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सोमवार, 7 अगस्त 2017

samiksha

कृति चर्चा:
अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है.
सुरेंद्र पंवार 
‘शेष कुशल है’-- -- -श्री सुरेश तन्मय का चौथा काव्य-संग्रह है. वे नागझिरी,पश्चिमी निमाड़ के मूल निवासी हैं, नौकरी के सिलसिले में भोपाल रहे; सम्प्रति जबलपुर में सृजन-रत हैं. समीक्षित कृति में १९ छंद-मुक्त गीत संकलित हैं, जिनमें से एक ‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ पर यहाँ सविस्तार चर्चा की जा रही है.
‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ एक अतुकांत गीत है.इसमें सुरेश तन्मय की सरल-तरल भावनाओं की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है-- सादगी से, सीधे-सादे शब्दों में. वैसे तो गीतकार लिखता है कि गाँव छोड़े ४६ वर्ष से अधिक हो गए हैं और उसे अपने गाँव की, घर की, घर के लोगों की याद आती है, स्वाभाविकतः गाँव और घर को अपने ‘नगीना’(छोटू) की याद आती होगी—कितनी? कैसे? कब?----- इन्हीं मूर्त एवम् अमूर्त भावनाओं का उव्देलन और प्रकटीकरण इस लम्बे गीत को जन्म देता है.

चिट्ठी, पत्र या पाती अभिव्यक्ति का एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो मनकी गांठें खोलती है, अपनों से अपनी-बात कहती है—वे जो उसे कहना चाहिए और वे जो उसे नहीं कहना चाहिए.बकौल गीतकार—“चिट्ठी लिखनेवाले और पढनेवाले दोनों की समझ जब एक हो जाती है, तब अंतर्मन की पीडायें खुलकर मुखरित होती है.” यह अलग बात है, कि अब चिट्ठी-पत्री लिखना आउट ऑफ़ डेट हो गया. मोबाईल और उससे भी एक कदम आगे, भावहीन-व्हाटएप और आभाहीन फेसबुक ने पत्र-लेखन की सनातनी-परंपरा को समाप्त कर दिया है.

तन्मय जी एक सुशिक्षित-सुसंस्कारी परिवार से हैं,.उन्हें रिश्तों का मूल्य मालूम है. उनके अनुसार ‘अपनत्व और आत्मीयता से भरे गाँव के रिश्ते, रिश्ते होते है. सगे रिश्तों से मजबूत.’ और फिर यदि उनमें अंतरंगता हो तो सोने पर सुहागा-- -- ‘भाई तू बेटा भी तू ही’. ऐसे में रामादाजी, नानू-नाई, फूलमती, चम्पाबाई, शिवदानी, अंसारी चाचा, रघुनंदन के बड़े पिताजी, केशव पंडित, बड़े डिसूजा, कोने की बूढी अम्माजी, दूर के रिश्ते की लगती सुमन बुआ, मंजी दाजी और छोटे के बचपन का मित्र राजाराम-- -- ये सभी अपने और सिर्फ अपने ही रहे होंगे और उनके हर्ष-विषाद, उनके मिलन-विछोह अपने निजी नफा-नुकसान. एक सामान्य ग्राम्य-जन की तरह रचनाकार की भी झाड-फूंक,टोने- टोटके,गंडा-तावीज,पूजा- पाठ,पंडा-पुजारी में अटूट-आस्था है. वह भी किसी
दुर्घटना,अनिष्ट या अनहोनी की आशंका में इन्हीं का आसरा लेता है-- -

मन्नत किसी देव की/कोई अधूरी हो तो/ 
विधि विधान से उसे/शीघ्र पूरी करवाना.

गीतकार जहाँ पारिवारिक-परिवेश के प्रति सजग नजर आता है,वहीं अपने सामाजिक दायित्व-बोध के प्रति भी पूर्णतया जागरूक है. एक मुखिया के नाते(मुखिया मुख सों चाहिए-- ) परिवार को एकजुट रखना, तदानुकूल कुछ कठोर निर्णय लेना और अपने हिस्से का दर्द पीना -उसका जेठापन या बडप्पन कहा
जा सकता है—

समय लगेगा/हो जाऊंगा ठीक/नहीं तुम चिंता करना/
सहते सहते दर्द/हो गयी है आदत अब जीने की.

बड़े भाई की पत्री में गीतकार यह तो चाहता है कि संयुक्त परिवार न टूटे. परन्तु यह भी मान चाहता है कि छोटे,लाड़ी और छुटकू के साथ गाँव आये,जो कि वह कर सकता है; साधन सम्पन्न है,उसके पास एक अदद कार है और इसलिए, अपनी और अन्य-परिजनों के न आ पाने की मज़बूरी जताता है-- -

धरा आकाश के जैसे/यह दूरी है.

इस सन्दर्भ से साम्य रखता चंद्रसेन विराट के मधुर-गीत का मुखड़ा उल्लेखनीय है-- --“गज भर की दूरी भी सौ जोजन की हो जाती है”. हम भी यही चाहते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई ‘कुटुंब’ या ‘परिवार’ का अस्तित्व बना रहे, “गज भर की दूरी” मिटे, पहल कोई भी करे -- -‘छोटे’ या ‘बड़े’. गीतकार ने बड़े भाई की चिट्ठी में गाँव के घरों की छप्पर-छानी ,वहां व्याप्त बंदरों का आतंक, मूलभूत स्वास्थ्य-सुविधाओं का अभाव, खुद एवम्प त्नी की बीमार स्थिति, गाय का मरा बछड़ा पैदा होना,गाय के लात मारने से लगी चोट, बंद पड़ा हैण्डपंप, गाँव के पास भरा नवगृह का मेला, बैलों का बाजार और सामूहिक शादी-सम्मेलन सभी की मौलिक चर्चा की है. एक बात गौर करने लायक अवश्य है कि अपने गाँव की दिशा और गाँव वालों की दशा बखानते कवि का स्वर अमिधात्मक नहीं रहता बल्कि वह कभी लक्षणा में बात करता है तो कभी व्यंजनायें कसता दिखाई देता है-- -- -
बड़े वुजुर्गों ने/पहले से ठीक कहा है/आगे आने वाला समय/विकट आएगा/
अचरज होगा देख के./भेदभाव की वारिश/ऐसी होगी/सींग बैल का केवल/
एक गीला होगा/और एक सींग उसका/ सूखा रह जायेगा.

मंजी दाजी की मोटर जब्ती और सिंचाई के अभाव में उनकी सूखती फसल को देखकर रचनाकार एकदम भड़क उठता है और कहता है –
किस्मत में किसान की/बिन पानी के बादल/रहते छाए.

वहीँ वर्तमान-व्यवस्था पर किया गया व्यंग कुछ-अलग ही रंग बिखेरता है---
पञ्च और सरपंच/स्वयं को जिला कलेक्टर/लगे समझने./
पंचायत का सचिव अंगूठे लेकर इनके/इन्हें दिखाता रहता/ हरदम सुन्दर सपने.
यहाँ ‘अंगूठे लेकर’ का प्रशस्य-प्रयोग किया गया है जो यह दर्शाता है कि
कवि की प्रतीकों,रूपकों और बिम्बों पर अच्छी पकड़ है. हाँ ! बाकी रही ग्राम्य-

अराजकता की बात, यह तो गीतकार ने स्वयं स्पष्ट किया है कि लोग सिर्फ उपलब्धियों का आकलन करते हैं, जिम्मेदारियों का नहीं. बन्दर-बाँट और अपनी- अपनी जुगत भिडाते छुटभैया नेताओं के कारण योजनाओं का लाभ आम ग्रामीण-जनों तक नहीं पहुंच पाता. ऐसा भी नहीं है कि सभी शासकीय योजनायें अलाभकारी हैं-
वैसे शासन के पैसों से/अच्छे भी कुछ काम हुए हैं/कच्ची गलियां और
रास्ते/कियेपत्थरों से पक्के हैं/और नालियाँ/गंदे पानी की/जो बहती इधर उधर
थीं/वे भी सब हो गयीं व्यवस्थित/अब गलियों में पहले जैसा/नहीं अँधेरा फैला

रहता/बिजली के रहने से अब तो/चारों ओर उजाला रहता.

फिर भी, कृषि और कुटीर-उद्योगों के प्रति उदासीनता,कर्ज में डूबता-मरता किसान तथा कस्बाई चकाचौंध से भ्रमित-पलायित ग्राम्य-युवा -- -ये, कुछ भयावह तस्वीरें हैं; उस निमाड़ की, जिसकी “डग डग रोटी,-- --” जग-जाहिर है. मौजूदा हालत में ये स्थानीय चिंता के विषय हैं और राष्ट्रीय-चिंतन के भी. शहरी-परिवेश में रहते हुए भी गीतकार की जड़ें गाँव और ग्रामीण-संस्कृति से जुड़ीं हैं. भांजी की शादी में पिन्हावनी के कपडे ले जाना, बधावे में शकर-बतासे बांटना यह प्रदर्शित करता है कि उसे अपने संस्कारों का बखूबी ज्ञान है. वह अपने अभावों,अपेक्षाओं और संवेदनाओं को भी बहुत सहजता से व्यक्त कर देता है.उसे, ‘छोटे’ के शहर में कोठी बनवाने और कार खरीदने पर आत्मीय ख़ुशी है, वह, उसकी तरक्की और यशनाम के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है, वहीं दूसरी ओर पत्नी के इलाज के लिए थोडी मदद करने और एक बार कार लेकर गाँव आने और लोगों को दिखाने का भी इच्छा रखता है. गीत की उत्तर-यात्रा में गीतकार दर्शन की ओर मुड़ा दिखाई देता है. ‘जीवन का यह अटल सत्य, सभी को जाना है’ मानते हुए गाता है—

सत्तर पार कर लिया/इस अषाढ़ में/और हो गई पैंसठ की/तेरी भाभी/इस कुंवार में/
लगा हुआ नंबर आगे/विधना ने जो बना रखीं हैं/मुक्तिधाम की कतारें.

तन्मय जी का शब्द-सामर्थ्य सराहनीय है. उन्होंने सरल तत्सम शब्दों से भाषा का श्रंगार किया है. जहां, मधु-गुन्जन, कुशल क्षेम, यश नाम, सेवानिवृत का साभिप्राय प्रयोग पत्र-गीत में विपुलता एवम् प्राणवत्ता का संचार करता है वहीं पूर्ण-पुनरुक्त-पदावली (सहते-सहते, बेच-बेच, थोडा-थोडा, पैसा-पैसा ), अपूर्ण- पुनरुक्त-पदावली (रहन-सहन, टूटी-फूटी, ठीक-ठाक, मोड़-माड़) तथा सहयोगी-शब्द (खेती-बाडी,खून- पसीना,नीम-हकीम) के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है. वैसे, इस चिट्ठी में निमाड़ी-मिट्टी का सोंधापन कुछ कम है.(खासकर तब, जबकि कवि की प्रथम काव्य-कृति ‘प्यासो पनघट’ निमाड़ी में ही है) वहीँ, परिवेशानुगत ‘मुक्ति-धाम की कतारें’ का इतर-प्रयोग अटपटा-सा लगता है. अंत में, यह अवश्य कहा जा सकता है कि ग्राम्य-जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जो इससे अछूता रहा हो. इसे पढ़कर यूँ लगता है कि-‘अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है’. और, यही अहसास इस गीत-कृति की सफलता है.
( समीक्षित कृति: शेष कुशल है/ श्री सुरेश तन्मय /प्रकाशक भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल/मूल्य ६० रूपये )
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सुरेन्द्र सिंह पंवार, २०१, शास्त्रीनगर, गढ़ा, जबलपुर (म.प्र.)-४८२००३ /मोबाईल-९३००१०४२९६
/email-- -- pawarss2506@gmail.com / Blog-suryayash.blogspot.in

सोमवार, 1 जून 2015

kruti charcha: sanjiv

कृति चर्चा:
शेष कुशल है : सामायिक जनभावनाओं से सराबोर काव्य संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: शेष कुशल है, कविता संग्रह, सुरेश 'तन्मय', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ८४, ६० रु., भेल हिंदी साहित्य परिषद् एल ३३/३ साकेत नगर, भेल, भोपाल , कवि संपर्क: २२६ माँ नर्मदे नगर, बिलहरी,जबलपुर ४८२०२०, चलभाष ९८९३२६६०१४, sureshnimadi@gmail.com ]
*
पिछले डेढ़ दशक से मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिखने-छपने और साहित्यिक गोष्ठियों से अनुपस्थित रहने के बावजूद पुस्तकों की अबाध प्राप्ति सुख-दुःख की मिश्रित प्रतीति कराती है.


सुख दो कारणों से प्रथम अल्पज्ञ रचनाकार होने के बाद भी मित्रों के स्नेह-सम्मान का पात्र हूँ, द्वितीय यह कि शासन-प्रशासन द्वारा हिंदी की सुनियोजित उपेक्षा के बाद भी हिंदी देश के आम पाठक और रचनाकार भी भाषा बनी हुई है और उसमें लगातार अधिकाधिक साहित्य प्रकाशित हो रहा है.


दुःख के भी दो कारण हैं. प्रथम जो छप रहा है उसमें से अधिकांश को रचनाकार ने सँवारे-तराशे-निखारे बिना प्रस्तुत करना उचित समझा, रचनाओं की अंतर्वस्तु में कथ्य, शिल्प आदि अनगढ़ता कम फूहड़ता अधिक प्राप्य है. अधिकतम पुस्तकें पद्य की हैं जिनमें भाषा के व्याकरण और पिंगल की न केवल अवहेलनाहै अपितु अशुद्ध को यथावत रखने की जिद भी है. दुसरे मौलिकता के निकष पर भी कम ही रचनाएँ मिलती हैं. किसी लोकप्रिय कवि की रचना के विषय पर लिखने की प्रवृत्ति सामान्य है. इससे दुहराव तो होता ही है, मूल रचना की तुलना में नयापन या बेहतरी भी नहीं प्राप्त होती. प्रतिवर्ष शताधिक पुस्तकें पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जगाने, अथवा याद रखकर कहीं उद्धृत करने के लिये उपयुक्त रचनांश कम ही मिलता है.
पुस्तक की आलोचना, विवेचना अथवा समीक्षा को सहन करने, उससे कुछ ग्रहण करने और बदलाव करने के स्थान पर उसमें केवल और केवल प्रशंसा पाने और न मिलने पर समीक्षक के प्रति दुर्भाव रखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. किसी अचाही किताब को पढ़ना, फिर उस पर कुछ लिखना, उससे कुछ लाभ न होने के बाद भी सम्बन्ध बिगाड़ना कौन चाहेगा? इस कारण पुस्तक-चर्चा अप्रिय कर्म हो गया है और उसे करते समय सजगता आवश्यक हो गयी है. इस परिस्थिति में आलोचना शास्त्र के नये सिद्धांत विकसित होना, नयी पद्धतियों का अन्वेषण कैसे हो? वैचारिक प्रतिबद्धतायें, विधागत संकीर्णता अथवा उद्दंडता, शब्दरूपों और भाषारूपों में क्षेत्रीय विविधताएं भी कठिनाई उपस्थित करती हैं. पारिस्थितिक दुरूहताओं के संकेतन के बाद अब चर्चा हो काव्य संग्रह 'शेष कुशल है' की.


'शेष कुशल है' की अछान्दस कवितायें जमीन से जुड़े आम आदमी की संवेदनाओं की अन्तरंग झलकी प्रस्तुत करती हैं. सुरेश तन्मय निमाड़ी गीत संग्रह 'प्यासों पनघट', हिंदी काव्य संग्रह 'आरोह-अवरोह' तथा बाल काव्य संग्रह 'अक्षर दीप जलाये' के बाद अपनी चतुर्थ कृति 'शेष कुशल है' में उन्नीस लयात्मक-अछांदस काव्य-सुमनों की अंजुली माँ शारदा के चरणों में समर्पित कर रहे हैं. तन्मय जी वर्तमान पारिस्थितिक जटिलताओं, अभावों और विषमताओं से परिचित हैं किन्तु उन्हें अपनी रचनाओं पर हावी नहीं होने देते. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जानकार (आयुर्वेद रत्न ) होने के कारण तन्मय जी जानते हैं कि त्रितत्वों का संतुलन बनाये बिना व्याधि दूर नहीं होती. कविता में कथ्य, कहन और शिल्प के तीन तत्वों को बखूबी साधने में कवि सफल हुआ है.


कविताओं के विषय दैनंदिन जीवन और पारिवारिक-सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं. अत:, पाठक को अपनत्व की अनुभूति होती है. कहन सहज-सरल प्रसाद गुण युक्त है. तन्मय जी वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं. संग्रह की महत्वपूर्ण रचना 'गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी' (२५ पृष्ठ) घर के हर सदस्य से लेकर पड़ोस, गाँव के हर व्यक्ति के हाल-चाल, घटनाओं और संवादों के बहाने पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगतियों का उद्घाटन मात्र नहीं करती अपितु मन को झिन्झोड़कर सोचने के लिए विवश कर देती है. बड़े भाई द्वारा छोटे को पढ़ाने-बढ़ाने के लिये स्वहितों का त्याग, छोटे द्वारा शहर में उन्नति के बाद भी गाँव से और चाहना, बड़े का अभावों से गहराते जाना, बड़ों और भाभी का अशक्त होना, छोटे से की गयी अपेक्षाओं का बहन होने की व्यथा-कथा पढ़ता पाठक करुणा विगलित होकर पात्रों से जुड़ जाता है. 'हम सब यहाँ / मजे में ही हैं' और 'तेरी मेहनत सफल हुई / कि अपना एक मकान हो गया / राजधानी भोपाल में' से आरम्भ पत्र क्रमश: 'छोटे! घर के हाल / बड़े बदहाल हो गए', 'तेरी भाभी को गठिया ने / घेर लिया है', 'भाई तू बेटा भी तू ही', 'सहते-सहते दरद / हो गयी है आदत / अब तो जीने की', 'इस राखी पर भाई मेरे / तू आ जाना / बहनों से हमसे मिल / थोडा सुख दे जाना', 'थोड़ी मदद मुझे कर देना / तेरी भाभी का इलाज भी करवाना है... ना कर पाया कुछ तो / फिर जीवन भर / मुझको पछताना है'', 'तूने पूछे हाल गाँव के / क्या बतलाऊँ? / पहले जैसा प्रेम भाव / अब नहीं रहा है', 'पञ्च और सरपंच / स्वयं को जिला कलेक्टर / लगे समझने', 'किस्मत में किसान की / बिन पानी के बादल / रहते छाये', 'एक नयी आफत सुन छोटे / टी वी और केबल टी वी ने / गाँवों में भी पैर पसारे', 'गाँवों के सब / खेत-जमीनें / शहरी सेठ / खरीद रहे हैं', ब्याज, शराब, को ओपरेटिव सोसायटी के घपले, निर्जला हैण्ड पंप, बिजली का उजाला, ग्रामीण युवकों का मेहनत से बचना, चमक-दमक, फ्रिज-टी वी आदि का आकर्षण, शादी-विवाह की समस्या के साथ बचपन की यादों का मार्मिक वर्णन और अंत में 'याद बनाये रखना भाई / कि तेरा भी एक भाई है'. यह एक कविता ही पाने आप में समूचे संग्रह की तरह है. कवि इसे बोझिलता से बचाए रखकर अर्थवत्ता दे सका है.


डॉ. साधना बलवटे ने तन्मय जी की रचनाओं में समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की पहचान ठीक ही की है. ये कवितायें सरलता और तरलता का संगम हैं. एक बानगी देखें:
समय मिले तो / आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं.
ना हम पंडित / ना हैं ज्ञानी
ना भौतिक / ना रस विज्ञानी
हम नदिया के / बहते पानी
भरो अंजुरी और /आचमन कर लो
हम बहुत तरल हैं


कन्या भ्रूण के साहसी स्वर, बहू-बल, मित्र, चैरेवती, मेरे पिता, माँ, बेटियाँ आदि रचनाएं रिश्तों की पड़ताल करने के साथ उनकी जड़ों की पहचान, युवा आकाक्षाओं की उड़ान और वृद्ध पगों की थकान का सहृदयता से शब्दांकन कर सकी हैं. वृक्ष संदेश पर्यावरणीय चेतना की संदेशवाही रचना है. नुक्कड़ गीत टोल-मोलकर बोल जमूरे, जाग जमूरे आदि नुक्कड़ गीत हैं जो जन जागरण में बहुत उपयोगी होंगे.


सुरेश तन्मय का यह काव्य संग्रह तन्मयतापूर्वक पढ़े जाने की मांग करता है. तन्मय जी आयुर्वेद के कम और सामाजिक रोगों के चिकित्सक अधिक प्रतीत होते हैं. कहीं भी कटु हुए बिना विद्रूपताओं को इंगित करना और बिना उपदेशात्मक मुद्रा के समाधान का इंगित कर पाना उन्हें औरों से अलग करता है. ये कवितायें कवी के आगामी संकलनों के प्रति नयी आशा जगाती है. आचार्य भगवत दुबे ठीक है कहते हैं कि 'ये (कवितायें) कहीं न कहीं हमारे मन की बातों का ही प्रतिबिम्ब हैं.
***
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४