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मंगलवार, 4 नवंबर 2025

नवंबर ४, लक्ष्मी, हाथी, एकाक्षरी श्लोक, माघ, दोही छंद, पैरोडी, नवगीत, गणितीय दोहा मुक्तक,

सलिल सृजन नवंबर ४
लक्ष्मी जी के १०८ नाम
१. प्रकृति, २. विकृति, ३. विद्या, ४. सर्वभूतहितप्रदा, ५. श्रद्धा,६. विभूति, ७. सुरभि, ८. परमात्मिका, ९. वाचि, १०. पद्मालया, ११. पद्मा, १२. शुचि, १३. स्वाहा, १४. स्वधा, १५. सुधा, १६. धन्या, १७. हिरण्मयी, १८. लक्ष्मी, १९. नित्यपुष्टा, २०. विभा, २१. आदित्या, २२. दित्या, २३. दीपायै, २४. वसुधा, २५. वसुधारिणी, २६. कमलसम्भवा, २७. कान्ता, २८. कामाक्षी, २९. क्ष्रीरोधसंभवा, ३०क्रोधसंभवा, ३१. अनुग्रहप्रदा, ३२. बुध्दि, ३३. अनघा, ३४. हरिवल्लभा, ३५. अशोका, ३६. अमृता, ३७. दीप्ता, ३८. लोकशोकविनाशि, ३९. धर्मनिलया, ४०. करुणा, ४१. पद्मप्रिया, ४२. पद्महस्ता, ४३. पद्माक्ष्या, ४४. पद्मसुन्दरी, ४५. पद्मोद्भवा, ४६. पद्ममुखी, ४७. पद्मनाभाप्रिया, ४८. रमा, ४९. पद्ममालाधरा, ५०. देवी, ५१. पद्मिनी, ५२. पद्मगन्धिनी, ५३. पुण्यगन्धा, ५४. सुप्रसन्ना, ५५. प्रसादाभिमुखी, ५६. प्रभा, ५७. चन्द्रवदना, ५८. चन्द्रा, ५९. चन्द्रसहोदरी, ६०. चतुर्भुजा, ६१. चन्द्ररूपा, ६२. इन्दिरा, ६३. इन्दुशीतला, ६४. आह्लादजननी, ६५. पुष्टि, ६६. शिवा, ६७. शिवकरी, ६८. सत्या, ६९. विमला, ७०. विश्वजननी, ७१. तुष्टि, ७२. दारिद्र्यनाशिनी, ७३. प्रीतिपुष्करिणी, ७४. शान्ता, ७५. शुक्लमाल्यांबरा, ७६. श्री, ७७. भास्करी, ७८. बिल्वनिलया, ७९. वरारोहा, ८०. यशस्विनी, ८१. वसुन्धरा, ८२. उदारांगा, ८३. हरिणी, ८४. हेममालिनी, ८५. धनधान्यकी, ८६. सिध्दि, ८७. स्त्रैणसौम्या, ८८. शुभप्रदा, ८९. नृपवेश्मगतानन्दा, ९०. वरलक्ष्मी, ९१. वसुप्रदा, ९२. शुभा, ९३. हिरण्यप्राकारा, ९४. समुद्रतनया, ९५. जया, ९६. मंगला देवी, ९७. विष्णुवक्षस्स्थलस्थिता, ९८. विष्णुपत्नी, ९९. प्रसन्नाक्षी, १००. नारायणसमाश्रिता, १०१. दारिद्र्यध्वंसिनी, १०२. देवी, १०३. सर्वोपद्रव वारिणी, १०४. नवदुर्गा, १०५. महाकाली, १०६. ब्रह्माविष्णुशिवात्मिका, १०७. त्रिकालज्ञानसम्पन्ना, १०८. भुवनेश्वरी ।
***
हिंदी वैभव - समानार्थी शब्द : हाथी
कुञ्जरः,गजः,हस्तिन्, हस्तिपकः,द्विपः, द्विरदः, वारणः, करिन्, मतङ्गः, सुचिकाधरः, सुप्रतीकः, अङ्गूषः, अन्तेःस्वेदः, इभः, कञ्जरः, कञ्जारः, कटिन्, कम्बुः, करिकः, कालिङ्गः, कूचः, गर्जः, चदिरः, चक्रपादः, चन्दिरः, जलकाङ्क्षः, जर्तुः, दण्डवलधिः, दन्तावलः, दीर्घपवनः, दीर्घवक्त्रः, द्रुमारिः, द्विदन्तः, द्विरापः, नगजः, नगरघातः, नर्तकः, निर्झरः, पञ्चनखः, पिचिलः, पीलुः, पिण्डपादः, पिण्डपाद्यः, पृदाकुः, पृष्टहायनः, पुण्ड्रकेलिः, बृहदङ्गः, प्रस्वेदः, मदकलः, मदारः, महाकायः, महामृगः, महानादः, मातंगः, मतंगजः, मत्तकीशः, राजिलः, राजीवः, रक्तपादः, रणमत्तः, रसिकः, लम्बकर्णः, लतालकः, लतारदः, वनजः, वराङ्गः, वारीटः, वितण्डः, षष्टिहायनः, वेदण्डः, वेगदण्डः, वेतण्डः, विलोमजिह्वः, विलोमरसनः, विषाणकः।
(आभार - जमुना कृष्णराज)
***
संस्कृत - चमत्कारी भाषा
*
एकाक्षरी श्लोक
महाकवि माघ ने अपने महाकाव्य 'शिशुपाल वध' में एकाक्षरी श्लोक दिया है -
दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः ।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः ॥ १४४
अर्थ - वरदाता, दुष्टनाशक, शुद्धक, आततायियों के अंतक क्षेत्रों पर पीड़क शर का संधान करें।
विलोम पद
माघ विलोमपद रचने में भी निपुण थे।
वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा ।
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका ॥४४
पर्वतकारी हाथियों से सुसज्ज सेना का सामना करना अति दुष्कर है। यह विराट सेना है, त्रस्त-भयभीत लोगों की चीत्कार सुनाई दे रही है। इसने अपने शत्रुओं को मार दिया है।
विलोम काव्य
श्री राघव यादवीयं - बाएँ से दाएँ रामकथा, दाएँ से बाएँ कृष्णकथा
बाएँ से दाएँ
वन्देऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥
मैं श्री राम का वंदन करता हूँ जो सीता जी के लिए धड़कते हुए ह्रदय के साथ
रावण और उसके सहायकों का वधकर, सह्याद्रि पर्वतों को पार कर, रावण तथा उसके सहायकों का वध कर, लंबे समय बाद, सीता सहित अयोध्या वापिस आए हैं।
I pay my obeisance to Lord Shri Rama, who with his heart pining for Sita, travelled across the Sahyadri Hills and returned to Ayodhya after killing Ravana and sported with his consort, Sita, in Ayodhya for a long time.
दाएँ से बाएँ
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोरा ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देहं देवं ॥
मैं श्री कृष्ण का वंदन करता हूँ जिनका ह्रदय श्री लक्ष्मी का निवास है, जो त्याग-तप से ध्यान करने योग्य हैं, जो रुक्मिणी तथा अन्य संगणियों को दुलारते हैं, जो गोपियों द्वारा पूजित हैं तथा जगनागाते हुए रत्नों से शोभायमान हैं।
I bow to Lord Shri Krishna, whose chest is the sporting resort of Shri Lakshmi; who is fit to be contemplated through penance and sacrifice, who fondles Rukmani and his other consorts and who is worshipped by the gopis, and who is decked with jewels radiating splendour.
आभार: श्रीमती जमुना कृष्णराज
०००
कार्य शाला
छंद सलिला ;
दोही छंद
*
लक्षण छंद -
चंद्र कला पंद्रह शुभ मान, रचें विषम पद आप।
एक-एक ग्यारह सम जान, लघु पद-अंत सुमाप।।
*
उदहारण -
स्नेह सलिल अवगाहन करे, मिट जाए भव ताप।
मदद निबल की जो नित करे, हो जाए प्रभु जाप।।
***
************************
नवंबर : कब - क्या?
०१ गुरु गोविंद सिंह पुण्यतिथि
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ दिवस
०३ संत दयाराम वाला जयंती
०४ गणितविद् शकुंतला देवी जयंती १९९९, प्रतिदत्त ब्रह्मचारी जन्म
०५ अक्षय/आँवला जयंती
०६ अभिनेता संजीव कुमार निधन
०७ भौतिकीविद् चंद्रशेखर वेंकटेश्वर रमण जन्म १८८८
०८ देव उठनी एकादशी, गन्ना ग्यारस, तुलसी विवाह, संत नामदेव जयंती, महाकवि कालिदास जयंती।
१० मिलाद-उन-नबी, महाप्रसाद अग्निहोत्री निधन।
१२ गुरु नानक देव जयंती, म. सुदर्शन जयंती, महामना मालवीय निधन १९४६।
१३ भेड़ाघाट मेला।
१४ बाल दिवस, जवाहरलाल नेहरू जयंती, विश्व मधुमेह दिवस।
१५ बिरला मुंडा जयंती, समय विनोबा दिवस, जयशंकर प्रसाद निधन १९३७।
१६ विश्व सहिष्णुता दिवस, सचिव तेंदुलकर रिटायर २०१३।
१७ लाला लाजपतराय बलिदान दिवस १९२८, बाल ठाकरे दिवंगत २०१२, तुकड़ोजी जयंती, भ. मायानंद चैतन्य जयंती।
१८ काशी विश्वनाथ प्रतिष्ठा दिवस।
१९ म. लक्ष्मीबाई जयंती १८२८, इंदिरा गाँधी जयंती १९१७, मातृ दिवस
२१- भौतिकीविद् चंद्र शेखर वेंकट रमण निधन १९७०
२२ झलकारी बाई जयंती, दुर्गादास पुण्यतिथि।
२३ सत्य साई जयंती, जगदीश चंद्र बलि निधन १९३७।
२४ गुरु तेगबहादुर बलिदान, अभिनेता महीपाल जन्म १९१९, अभिनेत्री टुनटुन निधन २००३, साहित्यकार महीप सिंह २०१५, ।
२६ डॉ. हरि सिंह गौर जयंती।
२७ बच्चन निधन १९०७।
२८ जोतीबा फूले निधन १८९०।
२९ शरद सिंह १९६३।
३० जगदीश चंद्र बसु जन्म १८५८, मायानंद चैतन्य जयंती, मैत्रेयी पुष्पा जन्म।
***
संस्कृत - चमत्कारी भाषा
*
एकाक्षरी श्लोक
महाकवि माघ ने अपने महाकाव्य 'शिशुपाल वध' में एकाक्षरी श्लोक दिया है -
दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः ।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः ॥ १४४
अर्थ - वरदाता, दुष्टनाशक, शुद्धक, आततायियों के अंतक क्षेत्रों पर पीड़क शर का संधान करें।
विलोम पद
माघ विलोमपद रचने में भी निपुण थे।
वारणागगभीरा सा साराभीगगणारवा ।
कारितारिवधा सेना नासेधा वारितारिका ॥४४
पर्वतकारी हाथियों से सुसज्ज सेना का सामना करना अति दुष्कर है। यह विराट सेना है, त्रस्त-भयभीत लोगों की चीत्कार सुनाई दे रही है। इसने अपने शत्रुओं को मार दिया है।
विलोम काव्य
श्री राघव यादवीयं - बाएँ से दाएँ रामकथा, दाएँ से बाएँ कृष्णकथा
बाएँ से दाएँ
वन्देऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥
मैं श्री राम का वंदन करता हूँ जो सीता जी के लिए धड़कते हुए ह्रदय के साथ
रावण और उसके सहायकों का वधकर, सह्याद्रि पर्वतों को पार कर, रावण तथा उसके सहायकों का वध कर, लंबे समय बाद, सीता सहित अयोध्या वापिस आए हैं।
I pay my obeisance to Lord Shri Rama, who with his heart pining for Sita, travelled across the Sahyadri Hills and returned to Ayodhya after killing Ravana and sported with his consort, Sita, in Ayodhya for a long time.
दाएँ से बाएँ
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोरा ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देहं देवं ॥
मैं श्री कृष्ण का वंदन करता हूँ जिनका ह्रदय श्री लक्ष्मी का निवास है, जो त्याग-तप से ध्यान करने योग्य हैं, जो रुक्मिणी तथा अन्य संगणियों को दुलारते हैं, जो गोपियों द्वारा पूजित हैं तथा जगनागाते हुए रत्नों से शोभायमान हैं।
I bow to Lord Shri Krishna, whose chest is the sporting resort of Shri Lakshmi; who is fit to be contemplated through penance and sacrifice, who fondles Rukmani and his other consorts and who is worshipped by the gopis, and who is decked with jewels radiating splendour.
आभार: श्रीमती जमुना कृष्णराज
हाथी के समानार्थी शब्द:
*
समानार्थी कुञ्जरः,गजः,हस्तिन्, हस्तिपकः,द्विपः, द्विरदः, वारणः, करिन्, मतङ्गः, सुचिकाधरः, सुप्रतीकः, अङ्गूषः, अन्तेःस्वेदः, इभः, कञ्जरः, कञ्जारः, कटिन्, कम्बुः, करिकः, कालिङ्गः, कूचः, गर्जः, चदिरः, चक्रपादः, चन्दिरः, जलकाङ्क्षः, जर्तुः, दण्डवलधिः, दन्तावलः, दीर्घपवनः, दीर्घवक्त्रः, द्रुमारिः, द्विदन्तः, द्विरापः, नगजः, नगरघातः, नर्तकः, निर्झरः, पञ्चनखः, पिचिलः, पीलुः, पिण्डपादः, पिण्डपाद्यः, पृदाकुः, पृष्टहायनः, पुण्ड्रकेलिः, बृहदङ्गः, प्रस्वेदः, मदकलः, मदारः, महाकायः, महामृगः, महानादः, मातंगः, मतंगजः, मत्तकीशः, राजिलः, राजीवः, रक्तपादः, रणमत्तः, रसिकः, लम्बकर्णः, लतालकः, लतारदः, वनजः, वराङ्गः, वारीटः, वितण्डः, षष्टिहायनः, वेदण्डः, वेगदण्डः, वेतण्डः, विलोमजिह्वः, विलोमरसनः, विषाणकः।
(आभार - जमुना कृष्णराज)
छंद सलिला ;
दोही
*
लक्षण छंद -
चंद्र कला पंद्रह शुभ मान, रचें विषम पद आप।
एक-एक ग्यारह सम जान, लघु पद-अंत सुमाप।।
*
उदहारण -
स्नेह सलिल अवगाहन करे, मिट जाए भव ताप।
मदद निबल की जो नित करे, हो जाए प्रभु जाप।।
४.११.२०१९
***
नवगीत:
महका-महका
संजीव
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
४.८.२०१९
***
एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
४-११-२०१९
***
गणितीय दोहा मुक्तक:
*
बिंदु-बिंदु रखते रहे, जुड़ हो गयी लकीर।
जोड़ा किस्मत ने घटा, झट कर दिया फकीर।।
कोशिश-कोशिश गुणा का, आरक्षण से भाग-
रहे शून्य के शून्य हम, अच्छे दिन-तकदीर।।
*
खड़ी सफलता केंद्र पर, परिधि प्रयास अनाथ।
त्रिज्या आश्वासन मुई, कब कर सकी सनाथ।।
छप्पन इंची वक्ष का निकला भरम गुमान-
चाप सिफारिश का लगा, कभी न श्रम के हाथ।।
*
गुणा अधिक हो जोड़ से, रटा रहे तुम पाठ।
उल्टा पा परिणाम हम, आज हुए हैं काठ।।
एक गुणा कर एक से कम, ज्यादा है जोड़-
एक-एक ग्यारह हुए जो उनके हैं ठाठ।।
***
दोहा गीत:
दीपक लेकर हाथ
*
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।
हैं प्रसन्न माँ भारती,
जनगण-मन के साथ।।
*
अमरनाथ सह भवानी,
कार्तिक-गणपति झूम।
चले दिवाली मनाने,
भायी भारत-भूम।।
बसे नर्मदा तीर पर,
गौरी-गौरीनाथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
सरस्वती सिंह पर हुईं,
दुर्गा सदृश सवार।
मेघदूत सम हंस उड़,
गया भुवन के पार।।
ले विरंचि को आ गया,
कर प्रणाम नत माथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
सलिल लहर संजीव लख,
सफल साधना धन्य।
त्याग पटाखे, शंख-ध्वनि,
दस दिश गूँज अनन्य।।
श्रम-सीकर से स्नानकर,
मानव हुआ सनाथ।
भक्त उतारें आरती,
दीपक लेकर हाथ।।
*
४.११.२०१८
***
मुक्तक:
सह सकें जितना वही है परिधि अपनी
कह सकें जिससे विधा-विधि वही अपनी
बह सके उस अंजुरि तक जो तृषित है-
तह सके चादर अमल सिधि यही अपनी
(सिधि = सिद्धि)
४.११.२०१५
***
गीत:
उत्तर, खोज रहे...
*
उत्तर, खोज रहे प्रश्नों को, हाथ न आते।
मृग मरीचिकावत दिखते, पल में खो जाते।
*
कैसा विभ्रम राजनीति, पद-नीति हो गयी।
लोकतन्त्र में लोभतन्त्र, विष-बेल बो गयी।।
नेता-अफसर-व्यापारी, जन-हित मिल खाते...
*
नाग-साँप-बिच्छू, विषधर उम्मीदवार हैं।
भ्रष्टों से डर मतदाता करता गुहार है।।
दलदल-मरुथल शिखरों को बौना बतलाते...
*
एक हाथ से दे, दूजे से ले लेता है।
संविधान बिन पेंदी नैया खे लेता है।।
अँधा न्याय, प्रशासन बहरा मिल भरमाते...
*
लोकनीति हो दलविमुक्त, संसद जागृत हो।
अंध विरोध न साध्य, समन्वय शुचि अमृत हो।।
'सलिल' खिलें सद्भाव-सुमन शत सुरभि लुटाते...
*
जो मन भाये- चुनें, नहीं उम्मीदवार हो।
ना प्रचार ना चंदा, ना बैठक उधार हो।।
प्रशासनिक ढाँचे रक्षा का खर्च बचाते...
*
जन प्रतिनिधि निस्वार्थ रहें, सरकार बनायें।
सत्ता और समर्थक, मिलकर सदन चलायें।।
देश पड़ोसी देख एकता शीश झुकाते...
*
रोग हुई दलनीति, उखाड़ो इसको जड़ से।
लोकनीति हो सबल, मुक्त रिश्वत-झंखड़ से।।
दर्पण देख न 'सलिल', किसी से आँख चुराते...
४-११-२०१२
***
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..
अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..
था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..
बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..
रजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..
नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..
'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..
'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
४-११-२०१०

***

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १९, मुक्तिका, रैप, आरती, लक्ष्मी, नर्मदा, रूप चतुर्दशी, एथेना, दोहा

सलिल सृजन अक्टूबर १९  
*
एक रचना
रूप चतुर्दशी, रूप सँवारे
रूप सँवारें अंतर्मन का
रूप निखारें देहज तन का
देहद को बिसराएँ न किंचित्
रूप अरूप भव्य जीवन का।
रूप चौथ कहती हैं हमसे
हो विद्रूप न रूप सनातन
घर-घर में फिर हो न विभाजन
हो मतभेद बैठ-मिल समझें
हो मनभेद न कहीं विखंडन।
शारद-रमा-उमा विधि-हरि-हर 
दर्शन दें, हम भव जाएँ तर
भू पर स्वर्ग बसा पाएँ मिल
विहँस उठे हर आँगन-घर 
-दर।
जीव-जंतु हर जड़ अरु चेतन
सबमें बसता है अनिकेतन
जिएँ और जीने दें सबको
रूप चौथ पर दमके तन-मन।
१९.१०.२०२५
०००
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
००० 
नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      
गीत  
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..

अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..

था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..

बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..

राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..

नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..

'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..

'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
४.११.२०१६
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ग्रीस की सरस्वती एथेना

एथेना ज्ञान, हस्तकला और युद्ध कला से जुड़ी हुई एक प्राचीन ग्रीक देवी है। उसे ग्रीस में नगर राज्यों का संरक्षक माना जाता था। एथेंस शहर से उसे सर्वाधिक प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। एथेना को शिरस्त्राण (हेलमेट) पहने हुए, भाला पकड़े हुए दिखाया जाता ह। उसके प्रमुख प्रतीकों में उल्लू, जैतून का वृक्ष, साँप और गार्गोरियन हैं।एथेना के मंदिर शहर के मध्य भाग में किले वाले एक्रोपोलिस के ऊपर होते थे। एथेना को शिल्प बुनाई के संरक्षक माना जाता है। वह दुर्गा की तरह युद्ध की देवी थी जो सैनिकों को युद्ध में ले जाती थी। एथेंस में ग्रीष्म मध्य में हेकाटोम्बायोन के माह में पानथेनिया पर्व एथेना को लिए मनाया जाता था। यह ग्राहकों की सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार था। ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार उसका जन्म जीउस के सिर से हुआ था। एथेंस के संरक्षण हेतु प्रतियोगिता में उसने पोसिडॉन को शुभकामना दी थी। वह चिर कुँआरी (पार्थेनोस, द वर्जिन) मानी जाती थी। एक पुरातन अटारी मिथक के अनुसार ग्रीक देवता हेफेस्टस ने उसके साथ बलात्कार करने की असफल कोशिश की। फलस्वरूप गर्भवती हुई गाय ने ऐरिचोनियस (महत्वपूर्ण ग्रीक नायक) को जन्म दिया। वीर प्रयासों की संरक्षक देवी ऐथेना ने पियर्सस, हेराक्लेस, बेलेरोफॉन व जेन को सहायता प्रदान की थी। एफ्रोडाइट, होरा और ऐथेना के झगड़े को कारण ट्रोप हुआ। यूरोप के आदिकवि होमर के महाकाव्य इलियड में ऐथेना आचेन्स की सहायता करती है। होमर को दूसरे महाकाव्य ओडिसी में वह नायक ओडीसियस की दिव्य परामर्शदाता है। रोमन कवि ओविड ने एथेना अरचाने को मकड़ी में तथा अपने मंदिर में पोसाइडन द्वारा बलात्कार के गवाह मेडुसा को एक गौ रक्षक के रूप में बदल देती है। पुनर्जागरण के बाद एथेना ज्ञान और शास्त्रीय शिक्षा का अंतरराष्ट्रीय प्रतीक मानी गई। पश्चिमी कलाकारों और अलगाववादियों ने अक्सर एथेना का उपयोग स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में किया है।
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मुक्तिका
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों
*
वज़न - २२१२ २२१२ २२१२ १२
बह्र - बह्रे रजज़ मुसम्मन
अर्कान - मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन मुस्तफइलुन इलुन
*
लगने लगे हैं प्यार के बाजार इन दिनों।
चुभने लगे हैं फूल ज्यों हों खार इन दिनों।।
जुमला कहेंगे जीत इलेक्शन, वो वायदा।
मिलने लगे हैं रात-दिन सरकार इन दिनों।।
इसरार की आदत न थी पर क्या करें हुज़ूर।
इकरार का हैं कर रहे व्यापार इन दिनों।।
पड़ते गले वो, बोलते हैं मिल रहे गले।
करते छिपा के पीठ में वो वार इन दिनों।।
नजरें मिला के फेरते हैं नजर आप क्यों?
चाहा, हुए क्यों चाह से बेजार इन दिनों?
१९.१०.२०२३
***
लेख : मुक्तिका क्या है?
*
मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-
१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद समान पदांत तथा तुकांत युक्त होता है।
२. हर पद का पदभार हिंदी वर्ण या मात्रा गणना के अनुसार समान होता है। तदनुसार इसे वार्णिक मुक्तिका या मात्रिक मुक्तिका कहा जाता है। उच्चार के अनुसार समान पदभार रखे जाकर भी मुक्तिका लिखी जा सकती है।
३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं। इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है।
४. हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं या उच्चार के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है। ५-७-५ वर्णों को लेकर भी हाइकु मुक्तिका लिखी जाती है।
५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है। एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता।
६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं।
७. मुक्तिका मूलत: हिन्दी व्याकरण-पिंगल नियमों का अनुपालन करते हुए लिखी गयी ग़ज़ल है। इसे अनुगीत, तेवरी, गीतिका, सजल, पूर्णिका आदि भी कहा गया है।
गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है। अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.
तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है किन्तु शिल्प ग़ज़ल का शिल्प का ही है।
हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है। मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है। उर्दू लय खण्डों की पदभार गणना तथा पदांत-तुकांत, फारसी नहीं हिंदी व्याकरण-पिंगल के अनुसार रखे जाते हैं।
१९-१०-२०२१
***
रैप सॉन्ग -
*
हल्ला-गुल्ला,
शोर-शराबा,
मस्ती-मौज,
खेल-कूद,
मनरंजन,
डेटिंग करती फ़ौज.
लेना-देना,
बेच-खरीदी,
कर उपभोग.
नेता-टी.व्ही.
कहते जीवन-लक्ष्य यही.
कोई न कहता
लगन-परिश्रम,
कर कोशिश.
संयम-नियम,
आत्म अनुशासन,
राह वरो.
तज उधार,
कर न्यून खर्च
कुछ बचत करो.
उत्पादन से
मिले सफ़लता
वही करो.
उत्पादन कर मुक्त
लगे कर उपभोगों पर.
नहीं योग पर
रोक लगे
केवल रोगों पर.
तब सम्भव
रावण मर जाए.
तब सम्भव
दीपक जल पाए.
***
दोहा मुक्तिका
*
नव हिलोर उल्लास की, बनकर सृजन-उमंग.
शब्द लहर के साथ बह, गहती भाव-तरंग .
*
हिय-हुलास झट उमगकर, नयन-ज्योति के संग.
तिमिर हरे उजियार जग, देख सितारे दंग.
*
कालकूट को कंठ में, सिर धारे शिव गंग.
चंद मंद मुस्का रहा, चुप भयभीत अनंग.
*
रति-पति की गति देख हँस, शिवा दे रहीं भंग.
बम भोले बम-बम कहें, बजा रहे गण चंग.
*
रंग भंग में पड़ गया, हुआ रंग में भंग.
फागुन में सावन घटा, छाई बजा मृदंग.
*
चम-चम चमकी दामिनी, मेघ घटा लग अंग.
बरसी वसुधा को करे, पवन छेड़कर तंग.
*
मूषक-नाग-मयूर, सिंह-वृषभ न करते जंग.
गणपति मोदक भोग पा, नाच जमाते रंग.
१९.१०.२०१८, salil.sanjiv@mail.com
***
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
आरती क्यों और कैसे?
*
ईश्वर के आव्हान तथा पूजन के पश्चात् भगवान की आरती, नैवेद्य (भोग) समर्पण तथा अंत में विसर्जन किया जाता है। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। आरती करने ही नहीं, इसमें सम्मिलित होंने से भी पुण्य मिलता है। देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। आरती का गायन स्पष्ट, शुद्ध तथा उच्च स्वर से किया जाता है। इस मध्य शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े , घड़ियाल, मंजीरे, मटका आदि मंगल वाद्य बजाकर जयकारा लगाया जाना चाहिए।
आरती हेतु शुभ पात्र में विषम संख्या (1, 3, 5 या 7) में रुई या कपास से बनी बत्तियां रखकर गाय के दूध से निर्मित शुद्ध घी भरें। दीप-बाती जलाएं। एक थाली या तश्तरी में अक्षत (चांवल) के दाने रखकर उस पर आरती रखें। आरती का जल, चन्दन, रोली, हल्दी तथा पुष्प से पूजन करें। आरती को तीन या पाँच बार घड़ी के काँटों की दिशा में गोलाकार तथा अर्ध गोलाकार घुमाएँ। आरती गायन पूर्ण होने तक यह क्रम जरी रहे। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। आरती पूर्ण होने पर थाली में अक्षत पर कपूर रखकर जलाएं तथा कपूर से आरती करते हुए मन्त्र पढ़ें:
कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसन्तं हृदयारवंदे, भवं भवानी सहितं नमामि।।
पांच बत्तियों से आरती को पंच प्रदीप या पंचारती कहते हैं। यह शरीर के पंच-प्राणों या पञ्च तत्वों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव पंच-प्राणों (पूर्ण चेतना) से ईश्वर को पुकारने का हो। दीप-ज्योति जीवात्मा की प्रतीक है। आरती करते समय ज्योति का बुझना अशुभ, अमंगलसूचक होता है। आरती पूर्ण होने पर घड़ी के काँटों की दिशा में अपने स्थान पट तीन परिक्रमा करते हुए मन्त्र पढ़ें:
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर कृतानि च।
तानि-तानि प्रदक्ष्यंती, प्रदक्षिणां पदे-पदे।।
अब आरती पर से तीन बार जल घुमाकर पृथ्वी पर छोड़ें। आरती प्रभु की प्रतिमा के समीप लेजाकर दाहिने हाथ से प्रभु को आरती दें। अंत में स्वयं आरती लें तथा सभी उपस्थितों को आरती दें। आरती देने-लेने के लिए दीप-ज्योति के निकट कुछ क्षण हथेली रखकर सिर तथा चेहरे पर फिराएं तथा दंडवत प्रणाम करें। सामान्यतः आरती लेते समय थाली में कुछ धन रखा जाता है जिसे पुरोहित या पुजारी ग्रहण करता है। भाव यह हो कि दीप की ऊर्जा हमारी अंतरात्मा को जागृत करे तथा ज्योति के प्रकाश से हमारा चेहरा दमकता रहे।
सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
दीपमालिका का हर दीपक,अमल-विमल यश-कीर्ति धवल दे
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी मैया, 'सलिल' सौख्य-संतोष नवल दे
***
पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा. श्याम गुप्त
पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार-आचार्य संजीव वर्मा सलिल...संस्करण-२०१६..मूल्य -२००/- ..आवरण –मयंक वर्मा..रेखांकन..अनुप्रिया..प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर.. समीक्षक—डा श्यामगुप्त |
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदहारण प्रस्तुत है ---गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न होजाय-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं |
. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४
***
मुक्तक कविता की जय कर रहे, अलंकार रह मौन
छंद पूछता,कद्रदां हमसे बढ़कर कौन?
रस परबस होकर लगे, गले न छोड़े हाथ
सलिल-धार में देख मुख, लाल गाल नत माथ
***
लघुकथाः
जेबकतरे :
*
= १९७३ में एक २० बरस के लड़के ने जिसे न क्रय का व्यावहारिक अनुभव था, न सिर पर पारिवारिक जिम्मेदारी सरकारी नौकरी आरंभ की। सामान्य भविष्य निधि कटाने के बाद जो वेतन हाथ में आता उससे पौने तीन तोले सोना खरीदा जा सकता था। लड़का ही नहीं परिवारजन भी खुश, शादी के अनेक प्रस्ताव, ख़ुशी ही ख़ुशी।
= ४० साल नौकरी के बाद सेवा निवृत्ति के समय उसने हिसाब लगाया तो पाया कि अधिकतम पारिवारिक जिम्मेदारियों और कार्य अनुभव के बाद सेवानिवृत्ति के समय वेतन मिल रहे वेतन में केवल डेढ़ तोला सोना आता है। पेंशन और कम, अधिकतम योग्यता, कार्य अनुभव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद क्रय क्षमता में कमी.... ४० साल लगातार जेबकतरे जाने का अहसास अब रूह को कँपाने लगा है, बेटी के लिये नहीं मिलते उचित प्रस्ताव, दाल-प्याज-दवाई जैसी रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान पर और हौसले औंधे मुँह जमीन पर फिर भी पकड़ में नहीं आते जेबकतरे।
१९-१०-२०१५
***
विमर्श: सुंदरता और स्वच्छता
सरस्वतीचन्द्र सीरियल नहीं हिंदी चलचित्र जिन्होंने देखा है वे ताजिंदगी नहीं भूल सकते वह मधुर गीत 'चंदन सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा वो मुस्काना' और नूतन जी की शालीन मुस्कराहट। इस गीत में 'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर, तू सुंदरता की मूरत है' से विचार आया कि क्या सुंदरता बिना स्वच्छता के हो सकती है?
नहीं न…
तो कवि हमेशा सौंदर्य क्यों निरखता है. स्वच्छता क्यों नहीं परखता?
क्या चारों और सफाई न होने का दोषी कवि भी नहीं है? यदि है तो ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि कवि मानस सृष्टि की रचना कर उसी में निग्न रहता है. इसलिए स्वच्छता भूल जाता है लेकिन स्वच्छता तो मन की भी जरूरी है, नहीं क्या?
'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर' में कवि यह संतुलन याद रखता है किन्तु तन साफ़ कर परिवेश की सफाई का नाटक करनेवाले मन की सफाई की चर्चा भी नहीं करते और जब मन साफ़ न हो तो तन की सफाई केवल 'स्व' तक सीमित होती है 'सर्व' तक नहीं पहुँच पाती।
इस सफाई अभियान को नाटक कहने पर जिन्हें आपत्ति हो वे बताएं कि सफाई कार्य के बाद स्नान-ध्यान करते हैं या स्नान-ध्यान के बाद सफाई? यदि तमाम नेता सुबह उठकर अपने निवास के बहार सड़क पर सफर कर स्नान करें और फिर ध्यान करें तो परिवेश, तन और मन स्वच्छ और सुन्दर होगा, तब इसे नाटक-नौटंकी नहीं कहा जायेगा। खुद बिना प्रसाधन किये सफाई करेंगे तो छायाकार को चित्र भी नहीं खींचने देंगे और तब यह तमाशा नहीं होगा।
क्या आप मुझसे सहमत हैं? यदि हाँ तो क्या इस दीपावली के पहले और बाद अपने घर-गली को साफ़ करने के बाद स्नान और उसके बाद पूजन-वंदन करेंगे? क्या पटाखे फोड़कर कचरा उठाएंगे? क्या पड़ोसी के दरवाजे पर कचरा नहीं फेकेंगे? देखें कौन-कौन पड़ोसी के दरवाज़े से कचरा साफ़ करते हुए चित्र खींचकर फेसबुक पर लगाता है?
क्या हमारे तथाकथित नेतागण अन्य दाल के किसी नेता या कार्यकर्ता के दरवाज़े से कचरा साफ़ करना पसंद करेंगे? यदि कर सकेंगे तो लोकतान्त्रिक क्रांति हो जाएगी। तब स्वच्छता की राह किसी प्रकार का कचरा नहीं रोक सकेगा।
१९-१०-२०१४
***
मुक्तिका सलिला

साधना हो सफल नर्मदा-नर्मदा.
वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.
संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.
प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.
नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.
नृत्यरत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.
धीर धर पीर हर लें गले से लगा.
रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.
मोहिनी दीप्ति, आभा मनोरम नवल.
नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.
सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.
शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.
सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर
सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.
आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.
प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.
१९-१०-२०१३
* * *

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ४, नर्मदा, लक्ष्मी, सॉनेट, सोरठा, कन्या भोज, स्रग्विणी छंद, अर्थालंकार, लघुकथा,


सलिल सृजन अक्टूबर ४
*
सॉनेट
देह
देह पर अधिकार मेरा
यह अदालत कह रही है
गेह पर हक नहीं मेरा
धार कैसी बह रही है?
चोट मन की कौन देखे
लगीं कितनी कब कहाँ पर?
आत्मा को कौन लेखे
वेदना बिसरी तहा कर?
साथ फेरे जब लिए थे
द्वैत तज अद्वैत वरने
वचन भी देकर लिए थे
दूरियाँ किंचित न धरने।
उसे हक किंचित नहीं हो
साथ मेरे जो रहा हो।
४-१०-२०२२
•••
एक रचना
*
अदालत की अदा लत जैसे लुभाती
झूठ-सच क्या है, नहीं पहचान पाती
न्याय करना, कराना है काम जिनका
उन्हीं के हाथों गला सच का दबाती
अर्ज केवल अर्जियाँ ही यहाँ होतीं
फर्ज फर्जी मर्जियाँ ही फसल बोतीं
कोट काले सफेदी को धर दबाते
स्याह के हाथों उजाले मात खाते
गवाहों की गवाही बाजार बनती
कागजों की कागजी जय ख्वाब बुनती
सुपनखा की नाक काटी जेल होगी
एड़ियाँ घिरते रहो नहिं बेल होगी
गोपियों के वसन छीने चलो थाने
गड्डियाँ लाओ मिलेगा तभी जाने
बेच दो घर-खेत, दे दो घूस इसको
कर्ज लेकर चुका दो तुम फीस उसको
पेशियों पर पेशियाँ आगे बढ़ेंगी
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ लड़ती रहेंगी
न्याय का ले नाम नित अन्याय होगा
आस को, विश्वास को उपहार धोखा
वे करेंगे मौज, दीवाला हमारा
मर मिटे हम, पौ उन्हीं की हुई बारा
४-१०-२०२२
•••
सोरठा सलिला
रखें हमेशा ध्यान, ट्रेन रेल पर दौड़ती।
जाते हम लें मान, नगर न आ या जा सकें।।
मकां इमारत जान, घर घरवालों से बने।
जीव आप भगवान, मंदिर में मूरत महज।।
ब्रह्म कील पहचान, माया चक्की-पाट हैं।
दाना जीव समान, बचे कील से यदि जुड़े।।
४-१-२०२२
•••
विमर्श-
कन्या भोज
*
नव दुर्गा पर्व शक्ति आराधना का पर्व है। सृष्टि अथवा प्रकृति की जन्मदात्री शक्ति के ९ रूपों की उपसना पश्चात् ९ कन्याओं को उनका प्रतिनिधि मानकर पूजने तथा नैवेद्य ग्रहण करने की परंपरा चिरकालिक तथा सर्व मान्य है। कन्या रजस्वला होने के पूर्व तक की बालिकाओं के पूजन के पीछे कारण यह है की तब तक उनमें काम भावनाओं का विकास न होने से वे निष्काम होती हैं। कन्या की आयु तथा नाम: २- कुमारी, ३- त्रिदेवी, ४- कल्याणी, ५- रोहिणी, ६- कालिका, ७-चंडिका, ८- शांभवी, ९- दुर्गा, १० सुभद्रा। बालिका की आयु के अनुसार नाम लेकर प्रणाम करें ''ॐ .... देवी को प्रणाम''। स्नान कर स्वच्छ वस्त्रधारी कन्या के चरण धो-पोंछ कर, आसन पर बैठाकर माथे पर चंदन, रोली, अक्षत (बिना टूटे चावल), पुष्प आदि से तिलक कर चरणों का महावर से श्रृंगार कर भर पेट भोजन (खीर, पूड़ी, हलुआ, मेवा, फल आदि) कराएँ। खट्टी, कड़वी, तीखी, बासी सामग्री वर्जित है। कन्याओं के साथ लँगूरे (लांगुर) अर्थात अल्प वय के दो बालकों को भी भोजन कराया जाता है। कन्या के हाथ में मौली (रक्षा सूत्र) बाँधकर, तिलक कर उपहार (श्रृंगार अथवा शिक्षा संबंधी सामग्री, कुछ नगद राशि आदि ) देकर चरण स्पर्श कर, आशीर्वाद लेकर बिदा किया जाता है।
कन्या भोज का महत्त्व सामाजिकता, सौहार्द्र, समरसता तथा सुरक्षा भावना की वृद्धि है। मेरे पिता श्री चिरस्मरणीय राजबहादुर वर्मा जेलर तथा जेल अधीक्षक रहे। वे अपने निवास पर स्वयं अखंड रामायण, कन्या पूजन तथा कन्या भोज का आयोजन करते थे। अधिकारीयों व् कर्मचारियों की कन्याओं को समान आदर, भोजन व उपहार दिया जाता था। जाती, धर्म का भी भेद-भाव नहीं था। जेल कॉलोनी की सभी कन्याएँ संख्या कितनी भी हो आमंत्रित की जाती थीं। पिता जी जेल में बंद दुर्दांत अपराधियों को प्रहरियों की देख-रेख में बुलवाकर उनसे भी कन्या (मेरी बहिनें भी होती थीं) पूजन कराते थे। इस अवसर पर वे बंदी भावुक होकर फूट-फूटकर रोते थे, आगे कभी अपराध न करने की कसम खाते थे। उन बंदियों-प्रहरियों को भी प्रसाद दिया जाता था। सेवा निवृत्ति के पश्चात् माँ श्रीमती शांति देवी घर में कन्या भोज के साथ मंदिरों के बाहर बैठी भिक्षुणियों को भी प्रसाद भिजवाती थीं।
वास्तव में संपन्न परिवारों को हर दिन दरिद्र भोजन करना चाहिए। अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम, अस्पताल आदि से समय तय कर दिनांक तथा समय तय कर हर माह एक बार भोजन कराएँ तो कोइ भूखा न रहे। शास्त्रों के अनुसार इससे मातृ-पितृ ऋण से मुक्ति मिलती तथा काल दोष शांत होता है। कन्या भोजन को धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव के पर्व के रूप में नवाचारित किया जाना आवश्यक है।
***
कार्यशाला: ४ / १० / १८
एक गीत दो छंद
*
प्रस्तुत है माननीय सुधा अहलूवालिया जी द्वारा रचित एक गीत।
सुधा जी की अनुमति से इस गीत में छंद की पहचान का प्रयास किया जा रहा है।
छंद वाचिक स्रग्विणी ( सम मात्रिक ) मापनी - २१२ २१२ २१२ २१२
------------------
है नहीं आसरा अब दिवा-कोण का। २१२ २१२ १११२ २१२
धुन्ध छाई हुई रवि-किरण मौन है। २१२ २१२ १११११ २१२
कौन जाने कहाँ जा रही ये डगर- २१२ २१२ २१२ २१११
कौन जाने किधर अब खड़ा कौन है॥ २१२ १११११ १११२ २१२
है नहीं .....
आँख पानी भरी आज तर हो गई। २१२ २१२ २१११ २१२
चुप अधर हो गए गुम डगर हो गई। १११११ २१२ १११११ २१२
घर हुए आज कैसे किसे है पता- १११२ २१२ २१२ २१२
कौन छोटा यहाँ अब बड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
आ चलें प्रिय वहीं दूर कोई न हो। २१२ १११२ २१२ २१२
जागती हो दिशा, साँझ सोई न हो। २१२ २१२ २१२ २१२ *
है विरह वेदना जो मनों में दबी- २११११ २१२ २१२ २१२
आ प्रिये बाँट लें अब अड़ा कौन है॥ २१२ २१२ १११२ २१२
है नहीं .....
मैं पवन का प्रिये शुचि सजल वेग हूँ। २१११ २१२ २१२ २१२
तू सुमन मैं प्रिये बस सरस नेग हूँ। २१११ २१२ १११११ २१२
हैं समाहित सुनों प्रिय हुए एक हम- २१२ १११२ १११२ २१११
देख शुचिता सुभग अब लड़ा कौन है २१११ २१११ १११२ २१२
है नहीं .....
*
स्रग्विणी छन्द का विधान ४ x रगण अर्थात ४ (२१२) है.
तारांकित * पंक्ति के अलावा किसी भी पंक्ति में इस विधान का पूरी तरह पालन नहीं किया गया है।
स्रग्विणी का उदाहरण देखें -
अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं.
इसकी मात्रा गणना देखें -
अच्युतं २१२ केशवं २१२ रामना २१२ रायणं२१२. कृष्ण दा २१२ मोदरं २१२ वासुदे २१२ वं हरिं २१२.
यहाँ गण-व्यवस्था का शत-प्रतिशत पालन किया गया है। स्पष्ट है कि दो लघु को गुरु या गुरु को दो लघु नहीं किया जा सकता किंतु गण का अंत या आरंभ शब्द के बीच में हो सकता है। ऐसे स्थिति में पढ़ते समय अल्प विराम गण के संधि स्थल पर होता है।
क्या हिंदी में छंद रचते समय भी ऐसा ही नहीं किया जाना चाहिए? आइए, उक्त गीत के प्रथम पद को स्रग्विणी छंद में रूपांतरित करें-
रे! नहीं आसरा है दिवा-कोण का।
धुन्ध छाई हुई सूर्यजा मौन है।
कौन जाने कहाँ जा रही राह ये-
कौन जाने कहाँ तू खड़ा कौन है॥
यदि रचनाकार आरम्भ से ही सजग हो तो शुद्ध छंद में रचना की जा सकती है।
यह सरस गीत अरुण छंद के भी निकट है। जिन्हें रुचि हो वे अरुण और स्रग्विणी छंदों का तुलनात्मक अध्ययन (समानता और असमानता) कर सकते हैं।
इस अध्ययन हेतु अपना गीत उपलब्ध करने के लिए सुधाजी के प्रति पुन: आभार।
***
दोहा सलिला
*
लिखा आज बिन लिखे कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज।
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज।।
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ।
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ।।
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप।
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप।।
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग?
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग।।
*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल।
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल।।
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान।
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान।।
*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग।
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग।।
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख।
काम मैं करूँ द्रौपदी, का होता उल्लेख?
*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर।
फटक न; सटके सफलता, अटके; करिए गौर।।
*
३.८.२०१८
मुक्तक एक-रचनाकार दो
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर
***
: अलंकार चर्चा १६ :
अर्थालंकार :
*
रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार
जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.
अर्थालंकार के प्रकार-
अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदि) की समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.
अ. गुणसाम्यता के आधार पर
आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं:
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता। यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.
इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.
क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.
ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है.
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं.
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं.
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है.
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-
इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं.
६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-
इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं.
===
कविता
एक शब्द:
*
एक कविता पंक्ति पढ़ी
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
लाश तो निर्जीव होती है
जो बोल नहीं सकती,
यह कैसे बोल दी?
मेडिकल साइंस को चुनौती या
गलत मृत्यु प्रमाणपत्र का मामला?
सी बी आई जाँच जरूरी या
जाँच कमीशन?
समाचारी दुनिया के लिये
टी आर पी बढ़ाने का मौक़ा,
दलीय प्रवक्ताओं के लिये
बेसिर-पैर की आग उगलती
धाँसू छवि बनाने का सुनहरा अवसर,
संसद का काम-काज रुका,
धरना-प्रदर्शन,
पुलिसिया मार,
अख़बारों में सनसनीखेज ख़बरें,
सामाजिक न्याय की दुहाई,
निर्बलों के शोषण की व्यथा-कथा,
किसी ने कहा: 'लाश युवती की थी',
बहसों में नया मोड़,
महिला विमर्शवादी सक्रिय,
महिला आयोगों द्वारा पत्रकार वार्ताएँ,
जुलूस, नारे, पत्थरबाजी,
पुलिस कार्यवाही,
नेताओं के दौरे,
अशांति के पीछे
विदेशी शक्तियों का हाथ,
धार्मिक नेताओं के बयान-
'हिन्दू पर अत्याचार नहीं सहा जाएगा,
अल्पसंख्यक का शमन,
दलित का दमन,
मूलनिवासी की दुर्दशा,
प्रधान मंत्री मौन?
प्रति प्रशन ६७ साल का
हिसाब देगा कौन?
केंद्र की घोषणा:
लाख करोड़ का अनुदान.
राज्य सरकार प्रतिक्रिया:
मृतक और जनगण का अपमान.
चकित-दिग्भ्रमित आम आदमी
पैर में अधटूटी चप्पल
आँख में नमी
अटकता-भटकता
रुकता-झुकता, सँकुचता-सिसकता
निकला सत्य की खोज में.
पता चला अचल कवि कविता
साहित्य-संपादक की मेज के स्थान पर
गलती से पहुँच गयी थी
समाचार-संपादक की मेज पर
लिखा जाना था
'अधजली एक देह चौराहे पर पडी...'
अनजाने लिखा गया
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
बन गया तिल का ताड़
खड़ा हो गया अफवाहों का झाड़
उठ गया बवंडर।
खोदा पहाड़ निकली चुहिया
सच जानकार रह गया निशब्द
सरे विवाद और फसाद की जड़
महज एक शब्द।
४.१०.२२
***
अवधी हाइकु सलिला:
संजीव 'सलिल'
**
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*
मुक्तक एक-रचनाकार दो
*
बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर
४.१०.१६ 
०००
कविता
एक शब्द:
*
एक कविता पंक्ति पढ़ी
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
लाश तो निर्जीव होती है
जो बोल नहीं सकती,
यह कैसे बोल दी?
मेडिकल साइंस को चुनौती या
गलत मृत्यु प्रमाणपत्र का मामला?
सी बी आई जाँच जरूरी या
जाँच कमीशन?
समाचारी दुनिया के लिये
टी आर पी बढ़ाने का मौक़ा,
दलीय प्रवक्ताओं के लिये
बेसिर-पैर की आग उगलती
धाँसू छवि बनाने का सुनहरा अवसर,
संसद का काम-काज रुका,
धरना-प्रदर्शन,
पुलिसिया मार,
अख़बारों में सनसनीखेज ख़बरें,
सामाजिक न्याय की दुहाई,
निर्बलों के शोषण की व्यथा-कथा,
किसी ने कहा: 'लाश युवती की थी',
बहसों में नया मोड़,
महिला विमर्शवादी सक्रिय,
महिला आयोगों द्वारा पत्रकार वार्ताएँ,
जुलूस, नारे, पत्थरबाजी,
पुलिस कार्यवाही,
नेताओं के दौरे,
अशांति के पीछे
विदेशी शक्तियों का हाथ,
धार्मिक नेताओं के बयान-
'हिन्दू पर अत्याचार नहीं सहा जाएगा,
अल्पसंख्यक का शमन,
दलित का दमन,
मूलनिवासी की दुर्दशा,
प्रधान मंत्री मौन?
प्रति प्रशन ६७ साल का
हिसाब देगा कौन?
केंद्र की घोषणा:
लाख करोड़ का अनुदान.
राज्य सरकार प्रतिक्रिया:
मृतक और जनगण का अपमान.
चकित-दिग्भ्रमित आम आदमी
पैर में अधटूटी चप्पल
आँख में नमी
अटकता-भटकता
रुकता-झुकता, सँकुचता-सिसकता
निकला सत्य की खोज में.
पता चला अचल कवि कविता
साहित्य-संपादक की मेज के स्थान पर
गलती से पहुँच गयी थी
समाचार-संपादक की मेज पर
लिखा जाना था
'अधजली एक देह चौराहे पर पडी...'
अनजाने लिखा गया
'अधजली एक लाश चौराहे पर पडी...'
बन गया तिल का ताड़
खड़ा हो गया अफवाहों का झाड़
उठ गया बवंडर।
खोदा पहाड़ निकली चुहिया
सच जानकार रह गया निशब्द
सरे विवाद और फसाद की जड़
महज एक शब्द।
४.१०.२०१५
*** 
नवगीत:
लछमी मैया!
पैर तुम्हारे
पूज न पाऊँ
*
तुम कुबेर की
कोठी का
जब नूर हो गयीं
मजदूरों की
कुटिया से तब
दूर हो गयीं
हारा कोशिश कर
पल भर
दीदार न पाऊँ
*
लाई-बताशा
मुठ्ठी भर ले
भोग लगाया
मृण्मय दीपक
तम हरने
टिम-टिम जल पाया
नहीं जानता
पूजन, भजन
किस तरह गाऊँ?
*
सोना-चाँदी
हीरे-मोती
तुम्हें सुहाते
फल-मेवा
मिष्ठान्न-पटाखे
खूब लुभाते
माल विदेशी
घाटा देशी
विवश चुकाऊँ
*
तेज रौशनी
चुँधियाती
आँखें क्या देखें?
न्यून उजाला
धुँधलाती
आँखें ना लेखें
महलों की
परछाईं से भी
कुटी बचाऊँ
*
कैद विदेशी
बैंकों में कर
नेता बैठे
दबा तिजोरी में
व्यवसायी
खूबई ऐंठे
पलक पाँवड़े बिछा
राह हेरूँ
पछताऊँ
*
कवि मजदूर
न फूटी आँखों
तुम्हें सुहाते
श्रद्धा सहित
तुम्हें मस्तक
हर बरस नवाते
गृह लक्ष्मी
नन्हें-मुन्नों को
क्या समझाऊँ?
***
मुक्तक सलिला:
मंगल पर पग रख दिया
नाम देश का कर दिया
इस रो में कोई नहीं-
इसरो ने साबित किया।
रो = कतार, पंक्ति
*
शक्ति पर्व है, भक्ति पर्व है
सीमा पर जो घटित हो रहा
उसे देखकर दिल रोता है
क्यों निवेश ही साध्य-सर्व है?
*
कोई न ले चीनी सामान
'लो देशी' अब हो अभियान
घाटा करें समाप्त तुरत
लेन-देन हो एक समान
*
दोहा मुक्तक:
आये आकर चले गए, मिटी नहीं तकरार
दिलविहीन दिलवर रहा, बेदिल था दिलदार
समाचार-फोटो कहें, खूब मिले थे हाथ
धन्यवाद ये कह रहे, वे कहते आभार
*
लघुकथा:
मुखडा देख ले
*
कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी. गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे. आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- ' बुरा ही देखो'.
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'.
' बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी.
' अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो?] संपादक जी ने डपटते हुए पूछा.
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है. कोई कमी रह गई हो तो बताएं.'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
***
लघुकथा:
एकलव्य
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- 'काश वह आज भी होता.'
४.१०.२०१४
***
नर्मदा स्तुति
शिवतनया सतपुड़ा-विन्ध्य की बहिना सुगढ़ सलौनी
गोद अमरकंटक की खेलीं, उछल-कूद मृग-छौनी
डिंडोरी में शैशव, मंडला में बचपन मुस्काया
अठखेली कैशोर्य करे, संयम कब मन को भाया?
गौरीघाट किया तप, भेड़ाघाट छलांग लगाई-
रूप देखकर संगमरमरी शिला सिहर सँकुचाई
कलकल धार निनादित हरती थकन, ताप पल भर में
सांकल घाट पधारे शंकर, धारण जागृत करने
पापमुक्त कर ब्रम्हा को ब्रम्हांड घाट में मैया
चली नर्मदापुरम तवा को किया समाहित कैंया
ओंकारेश्वर को पावन कर शूलपाणी को तारा
सोमनाथपूजक सागर ने जल्दी आओ तुम्हें पुकारा
जीवन दे गुर्जर प्रदेश को उत्तर गंग कहायीं
जेठी को करने प्रणाम माँ गंगा तुम तक आयीं
त्रिपुर बसे-उजड़े शिव का वात्सल्य-क्रोध अवलोका
बाणासुर-दशशीश लड़े चुप रहीं न पल भर टोका
अहंकार कर विन्ध्य उठा, जन-पथ रोका-पछताया
ऋषि अगस्त्य ने कद बौनाकर पल में मान घटाया
वनवासी सिय-राम तुम्हारा आशिष ले बढ़ पाये
कृष्ण और पांडव तव तट पर बार-बार थे आये
परशुराम, भृगु, जाबाली, वाल्मीक हुए आशीषित
मंडन मिश्र-भारती गृह में शुक-मैना भी शिक्षित
गौरव-गरिमा अजब-अनूठी जो जाने तर जाए
मैया जगततारिणी भव से पल में पार लगाए
कर जोड़े 'संजीव' प्रार्थना करे गोद में लेना
मृण्मय तन को निज आँचल में शरण अंत में देना
४-१०-२०१२
***
गीत:
आईने अब भी वही हैं
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत
मौन क्यों धरते नहीं?'सलिल' बनकर दिया जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
४-१०-२०११
***
मुक्तिका :
सिखा गया
*
जिसकी उँगली थामी चुप रहना सिखा गया.
जिसने उँगली थामी चट चलना सिखा गया..
दर्पण से बात हुई तो खुद को खुद देखा.
कोई न पराया है, जग अपना सिखा गया..
जब तनी तर्जनी तो, औरों के दोष गिने.
तब तीन उँगलियों का सच जगना सिखा गया..
आते-जाते देखा, हर हाथ मिला खाली.
बोया-पाया-खोया ही तजना सिखा गया..
ढाई आखर का सच, कोई न पढ़ा पाया.
अनपढ़ न कबीरा था, मन पढ़ना सिखा गया..
जब हो विदेह तब ही, हो पात्र प्रेम के तुम.
यमुना रज का कण-कण, रस चखना सिखा गया.
जग नेह नर्मदा है, जग अवगाहन कर लो.
हर पंकिल पग-पंकज, उठ चलना सिखा गया..
नन्हा सा तिनका भी जब पड़ा नयन में तो.
सब वहम अहम् का धो, रो-चुपना सिखा गया..
रे 'सलिल' न वारी क्यों, बनवारी पर है तू?
सुन बाँस मुरलिया बन, बज सुनना सिखा गया..
***
मुक्तिका:
किस्मत को मत रोया कर.
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..
श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..
बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..
मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..
कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..
'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..
४-१०-२०१०
***
विशेष लेख:
देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर
रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...
-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-
किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें प्रशासकों पर वरीयता दी. सिविल इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को 'सर' का सर्वोच्च सम्मान देकर धन्यता अनुभव की.
स्वतंत्रता के पश्चात् अभियंताओं के योगदान ने सुई तक आयत करनेवाले देश को विश्व के सर्वाधिक उन्नत देशों की टक्कर में खड़ा होने योग्य बना दिया पर उन्हें क्या मिला? विश्व के भ्रष्टतम नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने अभियंता का सतत शोषण किया. सभी अभियांत्रिकी संरचनाओं में प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी बना दिए गये. अनेक निगम बनाये गये जिन्हें अधिकारियों और नेताओं ने अपने स्वार्थ साधन और आर्थिक अनियमितताओं का केंद्र बना दिया और दीवालिया हो जाने पा भ्रष्टाचार का ठीकरा अभियंताओं के सिर पर फोड़ा. अपने लाड़ले गुंडों को ठेकेदार बनाकर, उनके लाभ के अनुसार नियम बनाकर, प्रशासनिक दबाब बनाकर अभियंताओं को प्रताड़ित कर अपने मन मर्जी से काम करना-करना और न मानने पर उन पर झूठे आरोप लगाना, उनकी पदोन्नति के रास्ते बंद कर देना, वेतनमान निर्धारण के समय कम से कम वेतनमान देना जैसे अनेक हथकंडों से प्रशासन ने अभियंताओं का न केवल मनोबल कुचल दिया अपितु उनका भविष्य ही अंधकारमय बना दिया.
इस देश में वकील, शिक्षक,चिकित्सक और बाबू सबके लिये न्यूनतम योग्यताएँ निर्धारित हैं किन्तु ठेकेदार जिसे हमेशा तकनीकी निर्माण कार्य करना है, के लिये कोई निर्धारित योग्यता नहीं है. ठेकेदार न तो तकनीक जानता है, न जानना चाहता है, वह कम से कम में काम निबटाकर अधिक से अधिक देयक चाहता है और इसके लिये अपने आका नेताओं और अफसरों का सहारा लेता है. कम वेतन के कारण आर्थिक अभाव झेलते अभियंता के सामने कार्यस्थल पर ठेकेदार के अनुसार चलने या ठेकेदार के गुर्गों के हाथों पिटकर बेइज्जत होने के अलावा दूसरा रस्ता नहीं रहता. सेना और पुलिस के बाद सर्वाधिक मृत्यु दर अभियंताओं की ही है. परिवार का पेट पलने के लिये मरने-मिटाने के स्थान पर अभियंता भी समय के अनुसार समझौता कर लेता है और जो नहीं कर पाता जीवन भार कार्यालय में बैठाल कर बाबू बना दिया जाता है.
शासकीय नीतियों की अदूरदर्शिता का दुष्परिणाम अब युवा अभियंताओं को भोगना पड़ रहा है. सरकारों के मंत्रियों और सचिवों ने अभियांत्रिकी शिक्षा निजी हाथों में देकर अरबों रुपयों कमाए. निजी महाविद्यालय इतनी बड़ी संख्या में बिना कुछ सोचे खोल दिए गये कि अब उनमें प्रवेश के लिये छात्रों का टोटा हो गया है. दूसरी तरफ भारी शुल्क देकर अभियांत्रिकी उपाधि अर्जित किये युवाओं के सामने रोजगार के लाले हैं. ठेकेदारी में लगनेवाली पूंजी के अभाव और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त गुंडे ठेकेदारों के कारण सामान्य अभियंता इस पेशे को जानते हुए भी उसमें सक्रिय नहीं हो पाता तथा नौकरी तलाशता है. नौकरी में न्यूनतम पदोन्नति अवसर तथा न्योंतम वेतनमान के कारण अभियंता जब प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठे तो उन्हें सर्वाधिक सफलता मिली किन्तु सब अभियंता तो इन पदों की कम संख्या के कारण इनमें आ नहीं सकते. फलतः अब अभियंता बैंकों में लिपिकीय कार्यों में जाने को विवश हैं.
गत दिनों स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की लिपिकवर्गीय सेवाओं में २०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त तथा ३८०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातक चयनित हुए हैं. इनमें से हर अभियंता को अभियांत्रिकी की शिक्षा देने में देश का लाखों रूपया खर्च हुआ है और अब वे राष्ट्र निर्माण करने के स्थान पर प्रशासन के अंग बनकर देश की अर्थ व्यवस्था पर भार बन जायेंगे. वे कोई निर्माण या कुछ उत्पादन करने के स्थान पर अनुत्पादक कार्य करेंगे. वे देश की राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के स्थान पर देश का राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति व्यय बढ़ाएंगे किन्तु इस भयावह स्थिति की कोई चिंता नेताओं और अफसरों को नहीं है.
***
स्मृति गीत-
पितृव्य हमारे नहीं रहे
*
वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
२२-९-२००९
***