नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बाँस नवगीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बाँस नवगीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021
नवगीत बाँस
चिप्पियाँ Labels:
नवगीत बाँस,
बाँस नवगीत
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)