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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

दोहा गीत_ काल चक्र संजीव 'सलिल

*
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म.
मत रहना निष्कर्म तू-
ना करना दुष्कर्म.....
*
स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..

पंचतत्व मिलकर गढ़ें, माटी से संसार.
ढाई आखर जी सके, कर माटी से प्यार..

माटी की अवमानना,
सचमुच बड़ा अधर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
जैसा जिसका कर्म हो, वैसा उसका 'वर्ण'.
'जात' असलियत आत्म की, हो मत जान विवर्ण..

बन कुम्हार निज सृजन पर, तब तक करना चोट.
जब तक निकल न जाए रे, सारी त्रुटियाँ-खोट..

खुद को जग-हित बदलना,
मनुज धर्म का मर्म.
काल चक्र नित घूमता,
कहता कर ले कर्म......
*
माटी में ही खिल सके, सारे जीवन-फूल.
माटी में मिल भी गए, कूल-किनारे भूल..

ज्यों का त्यों रख कर्म का, कुम्भ न देना फोड़.
कुम्भज की शुचि विरासत, 'सलिल' न देना छोड़..

कड़ा न कंकर सदृश हो,
बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..

कर-कोशिश की उँगलियाँ, गढ़तीं नव आकार.
नयन रखें एकाग्र मन, बिसर व्यर्थ तकरार..

धूप-छाँव sसम smसमझना,
है जीवन का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, 
कहता कर ले कर्म......
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com