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गुरुवार, 18 जनवरी 2024

नवगीत, सॉनेट, कनक हिरन, शाल, लघुकथा, आभा सक्सेना, नवगीत कार्यशाला

सलिल सृजन १८ जनवरी
सॉनेट 
कनक हिरन 
• 
कनक हिरन आज अवध भेज रे अहेरी, 
कनक महल कनक शिखर कनक द्वार बस रहे, 
कनककशिपु कनक अक्ष ठठा ठठा हँस रहे, 
कनक की बना बिछा सेज रे अहेरी। 
कनक जोड़ जोड़ बढ़ा तेज रे अहेरी, 
कनक कनक से अधिक मादक ले मान, 
कनक कनक से अधिक पातक ले जान, 
कनक की सनक नहीं सहेज रे अहेरी। 
कन न साथ जाए कभी त्याग रे अहेरी, 
जोड़-होड़ द्रोह-मोह छोड़ चेत आप, 
कनकासुर वधें राम मत कर अभिमान। 
छन न कभी राह तके कभी न कर देरी, 
राग-द्वेष, नाश करें, नफरत है शाप, 
पद-मद से दूर, कह न सत्ता भगवान। 
१८.१.२०२४ 
•••
एक रचना
पाई शाल
*
बड़े भाग से पाई शाल
हम लपेट बैठे खुशहाल
*
हुई प्रेरणा खीचें चित्र
भले आपको लगे विचित्र
*
चली कानपुर से चुपचाप
आई जबलपुर अपने आप
*
गंग-नर्मदा सेतु बनी
ह्रद-ऊष्मा से सनी-सनी
*
ठंड न लगने देगी यह
नेहिल नदी लहर सम बह
*
लड्डू, तिल-गुड़ गजक मधुर
खाकर हर्षित हम जी भर
*
सब दुनिया है दोरंगी
समझे तो मति हो चंगी
*
***
लघुकथा-
निर्दोष
*
उसने मनोरंजन के लिए अपने साथियों सहित जंगल में विचरण कर रहे पशुओं का वध कर दिया.
उसने मदहोशी में सडक के किनारे सोते हुए मनुष्यों को कार से कुचल डाला.
पुलिस-प्रशासन के कान पर जून नहीं रेंगी. जन सामान्य के आंदोलित होने और अखबारबाजी होने पर ऐसी धाराओं में वाद स्थापित किया गया कि जमानत मिल सके.
अति कर्तव्यनिष्ठ न्यायालय ने अतिरिक्त समय तक सुनवाई कर तत्क्षण फैसला दिया और जमानत के निर्णय की प्रति उपलब्ध कराकर खुद को धन्य किया.
बरसों बाद सुनवाई आरम्भ हुई तो एक-एक कर गवाह मरने या पलटने लगे.
दिवंगतों के परिवार चीख-चीख कर कहते रहे कि गवाहों को बचाया जाए पर कुछ न हुआ.
अंतत:, पुलिस द्वारा लगाये गए आरोप सिद्ध न हो पाने का कारण बताते हुए न्यायालय ने उसे घोषित कर दिया निर्दोष.
***
नवगीत
अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
१८.१.२०१७
***
***
आइये कविता करें: ७
.
एक और प्रयास.......
नव गीत
आभा सक्सेना
.
सूरज ने छाया को ठगा १५
किरनों नेे दिया दग़ा १२
अब कौन है, जो है सगा १४
कांपता थर थर अंधेरा १४
कोहरे का धुन्ध पर बसेरा १७
जागता अल्हड़ सवेरा १४
रोशनी का अधेरों से १४
दीप का जली बाती से १४
रिश्तें हैं बहुत करीब से १५
कांपती झीनी सी छांव १४
पकड़ती धूप की बांह १३
ताकती एक और ठांव १४
इस नवगीत के कथ्य में नवता तथा गेयता है. यह मानव जातीय छंद में रचा गया है. शैल्पिक दृष्टि से बिना मुखड़े के ४ त्रिपंक्तीय समतुकान्ती अँतरे हैं. एक प्रयोग करते हैं. पाहल अँतरे की पहली पंक्ति को मुखड़ा बना कर शेष २ पंक्तियों को पहले तीसरे अँतरे के अंत में प्रयोग किया गया है. दूसरे अँतरे के अंत में पंक्ति जोड़ी गयी है. आभा जी! क्या इस रूप में यह अपनाने योग्य है? विचार कर बतायें।
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
काँपता थर-थर अँधेरा १४
कोहरे का है बसेरा १४
जागता अल्हड़ सवेरा १४
किरनों नेे ६
दिया है दग़ा ८
रोशनी का दीपकों से १४
दीपकों का बातियों से १४
बातियों का ज्योतियोँ से १४
नेह नाता ७
क्यों नहीं पगा ८
छाँव झीनी काँपती सी १४
बाँह धूपिज थामती सी १४
ठाँव कोई ताकती सी १४
अब कौन है ७
किसका सगा ७
१८.१.२०१५
.

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

सॉनेट, नदी, छंद विधान, लेख, हाइकु, सवैया, सुमन लता श्रीवास्तव, हृदयनारायण देव, लघुकथा , नवगीत, आभा सक्सेना, हास्य

सॉनेट
नदी
नदी नहीं है सिर्फ नदी।
जीवन-मृत्यु किनारे इसके।
सपने पलें सहारे इसके।।
देख नदी में अगिन सदी।।
मरु को मधुवन नदी बनाती।
मिले मेघ से जितना पानी।
सागर को जा देती दानी।।
जीवन को जीना सिखलाती।।
गर्मी-सर्दी, धूप-छाँव में।
पर्वत-जंगल नगर गाँव में।
बहती रुके न एक ठाँव में।।
जननी जन्मे, विहँस पालती।
काम न किंचित कभी टालती।
नव आशा का दीप बालती।।
२१-२-२०२२
•••
लेख :
छंद और छंद विधान
*
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है । वेद के ६ अंगों (छंद, कल्प, ज्योतिऽष , निरुक्त, शिक्षा तथा व्याकरण) में छंद का प्रमुख स्थान है ।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते ।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते ।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले ।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है । छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है । छंदशास्त्र को आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार माना जाता है । जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है ।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा ।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है । काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है ।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम ।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे । वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा भाषा या काव्यशास्त्र से आजीविका के साधन न मिलने के कारण सामान्यतः अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण- पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है । काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप से परिचित छात्र पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटायी है ।
छंद विषयक चर्चा के पूर्व हिंदी भाषा की आरंभिक जानकारी दोहरा लेना लाभप्रद होगा ।
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है। शब्द के निम्न प्रकार हैं-
१. अर्थ की दृष्टि से :
सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से :
रूढ़ शब्द : स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि ।
यौगिक शब्द : दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर:
तत्सम शब्द : मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि।
तद्भव शब्द : संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि।
अनुकरण वाचक शब्द : विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोड़े की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि।
देशज शब्द : आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि।
विदेशी शब्द : संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि।
४. प्रयोग के आधार पर:
विकारी शब्द : वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
अविकारीशब्द : वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः
कविता के 2 तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।
कविता के बाह्य तत्वः
लयः
भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके ।
छंदः
मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं । छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है । छंद के 2 मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं । छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं ।
शब्दयोजनाः
कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः
काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता । मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं ।
अलंकारः
अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है । अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष माने गये हैं । अलंकार के 2 मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं ।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस:
कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है । यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है । रस के 9 प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं । कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवां रस मानते हैं ।
अनुभूतिः
गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को ।
भावः
रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं । हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता ।
***
अशआर
*
चंद पैसे हैं तो सवेरे हैं।
जेब खाली तो बस अँधेरे हैं।।
*
दिल की बातें कहें कहो कैसे,
बेदिलों तुम्हारी महफिल में?
*
आज किश्तों में बात करनी है।
टैक्स बातों पे लग न जाए कहीं।।
*
तालियाँ सुनके फूलना न सलिल।
गालियाँ साथ दूनी मिलती हैं।।
२१-२-२०२१
***
हाइकु
हिंदी का फूल
मैंने दिया, उसने
अंग्रेजी फूल।
*
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।
*
नवगीत:
अंतर में
पल रही व्यथाएँ
हम मुस्काएँ क्या?
*
चौकीदार न चोरी रोके
वादे जुमलों को कब टोंके?
संसद में है शोर बहुत पर
नहीं बैंक में कुत्ते भौंके।
कम पहनें
कपड़े समृद्ध जन
हम शरमाएँ क्या?
*
रंग बदलने में हैं माहिर
राजनीति में जो जगजाहिर।
मुँह में राम बगल में छूरी
कुर्सी पूज रहे हैं काफिर।
देख आदमी
गिरगिट लज्जित
हम भरमाएँ क्या?
*
लोक फिर रहा मारा-मारा,
तंत्र कर रहा वारा-न्यारा।
बेच देश को वही खा रहे
जो कहते यह हमको प्यारा।।
आस भग्न
सांसों लेने को भी
तड़पाएँ क्या?
***
दोहा
शुभ प्रभात अरबों लुटा, कहो रहो बेफिक्र।
चौकीदारी गजब की, सदियों होगा जिक्र।।
*
पिया मेघ परदेश में, बिजली प्रिय उदास।
धरती सासू कह रही, सलिल बुझाए प्यास।।
*
बहतरीन सर हो तभी, जब हो तनिक दिमाग।
भूसा भरा अगर लगा, माचिस लेकर आग।।
*
नया छंद
जाति: सवैया
विधान: ८ मगण + गुरु लघु
प्रकार: २६ वार्णिक, ५१ मात्रिक छंद
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
२१-२-२०१८
***
पुस्तक सलिला:
संगीताधिराज हृदयनारायण देव - संगीत संबंधी जानकारियों का कोष
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक विवरण: संगीताधिराज हृदयनारायण देव, कृतिकार डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव, शोध-सन्दर्भ ग्रंथ, आकार २४ से. मी. X १६ से. मी., आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, क्लॉथ बंधन, पृष्ठ ३५२, ८००/-, विद्यानिधि प्रकाशन डी १० / १०६१ समीप श्री महागौरी मंदिर, खजुरी खास दिल्ली ११००९४, ०११ २२९६७६३८, कृतिकार संपर्क १०७ इन्द्रपुरी कॉलोनी, जबलपुर ४८२००१]
*
अतीत को भूलनेवालेवाली कौमें भविष्य का निर्माण नहीं कर सकतीं। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव इस सनातन सत्य से सुपरिचित हैं इसलिए उन्होंने सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में गोंड शासक हृदयनारायण देव द्वारा संस्कृत में रचित संगीत विषयक दो ग्रंथों हृदय कौतुकम् और ह्रदय प्रकाश: के प्रकाश में भारतीय संगीत के आधारभूत तत्वों और सिद्धांतों के परीक्षण का दुष्कर कार्य किया है। वैदिक काल से गार्गी, मैत्रेयी. लोपामुद्रा जैसी विदुषियों की परंपरा को जीवंत करती सुमन जी की यह कृति पाश्चात्य मूल्यों और जीवनपद्धति के अंध मोह में ग्रस्त युवाओं के लिये प्रेरणा स्त्रोत हो सकती है।
हिंदी में प्रतिदिन प्रकाशित होनेवाली सहस्त्राधिक पुस्तकों में से हर महाविद्यालय और पुस्तकालय में रखी जाने योग्य कृतियाँ अँगुलियों पर गिनने योग्य होती हैं। विवेच्य कृति के विस्तृत फलक को दस परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। भारतीय संगीत की परंपरा: उद्भव और विकास शीर्षक प्रथम परिच्छेद में नाद तथा संगीत की उत्पत्ति, प्रभाव और उपादेयता, संगीत और काव्य का अंतर्संबंध, भारतीय संगीत का वैशिष्ट्य, मार्गी और देशी संगीत, शास्त्रीय और सुगम संगीत, उत्तर भारतीय व् दक्षिण भारतीय संगीत, संगीत ग्रन्थ परंपरा व सूची आदि का समावेश है। द्वितीय परिच्छेद ह्रदय नारायण देव: महराज हृदयशाह के रूप में परिचय के अंतर्गत महाराज हृदयशाह और गढ़ा राज्य, गोंड वंश और शासक, लोकहितकारी कार्य, हृदय कौतुकम् और ह्रदय प्रकाश: की विषयवस्तु, सिद्धांत विवेचन, रचनाकाल, तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का संकेत है। आदि की प्रामाणिक जानकारी का सार प्रस्तुत किया गया है। श्रुति और स्वर: ह्रदय नारायण देव की श्रुति-स्वर व्यवस्था शीर्षक परिच्छेद में श्रुति का अर्थ व स्वरूप, संख्या व नामावली, श्रुति व स्वर में भेद, सप्तक का निर्माण आदि का तुलनात्मक अध्ययन है। चतुर्थ अनुच्छेद के अंतर्गत ग्रंथ द्वय में उल्लिखित पारिभाषिक शब्दों का विवेचन, संवाद, वादी-संवादी-अनुवादी-परिवादी, गमक, अलंकार, तान, मूर्च्छना आदि परिभाषिक शब्दों का विवेचन किया गया है।
वीणा के तार पर ज्यामितीय स्वर-स्थापना का निदर्शन पंचम परिच्छेद में है। राग वर्गीकरण और संस्थान की अवधारणा शीर्षक षष्ठम परिच्छेद राग-रागिनी वर्गीकरण से उत्पन्न विसंगतियों के निराकरण हेतु हृदयनारायण द्वारा अन्वेषित 'थाट-राग व्यवस्था' का विश्लेषण है। सप्तम परिच्छेद प्रचलित और स्वरचित रागों की व्याख्या में ह्रदयनारायण देव द्वारा गृह-अंश-न्यास, वर्ज्यावर्ज्य स्वर, स्वरकरण, ९२ रागों का निरूपण तथा तुलनात्मक अध्ययन है। ग्रन्थ द्वय की भाषा शैली के विवेचन पर अष्टम परिच्छेद केंद्रित है। पौर्वापर्य्य विचार नामित नवम परिच्छेद में हृदयनारायण देव के साथ पंडित लोचन तथापंडित अहोबल के सम्बन्ध में तुलनात्मक अध्ययन है। अंतिम दशम परिच्छेद 'ह्रदय नारायण देव का संगीतशास्त्र को योगदान' में ग्रंथनायक का मूल्यांकन किया गया है। ग्रंथांत में हृदय कौतुकम् और ह्रदय प्रकाश: का अविकल हिंदी अनुवाद सहित पाठ संदर्भ ग्रंथ सूची, ग्रंथनायक की राजधानी मंडला के रंगीन छायाचित्रादि तथा ग्रन्थारंभ में विदुषी डॉ. इला घोष लिखी सम्यक भूमिका ने ग्रन्थ की उपादेयता तथा महत्व बढ़ाया है।
पद्य साहित्य में रस-छंद-अलंकार में रूचि रखनेवाले रचनाकार गति-यति तथा लय साधने में संगीत की जानकारी न होने के कारण कठिनाई अनुभव कर छंद मुक्त कविता की अनगढ़ राह पर चल पड़ते हैं। आलोच्य कृति के विद्यार्थी को ऐसी कठिनाई से सहज ही मुक्ति मिल सकती है। छंद लेखन-गायन-नर्तन की त्रिवेणी में छिपे अंतर्संबंध को अनुमानने में सांगीतिक स्वर लिपि की जानकारी सहायक होगी। महाप्राण निराला की रचनाओं में पारम्परिक छंद विधान के अंधानुकरण न होने पर भी जो गति-यति-लय अन्तर्निहित है उसका कारण रवीन्द्र संगीत और लोक काव्य की जानकारी ही है। गीत-नवगीत के निरर्थक विवाद में उलझी मनीषाएँ इस ग्रन्थ का अध्ययन कर अपनी गीति रचनाओं में अन्तर्व्याप्त रागों को पहचान कर उसे शुद्ध कर सकें तो रचनाओं की रसात्मकता श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर सकेगी।
संगीत ही नहीं साहित्य संसार भी सुमन जी की इस कृति हेतु उनका आभारी होगा। संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि और शोध कार्य कर चुकी और बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार की प्रमुख सुमन जी का भाषा पर असाधारण अधिकार होना स्वाभाविक है। ग्रन्थ की जटिल विषयवस्तु को सुरुचिपूर्वक सरलता से प्रस्तुतीकरण लेखिका के विषय पर पूर्णाधिकार का परिचायक है। पूरे ग्रन्थ में संस्कृत व हिंदी सामग्री के पाठ को त्रुटि रहित रखने के लिये टंकण, पृष्ठ रूपांकन तथा पाठ्य शुद्धि का श्रमसाध्य कार्य उन्होंने स्वयं किया है। वे कुलनाम 'श्रीवास्तव' के साथ-साथ वास्तव में भी 'श्री' संपन्न तथा साधुवाद की पात्र हैं। उनकी लेखनी ऐसे ही कालजयी ग्रंथों का प्रणयन करे तो माँ शारदा का कोष अधिक प्रकाशमान होगा। हिंदी को विश्व वाणी बनाने की दिशा में विविध विषयों की पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण और सक्षम भावाभिव्यक्ति संपन्न शब्दावली के विकास में ऐसे ग्रन्थ सहायक होंगे।
***
लघुकथा
योग्यता
*
गत कुछ वर्षों से वे लगातार लघुकथा मंच का सभापति बनाने पधार रहे थे। हर वर्ष आयोजनों में बुलाते, लघुकथा ले जाकर पत्रिका में प्रकाशित करते। संस्थाओं की राजनीति से उकता चुका वह विनम्रता से हाथ जोड़ लेता। इस वर्ष विचार आया कि समर्पित लोग हैं, जुड़ जाना चाहिए। उसने संरक्षकता निधि दे दी।
कुछ दिन बाद एक मित्र ने पूछा आप लघु कथा के आयोजन में नहीं पधारे? वे चुप्पी लगा गये, कैसे कहते कि जब से निधि दी तब से किसी ने रचना लेने, आमंत्रित करने या संपर्क साधने योग्य ही नहीं समझा।
***
नवगीत
घर तो है
*
घर तो है
लेकिन आँगन
या तुलसी चौरा
रहा नहीं है।
*
अलस्सुबह
उगता है सूरज
किंतु चिरैया
नहीं चहकती।
दलहन-तिलहन,
फटकन चुगने
अब न गिलहरी
मिले मटकती।
कामधेनुएँ
निष्कासित हैं,
भैरव-वाहन
चाट रहे मुख।
वन न रहे,
गिरि रहे न गौरी
ब्यौरा गौरा
रहा नहीं है।
*
घरनी छोड़
पड़ोसन ताकें।
अमिय समझ
विष गुटखा फाँकें।
नगदी सौदा
अब न सुहाये,
लुटते नित
उधार ला-ला के।
संबंधों की
नीलामी कर-
पाल रहे खुद
दुःख
कहकर सुख।
छिपा सकें मुख
जिस आँचल में
माँ का ठौरा
रहा नहीं है।
२१-२-२०१६
***
नवगीत
.
मैं नहीं नव
गीत लिखता
उजासों की
हुलासों की
निवासों की
सुवासों की
खवासों की
मिदासों की
मिठासों की
खटासों की
कयासों की
प्रयासों की
कथा लिखता
व्यथा लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
उतारों की
चढ़ावों की
पड़ावों की
उठावों की
अलावों की
गलावों की
स्वभावों की
निभावों की
प्रभावों की
अभावों की
हार लिखता
जीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
चाहतों की
राहतों की
कोशिशों की
आहटों की
पूर्णिमा की
‘मावसों की
फागुनों की
सावनों की
मंडियों की
मन्दिरों की
रीत लिखता
प्रीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
*

***
नवगीत:
.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘मैं’ ही सही
शेष सब सुधरें.
मेरे अवगुण
गुण सम निखरें.
‘पर उपदेश
कुशल बहुतेरे’
चमचे घेरें
साँझ-सवेरे.
जो न साथ
उसका सच झूठा
सँग-साथ
झूठा भी सच है.
कहें गलत को
सही बेधड़क
सबके
अपने-अपने मानक
.
वही सत्य है
जो जब बोलूँ.
मैं फरमाता
जब मुँह खोलूँ.
‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’
कहने से पहले
क्यों तोलूँ?
मन-मर्जी
अमृत-विष घोलूँ.
बैल मरखना
बनकर डोलूँ
शर-संधानूं
सब पर तक-तक.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘दे दूँ, ले लूँ
जब चाहे जी.
क्यों हो कुछ
चिंता औरों की.
‘आगे नाथ
न पीछे पगहा’
दुःख में सब संग
सुख हो तनहा.
बग्घी बैठूँ,
घपले कर लूँ
अपनी मूरत
खुद गढ़-पूजूं.
मेरी जय बोलो
सब झुक-झुक.
सबके
अपने-अपने मानक
१७.२.२०१५
*

***
नवगीत:
.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
सघन कोहरा
छटना ही है.
आज न कल
सच दिखना ही है.
श्रम सूरज
निष्ठा की आशा
नव परिभाषा
लिखना ही है.
संत्रासों की कब्र खोदने
कोशिश गेंती
साथ चलायें
घटे विषमता,
समता वरिए
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
दल ने दलदल
बहुत कर दिया.
दलविहीन जो
ऐक्य हर लिया.
दीन-हीन को
नहीं स्वर दिया.
अमिया पिया
विष हमें दे दिया.
दलविहीन
निर्वाचन करिए.
नव निर्माणों
का पथ वरिए.
निज से पहले
जन हित धरिए.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
१६.२.२०१५, भांड़ई
***
नवगीत:
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*
***
नवगीत:
*
अहंकार का
सिर नीचा
.
अपनेपन की
जीत है
करिए सबसे प्रीत
सहनशीलता
हमेशा
है सर्वोत्तम रीत
सद्भावों के
बाग़ में
पले सृजन की नीत
कलमकार को
भुज-भींचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पद-मद का
जिस पर चढ़ा
उतरा शीघ्र बुखार
जो जमीन से
जुड़ रहा
उसको मिला निखार
दोष न
औरों का कहो
खुद को रखो सँवार
रखो मनोबल
निज ऊँचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पर्यावरण
न मलिन कर
पवन-salilसलिल रख साफ
करता दरिया-
दिल सदा
दोष अन्य के माफ़
निबल-सबल को
एक सा
मिले सदा इन्साफ
गुलशन हो
मरु गर सींचा
अहंकार का
सिर नीचा
१५.२.२०१५
***
हाइकु नवगीत :
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.
***
हाइकु
.
दर्द की धूप
जो सहे बिना झुलसे
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
***
तांका
.
बिना आहट
सांझ हो या सवेरे
लिये चाहत
ओस बूँद बिखेरे
दूब पर मौसम
.
मंजिल मिली
हमसफर बिछड़े
सपने टूटे
गिला मत करना
फिर चल पड़ना
.
तितली उड़ी
फूल की ओर मुड़ी
मुस्काई कली
हवा गुनगुनाई
झूम फागें सुनाईं
.
घमंड थामे
हाथ में तलवार
लड़ने लगा
अपने ही साये से
उलटे मुँह गिरा
.
***
नवगीत:
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आम आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
१४-२-२०१५
***
श्रृंगार गीत:
.
चाहता मन
आपका होना
.
शशि ग्रहण से
घिर न जाए
मेघ दल में
छिप न जाए
चाह अजरा
बने तारा
रूपसी की
कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
द्वार पर
आ गया बौरा
चीन्ह भी लो
तनिक गौरा
कूक कोयल
गाए बन्ना
सुना बन्नी
आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
माँग इतनी
माँग भर दूँ
आप का
वर-दान कर दूँ
मिले कन्या-
दान मुझको
जिंदगी को
गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
.
***
कायस्थ संस्थाओं / महापुरुषों का कोष : जानकारी आमंत्रित
राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद देश में कार्यरत सभी कायस्थ सामाजिक. सांस्कृतिक, साहित्यिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं व्की महापुरुषों का कोष तैयार कर रही है.
इसमें जोड़ने के लिए निम्न जानकारी निम्न पते पर भेजें: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल; salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४.
संस्था का नाम, गठन वर्ष, प्रथम तथा वर्तमान कार्यकारिणी सदस्यों के नाम, चित्र, पते, दूरभाष / चलभाष, ईमेल, डाक के पते आदि, संस्था पंजीकृत हो तो क्रमांक / वर्ष, संस्था के कार्यक्रम व् गतिविधियाँ, सदस्य संख्या, संस्था के कार्यक्षेत्र में स्थित चित्रगुप्त मंदिर, धर्मशाला, चिकित्सालय, विद्यालय आदि की जानकारी. अपने अंचल के कायस्थ महापुरुषों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, महात्माओं के चित्र, जन्म-पुण्य तिथि, जीवनी व उनके योगदान की जानकारी निम्न पते पर भेजें: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल; salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४.
***
आभा सक्सेना, देहरादून
‘सलिल’ जी से हुआ है जब से वार्तालाप
कविता लिखनी आ गई, आया मात्रा नाप
आया मात्रा नाप मात्रा गिननी सीखी
कविता मन को भाई लगती छंद सरीखी
कह आभा मुस्काय लगे अब गीत सरल है
छाने लगे छंद कविता में गन्ध ‘सलिल’ है
२१-२-२०१५
***
गीत:
*
द्रोण में
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
२१-२-२०१५

***
जगवाणी हिंदी का वैशिऽष्टय् छंद और छंद विधान: 1
संजीव
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है । वेद के 6 अंगों 1. छंद, 2. कल्प, 3. ज्योतिऽष , 4. निरुक्त, 5. शिक्षा तथा 6. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है ।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते ।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते ।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले ।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है । छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है । छंदशास्त्र को आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार माना जाता है । जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है ।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा ।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है । काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है ।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम ।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है । प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे । वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा भाषा या काव्यशास्त्र से आजीविका के साधन न मिलने के कारण सामान्यतः अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण- पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है । काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप से परिचित छात्र पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटायी है ।
छंद विषयक चर्चा के पूर्व हिंदी भाषा की आरंभिक जानकारी दोहरा लेना लाभप्रद होगा ।
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है। शब्द के निम्न प्रकार हैं-
१. अर्थ की दृष्टि से :
सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से :
रूढ़ शब्द : स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि ।
यौगिक शब्द : दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर:
तत्सम शब्द : मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि।
तद्भव शब्द : संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि।
अनुकरण वाचक शब्द : विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोड़े की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि।
देशज शब्द : आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि।
विदेशी शब्द : संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि।
४. प्रयोग के आधार पर:
विकारी शब्द : वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
अविकारीशब्द : वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः
कविता के 2 तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।
कविता के बाह्य तत्वः
लयः
भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके ।
छंदः
मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं । छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है । छंद के 2 मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं । छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं ।
शब्दयोजनाः
कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः
काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता । मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं ।
अलंकारः
अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है । अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष माने गये हैं । अलंकार के 2 मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं ।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस:
कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है । यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है । रस के 9 प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं । कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवां रस मानते हैं ।
अनुभूतिः
गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को ।
भावः
रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं । हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता ।



२१-२-२०१४

*

लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला, जयपुर
आग्रह स्वीकार कर किन्ही कृपा गुरुदेव
मित्रवत भाव से अब लेसकू सलाह सदैव
हार्दिक आभार आपका श्री संजीव सलिल
स्वागत करता 'लक्ष्मण' दे तुम्हे ये दिल ।

२१-२-२०१३

***

दोहा सलिला मुग्ध

*

दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.

शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..

चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.

शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..

नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.

पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..

सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.

सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..

वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.

वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..

देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.

ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.

वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..

दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.

रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..

वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.

बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..

रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.

तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..

रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.

बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..

कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.

पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..

रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.

तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..

गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.

चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..

जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.

बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..

***

हास्य रचना:

साहिब जी मोरे...
*
साहिब जी मोरे मैं नहीं रिश्वत खायो.....

झूठो सारो जग मैं साँचो, जबरन गयो फँसायो.
लिखना-पढ़ना व्यर्थ, न मनभर नोट अगर मिल पायो..
खन-खन दै तब मिली नौकरी, खन-खन लै मुसक्यायो.
पुरुस पुरातन बधू लच्छमी, चंचल बाहि टिकायो..
पैसा लै कारज निब्टायो, तन्नक माल पचायो.
जिनके हाथ न लगी रकम, बे जल कम्प्लेंट लिखायो..
इन्क्वायरी करबे वारन खों अंगूरी पिलबायो.
आडीटर-लेखा अफसर खों, कोठे भी भिजवायो..
दाखिल दफ्तर भई सिकायत, फिर काहे खुल्वायो?
सूटकेस भर नागादौअल लै द्वार तिहारे आयो..
बाप न भैया भला रुपैया, गुपचुप तुम्हें थमायो.
थाम हँसे अफसर प्यारे, तब चैन 'सलिल'खों आयो..
लेन-देन सभ्यता हमारी, शिष्टाचार निभायो.
कसम तिहारी नेम-धरम से भ्रष्टाचार मिटायो..
अपनी समझ पड़ोसन छबि, निज नैनं मध्य बसायो.
हल्ला कर नाहक ही बाने तिरिया चरित दिखायो..
अबला भाई सबला सो प्रभु जी रास रचा नई पायो.
साँच कहत हो माल परयो 'सलिल' बाँटकर खायो..
साहब जी दूना डकार गये पर बेदाग़ बचायो.....


***

हास्य पद:

जाको प्रिय न घूस-घोटाला
*
जाको प्रिय न घूस-घोटाला...
वाको तजो एक ही पल में, मातु, पिता, सुत, साला.
ईमां की नर्मदा त्यागयो, न्हाओ रिश्वत नाला..
नहीं चूकियो कोऊ औसर, कहियो लाला ला-ला.
शक्कर, चारा, तोप, खाद हर सौदा करियो काला..
नेता, अफसर, व्यापारी, वकील, संत वह आला.
जिसने लियो डकार रुपैया, डाल सत्य पर ताला..
'रिश्वतरत्न' गिनी-बुक में भी नाम दर्ज कर डाला.
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा, मठ तज, शरण देत मधुशाला..
वही सफल जिसने हक छीना,भुला फ़र्ज़ को टाला.
सत्ता खातिर गिरगिट बन, नित रहो बदलते पाला..
वह गर्दभ भी शेर कहाता बिल्ली जिसकी खाला.
अख़बारों में चित्र छपा, नित करके गड़बड़ झाला..
निकट चुनाव, बाँट बन नेता फरसा, लाठी, भाला.
हाथ ताप झुलसा पड़ोस का घर धधकाकर ज्वाला..
सौ चूहे खा हज यात्रा कर, हाथ थाम ले माला.
बेईमानी ईमान से करना, 'सलिल' पान कर हाला..
है आराम ही राम, मिले जब चैन से बैठा-ठाला.
परमानंद तभी पाये जब 'सलिल' हाथ ले प्याला..

****************
(महाकवि तुलसीदास से क्षमाप्रार्थना सहित)

***

गीत : *
सबको हक है जीने का,
चुल्लू-चुल्लू पीने का.....
*
जिसने पाई श्वास यहाँ,
उसने पाई प्यास यहाँ.
चाह रचा ले रास यहाँ.
हर दिन हो मधुमास यहाँ.
आह न हो, हो हास यहाँ.
आम नहीं हो खास यहाँ.

जो चाहा वह पा जाना
है सौभाग्य नगीने का.....
*
कोई अधूरी आस न हो,
स्वप्न काल का ग्रास न हो.
मनुआ कभी उदास न हो,
जीवन में कुछ त्रास न हो.
विपदा का आभास न हो.
असफल भला प्रयास न हो.

तट के पार उतरना तो
है अधिकार सफीने का.....
*
तम है सघन, उजास बने.
लक्ष्य कदम का ग्रास बने.
ईश्वर का आवास बने.
गुल की मदिर सुवास बने.
राई, फाग हुलास बने.
खास न खासमखास बने.

ज्यों की त्यों चादर रख दें
फन सीखें हम सीने का.....
२१-२-२०११
***

शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

सॉनेट, दीप, छंद शाला, मुक्तक, आभा सक्सेना, नवगीत, दोहा, सोरठा, रोला, शेर




चित्र पर रचना

गीत 
मधुर मधुर चितवन ने हेरा

मन-पत्थर पर सुमन खिल गए।

मदिर स्वप्न ने डाला डेरा

नज़र उतारें दाई तिल हुए।।

*

अधर रसाल बोल कलरव से

शशि सम बिंदी शोभित उज्ज्वल।

कहती श्याम बसे अंतर्मन

केश राशि सर्पीली श्यामल।

नयन नयन को दे आमंत्रण

ह्रदय हृदय से सँकुच मिल गए।

मधुर मधुर चितवन ने हेरा

मन-पत्थर पर सुमन खिल गए।

*

भाल प्रशस्त गगन सम सुंदर

शशि सम बिंदी शोभित उज्ज्वल।

भौंह-कमान दृष्टि शर बंकिम

मुक्ता मणि रद करते झिलमिल।

प्रणय पत्रिका करते प्रेषित

हस्ताक्षर बन विकल दिल गए

मधुर मधुर चितवन ने हेरा

मन-पत्थर पर सुमन खिल गए।

*

कुंडल डोल रहे कानों में

ग्रीवा राजहंसिनी गर्वित।

भाग्यवान भुज-हार पा सके

करपल्लव गह चंदन चर्चित।

द्वैत मिटा, अद्वैत पंथ चल

अधराधर अनकहे सिल गए।

मधुर मधुर चितवन ने हेरा

मन-पत्थर पर सुमन खिल गए।

*
सॉनेट
दीप प्रज्जवलन
*
दीप ज्योति सब तम हरे, दस दिश करे प्रकाश।
नव प्रयास हो वर्तिका, ज्योति तेल जल आप।
पंथ दिखाएँ लक्ष्य वर, हम छू लें आकाश।।
शिखर-गह्वर को साथ मिल, चलिए हम लें नाप।।
पवन परीक्षा ले भले, कँपे शिखा रह शांत।
जले सुस्वागत कह सतत, कर नर्तन वर दीप।
अगरु सुगंध बिखेर दे, रहता धूम्र प्रशांत।।
भवसागर निर्भीक हो, मन मोती तन सीप।।
एक नेक मिल कर सकें, शारद का आह्वान।
चित्र गुप्त साकार हो, भाव गहें आकार।
श्री गणेश विघ्नेश हर, विघ्न ग्रहणकर मान।।
शुभाशीष दें चल सके, शुभद क्रिया व्यापार।।
दीप जले जलता रहे, हर पग पाए राह।
जिसके मन में जो पली, पूरी हो वह चाह।।
छंद- दोहा
१८-१-२०२२
***
***
छंद शाला
पाठ १
कथ्य भाव लय छंद है
*
(इस लेख माला का उद्देश्य नवोदित कवियों को छंदों के तत्वों, प्रकारों, संरचना, विधानों तथा उदाहरणों से परिचित कराना है। लेखमाला के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ख्यात छन्दशास्त्री, नवगीतकार, लघुकथाकार, संपादक व् समालोचक हैं। सलिलजी ने ५०० से अधिक नए छंदों का अन्वेषण किया है। लेखमाला के भाग १ में मूल अवधारणों को स्पष्ट करते हुए दोहा लेखन के सूत्र स्पष्ट किये गए हैं। - संवस)
*
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला अनाहद, भाव-भंगिमा जाप।।
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द।।
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण / अक्षर :
ध्वनि विशेष के लिए निर्धारित रैखिक आकार को वर्ण कहा जाता है। उस आकार से वही ध्वनि समझी जाती है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:। स्वर के दो प्रकार १. हृस्व (अ, इ, उ, ऋ) तथा दीर्घ (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
शब्द के प्रकार
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि)।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोड़ागाड़ी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि)।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है। यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि)।
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं।
छंद :
सामान्यतः ध्वनि से उत्पन्न लयखंड को पहचानने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'चद' धातु से बने 'छंद' शब्द का अर्थ आल्हादित या प्रसन्न करना है। वर्णों को क्रम विशेष में रखने पर विशेष तरह का लय खंड (रुक्न उर्दू, मीटर अंग्रेजी) उत्पन्न होता है। लय खण्डों की आवृत्ति को छंद (बह्र, फॉर्म ऑफ़ पोएट्री) कहा जाता है। 'छंद' का अर्थ है छाना, जो मन-मस्तिष्क पर छा जाए वह छंद है। छ्न्द से काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियों को उच्चारण के अनुसार वर्ण कहा जाता है। वर्ण के लघु-गुरु उच्चारणों को मात्रा कहते हैं। मात्राओं का विशिष्ट समायोजन लय विशेष (धुन) को जन्म देता है। मात्रा क्रम, मात्रा संख्या या विरामस्थल में परिवर्तन होने से लय और तदनुसार छंद परिवर्तित हो जाता है।
छंद के प्रकार -
१.मात्रिक छंद - मात्रा गणना के आधार पर रचे गए छंद कहे जाते हैं। जैसे दस मात्राओं से निर्मित छंद को दैशिक छंद कहा जाता है। बारह मात्राओं से निर्मित छंद आदित्य छंद हैं। मात्रिक छंद की हर पंक्ति (पद) में मात्रा संख्या समान होती है।
२. वर्णिक छंद - वर्ण (अक्षर) अथवा गण संयोजन के आधार पर रचे गए छंदों को वर्णिक छंद कहा जाता हैं। उदाहरण प्रतिष्ठा छंद ४ वर्ण से जबकि गायत्री छंद ६ वर्णों के समायोजन से बनते हैं। वर्णिक छंद की हर पंक्ति में वर्ण अथवा गण संख्या व् क्रम समान होना आवश्यक है।
गण - तीन वर्णों को मिलाकर बनी ईकाई को गण कहते हैं। हिंदी में ८ गण हैं जिनकी संयोजन से गण छंद बनते हैं।
गण सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' के पहले ८ अक्षरों में अगले २ -२ अक्षर जोड़ कर गानों की संरचना ज्ञात की जाती है। तदनुसार यगण यमाता १२२, मगण मातारा २२२, तगण ताराज २२१, रगण राजभा २१२ , जगण जभान १२१, भगण भानस २११ तथा सगण सलगा ११२ हैं।
उदाहरण :
यगण - यमाता - १२२ - हमारा
मगण - मातारा - २२२ - दोधारा
तगण - ताराज - २२१ - शाबाश
रगण - राजभा - २१२ - आइए
जगण - जभान - १२१ - सुहास
भगण - भानस - २११ - भारत
नगण - नसल - १११ - सहज
सगण - सलगा - ११२ - सहसा
पिंगल / छंद शास्त्र - छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँछंद शास्त्र का प्रथम ग्रंथ आचार्य पिंगल ने लिखा इसलिए इसे पिंगलशास्त्र भी कहते हैं। गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ और कविता की कसौटी ‘छन्द’ है।
काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए।
छंद के अंग :
छंद के आठ अंग १. वर्ण या मात्रा, २. गण ३. पद या पंक्ति, ४. चरण, ५. यति या विराम स्थल, ६. तुकांत ७. पदांत तथा ८. गति हैं।
१. वर्ण या मात्रा - अनुभूति या विचार को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त शब्दों के वर्ण या मात्राएँ।
२. गण - छंद में प्रयुक्त गण प्रकार तथा क्रम।
३. पद या पंक्ति - छंद में प्रयुक्त पंक्ति संख्या।
४. चरण - पंक्ति में आये दो विराम स्थलों या यति स्थानों के बीच का भाग अथवा ऐसे भागों की संख्या। चरणों को उनके स्थान के अनुसार आदि चरण, मध्य चरण, अंतिम चरण, सम चरण, विषम चरण आदि कहा जाता है।
५. यति या विराम स्थल - छंद की पंक्ति को पढ़ते या बोलते समय कुछ शब्दों के बाद श्वास लेने हेतु रुका जाता है। ऐसे स्थल को यति कहा जाता है।
६. तुकांत - छंद-पंक्तियों के अंत में समान उच्चार के शब्द।
७. पदांत - छंद पंक्ति का अंतिम शब्द।
८. गति - छंद विशेष को पढ़ने का प्रवाह।
मात्रा गणना -
हिंदी में वर्ण की दो मात्राएँ लघु और गुरु होती हैं जिनका पदभार क्रमश: १ और २ गिना जाता है। अ, इ, उ, ऋ तथा इनकी मात्राओं (मात्रा रहित वर्ण, ि, ु) से युक्त वर्ण लघु, ह्रस्व या छोटे कहे जाते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्राओं (ा, ी, ू, े, ै, ो, ौ, ां, ा:) से युक्त वर्ण गुरु, दीर्घ या बड़ी कही जाती हैं।
उदाहरण -
विकास - १२१ = ४, भारती - २१२ = ५, हिंदी - २२ = ४, ह्रदय - १११ = ३, मार्मिक २११ = ४, स्थल - ११ = २, मनस्वी - १२२ = ५, त्यक्त - २१ = ३, प्रयास - १२१ = ४, विप्र - २१ = ३, अहं - १२ = ३ आदि।
रस - रस का अर्थ है आनंद। काव्य को रचने, सुनने या पढ़ने से प्राप्त आनंद ही रस है। रस को काव्य की आत्मा, व आत्मानन्द भी कहा गया है।नाट्यशास्त्र प्रवर्तक भरत मुनि के काल से ही रस को काव्य माधुर्य और अलंकार दोनों रूपों में देखा गया। अग्निपुरनकार के अनुसार " वाग्वैदग्ध्य प्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं", विश्वनाथ के शब्दों में "रसात्मकं वाक्यं काव्यं" , राजशेखर के मतानुसार शब्दार्थौ ते शरीर रस आत्मा" ।
अलंकार - अलम् अर्थात् भूषण, जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) डंडी के अनुसार "तै शरीरं च काव्यानमलंकारश्च दर्शिता:" तथा "काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते। वामन के शब्दों में -"सौन्दर्यंलंकार" । ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है। दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं।
प्रतीक - प्रतीक का संबंध मनुष्य की चिंतन प्रणाली से है । प्रतीक का शाब्दिक अर्थ अवयव या चिह्न है। कविता में प्रतीक हमारी भाव सत्ता को प्रकट अथवा गोपन करने का माध्यम है। प्रत्येक भाव व्यंजना की विशिष्ट प्रणाली है। इससे सूक्ष्म अर्थ व्यंजित होता है । डॉक्टर भगीरथ मिश्र कहते हैं कि ” सादृश्य के अभेदत्व का घनीभूत रूप ही प्रतीक है”। उनके मंतव्य में प्रतीक की सृष्टि अप्रस्तुत बिंब द्वारा ही संभव है।प्रतीक के कुछ मौलिक गुण धर्म है जैसे सांकेतिकता, संक्षिप्तता, रहस्यात्मकता, बौद्धिकता, भावप्रकाशयत्ता एवं प्रत्यक्षतः प्रतिज्ञा प्रगटीकरण से बचाव आदि। आधुनिक काव्य प्रतीक सामान्य लक्षण को अपने अंदर समाहित कर पाठक को विषय को समझने, अनुभव करने और अर्थ में संबोधन का व्यापक विकल्प प्रस्तुत करने में सहायक होते हैं।
प्रकार :
१. रूपात्मक प्रतीक - राधा चमक रही चंदा सी, कान्ह सूर्य सा दमक रहा
२. गुण-स्वभावात्मक प्रतीक - कागा हैं सत्ता के वाहक, राजहंस सड़कों पर
३. क्रियात्मक प्रतीक - यंत्रों की जयकार न हो अब, श्रम को पूजा जाए
४. मिश्र प्रतीक - झोपड़ी में श्रम करे उत्पाद, भोग महलों में करते नेता
बिम्ब - बिंब किसी पदार्थ का मानचित्र या मानसी चित्र होता है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में बिंब को कविता का अनिवार्य अंग माना है। बिंब शब्दों द्वारा चित्रित किए जाने वाला वह न्यूनाधिक संविदात्मक चित्र है जो अंश का रूप आत्मक होता है और अपने संदर्भ में मानवीय संवेदनाओं से संबंध रखता है। किंतु वह कविता की भावना या उसके आगे को पाठक तक पहुँचाता है। चित्रमयता वर्तमान कविता की अनिवार्यता है , क्योंकि चित्रात्मक स्थितियों का पाठक चाक्षुष अनुभव कर पाता है। कविता में बिंब के प्रयोग से पाठक या श्रोता कविता को इंद्रिय बोध और मानसिक वह दोनों ही प्रकार किसे सुगमता से आत्मसात कर लेता है। छायावादी कविता और आधुनिक कविता ने बिम्बों को स्वीकार किया। इसलिए यह कविताएँ छंद मुक्त होकर भी पाठक को सम्वेदनाओं से अधिक निकट ठहरती है। बिम्बों के दो मौलिक वर्ग हैं।
(अ) शुद्ध इंद्रियबोध गम्य बिंब- १ चाक्षुष बिंब, २ नाद बिंब, ३ गन्ध बिम्ब, ४ स्वाद बिंब, स्पर्श बिंब। पाँचों ज्ञानेइंद्रियों के विषयों से संबंधित बिंब इंद्रिय बोध गम्य बिंब कहलाते है ।
गाल गुलाबी कर-किरण, लिए हुए जयमाल
किसका स्वागत कर रही, उषा सूर्य रख भाल
(आ) मिश्रित इंद्रिय बोध के आधार पर यह संवेदात्मक बिम्ब - १ मानस बिंब , २ स्रोत वैभिन्नयगत बिंब -(अ) धार्मिक एवं पौराणिक बिंब (ब) तंत्रों से गृहीत बिंब (स) महाकाव्यों से गृहीत बिंब (द) ऐतिहासिक स्रोतों से गृहीत बिंब।
भरत पर अगर नहीं विश्वास, किया तो सहे अयोध्या त्रास
नृपति ने वचन किया है भंग, न होगा अधरों पर अब हास
मिथक - प्राचीन पुराकथाओं के वे तत्व जो नवीन स्थितियों में नये अर्थ का वहन करे मिथक कहलाते हैं। मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं। प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं। सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है। कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं। मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है। माना गया है कि जितने मिथक हैं, सब परिकल्पना पर आधारित हैं। फिर भी यह मूल्य आधारित परिकल्पना थी जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करना था। प्राचीन मिथकों की खासियत यही थी कि वह मूल्यहीन और आदर्शविहीन नहीं थे। मिथकों का जन्म समाज व्यवस्था को कायम रखने के लिए हुआ। मिथक लोक विश्वास से जन्मते हैं। पुरातनकाल में स्थापित किये गये धार्मिक मिथकों का मंतव्य स्वर्ग तथा नरक का लोभ, भय दिखाकर लोगों को विसंगतियों से दूर रखना था। मिथ और मिथक भिन्न है। मिथक असत्य नहीं है। इस शब्द का प्रयोग साहित्य से इतर झूठ या काल्पनिक कथाओं के लिए भी किया जाता है।
मिथ - मिथ अतीत में घटी प्राकृतिक घटना, सामाजिक विश्वास या धार्मिक रीति को स्पष्ट करने हेतु गढ़ी सर्वश्रुत गयी कहानी है। मिथ को पुराण कथा भी कहा जाता है।
१. दोहा
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत।
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत।।
दोहा हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय, लोकोपयोगी, पुराना तथा मारक छंद है। दोहा गागर में सागर की तरह कम शब्दों में गहरी बात कहने की सामर्थ्य रखता है। दोहा को 'दोपदी' (दो पंक्ति वाला छंद) भी कहते हैं। गौ रूपी भाषा को दूह कर अर्थ रूपी दूध निकलने की असीम सामर्थ्य रखने के कारण इसे 'दूहा व् दूहड़ा भी कहा गया। दोहा छंद में ' दो' का बहुत महत्व है।
दोहा में पंक्ति संख्या २
प्रति पंक्ति चरण संख्या २
प्रति पंक्ति यति स्थान (१३-११ मात्राओं पर) २
पदांत में सुनिश्चित वर्ण २ (गुरु लघु)
पदादि में लय साधने में सहायक शब्द/शब्दांश की मात्रिक आवृत्ति २
निषेध - पंक्ति के आरम्भ में एक शब्द में जगण (जभान १२१ )
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
१ विषम चरण , २ सम चरण
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
३ विषम चरण , ४ सम चरण
अमरकंटकी नर्मदा , दोहा अविरल धार। - पहला पद
पहला / विषम चरण / दूसरा / सम चरण
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार।। - दूसरा पद
तीसरा / विषम चरण / चौथा / सम चरण
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
११ २ ११ २ २१ २ ११११ २ २२१
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
११ २ ११ २२ १२ ११११ २२ २१
(कल = अतीत, भविष्य, शान्ति, यंत्र, कलरव पंछियों का स्वर, कलकल पानी बहने का स्वर)
दोहा में प्रयुक्त लघु और गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हो सकते हैं।
दोहा और शेर :
दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में फ़ारसी काव्य में भिन्न भाव-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव। शेर की पंक्तियाँ आसमान पदभार की हो सकती हैं जबकि दोहा की पंक्तियाँ सांभर और यति की होना आवश्यक है। शे'र में पद का चरण (पंक्ति या मिसरा का विभाजन) नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।
२. सोरठा
दोहा के विषम चरण को सम और सम चरण को विषम बनाने पर सोरठा छंद बनता है। सोरठा भी दो पदीय, चार चरणीय छंद है। इसके पद २४ मात्रा के होते हैं जिनमें ११-१३ मात्रा पर यति होती है। दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है। दोहा में विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-
बन जाता रच मीत, दोहा उल्टे सोरठा।
११ २२ ११ २१, २२ २२ २१२
काव्य-सृजन की रीत, दोनों मिलकर बनाते।।
दोहा और सोरठा
दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.
सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.
सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?
दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?
३. रोला छंद
रोला छंद के हर पद में सोरठा की ही तरह ११-१३ की यति सहित २४ मात्राएँ होती हैं। रोला के विषम चरण के अंत में गुरु लघु का बंधन नहीं होता। रोला का पदांत या सम चरणान्त गुरु होता है। दोहा तथा सोरठा में २ पद होते हैं जबकि रोला में ४ पद होते हैं।
हरे-भरे थे बाँस, वनों में अब दुर्लभ हैं
१२ १२ २ २१ , १२ २ ११ २११ २
नहीं चैन की साँस, घरों में रही सुलभ है
बाँस हमारे काम, हमेशा ही आते हैं
हम उनको दें काट, आप भी दुःख पाते हैं
४. कुण्डलिया
दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिया छंद बनता है। कुण्डलिया की पहली दो पंक्तियों में १३-११ की यति सहित गुरु-लघु पदांत होता है। शेष ४ पंक्तियों में ११-१३ पर यति सहित गुरु पदांत होता है। इसके अतिरिक्त कुण्डलिया में दो बंदन और हैं। दोहा का अंतिम (चौथा) चरण रोला का पहला (पाँचवे) चरण के रूप में दोहराया जाता है। दोहा के आरम्भ में प्रयुक्त शब्द या शब्द समूह रोला के अंत में प्रयोग किये जाते हैं।
नाग के बैठने की मुद्रा को कुंडली मारकर बैठना कहा जाता है। इसका भावार्थ जमकर या स्थिर होकर बैठना है। इस मुद्रा में सर्प का मुख और पूंछ आस-पास होती है। इस गुण के आधार पर कुण्डलिनी छंद बना है जिसके आदि-अंत में एक समान शब्द या शब्द समूह होता है।
दोहा
हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत
अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत
रोला
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-तेलुगु अपनायें
गुजराती कश्मीरी असमी, अवधी गायें
बाङ्ग्ला सिन्धी उड़िया, 'सलिल' मराठी मधुमय
बृज मलयालम कन्नड़ बोलें हिंदी की जय
इन छंदों की रचना संबंधी कोी शंका या जिज्ञासा हो तो इस पत्रिका संपादक के माध्यम से अथवा निम्न से सम्पर्क किया जा सकता है। अगले अंक में कुछ और छंदों की जानकारी दी जाएगी।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ , ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com
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आइये कविता करें: ७
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एक और प्रयास.......
नव गीत
आभा सक्सेना
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सूरज ने छाया को ठगा १५
किरनों नेे दिया दग़ा १२
अब कौन है, जो है सगा १४
कांपता थर थर अंधेरा १४
कोहरे का धुन्ध पर बसेरा १७
जागता अल्हड़ सवेरा १४
रोशनी का अधेरों से १४
दीप का जली बाती से १४
रिश्तें हैं बहुत करीब से १५
कांपती झीनी सी छांव १४
पकड़ती धूप की बांह १३
ताकती एक और ठांव १४
इस नवगीत के कथ्य में नवता तथा गेयता है. यह मानव जातीय छंद में रचा गया है. शैल्पिक दृष्टि से बिना मुखड़े के ४ त्रिपंक्तीय समतुकान्ती अँतरे हैं।एक प्रयोग करते हैं, पहले अंतरे की पहली पंक्ति को मुखड़ा बना कर शेष २ पंक्तियों को पहले तीसरे अंतरे के अंत में प्रयोग किया गया है। दूसरे अँतरे के अंत में पंक्ति जोड़ी गई है। आभा जी! क्या इस रूप में यह अपनाने योग्य है? विचार कर बतायें।
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
काँपता थर-थर अँधेरा १४
कोहरे का है बसेरा १४
जागता अल्हड़ सवेरा १४
किरनों नेे ६
दिया है दग़ा ८
रोशनी का दीपकों से १४
दीपकों का बातियों से १४
बातियों का ज्योतियोँ से १४
नेह नाता ७
क्यों नहीं पगा? ८
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
छाँव झीनी काँपती सी १४
बाँह धूपिज थामती सी १४
ठाँव कोई ताकती सी १४
अब कौन है ७
किसका सगा? ७
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
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कार्यशाला
आइये! कविता करें ६ :
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मुक्तक
आभा सक्सेना
कल दोपहर का खाना भी बहुत लाजबाब था, = २६
अरहर की दाल साथ में भुना हुआ कबाब था। = २६
मीठे में गाजर का हलुआ, मीठा रसगुल्ला था, = २८
बनारसी पान था पर, गुलकन्द बेहिसाब था।। = २६
लाजवाब = जिसका कोई जवाब न हो, अतुलनीय, अनुपम। अधिक या कम लाजवाब नहीं होता, भी'' से ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त कुछ और भी स्वादिष्ट था जिसकी चर्चा नहीं हुई। इससे अपूर्णता का आभास होता है। 'भी' अनावश्यक शब्द है।
तीसरी पंक्ति में 'मीठा' और 'मीठे' में पुनरावृत्ति दोष है. गाजर का हलुआ और रसगुल्ला मीठा ही होता है, अतः यहाँ मीठा लिखा जाना अनावश्यक है।
पूरे मुक्तक में खाद्य पदार्थों की प्रशंसा है. किसी वस्तु का बेहिसाब अर्थात अनुपात में न होना दोष है, मुक्तककार का आशय दोष दिखाना प्रतीत नहीं होता। अतः, इस 'बेहिसाब' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है।
कल दोपहर का खाना सचमुच लाजवाब था = २५
दाल अरहर बाटी संग भर्ता-कवाब था = २४
गाजर का हलुआ और रसगुल्ला सुस्वाद था- = २६
अधरों की शोभा पान बनारसी नवाब था = २५

१८-१-२०१५

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