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रविवार, 11 सितंबर 2011

मुक्तिका: प्रिय के नाम सुबह लिख दी... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्रिय के नाम सुबह लिख दी...
संजीव 'सलिल'
*
प्रिय के नाम सुबह लिख दी है, प्रिय में भी बैठा रब है.
'सलिल' दिख रहा दूर, मगर वह तुझसे दूर हुआ कब है??

जब-जब तुझको हो प्रतीत यह, तेरा कुछ भी नहीं बचा.
तब-तब सच इतना ही होगा, रहा न शेष मिला सब है..

कल करना जो कभी न होगा, कब आया कल बतलाओ?
जो करना है आज करो- वह होता जो कि हुआ अब है..

राजा तो केवल चाकर है, जो चाकर वह राजा है.
चाकर का चाकर वह चाहे, जग जाने उसमें नब है..

दुनिया का क्या तौर-तरीकों की बंदी वह 'सलिल' रही.
जिसको उसकी चाह हुई, उसको कहते सब बेढब है..

****************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मुक्तिका : मुहब्बत --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                               

मुहब्बत

संजीव 'सलिल'
*
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.
मनोभूमि की काश्तकारी मुहब्बत..

मिले मन तो है मस्तकारी मुहब्बत.
इन्सां की है हस्तकारी मुहब्बत..

जीता न दिल को, महज दिल को हारा.
तो कहिये इसे पस्तकारी मुहब्बत..

मिले सज-सँवर के, सलीके से हरदम.
फुर्ती सहित चुस्तकारी मुहब्बत..

बना सीढ़ियाँ पीढ़ियों को पले जो
करिए नहीं पुश्तकारी मुहब्बत..

ज़बर-जोर से रिश्ता बनता नहीं है.
बदनाम है जिस्तकारी मुहब्बत..

रखे एक पर जब नजर दूसरा तो.
शक्की हुई गश्तकारी मुहब्बत..

रही बिस्तरों पे सिसकती सदा जो
चाहे न मन बिस्तकारी मुहब्बत..

किताबी मुहब्बत के किस्से अनेकों.
पढ़ो नाम है पुस्तकारी मुहब्बत..

घिस-घिस के एड़ी न दीदार पाये.
थक-चुक गयी घिस्तकारी मुहब्बत..

बने दोस्त फिर प्यार पलने लगे तो
नकारो नहीं दोस्तकारी मुहब्बत..

मिले आते-जाते रस्ते पे दिल तो.
नयन में पली रस्तकारी मुहब्बत..

चक्कर पे चक्कर लगाकर थके जब
तो बोले कि है लस्तकारी मुहब्बत..

शुरू देह से हो खतम देह पर हो.
है गर्हित 'सलिल' गोश्तकारी मुहब्बत..

बातों ही बातों में बातों से पैदा
बरबस 'सलिल' नशिस्तकारी मुहब्बत..

छिपे धूप रवि से, शशि चांदनी से
'सलिल' है यही अस्तकारी मुहब्बत..

'सलिल' दोनों रूठें मनाये न कोई.
तो कहिये हुई ध्वस्तकारी मुहब्बत..

मिलते-बिछुड़ते जो किस्तों में रुक-रुक
वो करते 'सलिल' किस्तकारी मुहब्बत..

उसे चाहती जो न मिलकर भी मिलता.
'सलिल' चाह यह जुस्तकारी मुहब्बत..

बने एक-दूजे की खातिर 'सलिल' जो
पलती वहीं जीस्तकारी मुहब्बत..

*

दस्तकारी = हस्तकला, काश्तकारी = खेती, पस्तकारी = थकने-हरानेवाली, गश्तकारी = पहरेदारी, जिस्त = निकृष्ट/ खराब, नशिस्त = गोष्ठी, जीस्त = ज़िंदगी, जुस्त = तलाश.

टीप: अब तक आये काफियों से हटकर काफिया प्रयोग करने की यह कोशिश कितनी सफल है, आप ही तय करेंगे. लीक से हटकर काफियों को सामने लाने के नजरिये से भर्ती के षे'र अलग नहीं किये हैं. उन्हें बतायें ताकि शेरोन को छाँटने की कला से भी वाकफियत हो सके.

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

मुक्तिका: सबब क्या ? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                      

सबब क्या ?

संजीव 'सलिल'
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..

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शनिवार, 6 नवंबर 2010

मुक्तिका : उपहार सुदीपों का... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :                                                            
उपहार सुदीपों का...
संजीव 'सलिल'
*
सारा जग पाये उपहार सुदीपोंका.
हर घर को भाये सिंगार सुदीपोंका..

रजनीचर से विहँस प्रभाकर गले मिले-
तारागण करते सत्कार सुदीपोंका..

जीते जी तम को न फैलने देते हैं
हम सब पर कितना उपकार सुदीपोंका..

जो माटी से जुडी हुई हैं झोपड़ियाँ.
उनके जीवन को आधार सुदीपोंका..

रखकर दिल में आग, अधर पर हास रखें.
'सलिल' सीख जीवन-व्यवहार सुदीपोंका..

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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

मुक्तिका... क्यों है? संजीव 'सलिल'

मुक्तिका...

क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?

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-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 12 सितंबर 2010

मुक्तिका कुछ भला है..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                   

कुछ भला है.....                                                                                               

संजीव 'सलिल'
*
जो  उगा  है, वह  ढला है.
कुछ बुरा है, कुछ भला है..

निकट जो दिखते रहे हैं.
हाय!  उनमें  फासला  है..

वह  हुआ जो  रही  होनी
जो न चाहा क्या टला है?

झूठ  कहते - चाहते सच
सच सदा सबको खला है..

स्नेह के सम्बन्ध नाज़ुक
साध  लेना  ही  कला  है..

मिले  पहले, दबाते  फिर
काटते वे क्यों?  गला है..

खरे  की  है  पूछ अब कम
टका  खोटा  ही  चला  है..

भले  रौशन  हों   न  आँखें
स्वप्न  उनमें  भी  पला है..

बदलते    हालात    करवट
समय  भी  तो  मनचला है.. 

लाख़   उजली   रहे   काया.
श्याम  साया  दिलजला  है..

ज़िंदगी  जी  ली,  न  समझे
'सलिल' दुनिया क्या बला है..
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http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

मुक्तिका: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'

                        मुक्तिका::                                                           कहीं निगाह...

संजीव 'सलिल'
*
कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..

न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

पड़े जो काम तो तू बाप गधे को  कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..

जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..

किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
एके आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..

चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..

गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 5 सितंबर 2010

मुक्तिका: किस चरण का अनुकरण संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

किस चरण का अनुकरण


संजीव 'सलिल'
*

किस चरण का अनुकरण जन-जन करे.
हर चरण के आचरण हैं जब बुरे..



गले मिलते मुस्कुराते मीत कह
पीठ पीछे हाथ में थामे छुरे..


हैं बुरे, बनते भले जो आजकल.
हैं भले जो आजकल लगते बुरे..


मायके में गुजर कब किसकी हुई?
खोज प्रियतम को चलो अब सासरे..


सच कहो तो मानते सब गैर हैं.
कहें मनचाही वही हैं खास रे..


बढ़ी है सुविधाएँ, वैभव, कीर्ति, धन.
पर आधार से गुम गया है हास रे..


साँस तेरा साथ चाहे छोड़ दे.
'सलिल' जीते जी न तजना आस रे..


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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 21 अगस्त 2010

मुक्तिका: बोलने से पहले संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

बोलने से पहले

संजीव 'सलिल'
*
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*
बोलने से पहले ले तोल.
बात होगी तब ही अनमोल.

न मन का राज सभी से खोल.
ढोल में सदा रही है पोल..

ठुमकियाँ दें तो उड़े पतंग.
न ज्यादा तान, न देना झोल..

भरोसा कर मत आँखों पर
दिखे भू चपटी पर है गोल..

सत्य होता कड़वा मत बोल.
बोल तो पहले मिसरी घोल..

फिजा बदली है 'सलिल' न भूल.
न बाहर रात-रात भर डोल..

'सलिल' तन मंदिर हो निर्मल.
करे मन-मछली तभी किलोल.
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

मुक्तिका: कब किसको फांसे ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कब किसको फांसे

संजीव 'सलिल'
*











*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?

लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..

सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..

बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..

अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..

बहू आई घर में, चाचा की फजीहत.
घुसें बाद में, पहले देहरी से खाँसे..

नहीं दोस्ती, ना करो दुश्मनी ही.
भरोसा न नेता का कब किसको फांसे..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

मुक्तिका ......... बात करें संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

......... बात करें

संजीव 'सलिल'

*
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*

बात न मरने की अब होगी, जीने की हम बात करें.
हम जी ही लेंगे जी भरकर, अरि मरने की बात करें.

जो कहने की हो वह करने की भी परंपरा डालें.
बात भले बेबात करें पर मौन न हों कुछ बात करें..

नहीं सियासत हमको करनी, हमें न कोई चिंता है.
फर्क न कुछ, सुनिए मत सुनिए, केवल सच्ची बात करें..

मन से मन पहुँच सके जो, बस ऐसा ही गीत रचें.
कहें मुक्तिका मुक्त हृदय से, कुछ करने की बात करें..

बात निकलती हैं बातों से, बात बात तक जाती है.
बात-बात में बात बनायें, बात न करके बात करें..

मात-घात की बात न हो अब, जात-पांत की बात न हो.
रात मौन की बीत गयी है, तात प्रात की बात करें..

पतियाते तो डर जाते हैं, बतियाते जी जाते हैं.
'सलिल' बात से बात निकालें, मत मतलब की बात करें..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 1 अगस्त 2010

मुक्तिका: मन में दृढ़ विश्वास लिये. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

मन में दृढ़ विश्वास लिये.

संजीव 'सलिल'
*
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*
मन में दृढ़ विश्वास लिये.
फिरते हैं हम प्यास लिये..

ढाई आखर पढ़ लें तो
जीवन जियें हुलास लिये..

पिये अँधेरे और जले
दीपक सदृश उजास लिये..

कोई राह दिखाये क्यों?
बढ़ते कदम कयास लिये..

अधरों पर मुस्कान 'सलिल'
आयी मगर भड़ास लिये..

मंजिल की तू फ़िक्र न कर
कल  रे 'सलिल' प्रयास लिये.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मुक्तिका: जब दिल में अँधेरा हो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जब दिल में अँधेरा हो...

संजीव  'सलिल'
*













*

जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?

चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..

कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
 
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..

सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..

नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..

क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..

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सोमवार, 19 जुलाई 2010

मुक्तिका: ...लिख दे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

...लिख दे

संजीव 'सलिल'
*
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*
सच को छिपा कहानी लिख दे.
कुछ साखी, कुछ बानी लिख दे..

लोकनीति पहचानी लिख दे.
राजनीति अनजानी लिख दे..

चतुर न बन नादानी लिख दे.
संयम तज मनमानी लिख दे..

कर चम्बल को नेह नर्मदा.
प्यासा मरुथल पानी लिख दे..

हिन्दी तेरी अपनी माँ है.
कभी संस्कृत नानी लिख दे..

जोड़-जोड़ कर जीवन गुजरा.
अब हाथों पर दानी लिख दे..

जंगल काटे पर्वत खोदे.
'सलिल' धरा है धानी लिखदे..

ढाई आखर 'सलिल' सीख ले.
दुनिया आनी-जानी लिख दे..

'सलिल' तिमिर में तनहाई है
परछाईं बेगानी लिख दे..

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Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 25 जून 2010

मुक्तिका: लिखी तकदीर रब ने.......... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

लिखी तकदीर रब ने...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*

















*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी  हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..

न हमको मौत का डॉ है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..

कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..

कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..

न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..

न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुह्द ही डरते हैं..

'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते. नहीं सूराख करते हैं..

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

गुरुवार, 24 जून 2010

मुक्तिका: ..... आँख का पानी. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

आँख का पानी

संजीव वर्मा 'सलिल'
*


















*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..

शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुंआ है आँख का पानी..

द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..

मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..

हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..

किया मुजरा, मिला नजराना न तो बोले-
जहन्नुम जाए मुआ! है आँख का पानी..

देवकी राधा यशोदा कभी विदुरानी.
रुक्मिणी कुंती बुआ है आँख का पानी..

देख चन्दा याद आतीं रोटियाँ जिनको
दिखे सूरज में पुआ है आँख का पानी..

भजन प्रवचन सबद साखी साधना बानी
'सलिल' पुरखों की दुआ है आँख का पानी..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 30 मई 2010

मुक्तिका: .....डरे रहे.. --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

.....डरे रहे.

संजीव 'सलिल'
*













*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.

दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.

हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.

रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.

नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.

निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.

सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.

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Acharya Sanjiv Salil

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