कुल पेज दृश्य

contemporary hindi poetry / gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
contemporary hindi poetry / gazal लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 29 मई 2011

मुक्तिका: आँख -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
आँख
संजीव 'सलिल'
*
आँख में पानी न आना चाहिए.
आँख का पानी न जाना चाहिए..

आँख मिलने का बहाना चाहिए.
आँख-आँखों में समाना चाहिए..

आँख लड़ती आँख से मिल दिल खिले.
आँख को नज़रें चुराना चाहिए..

आँख घूरे, झुक चलाये तीर तो.
आँख आँखों से लड़ाना चाहिए..

आँख का अंधा अदेखा देखता.
आँख ना आना न जाना चाहिए..

आँख आँखों से मिले हँसकर गले.
आँख में सपना सुहाना चहिये..

आँख झाँके आँख में सच ना छिपे.
आँख को बिजली गिराना चाहिए..

आँख करती आँख से बातें 'सलिल'
आँख आँख को करना बहाना चाहिए..

आँख का इंगित 'सलिल' कुछ तो समझ.
आँख रूठी मिल मनाना चाहिए..
***************************

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मुक्तिका: हमेशा भीड़ में... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हमेशा भीड़ में...
संजीव 'सलिल'
*
हमेशा भीड़ में फिर भी अकेलापन मेरी किस्मत.
किया कुछ भी नहीं फिर भी लगी मुझ पर सदा तोहमत.

कहे इंसान से ईश्वर 'न अब होता सहन तू रुक.
न मुझ पर पेड़-पर्वत पर तनिक तो कर दे तू रहमत..

न होती इन्तेहाँ आतंक की, ज़ुल्मो-सितम की क्यों?
कहे छलनी समय से तन मेरा 'तज अब मुझे घिस मत'..

बहस होती रही बरसों न पर निष्कर्ष कुछ निकला.
नहीं कोई समझ पाया कि क्यों बढ़ती रही नफरत..

किया नीलाम ईमां को सड़क पर बेहिचक जिसने.
बना है पाक दावा कर रहा बेदाग़ है अस्मत..

मिले जब 'सलिल' तब खिल सुमन जग सुवासित करता.
न काँटे रोक पाते अधूरी उनकी रही हसरत..
*

शनिवार, 28 मई 2011

मुक्तिका: नहीं समझे -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नहीं समझे
संजीव 'सलिल'
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..

कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..

सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..

कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे.. 

'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..

****************

मुक्तिका: ज़रा सी जिद ने --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका: 
ज़रा सी जिद ने
संजीव 'सलिल'   
 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है. 
की बेकदरी ने सिर नीचा कराया है..  

ज़माने ने न जाने किससे कब-कब क्या कराया है. 
दिया लालच, सिखा धोखा,  दगा-दंगा कराया है.. 

उसूलों की लगा बोली, करा नीलाम ईमां भी. 
न सच खुल जाये सबके सामने, परदा कराया है.. 

तिलकधारी था, योगीराज बागी दानी भी राणा.  
हरा दुश्मन को, नीचा शत्रु का झंडा कराया है..   

सधा मतलब तो अपना बन गले से था लिया लिपटा. 
नहीं मतलब तो बिन मतलब झगड़ पंगा कराया है.. 

वो पछताते है लेकिन भूल कैसे मिट सके बोलो- 
ज़रा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है.. 

न सपने और नपने कभी अपने होते सच मानो.
डुबा सूरज को चंदा ने ही अँधियारा कराया है..  

सियासत में वफ़ा का कुछ नहीं मानी 'सलिल' होता- 
मिली कुर्सी तो पद-मद ने नयन अंधा कराया है.. 

बही बारिश में निज मर्याद लज्जा शर्म तज नदिया. 
'सलिल' पर्वत पिता ने तजा, जल मैला कराया है..

***

रविवार, 22 मई 2011

मुक्तिका: ... निज बाँह में -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
... निज बाँह में
संजीव 'सलिल'

*


 नील नभ को समेटूँ निज बाँह में.
जी रहा हूँ आज तक इस चाह में..

पड़ोसी को कभी काना कर सके.
हुआ अंधा पाक दुर्मति-डाह में..

मंजिलें कब तक रहेंगी दूर यों?
बनेंगी साथी कभी तो राह में..

प्यार की गहराई मिलने में नहीं.
हुआ है अहसास बिछुड़न-आह में..

काट जंगल, खोद पर्वत, पूर सर.
किस तरह सुस्ता सकेंगे छाँह में?

रोज रुसवा हो रहा सच देखकर.
जल रहा टेसू सा हर दिल दाह में..

रो रही है खून के आँसू धरा.
आग बरसी अब के सावन माह में..

काश भिक्षुक मन पले पल भर 'सलिल'
देख पाये सकल दुनिया शाह में..

देख ऊँचाई न बौराओ 'सलिल
 ..दूब सम जम जाओ गहरी थाह में
***
Acharya Sanjiv 'salil

http://divyanarmada.blogspot.com

मुक्तिका: आये हो --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आये हो

संजीव 'सलिल'

*

बहुत दिनों में मुझसे मिलने आये हो.
यह जाहिर है तनिक भुला न पाये हो..


मुझे भरोसा था-है, बिछुड़ मिलेंगे हम.

नाहक ही जा दूर व्यर्थ पछताये हो..



खलिश शूल की जो हँसकर सह लेती है.

उसी शाख पर फूल देख मुस्काये हो..



अस्त हुए बिन सूरज कैसे पुनः उगे?

जब समझे तब खुद से खुद शर्माये हो..



पूरी तरह किसी को कब किसने समझा?

समझ रहे यह सोच-सोच भरमाये हो..



ढाई आखर पढ़ बाकी पोथी भूली.

जब तब ही उजली चादर तह पाये हो..



स्नेह-'सलिल' में अवगाहो तो बात बने.

नेह नर्मदा कब से नहीं नहाये हो..

*

बुधवार, 11 मई 2011

मुक्तिका: जिस शाख पर ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
जिस शाख पर
---संजीव 'सलिल'
*
जिस शाख पर पंछी-पखेरू बस, नहीं पलते.
वे वृक्ष तो फलकर भी दुनिया में नहीं फलते..

हैं लक्ष्य से पग दूर जो हर पल नहीं चलते.
संकल्प बिन बाधाओं के पर्वत नहीं टलते..

जो ऊगकर दें रौशनी, जग पूजता उनको.
यश-सूर्य उनकी कीर्ति के ढलकर नहीं ढलते..

मत दया साँपों पर करो, मत दूध पिलाओ.
किस संपेरे को ये संपोले हैं नहीं छलते?.

क्यों कुचलते कंकर को हो?, इनमें बसे शंकर.
ये दिलजले हैं मौन, धूप में नहीं गलते..

फूल से शूलों ने खिलना ही नहीं सीखा.
रूप दीवाने भ्रमर को ये नहीं खलते..

शठ न शठता को कभी भी छोड़ पाता है.
साधु जाते हैं ठगे पर कर नहीं मलते..

मिटकर भी 'सलिल' तप्त तन- का ताप हर लेता.
अंगार भी संगत में आकर फिर नहीं जलते..

दीवाली तब तक कभी होती नहीं 'सलिल'
जब तक महल में कुटी संग दीपक नहीं जलते..

*************

मंगलवार, 3 मई 2011

मुक्तिका : आया है नव संवत्सर... डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'

मुक्तिका :
आया है नव संवत्सर...
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'
*
आया है नव संवत्सर
आत्मालोचन का अवसर

विश्व बने परिवार मगर
पहले भवन बनें यह घर..

मूल्यों की कंदील जले
घर-आँगन हों जगर-मगर..

मैं, तुम, वे सब ही मानव
रहें परस्पर हिल-मिलकर..

जड़-चेतन,  मानव-दानव
रहें सचेतन अभ्यंतर..

निर्मल मन हों स्वस्थ्य शरीर
सबके प्रीति पगे अंतर..

हिंसा-द्वेष रहें निस्तेज
मन बन जाएँ प्रीति के घर..

कलुष, क्लेश, संताप मिटें 
सुखी रहें चर और अचर.. 

सत्यं, शिवं, सुन्दरं का 
स्वर हो चारों और मुखर..

मृषा अनृत का वंश मिटे
'ऋत' का फूले वंश अमर..

लिप्सा सिर्फ ज्ञान की हो
और न कोई रहे मुखर..

मेरा, तेरा, हम सबका
अपना हो यह 'यायावर'..
*****************