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गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

baal kavita

बाल कविता 
मुहावरा कौआ स्नान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे! 
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
-----------------------

रविवार, 5 अक्टूबर 2014

bak kavita: nagpanchami

धरोहर :

नागपंचमी

सुधीर त्यागी 
*
सूरज के आते भोर हुआ

लाठी लेझिम का शोर हुआ

यह नागपंचमी झम्मक-झम

यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम

मल्लों की जब टोली निकली

यह चर्चा फैली गली-गली

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में।।



सुन समाचार दुनिया धाई,

थी रेलपेल आवाजाई।

यह पहलवान अम्बाले का,

यह पहलवान पटियाले का।

ये दोनों दूर विदेशों में,

लड़ आए हैं परदेशों में।

देखो ये ठठ के ठठ धाए

अटपट चलते उद्भट आए

थी भारी भीड़ अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में



वे गौर सलोने रंग लिये,

अरमान विजय का संग लिये।

कुछ हंसते से मुसकाते से,

मूछों पर ताव जमाते से।

जब मांसपेशियां बल खातीं,

तन पर मछलियां उछल आतीं।

थी भारी भीड़ अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥


यह कुश्ती एक अजब रंग की,

यह कुश्ती एक गजब ढंग की।

देखो देखो ये मचा शोर,

ये उठा पटक ये लगा जोर।

यह दांव लगाया जब डट कर,

वह साफ बचा तिरछा कट कर।

जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,

बज गई वहां घन-घन घंटी।

भगदड़ सी मची अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥



वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष

वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष

जब मांसपेशियां बल खातीं

तन पर मछलियां उछल जातीं

कुछ हंसते-से मुसकाते-से

मस्ती का मान घटाते-से

मूंछों पर ताव जमाते-से

अलबेले भाव जगाते-से

वे गौर, सलोने रंग लिये

अरमान विजय का संग लिये

दो उतरे मल्ल अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में



तालें ठोकीं, हुंकार उठी

अजगर जैसी फुंकार उठी

लिपटे भुज से भुज अचल-अटल

दो बबर शेर जुट गए सबल

बजता ज्यों ढोल-ढमाका था

भिड़ता बांके से बांका था

यों बल से बल था टकराता

था लगता दांव, उखड़ जाता

जब मारा कलाजंघ कस कर

सब दंग कि वह निकला बच कर

बगली उसने मारी डट कर

वह साफ बचा तिरछा कट कर

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में.....
_________________________

kadamb ka ped: subhadra kumari chauhan

धरोहर

कदम्ब का पेड़



सुभद्रा कुमारी चौहान



यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जातीं
मुझे देखने को तुम बाहर काम छोड़ कर आतीं

तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
पत्तों में छिप कर फिर धीरे से बांसुरी बजाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

-सुभद्राकुमारी चौहान

बुधवार, 24 सितंबर 2014

bal kavita: sanjiv


बाल कविता :
भय को जीतो 
संजीव 
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक। 
सुबह देर से उठना 
मन को भाता था। 

ग्वाला लाया  दूध 
मिला पानी तो  
माँ ने बंद कर दिया 
लेना उससे।

निकट खुली थी डेरी 
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे 
निकला घर से 
डेरी को मैं 
लेकर आया दूध 
मिली माँ से शाबाशी। 

कुछ दिन बाद 
अचानक 
काला कुत्ता आया 
मुझे देख भौंका 
डर कर 
मैं पीछे भागा। 
सज्जन एक दिखे तो 
उनके पीछे-पीछे गया, 
देखता रहा 
न कुत्ता तब गुर्राया।

घर आ माँ को 
देरी का कारण बतलाया 
माँ बोली: 
'जो डरता है 
उसे डराती सारी दुनिया। 
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर 
मारो एक पत्थर। 
तब न करेगा 
कुत्ता पीछा। 

अगले दिन 
हिम्मत कर मैंने  
एक छड़ी ली और 
जेब में पत्थर भी कुछ। 
ज्यों ही कुत्ता दिखा 
तुरत मारे दो पत्थर। 
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर। 

घर आ माँ को 
हाल बताया  
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही 
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
*** 

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

bal kavita: gudiyon ka tyohaar - s.n.sharma 'kamal'

गुड़ियों का त्यौहार और नाग पंचमी पर एक बाल - गीत



कमल
*
(गुड़िया का त्यौहार उत्तरप्रदेश के एक बड़े हिस्से में नागपंचमी के दिन मनाया जाता है। नागपंचमी के एक-दो दिन पहले से ही रंगीन डंडियां बिकनी शुरू हो जाती हैं। ये डंडियां लड़कों के लिए होती हैं। नाग पंचमी के दिन कपड़े की रंग-बिरंगी गुड़ियां बनाई जाती हैं। शायद उनमें उबले हुए चने इत्यादि भी भरे जाते हैं। शाम के वक्त सभी घरों से लड़कियां रंगीत डलियों या तश्तरियों में रंगीन कवर से अपनी-अपनी गुड़िया ढंककर मुहल्ले के चौराहे पर पहुंचती हैं। उनके साथ उनके भाई हाथों में पहले सी खरीदी डंडियां लेकर जाते है। सारी लड़कियों के इकट्ठा होने के बाद लड़कियां गोल घेरा बनाकर अपनी-अपनी गुड़िया घेरे के बीच में फेंक देती हैं । गुड़ियों के जमीन पर गिरते ही लड़के डंडियों से गुड़िया पीटने लगते हैं। इस अवसर पर चूंकि मुहल्ले के सारे बच्चे इकट्ठा होते हैं, इसलिए चाट, मिठाई और गुब्बारे वाले भी जमा हो जाते हैं। इसे कहते हैं नागपंचमी का मेला।)
*
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देर रात सोई थी जा कर
गुड्डे गुड़ियों को सजा धजा कर
सुबह हुई तो देखा आ कर
गुद्दे गुडियाँ नहीं वहाँ पर
कौन ले गया कहाँ गईं  वे
ढूँ ढ़ ढूंढ हारी मैं थक कर
चुन्नूमुन्नू जाग गए थे
तब उनसे ही पूछा जा कर
चुन्नू बोला तब हंस कर
गयी घूमने होंगी बाहर
समझ गई उसकी शैतानी
 गुस्सा आई बहुत  उसी   पर
मैंने भी  मन ही  मन उसको
सबक सिखा  देने की ठानी       
ऐसा मजा  चखाऊँगी की
उसको याद आजाये नानी
 उसका प्यारा एक खिलोना
ढोल बजाता खट ख़ट बौना
मैंने  उसे छुपा कर बेड   में
रख ऊपर ढक दिया बिछौना
याद  उसे  जब  आई उसकी  
ढूंढा  घर का कोना कोना
नहीं मिला जब उसे कहीं भी
शुरू कर दिया  रोना धोना
दीदी तुमने देखा क्या मेरा
ढोल बजाता हुआ खिलोना
मैं बोली बाहर चला गया हो
मेरी गुड़ियां लाने बौना
पैर  कर बोला दीदी देदो
गुड़ियां ला देता हूँ
आज ब्याह करना गुडिया का
गुड्डा खूब  सजा देता  हूँ 
फिर तो हम सबने मिल कर
गुड्डा गुडिया ब्याह रचाया
उसके बौने गैजेट  से ही
बहुत  देर बाजा बजवाया 
आज नाग-पंचमी भी है
बाहर एक सपेरा आया
बीन बजा कर नाग और
 नागिन का दर्शन  करवाया

पूरी कालोनी ने नागों पर
अपनी श्रद्धा भर भेंट चढ़ाया
हलवा पूरी और सिवैंये
खाया सबने त्यौहार मनाया
श्रावण शुक्ल पंचमी होती
गुड़ियों  नागों का त्यौहार
बच्चो सदा याद रखना तुम
इसे मनाना है हर बार
=================
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
 

बुधवार, 20 मार्च 2013

बाल कविता: जल्दी आना ... संजीव 'सलिल'

बाल कविता:

जल्दी आना ...











संजीव 'सलिल'
*
मैं घर में सब बाहर जाते,
लेकिन जल्दी आना…
*
भैया! शाला में पढ़-लिखना
करना नहीं बहाना.
सीखो नई कहानी जब भी
आकर मुझे सुनाना.
*
दीदी! दे दे पेन-पेन्सिल,
कॉपी वचन निभाना.
सिखला नच्चू , सीखूँगी मैं-
तुझ जैसा है ठाना.
*
पापा! अपनी बाँहों में ले,
झूला तनिक झुलाना.
चुम्मी लूँगी खुश हो, हँसकर-
कंधे बिठा घुमाना.

माँ! तेरी गोदी आये बिन,
मुझे न पीना-खाना.
कैयां में ले गा दे लोरी-
निन्नी आज कराना.
*
दादी-दादा हम-तुम साथी,
खेल करेंगे नाना.
नटखट हूँ मैं, देख शरारत-
मंद-मंद मुस्काना.
***



 

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

बाल कविता - फैशन -सन्तोष कुमार सिंह

बाल कविता - फैशन


-सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा
*
देख-देख रोजाना टी०वी०,
फैशन का चढ़ गया बुखार।
कपड़े, गहने, सेंडल लेने,
बिल्ली पहुँची बिग बाजार।।
 
स्लीव लैस दो सूट खरीदे,
ऊँची ऐड़ी के सेंडल।
भरि-भरि हाथ खरीदी चूड़ीं,
और गले का इक पेंडल।।
 
पहना सूट, पहन कर सेंडल,
भागी चूहे के पीछे।
सेंडल फिसल गया सीढ़ी पर,
बिल्ली गिरी धम्म नीचे।।
 
फैशन की मारी बिल्ली की,
किस्मत उस दिन फूट गई।
चूहा छूटा, सिर भी फूटा,
एक टाँग भी टूट गई।।
 
कष्ट देख कर उस बिल्ली का,
बात समझ में यह आई।
कभी-कभी ज्यादा फैशन भी,
बच्चो बनती दुःखदाई।।
---।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

बाल कविता: मेरी माता! --संजीव 'सलिल'

बाल कविता: मेरी माता! --संजीव 'सलिल'

मेरी मैया!, मेरी माता!!

किसने मुझको जन्म दिया है?
प्राणों से बढ़ प्यार किया है.
किसकी आँखों का मैं तारा?
किसने पल-पल मुझे जिया है?

किसने बरसों दूध पिलाया?
निर्बल से बलवान बनाया.
खुद का वत्स रखा भूखा पर-
मुझको भूखा नहीं सुलाया.
वह गौ माता!, मेरी माता!!
*
किसकी गोदी में मैं खेला?
किसने मेरा सब दुःख झेला?
गिरा-उठाया, लाड़ लड़ाया.
हाथ पकड़ चलना सिखलाया.
भारत माता!, मेरी माता!!

किसने मुझको बोल दिये हैं?
जीवन के पट खोल दिये हैं.
किसके बिन मैं रहता गूंगा?
शब्द मुझे अनमोल दिये हैं.
हिंदी माता!, मेरी माता!!
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 7 जून 2010

बाल कविता: गुड्डो-दादी संजीव 'सलिल'

बाल कविता :
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*

तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.

दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'

तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
*********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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