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गुरुवार, 20 मई 2021

नवगीत

 नवगीत:

संजीव
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*

सोमवार, 4 मई 2009

गीत: पारस मिश्र, शहडोल

गीत

पारस मिश्र, शहडोल

रात बीती जा रही है,

चाँद ढलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

कब छुड़ा पाये भ्रमर की

फूल पर कटु शूल गुंजन?

कब किसी की बात सुनता,

रूप पर रीझा हुआ मन?

कब शलभ ने दीप पर जल,

अनल की परवाह की है?

प्यार में किसने कहाँ कब

जिंदगी की चाह की है?

किंतु फिर भी जिंदगी में,

प्यार पलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

प्यार के सब काम गुप‍चुप

ही किये जाते रहे हैं।

शाप खुलकर, दान छिपकर

ही दिये जाते रहे हैं॥

हलाहल कुहराम कर दे,

शोर मदिरा पर भले हो।

पर सुधा के जाम तो,

छिपकर पिये जाते रहे हैं॥

होंठ खुलते जा रहे हैं,

जाम ढलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

सोचता हूँ मौत से पहले ,

तुम्हीं से प्यार कर लूँ।

पार जाने से प्रथम,

मझधार पर एतबार कर लूँ॥

जानता है दीप, यदि है

ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो

माँग में सिंदूर के बदले

न क्यों अंगार भर लूँ?

नेह चढ़ता जा रहा है,

दीप जलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

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