कुल पेज दृश्य

doha karyashala लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
doha karyashala लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 31 मई 2018

दोहा कार्यशाला:

चरण पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
*
मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
*
मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
*
प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
*
ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
*
मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
***
३१.५.२०१८, ७९९९५५९६१८

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

doha karyashala

नव लेखन कार्य शाला:
दोहा सलिला
सुनीता सिंह
*
पीड़ा मे क्यो डूबता, बैठ करे संताप।
ले बीड़ा उपचार का, अपना रहबर आप।।
.
क्यों पीड़ा से हारकर, करे मनुज संताप?
ले बीड़ा उपचार का, बन निज रहबर आप।।
*
देती कुदरत राह भी , निर्भय देख प्रयास।
कातर नयना क्यो खड़ा, ढूँढ तमस मे आस।।
.
कुदरत देती राह यदि, हो अनवरत प्रयास।
नयन झ्ककर क्यों खड़ा?, ढूँढ तमस में आस।।
*
रात अंधियारी घनी, लगे प्राण ले जाय।
भोर सुहानी सी कभी, रोक नहीं पर पाय।।
.
घोर अँधेरी रात से, भीत न हो नादान।
भोर सुहानी कब रुके?, ऊगे अभय विहान।।
*
रोक सके कोई नहीं, होनी हो सो होय।
घटती अनहोनी कहीं, जिजीविषा न खोय।।
.
रोक न सकता कोई भी, होनी होती मीत।
अनहोनी होती नहीं, यही जगत की रीत।।
*
खेवनहार सँवारता, खेवत जो सब नाव।
ईश नाम मरहम रहा, फिर चाहे जो घाव।।
.
खेवनहार लगा रहा, पार सभी की नाव।
ईश नाम मरहम लगा, चाहे जो हो घाव।।
*
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी रही, पीड़ा रही तमाम।।
.
राधा मोहन को जपे, मोहन राधा नाम।
अनहोनी फिर भी हुई, पीड़ित उम्र तमाम।।
*
चाहो जो मिलता नहीं, मिले नहीं जो चाह।
देने वाला जानता, कौन सही है राह।
.
मनचाहा मिलता नहीं, किंतु तजो मत चाह।
देनेवाला दे-न दे, चलता चल निज राह।।
*
मोल चाहने का हुआ, चाह बिना बेकार।
नजर नजर का फेर है, नेह नजर दरकार ।।
.
मोल चाह का कौन दे?, चाह सदा अनमोल।
नजर-नजर का फेर है, नजर न बोली बोल।।
*
नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर।
संग नाम भगवान का, नजर न हो बेनूर।।
.
नीड़ नयन में नीर का, नहीं नजर का नूर। नयन बसे भगवान तो, नजर न हो बेनूर।
*
जीवन समझत युग गया, समझ सका ना कोय।
मन का भार उतारिए, जो होनी सो होय।।
.
जीवन जीते युग गया, जी पाया कब कौन?
क्या होगा मत सोचिए, होने दें रह मौन।।
*
@सुनीता सिंह (27-12-2017)

संशोधनोपरांत

सुन निज मन क्या कह रहा, देता क्या संदेश। सोच-विचारे पग बढ़े, भ्रमित हुए बिन लेश।।
पहले सोचा फिर किया, पर न सही परिणाम। मिले माथ पर जो लिखा, पीड़ा का क्या काम।। सबकी अपनी जिन्दगी, अपनी-अपनी राह। पर पथ अनुगामी बने, रहे न ऐसी चाह।। मिली आस दो पल रही, पुलक गयी फिर बीत। तड़ित उजाला रात में, तमस वही फिर रीत।। पुष्प सुवासित कर रहा, बगिया को चहुँओर। हवा तेज है क्या पता, कब त्रासद हो घोर।। भवसागर में चल रहा, लेकर भार अपार। पग-पग पर भँवरें खड़ीं, चल सब भार उतार। परत दर परत जम रही, हुई पीर हिमस्नात। पिघलाकर बारिश करो, धोकर मन आघात।। हस्ती सबकी है यहाँ, तारक, सूरज,चाँद। जिसकी जब बारी रही, छोड़ निकलता माँद।। जब विपदा मुश्किल- नहीं बचना हो आसान। राह भक्ति की तब चले, परा शक्ति को मान।। ह्रदय तोड़कर आपदा, कर दे जब मजबूर। मौन सफर भीतर हुआ, तब पहचाना नूर।। डूब गया अवसाद में, रहा दर्द से जूझ। मर्जी रब की ही चले , बात यही बस बूझ।। अंधकार दम घोंटता, प्राणवायु ही फाँस। पीर कलेजा चीरती, देता जुगनू झाँस।। प्राण निकलने को तड़े, अति से हो संत्रास। या फिर पीर पहाड़ सी, बने काल का ग्रास।। पीड़ा को वीणा बना, छेड़ दर्द के गीत। जो मिलना मिलकर रहे, विलन या विरह मीत।। द्वेष बढ़ाने से कभी, मिटे न निज मन क्लेश। दिया जला समभाव का, तब सुरभित संदेश । छाई धुंध कुहास की, राह धुएँ में लीन। भानु-डीप भी लापता, रहे थरथरा दीन।। कहे वचन शीतल सदा, घोलें शहद-मिठास। औरों से ज्यादा मिले, खुद को ही मधुमास।।
***

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

दोहा कार्यशाला

11-- दोहे मोती फिर-फिर पोइये, जब-जब टूटे हार । तोड़न से जोड़न बड़ा, महिमा सृजन अपार ।। तोड़न, जोड़न अशुद्ध
तोड़ें मत जोड़ें सदा, पाएं सुयश अपार
* घिर अंधेरा आए तो, अंतस दीप जलाय। मिल झरोखा जायेगा, मन में आस जगाय।। लय दोष, दोनों पंक्तियों के कथ्य में तालमेल कम है.
*
पीर इंतिहा तक जाए, सोच बनी जंजीर।
औरन से मिलता रहे, खुद क्यों पीर अधीर।। पीर इंतिहा हो अगर, सोच बने जंजीर
करे परीक्षा धैर्य की, हो क्यों पीर अधीर?
* ठहरकर जरा तो देखिए, अपने चारों ओर। मिली नियामत विचारिए, चमत्कार चहुँओर।। जरा ठहरकर देखिए, अपने चारों ओर
मिली नियामत अनगिनत, बिखरी है चहुँ ओर
*
सागर बादल बारिशें, काँकर पाथर घास। बना मीत मन गुजारिए,न रहिए बैठ उदास।।
सागर बादल बारिशें, काँकर पाथर घास बना मीत हँस-बोलिए,रहें न बैठ उदास * शिव गौरी आराधना,अन्तर्मन कर लीन। भवसागर की ताड़ना, पार बिना गमगीन ।।
शिव गौरी आराधना, कर अन्तर्मन लीन भवसागर को पारकर, हुए बिना गमगीन * नारी मनभावन लगे, बिना हुवे गम्भीर । जो दिया सम्मान नहीं, व्यर्थ हुई तदबीर।।
अर्थ अस्पष्ट
नारी मनभावन लगे, अगर धीर गम्भीर मिला नहीं सम्मान यदि, व्यर्थ हुई तदबीर * काम धरम सा होत है, पूजन की तासीर। पावन नीयत राखिये, कमतर होगी पीर।। अर्थ अस्पष्ट
* ऐसा काम न कीजिये, पछताना अंजाम। पहले ही गुन लीजिये, हो सकार परिणाम।।
ऐसा काम न कीजिये, पछताना अंजाम पहले गुन लें हो तभी, मनमाफिक परिणाम * भरोसा बड़ा विचारिए, तब कीजै अविराम। भीतर किसके क्या पले, बाहर शहद तमाम।।
करें भरोसा बाद में, पहले सोच-विचार किसके भीतर क्या पले, जानें भली प्रकार * उबरन नामुमकिन नहीं, चाहे जो अंधेर। कोशिश तो कर देखिए, मिटै तमस का घेर।।
उबरन नामुमकिन नहीं, चाहे जो अंधेर। कोशिश तो कर देखिए, मिटै तमस का घेर।।
कुछ भी नामुमकिन नहीं, अमर नहीं अंधेर नित कोशिश कर देखिए, मिटे तमस का घेर।। @सुनीता सिंह (14-13-2017)
टीप- एक विचार पर ४-५ बार भन्न-भिन्न तरह से दोहा कहें, श्रेष्ठ को रखें
लय गुनगुनाते हुए लिखें, कहीं अटकन न हो .

बुधवार, 30 अगस्त 2017

doha karyashala

कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
*
गागर मे सागर भरें भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है.
.
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया सांवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
.
प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है.
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है. दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है. रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
.
अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं. इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें.
***