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बुधवार, 30 अगस्त 2017

navgeet

नवगीत -
*
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनँगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
****
३०-८-२०१६
salil.sanjiv @gmail.com, ९४२५१८३२४४
http ://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

मुक्तिका : सिखा गया --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :                                                                                         

सिखा गया 

संजीव 'सलिल'
*
जिसकी उँगली थामी चुप रहना सिखा गया.
जिसने उँगली थामी चट चलना सिखा गया..

दर्पण से बात हुई तो खुद को खुद देखा.
कोई न पराया है, जग अपना सिखा गया..

जब तनी तर्जनी तो, औरों के दोष गिने.
तब तीन उँगलियों का सच जगना सिखा गया..

आते-जाते देखा, हर हाथ मिला खाली.
बोया-पाया-खोया ही तजना सिखा गया..

ढाई आखर का सच, कोई न पढ़ा पाया.
अनपढ़ न कबीरा था, मन पढ़ना सिखा गया..

जब हो विदेह तब ही, हो पात्र प्रेम के तुम.
यमुना रज का कण-कण, रस चखना सिखा गया.

जग नेह नर्मदा है, जग अवगाहन कर लो.
हर पंकिल पग-पंकज, उठ चलना सिखा गया..

नन्हा सा तिनका भी जब पड़ा नयन में तो.
सब वहम अहम् का धो, रो-चुपना सिखा गया..

रे 'सलिल' न वारी क्यों, बनवारी पर है तू?
सुन बाँस मुरलिया बन, बज सुनना सिखा गया..

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