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गुरुवार, 6 जुलाई 2023

सुरेश कुमार पंडा, नवगीत समीक्षा



कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
*
क्रमश: विकसित होते आदि मानव ने अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्राकृतिक घटनाओं और अन्य जीव-जंतुओं की बोली को अपने मस्तिष्क में संचित कर उनका उपयोग कर अपने सत्यों को संदेश देने की कला का निरंतर विकास कर अपनी भाषा को सर्वाधिक उन्नत किया. अलग-अलग मानव-समूहों द्वारा विकसित इन बोलियों-भाषाओँ से वर्त्तमान भाषाओँ का आविर्भाव होने में अगणित वर्ष लग गए. इस अंतराल में अभिव्यक्ति का माध्यम मौखिक से लिखित हुआ तो विविध लिपियों का जन्म हुआ. लिपि के साथ लेखनाधार भूमि. शिलाएं, काष्ठ पट, ताड़ पात्र, कागज़ आदि तथा अंगुली, लकड़ी, कलम, पेन्सिल, पेन आदि का विकास हुआ. अक्षर, शब्द, तथा स्थूल माध्यम बदलते रहने पर भी संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ नहीं बदलीं. अपने सुख-दुःख के साथ अन्यों के सुख-दख को अनुभव करना तथा बाँटना आदिकाल से आज तक ज्यों का त्यों है. अनुभूतियों के आदान-प्रदान के लिए भाषा का प्रयोग किये जाने की दो शैलियाँ गद्य और पद्य का विकसित हुईं. गद्य में कहना आसान होने पर भी उसका प्रभाव पद्य की तुलना में कम मर्मस्पर्शी रहा.
पद्य साहित्य वक्ता-श्रोता तथा लेखक-पाठक के मध्य संवेदना-तन्तुओं को अधिक निकटता से जोड़ सका. विश्व के हिस्से और हर भाषा में पद्य सुख-दुःख और गद्य दैनंदिन व्यवहार जगत की भाषा के रूप में व्यवहृत हुआ. भारत की सभ्यता और संस्कृति उदात जीवनमूल्यों, सामाजिक सहचरी और सहिष्णुता के साथ वैयक्तिक राग-विराग को पल-पल जीती रही है. भारत की सभी भाषाओँ में पद्य जीवन की उदात्त भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सहजता और प्रचुरता से प्रयुक्त हुआ. हिंदी के उद्भव के साथ आम आदमी की अनुभूतियों को, संभ्रांत वर्ग की अनुभूतियों पर वरीयता मिली. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजाओं और विदेश संप्रभुओं के विरुद्ध जन-जागरण में हिंदी पद्य साहित्य में महती भूमिका का निर्वहन किया. इस पृष्ठभूमि में हिंदी नवगीत का जन्म और विकास हुआ. आम आदमी की सम्वेदनाओं को प्रमुखता मिलने को साम्यवादियों ने विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा से जोड़ा. साम्यवादियों ने स्वान्त्रयोत्तर काल में जन समर्थन तथा सत्ता न मिलने पर भी योजनापूर्वक शिक्षा संस्थाओं और साहित्यिक संस्थाओं में घुसकर प्रचुर मात्र में एकांगी साहित्य रचकर, अपने की विचारधारा के समीक्षकों से अपने अनुकूल मानकों के आधार पर मूल्यांकन कराया.
अन्य विधाओं की तरह नवगीत में भी सामाजिक विसंगति, वर्ग संघर्ष, विपन्नता, दैन्य, विडम्बना, आक्रोश आदि के अतिरेकी और एकांगी शब्दांकन को वैशिष्ट्य मान तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य रचने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी. भारतीय आम जन सनातन मूल्यों और परम्पराओं में आस्था तथा सत-शिव-सुंदर में विश्वास रखने के संस्कारों के कारण ऐसे साहित्य से दूर होने लगा. साहित्यिक प्रेरणा और उत्स के आभाव ने सामाजिक टकराव को बढ़ाया जिसे राजनीति ने हवा दी. साहित्य मनीषियों ने इस संक्रमण काल में सनातन मूल्यपरक छांदस साहित्य को जनभावनाओं के अनुरूप पाकर दिशा परिवर्तन करने में सफलता पाई. गीत-नवगीत को जन सामान्य की उत्सवधर्मी परंपरा से जोड़कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
*
अधरों के किसलई
किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
*
सनातन शाश्वत अनुभूतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते. अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रहीं आँखें
जाने कब
अँधियारा पसर गया?
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
*
नवगीत की सरसता सहजता, ताजगी और अभिव्यंजना ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की कला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
*
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं को नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
*
'लिखा है एक ख़त' शीर्षक गीत में सुरेश जी प्रेम को दैहिक आयाम से मुक्त कराकर अंतर्मन से जोड़ते हैं-
भीतर के गाँवों तक
थिरक गयी
पुलकन की
लहर अनकही
निथर गयी
साँसों पर आशाएँ
उर्मिल और
तरल अन्बही
भीतर तक
पसर गयी है
गंध एक अनाम.
लिखा है एक ख़त
यह और
अनब्याही ललक के नाम.
*
जीवन में बहुद्द यह होता है की उल्लास की घड़ियों में ख़ामोशी से दबे पाँव, बिना बताये गम भी प्रवेश कर जाता है. बिटिया के विवाह का उल्लास कब बिदाई के दुःख में परिवर्तित हो जाता है, पता ही नहीं चल पाता. सुरेश जी इस जीवन सत्य को 'अनछुई उसासें' शीर्षक से उठाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रही आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया,
एकाकी बगर गया,
रीते रहे पल-छीन
अनछुई उसासें
*
गुपचुप इशारों सी
तारों की पंक्ति
माने तब
मनुहारिन अलकों में
निष्कम्पित पलकों में
आते पदचापों की होती है गिनती.
*
'अपने मन का हो लें' गीत व्यवस्था से मोह भंग की स्थिति में मनमानी करनी की सहज-स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति को सामने लता है किन्तु इसमें कहीं विद्रोह का स्वर नहीं है. असहमति और मत वैभिन्न्य की भी अभिव्यक्ति पूर्ण सकारात्मकता के साथ कर पाना गीतकार का इष्ट है-
अमराई को छोड़
कोयलिया
शहर बस गयी
पीहर पाकर
गूँज रही है
कूक सुरीली
आओ अब हम
खिड़की खोलें.
प्रेशर कुकर की सीटी भाप को निकाल कर जिस तरह विस्फोट को रोकती है उसे तरह यहाँ खिड़की खोलने का प्रतीक पूरी तरह सार्थक और स्वाभाविक है.
जुगनू ने
पंगत तोडी है
तारों की
संगत में आकर
उजियारा
सपना बन बैठा
कैसे हम जीवन रस घोलें?...
.... तम का
क्या विस्तार हो गया
बतलाओ तो
क्यों न अपने मन का हो लें?
*
आदिवासी और ग्रामीण अंचलों में अभावों के बाद भी जीवन में व्याप्त उल्लास और हौसले को सुरेश जी 'मैना गीत गाती हैं' में सामने लाते हैं. शहरी जीवन की सुविधाएँ और संसाधन विलासिता की हद तक जाकर भी सुख नहीं दे पाते जबकि गाँव में आभाव के बाद भी जिंदगी में 'गीत' अर्थात राग शेष है.
मैना गीत गाती है
रात में जं
गल सरइ के
गुनगुनाते हैं.
घोर वन के
हिंस्र पशु भी
शांत मन से
झुरमुठों में
शीत पाते हैं.
रात करती नृत्य
मैना गीत गाती है.
हरड़ के पेड़ों चढ़ी
वह
भोर की ठंडी हवा भी
सनसनाती है.
जंगली फल-मूल से
घटती उदर ज्वाला
मन का नहीं है
अब तलक
कोना कोई काला.
स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना 'सतपुड़ा के घने जंगल' की याद दिलाती इस रचना का उत्तरार्ध जंगल की शांति मिटाते नकसली नक्सली आतंक को शब्दित करता है-
अब यहाँ
जीवन-मरण का
खेल चलता है
बारूदों के ढेर बैठा
विवश जीवन
हाथ मलता है.
भय का है फैला
क्षेत्र भर में
अजब कारोबार
वैन में,
नदी में
पर्वतों में
आधुनिकतम बंदूकें ही
दनदनाते हैं.
*
अपने समय के सच से आँख मिलाता कवि साम्यवाद और प्रगतिवाद की यह दिशाहीन परिणति सामने लाने में यत्किंचित भी संकोच नहीं करता. 'मन का कोना में निस्संकोच कहता है-
अर्थहीन
पगडंडी जाती
आँख बचाकर
दूर.
नवगीत इस 'अर्थहीनता' के चक्रव्यूह को बेधकर 'अर्थवत्ता' के अभिमन्यु का जयतिलक कर सके, इसी में उसकी सार्थकता है. प्राकृतिक वन्य संपदा और उसमें अन्तर्निहित सौन्दर्य कवि को बार-बार आकर्षित करता है-
कांस फूला
बांस फूला
आम बौराया.
हल्दी का उबटन घुलाकर
नीम हरियाया.
फिर गगन में मेघ संगी
तड़ित पाओगे.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेरा चंचल हुआ है, तुम आये थे, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
***

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

समीक्षा, सच कहूँ तो, निर्मल शुक्ल, नवगीत

पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो 
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत 
अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए 
हम अँधेरों की बहुत 
पीछे इमारत 
अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी 
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना, 
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित 
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी 
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो 
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत 
चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना 
हो सके तो
एक पल को मान लेना 
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी 
चूक से
बचना-सम्हलना 
हो सके तो
एक पल को, कोख की 
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत 
हवा के
हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-
'नदी से जन्मती है 
सच कहूँ तो 
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल 
उफनती धार में छल-छल 
प्रकृति को 
बाँटती सुषमा 
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर 
सजाती छरहरे जंगल 
प्रवाहों में समाई 
सच कहूँ तो 
आज विकृतियाँ'..... 
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो 
स्वस्ति आकृतियाँ... 
....सिरा लें, आज चलकर 
सच कहूँ तो 
हर विसंगतियाँ ' 
निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग 
फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना 
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज 
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। 
उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, 
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में 
नाव कागजी भी 
उतराती है 
सच कह दूँ तो 
रोज सभ्यता 
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को 
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की 
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो 
यहाँ सभ्यता 
चीख दबाती है 
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-
इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें 
तो, 
आगे अच्छे दिन होंगे 
यही समय है
सच कह दूँ तो 
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित 
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर 
समय बाँचकर 
समां गया आँगन में सारा

उत्सव होंगे, पर्व मनेगा 
रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो 
फिर जीने के वासंती 
संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। 
नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है। 
इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
*************
संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४




गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

समीक्षा नवगीत ब्रजेश श्रीवास्तव

कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
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समीक्षा एक और अरण्य काल निर्मल शुक्ल

 कृति चर्चा:

एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं:
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
.
शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस
'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम
'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत
.
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'
वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है।

शनिवार, 15 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा: 
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ 
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]

*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल  में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
                       नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं 
                       जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं 
                                              की सरगम तैयार नये संगीत की 
                       कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं 
                       छोटी सी गागर में सागर भरते हैं 
                                              जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की 
                       जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं 
                       गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं 
                                              लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की 
                                              अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की 

सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.' 

निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव  में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर' 

यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'...   किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.

राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली'  प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:

कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता 
कभी वसंत सुहाना 
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न 
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके 
हों हम मुक्त ऋणों से 

नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:

ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...

.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब 
     हार में भी जीत का निश्चय हुआ है. 

प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'

सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'

मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार  रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''

नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.

'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.

'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में  लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.

'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है.  मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.

'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४)  समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.

'ममता का छप्पर'  नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता  १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.

'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.

'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.

वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८,  १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.

इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.

   
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Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244

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कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
संजीव 
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[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष  ९४१२३ १६७७९,  ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
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डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित  किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं. 

पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विांगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बांसुरी में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . -२७-२८ 
'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.  

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टी अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.' 

डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिए ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती स्ब्वेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुन्टी ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है. अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शरशैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छटी पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सघ को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'

विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की  अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम 
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें'  

जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूटा, जमीन से अंकुर उगता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:
विसंगति: 
बुधिया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे. 
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी  / पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी / तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' १२७-१२८ 
 किंकर्तव्यविमूढ़ता:  
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे? 
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी 
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी 
अब हुई गायब / यहाँ की छाँव / कोई क्या करे? १२९-१३०  
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पीली पड़ी रौशनी से हम / कैसे रात उजासें?
आल्हा बाँच रही / आँगन में / बैठी हुई उदासी 
सिर्फ  सयानापन / फ्लैटों में / लेता पड़ा उबासी 
रिश्तों के कैंसर को / बोलो / कैसे आज विनाशें? १२५-१२६ 
नागफनी पैरों में / बाँधे / कितनी  दूर चलें? 
स्वयं को / कितना और छलें?
भाषा के दफ्तर में / शब्दों के क्लर्क /  हैं भ्रष्टाचारी  

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कृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
*
[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूलकी ओर नहीं जा सकता। 

वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' -नवगीत के नये प्रतिमान  

डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय  की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखतिब हैकृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र 
चर्चाकार: आचार्य संजीव 
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[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
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सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूल की ओर नहीं जा सकता। 

वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' 

डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय  की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखातिब है

डॉ. नामवर सिंह में अनुसार ' समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अंतर्वस्तु बदलती है तो उसका 'सुर' और 'कहन' की  बदलती है।'

उक्त तीनों अभिमतों के प्रकाश में गीता पंडित के तीसरे (पहला मौन पलों का स्पंदन १९११, दूसरा लकीरों के आर-पार १९१३) नवगीत संग्रह 'अब और नहीं बस' को पढ़ना और उस पर चर्चा करना बेहतर होगा। विवेच्य संग्रह का केंद्र नारी उत्पीड़न और नारी विमर्श है 'पीर के हर एक समंदर / को बना नदिया / बहो तुम', 'ओ री चिड़िया! / तनिक ज़रा तुम / मुख तो खोलो', ' गांठें इतनी / लगी पलों में / मन की रस्सी टूट गयी', 'मैं जो हूँ / बस वो ही हूँ / करो ना हस्ताक्षर मुझ पर', 'अपने घर हो / गये पराये / वहशी आदम जात लगे', 'एकाकी गलियों में जाकर / मन तो / रोया करता है', 'कसकता रहा / रात भर मनवा / पीर हुई पल में गहरी', 'लेकिन जो / अंतर को छू ले / ऐसा साथी मिला कहाँ?', 'पहनाई ये / कैसी पायल / जिनमें बोल नहीं सजते', 'सब कुछ बदल / रहा है लेकिन / पीर कहाँ बदली मीते!', 'भूल गयी मैं देस पीया का / असुंवन भीगे / गाल', 'मौन हो गये / मन के पाखी / मौन हुई डाली-डाली', 'मात्र समर्पण / की हूँ दासी / बिन इसके कुछ भान नहीं', ' नीर / सिसकते गहरे / शेष अभी / क्या है तन में?' आदि-आदि अभियक्तियाँ नारी की व्यथ-कथा पर ही केंद्रित हैं 

प्रश्न यह उठता है कि नवगीत वर्ग विशेष की अनुभूतियों का वाहक हो या समग्र समाज की भावनाओं का पोषक हो? यह भी कि क्या वास्तव में  नारी इतनी पीड़ित है कि उसका जीवन दूभर है? यदि ऐसा है तो घर-घर में जो शक्ति माँ, बहिन, भाभी, पत्नी, बेटी के रूप में मान, ममता, आदर, प्यार और लाड़ पा रही, अपने सपने साकार कर रही और पुरुष का सहारा ही नहीं सम्बल भी बन रही है, वह कौन है? स्त्री-पुरुष संबंध में टूटन हो तो क्या पीड़ा केवल स्त्री को होती है? पुरुष की टूटन भी क्या चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए? क्यास्त्री प्रताड़ना का दोषी पुरुष मात्र है? क्या स्त्री का शोषण स्त्री खुद भी नहीं करती? क्या सास-बहू, नन्द भाभी, विमाता, सौतन आदि की भूमिकाओं में खलनायिकाएँ स्त्री ही नहीं होतीं? इस प्रश्नों पर विचरण का यहाँ न स्थान है न औचित्य किन्तु संकेतन इसलिए कि संग्रह की रचनाओं में यह एकांगी स्वर मुखर हो रहा है  इससे रचनाकार की तटस्थता और निष्पक्षता के साथ-साथ सृजन के उद्देश्य  पर भी सवाल उठता है 

यदि वाकई यह पीड़ा इतनी घनीभूत तथा असह्य है तो फिर नारी-मन में पीड़ा के कारण पुरुष के प्रति विद्रोह के स्थान पर आकर्षण क्यों?, पुरुष के साथ की कामना क्यों? 'हरकारा संदेसा लेकर / जैसे ही आया / ढोल नगाड़े / बज उठे / लो उत्सव मन छाया', 'एक तुम्हारे बिन कैसे / आज सुन्दर है तन-मन', 'एक तुम्हारे संग में ही तो / मन के पंछी गाये थे', 'तुम बिन मीते! हँसी स्वप्न सब / सपने होकर / रह गये', 'भाव की हर भंगिमा ने / मीत! तुमको ही पुकारा', 'गेट बन जाऊँगी मीठे! / गुनगुना जो / दो मुझे तुम', 'छोड़ तुम्हें / किसको / ध्यायें', 'पाये ना कल मन ना बैठे हार कर / ओ परदेसी! / मीत मेरे जल्दी आना', 'जिन गीतों में / तुमको गाते / गीत वो ही बस मन भाये', 'जो जीवन में / रस घोले / ऐसा रसमय सार चाहिए / एक तुम्हारा प्यार चाहिए', 'अस्त होते / सूर्य सा ढलना सहा है / मीत तुम बिन', 'तुम सुधा का सार प्यासी / बूँद हूँ मैं / तुमसे ही अस्तित्व मेरा', 'इस अँधेरी रात के / लो पायताने बैठकर / फिर तुम्हें दोहरा रही हूँ / 'मीत! तुमको गा  रही हूँ', 'द्वारे बैठे बात जोहती / जल्दी से आ जाओ' आदि भावभिव्यक्तियाँ  नारी उत्पीड़न के स्वर को कमजोर ही नहीं करतीं, झुठ्लाती भी हैं

श्रृंगार के मिलन-विरह दो पक्षों की तरह इन्हें एक-दूसरे का पूरक मान लेने पर भी ये अभिव्यक्तियाँ पारम्परिकता का ही निर्वहन करती प्रतीत होती हैं, इनमें जनसंवादधर्मिता अथवा भावों का सामान्यीकरण नहीं दिखता   

गीता पंडित सुशिक्षित (एम. ए. अंग्रेजी साहित्य, एम. बी. ए. विपणन), सचेतन तथा  जागरूक हैं किन्तु उनके इन गीतों में नगरीय परिवेश में शोषित होते, संघर्ष करते, टूटते-गिरते, उठते-बढ़ते मानवों की जय-पराजय का संकेतन नहीं है ये गीत दैनंदिन जीवन संघर्षों, अवसादों-उल्लासों से दूर निजी दुनिया की सैर कराते हैं 

गीता पंडित के गीतों की भाषा सहज बोधगम्य, मुहावरेदार, प्रसाद गुण संपन्न है। अंग्रेजी, उर्दू, अथवा तत्सम-तद्भव शब्द कहीं-कहीं प्रयोग हुए हैं इन गीतों का सबलपक्ष इनकी सहजता, सरलता तथा सरसता है। मीत, मीता, मीते सम्बोधन की बारम्बार आवृत्ति खटकती है। गीता जी शिल्प पर कस्थ्य को वरीयता देती हैं। वे शब्दों, तथा क्रियाओं के प्रचलित रूपों का सहजता से प्रयोग करती हैं। ल्हाश, बस्स, क्यूँ, यूं, कन्नी, समंदर, अलस्सवेरे, झमाझम, मनवा, अगन, बत्यकार, मद्धम,  जैसे देशज शब्द भाषा में मिठास घोलते हैं 

 'देख आज ये कैसा मेरे / मन पर लगे / मलाल, प्रेम गली बुहरा आये, मनवा आता अँखियाँ मूँद, तनिक ज़रा तुम, नेह का मौली' जैसी अभिव्यक्तियों पर पुनर्विचार कर परिवर्तन अपेक्षित है 

सारत: अब और नहीं बस के गीत पाठक को रुचेंगे किन्तु समीक्षकों की दृष्टि से गीत-नवगीत की परिधि पर हैं गीता जी छंद को अपनाती हैं पर उसके विधाओं के प्रति आग्रही नहीं है वे 'सहज पके सो मीठा होय' की लोकोक्ति की पक्षधर हैं  आलोच्य संग्रह के गीत रचनाकार के मंतव्य को पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सफल हैं  उनके पूर्व २ संकलन देखें के बाद विकास यात्रा की चर्चा हो सकेगी  आगामी संकलन में उनसे नवगीत के विधानात्मक पक्ष के प्रति अधिक सजगता की अपेक्षा की जासकती है. 

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कृति चर्चा: 
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
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विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं।  इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि  ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में  'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।

डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर  विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते  हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं। 

नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और  स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-

अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल 
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल  
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे 
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे 

वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-

घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने 
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने 

अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं- 

लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय 
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय 
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है 

छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं। 

कृषक के कंधे हुए कमजोर  / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात 
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात 

गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे- 

इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार 
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार 
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे 
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे 
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए 
वक्त के तेवर बदल गए 
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे 
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे 

सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये- 

चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक 
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक  
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने 
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने 
किन्तु आँख खुलते ही 
हाथ से फिसल गयी 
इधर पीलिया उधर खिल गए 
अमलतास के फूल 

गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं। 

बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल    
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट 
दिखता है रंगदार 
नदी किनारेवाला मछुआ 
रह-रह बुनता जाल 
भूखे-प्यासे ढोर देखते 
चरवाहों की और 
भेड़ चरानेवाली, वन में 
फायर ढूंढती भोर 
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल  

गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते- 

एक चिड़िया की चहक सुनकर 
गीत पत्तों पर लगे छपने 
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस 
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास 

छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है। 

जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता  प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।

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कृति चर्चा: 
समीक्षा के अभिनव सोपान : नवगीत का महिमा गान 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: समीक्षा के अभिनव सोपान, संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, वर्ष २०१४, पृष्ठ १२४, २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी,  प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण मंडल कोलोनी, होशंगाबाद, चलभाष ९४२५० ४०९२१, संपादक संपर्क- ८/२९ ए शिवपुरी, अलीगढ २०२००१ ]
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किसी विधा पर केंद्रित कृति का प्रकाशन और उस पर चर्चा होना सामान्य बात है किन्तु किसी कृति पर केन्द्रित समीक्षापरक आलेखों का संकलन कम ही देखने में आता है. विवेच्य कृति सनातन सलिला नर्मदा माँ के भक्त, हिंदी मैया के प्रति समर्पित ज्येष्ठ और श्रेष्ठ रचनाकार श्री गुरुमोहन गुरु की प्रथम नवगीत कृति 'मुझे नर्मदा कहो' पर लिखित समालोचनात्मक लेखों का संकलन है. इसके संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं. युगबोधवाही कृतिकार, सजग समीक्षक और विद्वान संपादक का ऐसा मणिकांचन संयोग कृति को शोध छात्रों के लिये उपयोगी बना सका है. 

कृत्यारम्भ में संपादकीय के अंतर्गत डॉ. उपाध्याय ने नवगीत के उद्भव, विकास तथा श्री गुरु के अवदान की चर्चा कर,  नवगीत की नव्य परंपरा का संकेत करते हुए छंद, लय, यति, गति, आरोह-अवरोह, ध्वनि आदि के प्रयोगों, चैतन्यता, स्फूर्ति, जागृति आदि भावों तथा जनाकांक्षा व जनभावनाओं के समावेशन को महत्वपूर्ण माना है. नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उद्योगप्रधान नागरिक जीवन की गद्यात्मकता के भीतर जीवित कोमलतम मानवीय अनुभूतियों के छिपे कारणों को गीत के माध्यम से उद्घाटित कर नवगीत आन्दोलन को गति दी. डॉ. किशोर काबरा नवगीत में बढ़ते नगरबोध का संकेतन करते हुए वर्तमान में नवगीतकारों की चार पीढ़ियों को सक्रिय मानते हैं. उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी छ्न्दाश्रित, बीच की पीढ़ी लयाश्रित, नई पीढ़ी लोकगीताश्रित तथा नवागत पीढ़ी लयविहीन नवगीत लिख रही है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है की मैंने लोकगीतों तथा विविध छंदों की लय तथा नवागत पीढ़ी द्वारा सामान्यत: प्रयोग की जा रही भाषा में नवगीत रचे तो डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा इंगित तत्वों को अंतिम कहते हुए कतिपय रचनाकारों ने न केवल उन्हें नवगीत मानने से असहमति जताई अपितु यहाँ तक कह दिया कि नवगीत किसी की खाला का घर नहीं है जिसमें कोई भी घुस आये. इस संकीर्णतावादियों द्वारा हतोत्साहित करने के बावजूद यदि नवागत पीढ़ी नवगीत रच रही है तो उसका कारण श्री गिरिमोहन गुरु, श्री भगवत दुबे, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री किशोर काबरा, श्री राधेश्याम बंधु, कुमार रवीन्द्र,  डॉ. रामसनेही लाल यायावर, श्री ब्रजेश श्रीवास्तव जैसे परिवर्तनप्रेमी नवगीतकारों का प्रोत्साहन है. 

'मुझे नर्मदा कहो' (५१ नवगीतों का संकलन) पर समीक्षात्मक आलेख लेखकों में सर्व श्री / श्रीमती डॉ. राधेश्याम 'बन्धु', डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. विनोद निगम, डॉ. किशोर काबरा, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. सूर्यप्रकाश शुक्ल, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी, विजयलक्ष्मी 'विभा', मोहन भारतीय, छबील कुमार मैहर, महेंद्र नेह, डॉ. हर्षनारायण 'नीरव', गोपीनाथ कालभोर, अशोक गीते, डॉ. मधुबाला, डॉ. जगदीश व्योम, डॉ. कुमार रविन्द्र, डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, डॉ. शरद नारायण खरे, कृष्णस्वरूप शर्मा, डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, डॉ. विजयमहादेव गाडे, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश श्रीवास्तव, सरिता सुराणा जैन, श्रीकृष्ण शर्मा, राजेंद्र सिंह गहलोत, डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, नर्मदा प्रसाद मालवीय, डॉ. नीलम मेहतो, डॉ. उमेश चमोला, डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. हरेराम पाठक 'शब्दर्षि', रामस्वरूप मूंदड़ा, यतीन्द्रनाथ 'राही', डॉ. अमरनाथ 'अमर', डॉ. ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', डॉ. तिलक सिंह, डॉ. जयनाथ मणि त्रिपाठी, मधुकर गौड़, डॉ. मुचकुंद शर्मा, समीर श्रीवास्तव जैसे सुपरिचित हस्ताक्षर हैं.     

डॉ. नामवर सिंह के अनुसार 'नवगीत ने जनभावना और जनसंवादधर्मिता को  अपनी अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए वह जनसंवाद धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है.' यह खारापन गुरु जी के नवगीतों में राधेश्याम 'बन्धु'  जी ने देखा है. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने गुरु जी के मंगीतों में जीवन की विडंबनाओं को देखा है:

सभा थाल ने लिया हमेशा / मुझे जली रोटी सा 
शतरंजी जीवन का अभिनय / पिटी हुई गोटी सा 
सदा रहा लहरों के दृग में / हो न सका तट का 

डॉ. विनोद निगम ने गुरु जी को समसामयिकत के फलक पर युगीन ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का यथार्थवादी अंकन करने में समर्थ माना है- 

सूरज की आँखों में अन्धकार छाया है 
बुरा वक्त आया है 
सिर्फ भरे जेब रहे प्रजातंत्र भोग 
बाकी 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 8324


facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 
  

कृति चर्चा:
शिवांश से शिव तक : ग्रहणीय पर्यटन वृत्तांत 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
[कृति विवरण: शिवांश से शिव तक (कैलास-मानसरोवर यात्रा में शिवतत्व की खोज), ओमप्रकाश श्रीवास्तव - भारती, यात्रा वृत्तांत, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लैमिनेटेड, पृष्ठ २०४ + १६ पृष्ठ बहुरंगी चित्र, प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, द्वितीय तल, उषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, ४२ मालवीय नगर भोपाल ४६२००३, लेखक संपर्क: opshrivastava@ymail.com]
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भाषा और साहित्य का एक सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। जैसे कोई संतान मन से जन्मती और माँ को परिपूर्ण करती है वैसे ही साहित्य भाषा से जन्मता और भाषा को सम्पूर्ण करता है। भाषा का जन्म समाज से होता। आम जन अपने दैनन्दिन क्रिया-कलाप में अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को अभिव्यक्त और साझा करने के लिये जिस शब्द-समुच्चय और वाक्यावलियों का प्रयोग करते हैं, वह आरम्भ में भले ही अनगढ़ प्रतीत होती है किन्तु भाषा की जन्मदात्री होती है। शब्द भण्डार, शब्द चयन, कहन (बात कहने का सलीका), उद्देश्य तथा सैम सामयिकता के पंचतत्व भाषा के रूप निर्धारण में सहायक होते है और भशा से ही वर्ण्य-विषय (कथ्य) पाठक-श्रोता तक पहुँचता है।  स्पष्ट है कि भाषा रचनाकार और पाठक के मध्य संवेदन सेतु का निर्माण करती है।  जो लेखक ये संवेदना-सेतु बना पते हैं उनकी कृति हाथ दर हाथ गुजरती हुई पढ़ी, समझी, सराही और चर्चा का विषय बनाई जाती है. विवेच्य कृति इसी श्रेणी में गणनीय है।

हिंदी में सर्वाधिक लिखी जानेवाली किन्तु न्यूनतम पढ़ी जानेवाली विधा पद्य है। प्रकाशकों के अनुसार गद्य अधिक बिकाऊ और टिकाऊ है किन्तु गद्य की लोकप्रिय विधाएँ कहानी, उपन्यास, व्यंग और लघुकथा हैं। एक समर्थ रचनाकार इन्हें छोड़कर एक ऐसी विधा में अपनी पहली पुस्तक प्रस्तुत करने का साहस करें जो अपेक्षाकृत काम लिखी-पढ़ी और बिकती हो तो उसकी ईमानदारी का अनुमान किया जा सकता है की वह विषय के अनुकूल अपनी भावाभिव्यक्ति और कथ्य के अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त विधा का चयन कर रहा है और उसे दुनियादारी से अधिक अपने आप की संतुष्टि और विषय से न्याय करने की चिंता है। 'स्व' और 'सर्व' का समन्वय और संतुलन 'सत्य-शिव-सुन्दर' की प्रतीति करने के पथ पर ले जाता है। यह कृति आत्त्म-साक्षात के माध्यम से 'शिवत्व' के संधान का सार्थक प्रयास है।

श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव पेशेवर या आदतन लिखने के आदि नहीं हैं इसलिए उनकी अनुभूतियाँ अभिव्यक्ति बनाते समय कृत्रिम भंगिमा धारण नहीं करतीं, दिल की गहराइयों में अनुभूत सत्य कागज़ पर तथ्य बनकर अंकित होता है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होने को विस्मृत कर वे आम जन की तरह व्यवहार करते और पाते हुए यात्रा की तैयारियों, परीक्षणों, चरणों तथा समापन तक सजग-सचेष्ट रहे हैं। भारती जी ने भोजन में पानी की तरह कहीं भी प्रत्यक्ष न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित हैं तथा पूरे प्रसंग को सम्पूर्णता दे स्की हैं। धर्म, लोक परम्परा, विज्ञान, कल्पना तथा यथार्थ के पञ्च तत्वों का सम्मिश्रण उचित अनुपात में कर सकने में लेखन सफल हुआ है। किसी भी एक तत्व का अधिक होना रस-भंग कर सकता था किन्तु ऐसा हुआ नहीं । 

यह पुस्तक पाठक को सांगोपांग जानकारी देती है। यथावश्यक सन्दर्भ प्रामाणिकता की पुष्टि करते हैं। दुनियादारी और 
वीतरागिता के मध्य संतुलन साधना दुष्कर होता है किन्तु एक का निष्पक्ष होने प्रशासनिक अनुभव और दूसरे का गार्हस्थ जीवन में होकर भी न होने की साधना सकल वृत्तांत को पठनीय बना सकी है।  शिव का आमंत्रण, शिव से मिलने की तैयारी, हे शिव! यह शरीर आपका मंदिर है, शिव- अनेकता में एकता के केंद्र, निःस्वार्थ सेवा की सनातन परंपरा, व्यष्टि का समष्टि में विलय, प्रकृति से पुरुष तक, प्रकृति की रचना ही श्रेष्ठ है, जहाँ प्रकृति स्वयं ॐ लिखती है, रात का रहस्यमयी सौंदर्य, स्वर्गीय सौंदर्य से बंजर पठारों की ओर, चीनी ड्रैगन की हेकड़ी और हमारा आत्म सम्मान, शक्ति और शांति के प्रतीक: राक्षस ताल और मानसरोवर, शिव का निवास कैलास, जहाँ आत्मा नृत्य कर उठे, महाकाल के द्वार से, परम रानी गिरिबरु कैलासू, जहाँ पुनर्जन्म होता है, भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी, कैलास और शिवतत्व, कैलास पर्वते राम मनसा निर्मितं परम, मानसरोवर के चमत्कार, तब इतिहास ही कुछ और होता, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी तथा फिर पुराने जगत में शीर्षक २५ अध्यायों में लिखित यह कृति पाठक के मनस-चक्षुओं में कैलाश से साक्षात की अनुभूति करा पाती है। आठ परिशिष्टों में भविष्य में कैलास यात्रा के इच्छुकों के लिये मार्गों, खतरों, औषधियों, सामग्रियों, ऊँचाईयों, सहायक संस्थाओं तथा करणीय-अकरणीय आदि संलग्न करना यह बताता है कि लेखक को पूर्वानुमान है की उनकी यह कृति पाठकों को कैलास यात्रा के लिए प्रेरित करेगी जहाँ वे आत्साक्षात् के पल पाकर धन्य हो सकेंगे। 

हिंदी वांग्मय का पर्यटन खंड इस कृति से निश्चय ही समृद्ध हुआ है। लेखक की वर्णन शैली रोचक, प्रसाद गुण संपन्न है। नयनाभिराम चित्रों ने कृति की सुंदरता ही नहीं उपयोगिता में भी वृद्धि की है। यत्र-तत्र रामचरित मानस, श्रीमद्भगवत्गीता, महाभारत, पद्मपुराण, बाल्मीकि रामायण आदि आर्ष ग्रंथों ने उद्धरणों ने प्रामाणिकता के साथ-साथ ज्ञानवृद्धि का मणि-काञ्चन संयोग प्रदान किया है।  कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में चीनी आधिपत्य से उपजी अस्वच्छता, सैन्य हस्तक्षेप, असहिष्णुता तथा अशालीनता का उल्लेख क्षोभ उत्पन्न करता है किन्तु यह जानकारी होने से पाठक कैलास यात्रा पर जाते समय इसके लिये खुद को तैयार कर सकेगा।  
विश्व हिंदी सम्मलेन भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्या मंत्री श्री शिवराज सिंग के कर कमलों से कृति का विमोचन होना इसके महत्त्व को प्रतिपादित करता है। कृति का मुद्रण स्तरीय, कम वज़न के कागज़ पर हुआ है, बँधाई मजबूत है। सकल कृति का पाठ्य पठान सजगतापूर्वक किया गया है। अत:, अशुद्धियाँ नहीं हैं।  मूलत: साहित्यकार न होते हुए भी लेखक की भाषा प्रांजल, शुद्ध, तत्सम-तद्भव शब्दावली युक्त तथा सहज ग्राह्य है।  सारत: समसामयिक उल्लेखनीय यात्रा वृत्तांतों में 'शिवांश से शिव तक' की गणना की जाएगी। इस सारस्वत अनुष्ठान  संपादन हेतु श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव तथा श्रीमती भारती श्रीवास्तव साधुवाद के पात्र हैं। 
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