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गुरुवार, 19 जून 2025

जून १९, दोना-पत्तल, सुखदा छंद, मिट्टी, शुद्ध ध्वनि छंद, मल्लिका छंद, दुर्गावती, ओशो, सरस्वती

सलिल सृजन जून १९
विश्व तापस (स्पेनिश चाट) दिवस
*
सरस्वती वंदना,
आलोक दो माँ शारदे!
*
तम-तोम से दुनिया घिरी है
भीड़ एकाकी निरी है
अजब माया, आप छाया
अकेलेपन से डरी है
लेने न चिंता चैन देती
आमोद दो माँ शारदे!
*
सननसन बह पवन बनकर
छूम छनननन बज सके मन
कलल कलकल सलिल निर्मल
करे कलरव नाचकर तन
सुन सकूँ पल पल अनाहद
नाद नित माँ शारदे!
*
बरस टप टप तृषा हर लूँ
अंकुरित हो आँख खोलूँ
पल्लवित कर हरी धरती
पुलक पुष्पित धन्य हो लूँ
झुकूँ चरणों में फलित हो
पग-लोक दो माँ शारदे!
१९-६-२०२०
***
गीत
*
मल्लिका छंद
रजगल
ग ल ग ल ग ल ग ल
२१ २१ २१ २१
*
मल्लिका रहे न मौन
.
लोकतंत्र की पुकार
लोग ही करें सुधार
दोष और का न मान
लें सुधार रीति जान
गंदगी बटोर साफ
कीजिए; न धार मौन
.
शक्ति लोक की अपार
तंत्र से न मान हार
पौध रोप दें हजार
भूमि हो हरी निहार
राजनीति स्वार्थ त्याग
अग्रणी बनें; न मौन
.
ऊगता न आप भोर
सूर्य ले उषा अँजोर
आसमान दे बुहार
अंधकार मान हार
भागता; प्रकाशवान
सूर्य लोग हों; न मौन
*
संवस, ७९९९५५९६१८
१९-६-२०१९
***
ओशो चिंतन: घाट भुलाना 5
*
निष्ठा-श्रद्धा का नहीं, बंधन है स्वीकार।
ढाँचे में बँधती नहीं, जैसे मुक्त बयार।।
*
श्रद्धा-निष्ठा पर बने, ढाँचा जड़ मजबूत।
गत-आगत तक एक सा, जड़ता प्रबल-अकूत।।
*
यदि न बदलता; तो हुआ, समझें जीवन-अंत।
हर पल नया कहूँ तभी, हो चिंतन में तंत।।
*
हर कल हो यदि आज सा, ले केवल दोहराव।
तब समझे मैं मर गया, शेष न यदि बदलाव।।
*
मित्र जुड़े; चाहें बनूँ, मैं उनके अनुकूल।
नहीं बना तो शत्रु बन, हो जाते प्रतिकूल।।
*
दोष न उनका; मानता, अपना आप कसूर।
वे ज्यों का त्यों चाहते, मुझे नहीं मंजूर।।
*
जीवन में सादृश्यता, न्यून; अधिक है भेद।
मात्र मृत्यु है एक सी, सत्य यही; क्यों खेद?
*
सूरज कल जैसा उगे, लिए पुराना रूप।
तब पूजोगे यदि कहो, मान न उगे अनूप।।
*
28.5.2018
***
दोहा सलिला:
*
जन्म; ब्याह; राखी; तिलक; गृह-प्रवेश; त्यौहार.
सलिल बचा; पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार.
*
पुस्तक जग की प्रीत है, पुस्तक मन का मीत.
पुस्तक है तो साथ है, भावी-आज-अतीत.
*
पुश्त-पुश्त पुस्तक चले, शेष न रहता साथ.
जो पुस्तक पढ़ता रहा, उसका ऊँचा माथ.
*
पौधारोपण कीजिए, सतत बचाएँ नीर.
पंछी कलरव करें तो, आप घटेगी पीर.
*
तबियत होती है हरी, हरियाली को देख.
रखें स्वच्छता हमेशा, सुधरे जीवन-लेख.
***
१९.६.२०१८
***
२४ जून १५६४ महारानी दुर्गावती शहादत दिवस पर विशेष रचना
छंद सलिला: ​​​शुद्ध ध्वनि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
.
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..
बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..
पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, सँवरती रही मिट्टी मेरी..
ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..
कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..
खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों तक.
पाक-नापाक दहकती रही मिट्टी मेरी..
खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..
गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..
राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..
कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
१९-६-२०१७
***
नवगीत
*
होरा भूँज रओ छाती पै
आरच्छन जमदूत
पैदा होतई बनत जा रए
बाप बाप खें, पूत
*
लोकनीति बनबास पा रई
राजनीति सिर बैठ
नाच नचाउत नित तिगनी का
घर-घर कर खें पैठ
नाम आधुनिकता को जप रओ
नंगेपन खों भूत
*
नींव बगैर मकान तान रए
भौत सयाने लोग
त्याग-परिस्रम खों तलाक दें
चाह भोग लें भोग
फूँक रए रे, मिली बिरासत
काबिल भए सपूत
*
ईंट-ईंट में खेंच दिवारें
तोड़ रए हर जोड़
लाज-लिहाज कबाड़ बता रए
बेसरमी हित होड़
राह बिसर कें राह दिखा रओ
सयानेपन खों भूत
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस,
उन्नाव-कानपूर
***
मुक्तिका:
*
मापनी:
१२१२ / ११२२ / १२१२ / २२
ल ला ल ला ल ल ला ला, ल ला ल ला ला ला
महारौद्र जातीय सुखदा छंद
*
मिलो गले हमसे तुम मिलो ग़ज़ल गाओ
चलो चलें हम दोनों चलो चलें आओ
.
यही कहीं लिखना है हमें कथा न्यारी
कली खिली गुल महके सुगंध फैलाओ
.
कहो-कहो कुछ दोहे चलो कहो दोहे
यहीं कहीं बिन बोले हमें निकट पाओ
.
छिपाछिपी कब तक हो?, लुकाछिपी छोड़ो
सुनो बुला मुझ को लो, न हो तुम्हीं आओ
.
भुला गिले-शिकवे दो, सुनो सपन देखो
गले मिलो हँस के प्रिय, उन्हें 'सलिल' भाओ
१९-६-२०१५
क्या यह 'बहरे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक्बूज़ मख्बून महज़ूफ़ो मक्तुअ' में है?
***
नवगीत:
*
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
*
हँसकर गले लगाइये
या हाथ मिलायें
तीरे-नज़र से दिल,
छुरे से पीठ बचायें
हैं आम तो न ख़ास से
तकरार कीजिए-
जो कीजिए तो झूठ
न इल्जाम लगायें
इल्हाम हो न हो
नहीं किरदार गिरायें
कैसे भी हो
हालात
न जेबें खँगालिये
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
*
दिल से भले भुलाइये
नीचे न गिरायें
यादें न सही जाएँ तो
चुपके से सिरायें
माने न मन तो फिर
मना इसरार कीजिए-
इकरार कीजिए
अगर तो शीश चढ़ायें
जो पाठ खुद पढ़ा नहीं
न आप पढ़ायें
बच्चे बिगड़ न जाएँ
हो सच्चे
सम्हालिए
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
***
स्वास्थ्य चर्चा
दोना-पत्तल से स्वास्थ्य
*
भारत में 2000 से ज्यादा वनस्पतियों से भोजन को रखने के लिए दोने पत्तल बनाई जाती है और इन दोने पत्तल मे हर एक दोने पत्तल कई कई बीमारियो का इलाज है और औषधीय गुण रखता है।
केला - प्राचीन ग्रंथों मे केले की पत्तियो पर परोसे गये भोजन को स्वास्थ्य के लिये लाभदायक बताया गया है। आजकल मँहगे होटलों और रिसोर्ट में भी केले पत्ते प्रयोग हो रहे हैं।
पलाश - पलाश के पत्तल में भोजन करने से स्वर्ण के बर्तन में भोजन करने का पुण्य व आरोग्य मिलता है। रक्त की अशुद्धता के कारण होने वाली बीमारियों के लिये पलाश से तैयार पत्तल को उपयोगी माना जाता है। पाचन तंत्र सम्बन्धी रोगों के लिये भी इसका उपयोग होता है। सफेद फूलों वाला पलाश से तैयार पत्तल बवासीर (पाइल्स) के रोगियों के लिये उपयोगी है।
करंज - जोड़ों के दर्द के लिये करंज की पत्तियों से तैयार पत्तल उपयोगी माना जाता है। पुरानी पत्तियों को नयी पत्तियों की तुलना में अधिक उपयोगी माना जाता है।
अमलतास - लकवा (पैरालिसिस) होने पर अमलतास की पत्तियों से तैयार पत्तल उपयोगी है।
दोन-पत्तल के अन्य लाभ :
१. मितव्ययिता - कम पैसों में उपलब्ध।
२. परावरण मित्र - दोना-पत्तल पशु खा लें तो उन्हें हानि नहीं होती। मिट्टी में दबा दें तो उर्वरता बढ़ती है।
३. श्रम और पानी की बचत - अन्य बर्तन धोने में लगनेवाले श्रम और पानी की बचत होती हैl
४. रोजगार - पत्ते तोड़ने और दोना-पत्तल बनाने के कार्य से कम शिक्षित लोगों को रोजकार मिलता हैl
५. बर्तन धोने से निकले डिटर्जेंट व रसायनों से डोनेवाले ले अहथ खराब नहीं होंगे तथा मिट्टी का प्रदूषण नहीं होगाl
६. पत्तों की आवश्यकता पूर्ति के लिए अधिक वृक्ष होंगे, जिससे अधिक आक्सीजन भी मिलेगी l
७. जलस्रोतों का प्रदूषण कम होगा।
८. पेड़ों से प्राप्त लकड़ी बहुत उपयोगी होगी।
९. कम पूँजी तथा अकुशलता के बाद भी व्यवसाय का अवसर मिलेगा।
१९-६-२०१०
***

बुधवार, 28 मई 2025

मई २८, ऊदबिलाव, नाग, चित्रगुप्त, ओशो, सरस्वती, अलंकार, सॉनेट, पिता, नवगीत, दोहा

सलिल सृजन मई २८
विश्व ऊदबिलाव (ऑटर) दिवस
*
ऊदबिलाव अर्धजलीय स्तनधारी, वेज़ल परिवार (मस्टेलिडे) का हिस्सा वे अपने चंचल व्यवहार के लिए जाने जाते हैं और कुशल तैराक होते हैं। ऊदबिलाव का शरीर लचीला, पतला होता है, जिसके छोटे पैर, मजबूत गर्दन और लंबी, चपटी पूंछ होती है जो तैरने में मदद करती है। वे मीठे पानी के वातावरण से लेकर तटीय क्षेत्रों तक कई तरह के आवासों में पाए जाते हैं, जिनमें समुद्री ऊदबिलाव जैसी कुछ प्रजातियाँ विशेष रूप से समुद्री होती हैं। ऊदबिलाव आकार में भिन्न होते हैं, एशियाई छोटे-पंजे वाले ऊदबिलाव जैसी कुछ प्रजातियों का वजन लगभग 3 किलोग्राम (6.6 पाउंड) होता है और विशालकाय ऊदबिलाव जैसी अन्य प्रजातियों का वजन 26 किलोग्राम (57 पाउंड) तक होता है।

ऊदबिलाव के पास एक मोटा फर कोट होता है जो उन्हें पानी में गर्म और सूखा रहने में मदद करता है। कुछ, समुद्री ऊदबिलाव की तरह, वसा परत के बजाय इन्सुलेशन के लिए अपने घने फर पर निर्भर करते हैं। ऊदबिलाव मांसाहारी होते हैं, जिनका आहार मुख्य रूप से मछली होता है, लेकिन इसमें मेंढक, क्रेफ़िश, केकड़े और कभी-कभी छोटे स्तनधारी या पक्षी भी शामिल होते हैं। ऊदबिलाव उत्कृष्ट तैराक और गोताखोर होते हैं, तथा कई प्रजातियों के पैर जालदार होते हैं, जो उनकी तैरने की क्षमता को बढ़ाते हैं। ऊदबिलाव विभिन्न प्रकार के वातावरणों में निवास करते हैं, जिनमें नदियाँ, झीलें, आर्द्रभूमि और तटीय क्षेत्र शामिल हैं। कुछ प्रजातियाँ विशेष रूप से समुद्री होती हैं।

यूरेशियन ऊदबिलाव (लूट्रा लूट्रा): यूरेशिया और उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में पाया जाने वाला यह अर्ध-जलीय स्तनपायी प्राणी है, जो अपनी मजबूत क्षेत्रीय प्रकृति के लिए जाना जाता है। विशालकाय ऊदबिलाव (पेरोनुरा ब्रासिलिएन्सिस): ऊदबिलाव प्रजातियों में सबसे बड़ा, यह दक्षिण अमेरिका में पाया जाता है। समुद्री ऊदबिलाव (एनहाइड्रा ल्यूट्रिस): उत्तरी प्रशांत महासागर के तटीय जल में पाया जाने वाला एक समुद्री ऊदबिलाव। नदी ऊदबिलाव (लोंट्रा कैनेडेन्सिस): एक उत्तरी अमेरिकी प्रजाति जो अपने चंचल व्यवहार और तैरने और गोता लगाने की क्षमता के लिए जानी जाती है। कुछ ऊदबिलाव प्रजातियाँ, जैसे कि यूरेशियन ऊदबिलाव, अपने क्षेत्र के कुछ हिस्सों में खतरे में हैं, जबकि अन्य ठीक हो रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में, आवास की कमी और प्रदूषण जैसे कारकों के कारण विभिन्न क्षेत्रों में ऊदबिलाव की आबादी में गिरावट आई है।
***
सॉनेट
है पता लापता कहाँ जाएँ?
खोजते हैं नहीं मिली साकी
जाम पाया नहीं, न मैखाना
ठोकरें खा थके, न रोना है।
ख्वाब ही देखते न खो जाएँ
जोड़ सिक्के मरे चला चाकी
भीड़ में आदमी कहाँ पाएँ?
हौसलों को न यार खोना है।।

भाड़ में झोंक दे जमाने को
साथ तेरा न दे सका साया
राह राही! न साथ जाती है।
आबले संग आजमाने को
फूल ने साथ शूल का पाया
बागबां धूल आजमाती है।।
२८.५.२०२५
०0०
पूर्णिका
बाबू जी 
बाबू जी बादल की छाया
बड़े भाग जो हमने पाया
.
गोदी खेले, काँधे बैठे
अँगुली थाम झूल दौड़ाया
.
माथे की बिंदी सिंदूरी
अम्मा का लावण्य बढ़ाया
.
धनी बात के, दृढ़ संकल्पी
कष्ट सहे, सिर नहीं नवाया
.
साधन स्वल्प न कभी कम पड़े
संयम पंथ सदा अपनाया
.
जाकर भी तुम जा न सके हो
यह जीवन उनका सरमाया 
२८.५.२०२५
०0०
नाग वंदना
सर्वे नागा: प्रीयन्ताम् मे ये केचित् पृथ्वीतले
ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता
.
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:
ये च वापी तडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:
.
अनंतं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् शंखपालं धार्तराष्ट्रं
तक्षकं कालियं तथा एतानि नवनामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः
तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।
***
आलंकारिक सरस्वती वंदना
*
वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ
- वृत्यानुप्रास (आवृत्ति व्)
कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ
-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)
*
नित सूरज दैदीप्य हो, करता तव वंदन
- श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)
ऊषा गाती-लुभाती, करती
अभिनंदन
- अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती)
*
शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार
- वैणसगाई (श, क)
हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार
- लाटानुप्रास (हंस)
*
बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार
- पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)
जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार
- यमक (जल = पानी, आँसू)
*
मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव
- श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)
रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव?
- वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)
*
कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम
- पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)
मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम
- उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), - अनन्वय (शारद)
*
सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो 'सलिल' चकोर
- रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)
शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर
- व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)
***
मुक्तिका
भलाई-बुराई
*
भलाई करे वो
बुराई करे जो
तन साथ कह मन
मिलाई करे यों
अपनों को अपना
पराया करें क्यों
काटो न पहले
कोई फसल बो
पीछे पड़ो मत
हाथों को गर धो
चिंता तजो मन
नयन बंद कर सो
सब को असीसो
बिदा जोड़ कर लो
२८-५-२०२३
***
रचना-प्रतिरचना
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
चाँद का टीका लगाकर, माथ पर उसने मुझे,
ओढ़नी दे तारिकाओं की, सुहागिन कह दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'
बिजलियों की, बादलों की, घटाओं की भेंट दे
प्रीत बरसा, स्वप्न का कालीन मैंने तह दिया।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
कैसे कहूँ तुझसे बच के चले जायेंगे कहीं।
पर यहाँ तो हर दर पे तेरा नाम लिखा है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
चाहकर भी देख पाया, जब न नैनों ने तुझे।
मूँद निज पलकें पढ़ा, पैगाम दिखा है।।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
आज फिर तेरी मुहब्बत ने शरारत खूब की है
नाम तेरा ले रही पर वो बुला मुझको रही है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
आज फिर तेरी शराफत ने बगावत खूब की है
काम तेरा ले रही पर वो समा मुझमें रही है।।
२८.५.२०१८
***
गीत
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
नेह नर्मदा
पुलक निहारो
विहँस घूमते तीरे-तीरे।
*
क्षमा करो जो करी गलतियाँ
कभी किसी ने भी प्रमाद वश।
आज्ञा-ह्रदय चक्र मत कुंठित
होने देना निज विषाद वश।
खुलकर हँसो
गगन गुंजित हो
जैसे बजते हों मंजीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
प्रेम करो तो सच्चा करना
कपट-कलुष मत मन में धरना।
समय कहे जब तब तत्क्षण ही
ज्यों की त्यों तन-चादर धरना।
वस्तुजगत के
कंकर फेंको
भावजगत के ले लो हीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
तोड़ो बंधन, कर नादानी
पीर न देना, कर शैतानी।
कल-कल कलकल लहरियाँ
नर्तित आस मछलिया रानी।
शतदल खिले
चेतना जाग्रत
हूँ छोड़े यश-कीर्ति सजी रे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
***
गीत:
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
साँस जाने का समय आने न पाए।
रास गाने का समय जाने न पाए।
बेहतर है; पेश्तर
मन-राग गाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
हीरकों की खदानों से बीन पत्थर।
फोड़ते क्यों हाय! अपने हाथ निज सर?
समय पूरा हो न पाए
आग लाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
***
ओशो चिंतन:
देता हूँ आकाश मैं सारा भरो उड़ान।
भुला शास्त्र-सिद्धांत सब, गाओ मंगल गान।।
*
खुद पर निर्भर हो उठो, झट नापो आकाश।
पंख खोल कर तोड़ दो, सीमाओं के पाश।।
*
मानव के अस्तित्व की, गहो विरासत नाम।
बाँट वसीयत अन्य को, हो गुमनाम अनाम।।
*
ओ शो यह बढ़िया हुआ, अधरों पर मुस्कान।
निर्मल-निश्छल गा रही, ओशो का गुणगान।।
*
जिससे है नाराजगी, करें क्षमा का दान।
खुलते आज्ञा-ह्रदय के, चक्र शीघ्र मतिमान।।
*
संप्रभु जैसे आओ रे, प्रेम पुकारे मीत।
भिक्षुक जैसे पाओगे, वास्तु जगत की रीत।।
***
हास्य कुंडलिया
गाय समझकर; शेरनी, थाम भर रहे आह!
कहो! समझ अब आ रहा, कहते किसे विवाह?
कहते किसे विवाह, न जिससे छुटकारा हो।
डलती नाक-नकेल, तभी जब पुचकारा हो।।
पड़े दुलत्ती सहो, हँसो ईनाम समझकर।
थाम शेरनी वाह कह रहे; गाय समझकर।।
***
चित्रगुप्त दोहावली
*
चित्रगुप्त का गुप्त है, चित्र न पाओ देख।
तो निज कर्मों का करो, जाग आप ही लेख।।
*
असल-नक़ल का भेद क्या, समय न पाया जान।
असमय बूढ़ा हो गया, भुला राम-रहमान।।
*
अकल शकल के फेर में, गुम हो हुई गुलाम।
अकल सकल के फेर में, खुद खो हुई अनाम।।
*
कल-कल करते कल हुआ, बेकल मन बेचैन।
कलकल जल सम बह सके, तब पाए कुछ चैन।।
२८.५.२०१८
***
गीत
तुम
*
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
रूप अरूप स्वरूप लुभाये
जल में बिम्ब हाथ कब आये?
जो ललचाये, वह पछताये
जिसे न दीखा, वह भरमाये
किससे पूछें
कब अपरा,
कब परा हो गया?
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तुममें खुद को देख रहा मन
खुदमें तुमको लेख रहा मन
चमन-अमन की चाह सुमन सम
निज में ही अवरेख रहा मन
फूला-फला
बिखर-निखरा
.निर्भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
कहे अजर यद्यपि है जर्जर
मान अमर पल-पल जाता मर।
करे तारने का दावा पर
खुद ही अब तक नहीं सका तर।
माया-मोह
तजा ज्यों हो
अक्षरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
२८-५-२०१६
***
गीत
*
सभ्य-श्रेष्ठ
खुद को कहता नर
करता अत्याचार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटे? धिक्कार।
*
बोये बीज, लगाईं कलमें
पानी सींच बढ़ाया।
पत्ते, काली, पुष्प, फल पाकर
मनुज अधिक ललचाया।
सोने के
अंडे पाने
मुर्गी को डाला मार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को नित
काटें? धिक्कार।
*
शाखा तोड़ी, तना काटकर
जड़ भी दी है खोद।
हरी-भरी भू मरुस्थली कर
बोनसाई ले गोद।
स्वार्थ साधता क्रूर दनुज सम
मानव बारम्बार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटें? धिक्कार।
*
ताप बढ़ा, बरसात घट रही
सूखे नदी-सरोवर।
गलती पर गलती, फिर गलती
करता मानव जोकर।
दण्ड दे रही कुदरत क्रोधित
सम्हलो करो सुधार।
पालें-पोसें वृक्ष
उन्हीं को हम
काटें? धिक्कार।
*
२६.५.२०१६
***
गीत :
तुम
*
पास आओ ना
*
दूरियाँ हो दूर
निकटता भरपूर
शिव-शिवानी सम
मन हुए कर्पूर
गीत गाओ ना
पास आओ ना
*
धूप में भी छाँव
रूप का मन- गाँव
घाट-बाट न भूल
छोड़ना मत नाव
दूर जाओ ना
पास आओ ना
*
प्रीत के गा गीत
हार में हो जीत
हो नहीं तुम भीत
बना दो नव रीत
मुस्कुराओ ना
पास आओ ना
*
भूलना मत राह
पूर्ण हो हर चाह
मिटे मन की दाह
दंश मत दे डाह
मन मिलाओ न
पास आओ ना
***
नवगीत:
*
अपने घर में
आग लगायें
*
इसको इतना
उसको उतना
शेष बचे जो
किसको कितना?
कहें लोक से
भाड़ में जाएँ
सबके सपने
आज जलायें
*
जिसका सपना
जितना अपना
बेपेंदी का
उतना नपना
अपनी ढपली
राग सुनाएँ
पियें न पीने दें
लुढ़कायें
*
इसे बरसना
उसको तपना
इसे अकड़ना
उसे न झुकना
मिलकर आँसू
चंद बहायें
हाय! राम भी
बचा न पायें
२८-५-२०१५
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
*
[साहित्य शिल्पी में २००९ में प्रकाशित]
***
लेख :चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
|| चित्रगुप्त चालिसा ||
ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर ||
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा ||
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ ||
शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन ||
~Kayastha~सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
२८-५-२०१४
_____________________________
मुक्तिका:
नहीं समझे
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..
कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..
सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..
कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे..
'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..
२८-५-२०११
***

रविवार, 19 जनवरी 2025

जनवरी १९, चित्रगुप्त, सोरठा, सॉनेट, कालगणना, ब्राह्मण, ओशो, बुद्ध, शिव, नवगीत, लघुकथा, बिरजू महाराज

सलिल सृजन जनवरी १९    


प्रभु श्री चित्रगुप्त जी का पवित्र ग्रंथों में महिमा वर्णन

- ०१. ऋग्वेद अध्याय ४,५,६ सूत्र ९-१-२४ अध्याय १७ सूत्र १०७ /१० - ७-२४ में। ऋग्वेद गायत्री मंत्र-
ॐ तत्पुरूषाय विद्महे श्री चित्रगुप्तायधीमहि तन्नो गुप्त: प्रचोदयात् ।
ॐ तत्पुरूषाय विद्महे श्री चित्रगुप्तायधीमहि तन्नो कवि लेखक: प्रचोदयात्।
ऋग्वेद नमस्कार मंत्र में - यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नम:।
ॐ सचित्र: चित्रं विन्तये तमस्मै चित्रक्षत्रं चित्रतम वयोधाम् चँद्ररायो पुरवौ ब्रहभूयं चँद्र चँद्रामि गृहीते यदस्व:।
२- अर्थववेद- अध्याय १३-२-३२ के आश्वलायन स्त्रोत ४-१२-३ श्री चित्रश्वि कित्वान्महिष: सुपर्ण आरोचयन रोदसी अन्तरिक्षम् आखलायन क्षति। सचित्रश्रीचित्र चिन्तयंत मस्वो अग्निरीक्षे व्रहत: क्षत्रियस्य ।
३- पद्मपुराण - सृष्टिखण्ड व पातालखण्ड के अध्याय ३१ में, भूखण्ड के अध्याय १६, ६७, ६८ व स्वर्गखण्ड - चित्रगुप्त जी के नाम- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्त, सर्वभूतक्षय, औदम्बर, घघ्न, परमेष्ठी, बृकोदराय, श्रीचित्रगुप्त, चित्र, काल, नीलाम।
४- अग्नि पुराण - श्री चित्रगुप्त प्रणम्यादौ - वात्मानं सर्वदेहिनाम् । कायस्थअवतरण यथार्थ्यान्वेषणेेनोच्यते मया।। येनेदं स्वेच्छया सर्व मायया मोहित्जगत। राजयत्यजित: श्रीमान कायस्थ परमेश्वर:।।
५- गरुण पुराण - ब्रह्माणा निर्मित: पूर्णा विष्णुना पालितं यदा यद्र संहार मूर्तिश्व ब्रह्मण: तत: वायु सर्वगत सृष्ट: सूर्यस्तेजो विवृद्धिमान धर्मराजस्तत: सृष्टिश्चित्रगुप्तेन संयुत: ।
६- शिव पुराण में उमासंहिता अध्याय ७ में व अग्निपुराण अघ्याय २० व ३७० में - मार्कण्डेय धर्मराज श्रीचित्रगुप्तजी को 'कायस्थ' कहा गया है। शिव पुराण ज्ञान संहिता ध्याय १६- श्री चित्रगुप्त जी, भगवान शंकरजी के विवाह में शामिल हैं।
७- वशिष्ठ पुराण में - भगवान राम के विवाह में भगवान श्री राम जी के द्वारा सर्वप्रथम आहुति परमात्मा श्री चित्रगुप्त जी को दी गई।
८- लिंग पुराण में - अध्याय ९८ में शिवजी का नाम 'भक्त कायस्थ' लिखा है।
९- ब्रह्म पुराण में - अध्याय २-५-5५६ में श्री चित्रगुप्तजी परम न्यायाधीश का कार्य करते हैं।
१० - मत्स्य पुराण में -
श्री चित्रगुप्त जी को केतु, दाता, प्रदाता, सविता, प्रसविता, शासत:, आमत्य, मंत्री, प्राज्ञ, ललाट का विधाता, धर्मराज, न्यायाधीश, लेखक, सैनिक, सिपाहियों का सरदार, याम्यसुब्रत, परमेश्वर, घमिष्ठ, यम कहा गया है।
११- ब्रह्मावर्त पुराण में - श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन है।
१२- कूर्म पुराण में - पूर्व भाग अध्याय ४० में।
१३- भविष्य पुराण में - उत्तराखण्ड अध्याय ८९ में।
१४- स्कन्द पुराण में - श्री चित्रगुप्त जी के अवतरण का वर्णन है।
१५- यम संहिता में - उदीच्य वेषधरं सौम्यंदर्शनम् द्विभुजं केतु प्रत्याउयधिदेवं श्रीचित्रगुप्तं आवाह्यमि। चितकेत दीता प्रदाता सविता प्रसादिता शासनानमन्त:।
उपनिषदों में - श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन
१६- कठोपनिषद् में - यम के नाम से श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन।
१७- वाल्मीकि रामायण में - आत्मज्ञानी जनक ने श्री चित्रगुप्त जी का पूजन किया।
१८- महाभारत अनुशासन पर्व में - श्रीकृष्ण चँद्र वासुदेव जी ने सर्वप्रथम श्री चित्रगुप्त जी का पूजन किया है -
मषिभाजन सुयुक्तश्चरसित्वं महीतले
लेखनी कटनी हस्ते श्री चित्रगुप्त: नमस्तुते।
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सोरठा सलिला
जो करते संदेह, शांत न हो सकते कभी।
कर विश्वास विदेह, रहे शांत ही हमेशा।।
दिखती भले विराट, निराधार गिरती लहर।
रह साहस के घाट, जीत अविचलित रह सलिल।।
मिले वहीं आनंद, भय बंधन कटते जहाँ।
गूँजा करते छंद, मन के नीलाकाश में।।
कर्म स्वास्थ्य अनुभूति, संगत मिल परिणाम दें।
शुभ की करें प्रतीति, हों असीम झट कर विलय।।
सोच सकारात्मक रखें, जीवन हो सोद्देश्य।
कार्य निरंतर कीजिए, पूरा हो उद्देश्य।।
जीवन केवल आज, नहीं विगत; आगत नहीं।
पल पल करिए काज, दें संदेश किशन यही।।
मन के अंदर झाँक, अटक-भटक मत बावरे।
खुद को कम मत आँक, साथ हमेशा साँवरे।।
हुए मूल से दूर, ज्यों त्यों ही असहाय हम।
आँखें रहते सूर, मिले दर्द-दुख अहं से।।
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सॉनेट
बिरजू महाराज
*
ताल-थाप घुँघरू मादल
एक साथ हो मौन गए
नृत्य कथाएँ कौन कहे?
कौन भरे रस की छागल??
रहकर भी थे रहे नहीं
अपनी दुनिया में थे लीन
रहे सुनाते नर्तन-बीन
जाकर भी हो गए नहीं
नटसम्राट अनूठे तुम
फिर आओ पथ हेरें हम
नहीं करेंगे हम मातम
आँख भले हो जाए नम
जब तक अपनी दम में दम
छवियाँ नित सुमिरेंगे हम
१८-१-२०२२
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भारतीय कालगणना
१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ क्शण
१२ क्शण = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन-रात
३० दिन रात = १ माह
२ माह = १ ऋतु
३ ऋतु = १ अयन
२ अयन = १ वर्ष
१२ वर्ष = १ युग
१ माह = पितरों का दिन-रात
१ वर्ष = देवों का दिन-रात
युग। दिव्य वर्ष - सौर वर्ष
सत = ४८०० - १७२८०००
त्रेता = ३६०० - १२९६०००
द्वापर = २४०० - ८६४०००
कलि = १२०० - ४३२००००
एक महायुग = १२००० दिव्य वर्ष = ४३,२०,००० वर्ष = १ देवयुग
१००० देवयुग = १ ब्रह्म दिन या ब्रह्म रात्रि
७१ दिव्य युग = १ मन्वन्तर
१४ मन्वन्तर = १ ब्रह्म दिन
*
ब्रह्मा जागने पर सतासत रूपी मन को उत्पन्न करते हैं। मन विकारी होकर सृष्टि रचना हेतु क्रमश: आकाश (गुण शब्द), गंध वहनकर्ता वायु (गुण स्पर्श), तमनाशक प्रकाशयुक्त तेज (गुण रूप), जल (गुण रस) तथा पृथ्वी (गुण गंध) उत्पन्न होती है।
*
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भविष्यपुराण से
*
ब्राह्मण के लक्षण -
संस्कार ही ब्रह्त्व प्राप्ति का मुख्य कारण है। जिस ब्राह्मण के वेदादि शास्त्रों में निर्दिष्ट गर्भाधान, पुंसवन आदि ४८ संस्कार विधिपूर्वक हुए हों, वही ब्राह्मण ब्रह्मलोक और ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है।
४८ संस्कार - गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, ४ वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पंचमहायग्य (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, भूत और ब्रह्म तृप्त हों), सप्तपाक यग्य (संस्था, अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री या शूलगव तथा अाश्वयुजी), सप्तविर्यग्य (संस्था, अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणी) और सप्तसोम (संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य। षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र व आप्तोर्याम) तथा ८ आत्मगुण (अनसूया-दूसरों के गुणों में दोष-बुद्धि न रखना, दया-परदुख दूर करने की इच्छा, क्शांति-क्रोध व वैर न करना, अनायास-सामान्य बात के लिए जान की बाजी न लगाना, मंगल-मांगलिक वस्तुओं का धारण, अकार्पण्य-दीन वचन न बोलना व अति कृपण न बनना, शौच-बाह्यभ्यंतर की शुद्धि तथा अस्पृहा-परधन की इच्छा न रखना।) ।
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ओशो विमर्श
*बुद्धपुरूषों का बुद्धत्तव के बाद दुबारा जन्म क्यों नहीं होता है?*
ओशो: जरूरत नहीं रह जाती। जन्म अकारण नहीं है, जन्म शिक्षण है। जीवन एक परीक्षा है, पाठशाला है। यहाँ तुम आते हो क्योंकि कुछ जरूरत है। बच्चे को हम स्कूल भेजते है, पढ़ने लिखने,समझने-बूझने; फिर जब वह सब परीक्षाएँ उत्तीर्ण हो जाता है, फिर तो नहीं भेजते। फिर वह अपने घर आ गया। फिर भेजने की कोई जरूरत न रही।
परमात्मा घर है, सत्य कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो संसार विद्यालय है। वहाँ हम भेजे जाते हैं, ताकि हम परख लें, निरख लें, कस लें कसौटी पर अपने को सुख-दुख की आँच में, सब तरह के कडुवे-मीठे अनुभव से गुजर लें और वीतरागता को उपलब्ध हो जाएँ। सब गँवा दें, सब तरफ से भटक जाएँ, दूर-दूर अँधेरों में, अँधेरी खाइयों-खड्डों में सरकें, सत्य से जितनी दूरी संभव हो सके निकल जाएँ और फिर बोध से वापस लौटें।
बच्चा भी शांत होता, निर्दोष होता; संत भी शांत होता, निर्दोष होता। लेकिन संत की निर्दोषता में बड़ा मूल्य है, बच्चे की निर्दोषता में कोई खास मूल्य नहीं है। यह निर्दोषता जो बच्चे की है, मुफ्त है, कमाई हुई नहीं है। यह आज है, कल चली जाएगी। जीवन इसे छीन लेगा। संत की जो निर्दोषता है, इसे अब कोई भी नहीं छीन सकता। जो-जो घटनाएँ छिन सकती थीं, उनसे तो गुजर चुका संत। इसलिए परमात्मा को खोना, परमात्मा को ठीक से जानने के लिए अनिवार्य है। इसलिए हम भेजे जाते हैं।
बुद्धपुरुष को तो भेजने की कोई जरूरत नहीं, जब फल पक जाता है तो फिर डाली से लटका नहीं रहता, फिर क्या लटकेगा! किसलिए? वृक्ष से लटका था पकने के लिए। धूप आई, सर्दी आई, वर्षा आई, फल पक गया, अब वृक्ष से क्यों लटका रहेगा! कच्चे फल लटके रहते हैं। बुद्ध यानी पका हुआ फल।
छोड़ देती है डाल
रस भरे फल का हाथ
किसी और कसैले फल को
मीठा बनाने के लिए
छोड़ ही देना पड़ेगा। वृक्ष छोड़ देगा पके फल को, अब क्या जरूरत रही? फल पक गया, पूरा हो गया, पूर्णता आ गयी। बुद्धत्व का अर्थ है, जो पूर्ण हो गया। दुबारा लौटने का कोई कारण नहीं।
हमारे मन में सवाल उठता है कभी-कभी, क्योंकि हमें लगता है, जीवन बहुत मूल्यवान है। यह तो बिल्कुल उलटी बात हुई कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को फिर जीवन नहीं मिलता। हमें लगता है, जीवन बहुत मूल्यवान है। बुद्धत्व को जो उपलब्ध है, उसे तो पता चल गया और बड़े जीवन का, और विराट जीवन का।
ऐसा ही समझो कि तुम शराब-घर जाते थे रोज, फिर एक दिन भक्ति-रस लग गया, फिर मंदिर में नाचने लगे, डोलने लगे, फिर प्रभु की शराब पी ली, अब शराब-घर नहीं जाते। शराबी सोचते होंगे कि बात क्या हो गयी? ऐसी मादक शराब को छोड़कर यह आदमी कहाँ चला गया? अब आता क्यों नहीं?
इसे बड़ी शराब मिल गयी, अब यह आए क्यों? इसे असली शराब मिल गयी, अब यह नकली के पास आए क्यों? इसे ऐसी शराब मिल गई जिसको पीकर फिर होश में आना ही नहीं पड़ता। और इसे एक ऐसी शराब मिल गई जिसमें बेहोशी भी होश है। अब यह इस क्षुद्र सी शराब को पीने क्यों आए?
बुद्धत्व को पाया व्यक्ति परम सागर में डूब गया। जिसकी तुम तलाश करते थे, जिस आनंद की, वह उसे मिल गया, अब वह यहाँ क्यों आए? यह जीवन तो कच्चे फलों के लिए है, ताकि वे पक जाएं, परिपक्य हो जाएं। इस जीवन के सुख-दुख, इस जीवन की पीड़ाएँ, इस जीवन के आनंद, जो कुछ भी है, वह हमें थपेड़े मारने के लिए है, चोटें मारने के लिए है।
देखा, कुम्हार घड़ा बनाता है, घड़े को चोटें मारता है। एक हाथ भीतर रखता है, एक हाथ बाहर रखता, चाक पर घड़ा घूमता और वह चोटें मारता! फिर जब घड़ा बनकर तैयार होगा, चोटें बंद कर देता है; फिर घड़े को आग में डाल देता है। फिर जब घड़ा पक गया, तो न चोट की जरूरत है, न आग में डालने की जरूरत है। संसार में चोटें हैं और आग में डाला जाना है। जब तुम पक जाओगे, तब प्रभु का परम रस तुममें भरेगा। तुम पात्र बन जाओगे, तुम घड़े बन जाओगे, फिर कोई जरूरत न रह जाएगी।
***
विश्व विवाह दिवस पर
*
विवाह के बाद पति-पत्नि एक सिक्के के दो पहलू हो जाते हैं, वे एक दूसरे का सामना नहीं कर सकते फिर भी एक साथ रहते हैं। - अल गोर
*
जैसे भी हो शादी करो। यदि अच्छी बीबी हुई तो सुखी होगे, यदि बुरी हुई तो दार्शनिक बन जाओगे। - सुकरात
*
महिलाएँ हमें महान कार्य करने हेकु प्रेरित करती हैं और उन्हें प्राप्त करने से हमें रोकती हैं। - माइक टायसन
*
मैं ने अपनी बीबी से कुछ शब्द कहे और उसने कुछ अनुच्छेद। - बिल क्लिंटन
*
इलैक्ट्रॉनिक बैंकिंग से भी अधिक तेजी से धन निकालने का एक तरीका है। उसे शादी कहते हैं। - माइकेल जॉर्डन
*
एक अच्छी बीबी हमेशा अपने शौहर को माफ कर देती है जब वह गलत होती है। - बराक ओबामा
*
जब आप प्रेम में होते हैं तो आश्चर्य होते रहते हैं। किंतु एक बार आपकी शादी हुई तो आप आश्चर्य करते हैं क्या हुआ?
*
और अंत में सर्वोत्तम
शादी एक सुंदर वन है जिसमें बहादुर शेर सुंदर हिरणियों द्वारा मारे जाते हैं।
***
नवगीतकार संध्या सिंह को
फेसबुक द्वारा ऑथर माने जाने पर प्रतिक्रिया
संध्या को ऑथर माना मुखपोथी जी
या सिंह से डर यश गाया मुखपोथी जी
फेस न बुक हो जाए लखनऊ थाने में
गुपचुप फेस बचाया है मुखपोथी जी
लाजवाब नवगीत, ग़ज़ल उम्दा लिखतीं
ख्याल न अब तक क्यों आया मुखपोथी जी
जुड़ संध्या के साथ बढ़ाया निज गौरव
क्यों न सैल्फी खिंचवाया मुखपोथी जी
है "मुखपोथी रत्न" ठीक से पहचानो
कद्र न करना आया है मुखपोथी जी
फेस "सलिल" में देख कभी "संजीव" बनो
अब तक समय गँवाया है मुखपोथी जी
तुम से हम हैं यह मुगालता मत पालो
हम से तुम हो सच मानो मुखपोथी जी
१९-१-२०
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़ मत बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गा रे! राई, सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोड़ा-थोड़ा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मत कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
लघुकथा-
भारतीय
*
- तुम कौन?
_ मैं भाजपाई / कॉंग्रेसी / बसपाई / सपाई / साम्यवादी... तुम?
= मैं? भारतीय।
***
लघुकथा-
चैन की साँस
*
- हे भगवान! पानी बरसा दे, खेती सूख रही है।
= हे भगवान! पानी क्यों बरसा दिया? काम रुक गया।
- हे भगवान! रेलगाड़ी जल्दी भेज दे समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ।
= हे भगवान! रेलगाड़ी देर से आये, स्टेशन तो पहुँच जाऊँ।
- हे भगवान पास कर दे, लड्डू चढ़ाऊँगा।
= हे भगवान रिश्वतखोरों का नाश कर दे।
_ हे इंसान! मेरा पिंड छोड़ तो चैन की साँस ले सकूँ।
***
रोचक संवाद कथा-
ताना-बाना
*
- ताना ताना?
= ताना पर टूट गया।
- अधिक क्यों ताना?, और बाना?
= पहन लिया।
- ताना क्यों नहीं?
= ताना ताना
- बाना क्यों नहीं ताना?
= ताना ताना, बाना ताना।
- ताना, ताना है तो बाना कैसे हो सकता है?
= इसको ताना, उसको ताना, ये है ताना वो है बाना
- ताना मारा, बाना नहीं मारा क्यों?
दोनों चुप्प.
१९.१.२०१६
...
नवगीत:
.
उड़ चल हंसा
मत रुकना
यह देश पराया है
.
ऊपर-नीचे बादल आये
सूर्य तरेरे आँख, डराये
कहीं स्वर्णिमा, कहीं कालिमा
भ्रमित न होना
मत मुड़ना
यह देश सुहाया है
.
पंख तने हों ऊपर-नीचे
पलक न पल भरअँखियाँ मीचे
ऊषा फेंके जाल सुनहरा
मुग्ध न होना
मत झुकना
मत सोच बुलाया है
...
नवगीत
काम तमाम
.
काम तमाम तमाम का
करतीं निश-दिन आप
मम्मी मैया माँ महतारी
करूँ आपका जाप
.
हो मनुष्य या यंत्र बताये कौन? विधाता हारे
भ्रमित न केवल तुम, पापा-हम खड़े तुम्हारे द्वारे
कहतीं एक बात तब तक जब तक न मान ले दुनिया
बदल गया है समय तुम्हें समझा-समझा हम हारे
कैसे जिद्दी कहूँ?
न कर सकता मैं ऐसा पाप
.
'आने दो उनको' कहकर तुम नित्य फ़ोड़तीं अणुबम
झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस पर निकले दम
मुझ सी थीं तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ
नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच क्या थीं तुम?
पोल खोलकर नहीं बढ़ाना
मुझको घर का ताप
.
तुमको पता हमेशा रहता हम क्या भूल करेंगे?
हो त्रिकालदर्शी न मानकर हम क्यों शूल वरेंगे?
जन्मसिद्ध अधिकार तुम्हारा करना शक-संदेह
मेरे मित्र-शौक हैं कंडम, चुप इल्जाम सहेंगे
हम भी, पापा भी मानें यह
तुम पंचायत खाप
१९.१.२०१५
...
शिव पर दोहे
*
शिव ही शिव जैसे रहें, विधि-हरि बदलें रूप।
चित्र गुप्त हो त्रयी का, उपमा नहीं अनूप।।
*
अणु विरंचि का व्यक्त हो, बनकर पवन अदृश्य।
शालिग्राम हरि, शिव गगन, कहें काल-दिक् दृश्य।।
*
सृष्टि उपजती तिमिर से,श्यामल पिण्ड प्रतीक।
रवि मण्डल निष्काम है, उजियारा ही लीक।।
*
गोबर पिण्ड गणेश है, संग सुपारी साथ।
रवि-ग्रहपथ इंगित करें, पूजे झुकाकर माथ।।
*
लिंग-पिण्ड, भग-गोमती,हर-हरि होते पूर्ण।
शक्तिवान बिन शक्ति के, रहता सुप्त अपूर्ण।।
*
दो तत्त्वों के मेल से, बनती काया मीत।
पुरुष-प्रकृति समझें इन्हें, सत्य-सनातन रीत।।
*
लिंग-योनि देहांग कह, पूजे वामाचार।
निर्गुण-सगुण न भिन्न हैं, ज्यों आचार-विचार।।
*
दो होकर भी एक हैं, एक दिखें दो भिन्न।
जैसे चाहें समझिए, चित्त न करिए खिन्न।।
*
सत्-शिव-सुंदर सृष्टि है, देख सके तो देख।
सत्-चित्-आनंद ईश को, कोई न सकता लेख।।
*
१९.१.२०११, जबलपुर।