला (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिंदा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
१२-४-२०२०
***
गीत
*
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
ऐसा सोच न नयन मूँदना
खुली आँख सपने देखो
खुद को देखो, कौन कहाँ क्या
करता वह सब कम लेखो
कदम न रोको
लिखो, ठिठककर
सोचो, क्या मन में टिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
नहीं चिकित्सक ने बोला है
घिसना कलम जरूरी है
और न यह कानून बना है
लिखना कब मजबूरी है?
निज मन भाया
तभी कर रहीं
सोचो क्या मन को रुचता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
मन खुश है तो जग खुश मानो
अपना सत्य आप पहचानो
व्यर्थ न अपना मन भटकाओ
अनहद नाद झूमकर गाओ
झूठ सदा
बिकता बजार में
सत्य कभी देखा बिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
१२-४-२०१९
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
१२-४-२०१७
***
पुस्तक सलिला-
इसी आकाश में- कविता की तलाश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८, वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
*
'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है। इसके पूर्व उनके २ काव्य संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं। कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि? आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं। कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है-
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते
पानियों में चोंच मार देती है
कविता यूँ भी आकार लेती है।
अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती? 'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं।
'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है। प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है। कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है -
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके-
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही-
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान चलती रहे यही कामना है।
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पुस्तक चर्चा:
'वैशाख प्रिय वैशाख' कविताओं के पल्लव प्रेम की शाख
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[पुस्तक विवरण- वैशाख प्रिय वैशाख, बिहू गीत आधृत कवितायेँ, दिनकर कुमार, प्रथम संस्करण जनवरी २०१६, आकार २०.५ सेंटीमीटर x १३.५ सेंटीमीटर, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ११६, मूल्य ८०/-, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाइस गोदाम जयपुर ३०२००६ दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- गृह क्रमांक ६६, मुख्या पथ, तरुण नगर, एबीसी गुवाहाटी ७८१००५ असम, चलभाष ०९४३५१०३७५५, ईमेल dinkar.mail@gmail.com ]
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता के शब्दों में - 'मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये 'दूसरे के भावों', विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। यहाँ शुक्ल जी का कविता से आशय गीति रचना से हैं।
प्रतिमाह १५-२० पुस्तकें पढ़ने पर भी एक लम्बे अरसे बाद कविता की ऐसी पुस्तक से साक्षात् हुआ जो शुक्ल जी उक्त अवधारणा को मूर्त करती है। यह कृति है श्री दिनकर कुमार रचित काव्य संग्रह 'वैशाख प्रिय वैशाख'। कृति की सभी ७९ कवितायेँ असम के लोकपर्व 'बिहू' पर आधारित हैं। अधिकांश रचनाओं में कवि 'स्व' में 'सर्व' को तथा 'सर्व' में 'स्व' को विलीन करता प्रतीत होता है. 'मैं' और 'प्रेमिका' के दो पात्रों के इर्द-गिर्द कही गयी कविताओं में प्रकृति सम्पर्क सेतु की भूमिका में है। प्रकृति और जीवन की हर भाव-भंगिमा में 'प्रिया' को देखना-पाना 'द्वैत में अद्वैत' का संधान कर 'स्व' में 'सर्व' के साक्षात् की प्रक्रिया है। भावप्रवणता से संपन्न कवितायेँ गीति रचनाओं के सन्निकट हैं। मुखड़ा-अन्तर के विधान का पालन न करने पर भी भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक, कोमल-कान्त पदावली और यत्र-तत्र बिखरे लय-खंड मन को आनंदानुभूति से रस प्लावित कर पाते हैं।
सात कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियाँ, ५० से अधिक असमिया पुस्तकों के अनुवाद का कार्य कर चुके और सोमदत्त सम्मान, भाषा सेतु सम्मान, पत्रकारिता सम्मान, अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित कवि का रचनाविधान परिपक्व होना स्वाभाविक है। उल्लेख्य यह है कि दीर्घ और निरंतर सृजन यात्रा में वह नगरवासी होते हुए भी नगरीय आकर्षण से मुक्त रहकर प्रकृति से अभिन्न होकर रचनाओं में प्रकृति को उसकी अम्लानता में देख और दिखा सका है। विडंबना, विद्वेष, विसंगति और विखंडन के अतिरेकी-एकांगी चित्रण से समाज और देश को नारकीय रूप में चित्रित करते तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य की अलोकप्रियता और क्षणभंगुरता की प्रतिक्रिया सनातन शुभत्वपरक साहित्य के सृजन के रूप में प्रतिफलित हुआ है। वैशाख प्रिय वैशाख उसी श्रंखला की एक कड़ी है।
यह कृति पूरी तरह प्रकृति से जुडी है। कपौ, केतकी, तगर, भाटौ, गेजेंट, जूति, मालती, मन्दार, इन्द्रमालती, चंपा, हरसिंगार, अशोक, नागेश्वर, शिरीष, पलाश, गुलमोहर, बांस, सेमल, पीपल, लक, सरसों, बरगद, थुपूकी, गूलर, केला आदि पेड़ पौधों के संग पान-सुपारी, तांबूल, कास, घास, धान, कद्दू, तरोई, गन्ना, कमल, तुलसी अर्थात परिवेश की सकल वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन की साक्षी होकर नाचती-गाति-झूमती आनंद पा और लुटा रही हैं।आत्मानंद पाने में सहभागी हैं कोयल, पिपहरी, दहिकतरा, सखियती, मैना, कबूतर, हेतुलूका, बगुले, तेलोया, सारंग, बुलबुल, गौरैया और तितलियाँ ही नहीं, झींगुर, काबै मछली, पूठी मछली, शाल मछली, हिरसी, घडियाल. मकड़ी, चीटी, मक्खी,हिरन, कुत्ता, हाथी और घोड़ा भी। ताल-तलैया, नद, नदी, झरना, दरिया, धरती, पृथ्वी और आसमान के साथ-साथ उत्सवधर्मिता को आशीषित करती देवशक्तियों कलीमती, रहिमला, बिसंदे, हेरेपी आदि की उपस्थिति की अनुभूति ही करते ढोल, मृदंग, टोका, ढोलक आदि वाद्य पाठक को भाव विभोर कर देते है। प्रकृति और देवों की शोभावृद्धि करने सोना, मोती, मूँगा आदि भी तत्पर हैं।
दिनकर जी की गीति कवितायें साहित्य के नाम पर नकारात्मकता परोस रहे कृत्रिम भाव, झूठे वैषम्य, मिथ्या विसंगतियों और अतिरेकी टकराव के अँधेरे में साहचर्य, सद्भाव, सहकार, सहयोग, सहानुभूति और सहस्तित्व का दीप प्रज्वलित करती दीपशिखा की तरह स्वागतेय हैं। सुदूर पूर्वांचल की सभ्यता-संस्कृति, जनजीवन, लोक भावनाएँ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में लगभग हर रचना में पूरे उल्लास के साथ शब्दित हुआ है। पृष्ठ-पृष्ठ पर पंक्ति-पंक्ति में सात्विक श्रृंगार रस में अवगाहन कराती यह कृति कहीं अतिरेकी वर्णन नहीं करती।
प्रकृति की यह समृद्धि मन में जिस उत्साह और आनंद का संचार करती है वह जन-जीवन के क्रिया-कलापों में बिम्बित होता है-
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
आबादी अपने लोकाचारों में, खेल-कूद और नृत्य-गीत के जरिए
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
वस्त्र बुनती बहू-बेटी के कदम
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
जमीन से जुड़े जन बुन्देलखंड में हों या बस्तर में, मालवा में हों या बिहार में, बृज में हों या बंगाल में उल्लास-उत्साह, प्रकृति और ऋतुओं के साथ सहजीवन, अह्बवों को जीतकर जिजीविषा की जय गुंजाता हौसला सर्वत्र समान है। यहाँ निर्भया, कन्हैया और प्रत्यूषा नहीं हैं। प्रेम की विविध भाव-भंगिमाएँ मोहक और चित्ताकर्षक हैं। प्रेमिका को न पा सके प्रेमी की उदात भावनाएँ अपनी मिसाल आप हैं-
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
प्रेम कभी चुकता नहीं, वह आदिम काल से अनंत तक प्रतीक्षा से भी थकता नहीं
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
प्रेम की यह उदात्तता उन युवाओं को जानना आवश्यक है जो 'लिव इन' के नाम पर संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलते और टूटकर बिखर जाते हैं। प्रेम को पाने का पर्याय माननेवाले उसके उत्कट-व्यापक रूप को जानें-
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
मौसम की मदिरा, नींद की सुरंग, वैशाख की पगडंडी, लाल गूलर का पान है प्रियतमा जैसी अभिव्यक्तियाँ मन मोहती हैं। अंग्रेजी शब्दों के मोहजाल से मुक्त दिनकर जी ने दोनों ओर लगी प्रेमाग्नि से साक्षात् कराया है। प्रेमिका की व्यथा देखें-
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
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तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
प्रेमी की पीर और समर्पण भी कम नहीं है-
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
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अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
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प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
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मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
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हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
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रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
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कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
१२.४.२०१६
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आदि शक्ति वंदना
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आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
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पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
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परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
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जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
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दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
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प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
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वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
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मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
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ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
१२.४.२०१३
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