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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

सॉनेट, नवगीत, माँ, नौटंकियाँ, टैगोर, मुक्तक, मुक्तिका, कांता रॉय, नीरज, दोहा

 सॉनेट

मधुर
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर
पथिक न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना
रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु
धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में
२०-७-२०२२
•••
नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५
***
यादें न जाएँ: नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना: फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***
मुक्तक
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
मुक्तिका:
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
२०-७-२०१८
***
कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
*
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
२३-१०-२०१५
===============
गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
*
नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
स्व. नीरज के प्रति
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा दुनिया
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख
*
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
*
दोहा मुक्तिका
*
भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
*
सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
*
उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
*
२०-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
***
नवगीत:
*
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
***
नवगीत
*
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
घोर वृष्टि
भू स्खलित
काँप उठे केदार
पशुपति का
भूकंप ने घर
ही दिया उजाड़
महाकाल
थर्रा रहे, देख
प्रलय सा दृश्य
रामेश्वर
पुल पर लगा
ढैया शनि अदृश्य
क्या करते
प्रभु? भक्त गण
रहे भाग्य को झींक
पूजन हित
आ पुजारी
गिरा रहे हैं पीक
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
अमरनाथ
पथ को रहे
आतंकी मिल घेर
बाधाएँ
कैलाश के
मग में आईं ढेर
हिमगिरि भी
विचलित हुआ
धीरज जाता टूट
मनुज नहीं
थमता तनिक
रहा प्रकृति को लूट
कर असगुन
पीढ़ी नयी
रही राह में छींक
घोटाले
हर दिन नये
उद्घाटित हों चीख
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
***
नवगीत
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
२०-७-२०१५
***
दोहा
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश
२०-७-२०११

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

समीक्षा कांता रॉय


कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )


***
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
===============
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

सोमवार, 17 मई 2021

भूमिका आदमी जिंदा है लघुकथा संग्रह कांता रॉय

शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संग्रह की भूमिका

भूमिका /कान्ता रॉय
भूमिका
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी का लघुकथा संग्रह आना लघुकथा की समृद्धि में चार-चाँद लगने जैसा है। आपको साहित्य जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप बेहद समृद्ध पृष्ठभूमि के रचनाकार है। साहित्य आपके रक्त के प्रवाह में है। बचपन से प्रबुद्ध-चिंतनशील परिवार, परिजनों तथा परिवेश में आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आप गत ४ दशकों से हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। देश-विदेश में स्थित पचास से अधिक सस्थाओं ने सौ से अधिक सम्मानों से साहित्य -सेवा में श्रेष्ठ तथा असाधारण योगदान के लिये आपको अलङ्कृत कर स्वयं को सम्मानित किया है।
मैं सदा से आपके लेखन की विविधता पर चकित होती आई हूँ। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्मव साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। ओपन बुक्स ऑनलाइन, युग मानस, ई कविता, अपने ब्लॉगों तथा फेसबुक पृष्ठों के माध्यम से भी आचार्य जी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी भाषा तथा छन्दों के प्रचार-प्रसार व को जोड़ने में प्रचुर योगदान किया है। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी ने विविध विधाओं में सृजन करने के साथ-साथ के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। उन्हें समीक्षा और समालोचना के क्षेत्र में भी महारत हासिल है।
सलिल जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ विविध विधाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार की पुस्तक में अभिमत देने की बात सोचना भी मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। सामान्यतः नयी कलमों की राह में वरिष्ठों द्वारा रोड़े अटकाने, शोषण करने और हतोत्साहित करने के काल में सलिल जी अपवाद हैं जो कनिष्ठों का मार्गदर्शन कर उनकी रचनाओं को लगातार सुधारते हैं, त्रुटियाँ इंगित करते हैं और जटिल प्रकरणों को प्रमाणिकता से स्नेहपूर्वक समझाते हैं। अपने से कनिष्ठों को समय से पूर्व आगे बढ़ने अवसर देने के लिये सतत प्रतिबद्ध सलिल जी ने पात्रता न होने के बाद भी विशेष अनुग्रह कर मुझे अपनी कृति पर सम्मति देने के लिये न केवल प्रोत्साहित किया अपितु पूरी स्वतंत्रता भी दी। उनके स्नेहादेश के परिपालनार्थ ही मैं इस पुस्तक में अपने मनोभाव व्यक्त करने का साहस जुटा रही हूँ। नव लघुकथाकारों के मार्गदर्शन के लिये आपके द्वारा लिखा गया लघुकथा विषयक आलेख एक प्रकाशस्तंभ के समान है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे निरन्तर सलिल जी से बहुत कुछ सीखने मिल रहा है। किसी पुस्तक पर लिखना भी इस प्रशिक्षण की एक कड़ी है। सलिल जी आज भी अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहे है।
गद्य साहित्य में लघुकथा एक तीक्ष्ण विधा है जो इंसान के मन-मस्तिष्क पर ऐसा प्रहार करती है कि पढ़ते ही पाठक तिलमिला उठता है। जीवन और जगत की विसंगतियों पर बौद्धिक आक्रोश और तिक्त अनुभूतियों को तीव्रता से कलमबद्ध कर पाठक को उसकी प्रतीति कराना ही लघुकथा का उद्देश्य है। सलिल जी के अनुसार लघुकथाकार परोक्षतः समाज के चिंतन और चरित्र में परिवर्तन हेतु लघुकथा का लेखन करता है किंतु प्रत्यक्षतः उपचार या सुझाव नहीं सुझाता। सीधे-सीधे उपचार या समाधान सुझाते ही लघुकथा में परिवर्तित हो जाती है। अपने लघुकथा-विषयक दिशादर्शी आलेख में आपके द्वारा जिक्र हुआ है कि “वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है। लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है। लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है। लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, गुप्त-प्रगट, शालीन-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।” आपकी लघुकथाओं में बहुधा यही “लघ्वाकारी मारकता “ अन्तर्निहित है।”
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तकनीकों को लेकर कई भ्रान्तियाँ हैं। वरिष्ठ-लेखकों में परस्पर मतान्तर की स्थिति के कारण इस विधा में नवोदितों का लेखन अपने कलेवर से भटकता हुआ प्रतीत होता है। विधा कोई भी हो उसमें कुछ अनुशासन है किन्तु नव प्रयोगों के लिये कुछ स्वतंत्रता होना भी आवश्यक है। नये प्रयोग मानकों का विस्तार कर उनके इर्द-गिर्द ही किये जाने चाहिए जाना चाहिए, मानकों की उपेक्षा कर या मानकों को ध्वस्त कर नहीं। नामानुसार एक क्षण विशेष में घटित घटना को लघुतम कथ्य के रूप में अधिकतम क्षिप्रता के साथ पाठक तक संप्रेषित करना ही सार्थक लघुकथा लेखन का उद्देश्य होता है। लघुकथा समाज, परिवार व देशकाल की असहज परिस्थितियों को सहज भाव में संप्रेषित करने की अति विशिष्ट विधा है अर्थात कलात्मक-भाव में सहज बातों के असाधारण सम्प्रेषण से पाठक को चौकाने का माध्यम है लघुतामय लघुकथा।
“आदमी जिंदा है“ लघुकथा संग्रह वास्तव में पुस्तक के रूप में आज के समाज का आईना है। अपने देश ,समाज और पारिवारिक विसंगतियों को सलिल जी ने पैनी दृष्टि से देखा है, वक्र दृष्टि से नहीं। सलिल जी की परिष्कृत-दार्शनिक दृष्टि ने समाज में निहित अच्छाइयों को भी सकारात्मक सोच के साथ प्रेरणा देते सार्थक जीवन-सन्देश को आवश्यकतानुसार इंगित किया है, परिभाषित नहीं। वे देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रशासनिक विसंगतियों पर सधी हुई भाषा में चौकानेवाले तथ्यों को उजागर करते हैं। इस लघुकथा संग्रह से लघुकथा- विधा मजबूती के साथ एक कदम और आगे बढ़ी है। यह बात मैं गर्व और विश्वास साथ कह सकती हूँ। सलिल जी जैसे वरिष्ठ -साहित्यकार का लघुकथा संग्रह इस विधा को एक सार्थक और मजबूत आधार देगा।
लघुकथाओं में सर्जनात्मकता समेटता कथात्मकता का आत्मीय परिवेश सलिल जी का वैशिष्ट्य है। उनका लघुकथाकार सत्य के प्रति समर्पित-निष्ठावान है, यही निष्ठां आपकी समस्त रचनाओं और पाठकों के मध्य संवेदना- सेतु का सृजन कर मन को मन से जोड़ता है। इन लघुकथाओं का वाचन आप-बीती का सा भान कराता है। पाठक की चेतना पात्रों और घटना के साथ-साथ ठिठकती-बढ़ती है और पाठक का मन भावुक होकर तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
'आदमी जिंदा है' शीर्षकीय लघुकथा इस संग्रह को परिभाषित कर अपने कथ्य को विशेष तौर पर उत्कृष्ट बनाती है। “साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है। “ एक साहित्य सेवी द्वारा लिपिबद्ध ये पंक्तियाँ मन को मुग्ध करती है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक कथ्य समाविष्ट है इस लघुकथा में।
“एकलव्य“ लघुकथा में कथाकार ने एकलव्य द्वारा भोंकते कुत्तों का मुँह तीरों से बंद करने को बिम्बित कर सार्थक सृजन किया है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य का उभार पाठक के मन में विचलन तथा सहमति एक्स उत्पन्न करता है। लघुकथा का शिल्प चकित करनेवाला है।
'बदलाव का मतलब' में मतदाताओं के साथ जनप्रतिनिधि द्वारा ठगी को जबर्दस्त उभार दिया गया है। 'भयानक सपना' में हिंदी भाषा को लेकर एक विशिष्ट कथा का सशक्त सम्प्रेषण हुआ है। 'मन का दर्पण' में लेखक के मन की बात राजनैतिक उथल–पुथल को कथ्य के रूप में उभार सकी है। 'दिया' में विजातीय विवाह से उपजी घरेलू विसंगति और पदों का छोटापन दर्शित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सास को अपने आखिरी समय में बहू की अच्छाई दिखाई देती है जो मार्मिक और मननीय बन पड़ी है। 'करनी-भरनी' में शिक्षा नीति की धॉँधली और 'गुलामी' में देश के झंडे की अपने ही तंत्र से शिकायत और दुःख को मुखर किया गया है। 'तिरंगा' में राष्ट्रीय ध्वज के प्रति बालक के अबोध मन में शृद्धा का भाव, तिरंगे को रखने के लिये सम्मानित जगह का न मिलना और सीने से लगाकर सो जाना गज़ब का प्रभाव छोड़ता है। इस लघुकथा का रंग शेष लघुकथाओं से अलग उभरा है।
'अँगूठा' में बेरोजगारी, मँहगाई और प्रशासनिक आडम्बर पर निशाना साधा गया है। 'विक्षिप्तता', 'प्यार का संसार', 'वेदना का मूल' आदि लघुकथाएँ विशेष मारक बन पड़ी हैं। 'सनसनाते हुए तीर' तथा 'नारी विमर्श' लघुकथाओं में स्त्री विमर्श पर बतौर पुरुष आपकी कलम का बेख़ौफ़ चलना चकित करता है। सामान्यतः स्त्री विमर्शात्मक लघुकथाओं में पुरुष को कठघरे में खड़ा किया जाता है किन्तु सलिल जी ने इन लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श पर स्त्री-पाखण्ड को भी इंगित किया है।
आपकी कई लघुकथाएँ लघुकथाओं संबंधी पारम्परिक-रूरक मानकों में हस्तक्षेप कर अपनी स्वतंत्र शैली गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। कहावत है 'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह सपूत'। प्रचलित ”चलन” या रूढ़ियों से इतर चलना आप जैसे समर्थ साहित्यकार के ही बूते की बात है। आप जैसे छंद-शास्त्री, हिंदी-ज्ञाता, भाषा-विज्ञानी द्वारा गद्य साहित्य की इस लघु विधा में प्रयोग पाठकों के मन में गहराई तक उतर कर उसे झकझोरते हैं। आपकी लघुकथाओं का मर्म पाठको के चितन को आंदोलित करता है। ये लघुकथाएँ यथा तथ्यता, सांकेतिकता, बिम्बात्मकता एवं आंचलिकता के गुणों को अवरेखित करती है। अपनी विशिष्ट शैली में आपने वैज्ञानिकता का परिवेश बड़ी सहजता से जीवंत किया है। इन दृष्टियों से अब तक मैंने जो पूर्व प्रकाशित संग्रह पढ़े हैं में अपेक्षा इस संग्रह को पर्याप्त अधिक समृद्ध और मौलिक पाया है।
मुझे जीने दो, गुणग्राहक, निर्माण, चित्रगुप्त पूजन, अखबार, अंधमोह, सहिष्णुता इत्यादि कथाओं में भावों का आरोपण विस्मित करता है। यहाँ विभिन्न स्तरों पर कथ्य की अभिव्यंजना हुई है। शब्दों की विशिष्ट प्रयुक्ति से अभिप्रेत को बड़ी सघनता में उतारा गया है। इस संग्रह में कथाकार द्वारा अपने विशिष्ट कथ्य प्रयोजनों की सिद्धि हुई है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं ने भी एक नया आयाम गढ़ा है।
लघुकथा 'शेष है' सकारात्मक भाव में एक जीवन्त रचना की प्रस्तुति है। यहाँ आपने 'कुछ अच्छा भी होता है, भले उसकी संख्या कम है' को बहुत सुन्दर कथ्य दिया है। 'समाज का प्रायश्चित्य' में समर्थ को दोष नहीं लगता है यानि उनके लिए नियमों को ताक पर रखा जा सकता है, को कथा-रूप में ढाला गया है। 'क्या खाप पंचायत इस स्वागत के बाद अपने नियम में बदलाव करेगी ? शायद नहीं!' बहुत ही बढ़िया कथ्य उभरकर आया है इस कथा में। गम्भीर और नूतन विषय चयन है। 'फल' में 'अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है, उजाला होता नहीं ,करना पड़ता है' सनातन सत्य की सूक्ति रूप में अभिव्यक्ति है।
लघुतम रचनाओं में कथ्य का श्रेष्ठ-संतुलित संवहन देखते ही बनता है। ये लघुकथाएँ जीवन-सत्यों तथा सामाजिक-तथ्यों से पाठकों साक्षात्कार कराती है।
'वेदना का मूल' में मनुष्य की सब वेदना का मूल विभाजन जनित द्वेष को इंगित किया जाना चिंतन हेतु प्रेरित करता है। 'उलझी हुई डोर' में कथ्य की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। 'सम्मान की दृष्टि' शीर्षक लघुकथा अपने लिए सम्मान कमाना हमारे ही हाथ में है, यह सत्य प्रतिपादित करता है। लोग हमें कुछ भी समझे, लेकिन हमें स्वयं को पहले अपनी नजर में सम्मानित बनाना होगा। चिंतन के लिये प्रेरित कर मन को मनन-गुनन की ओर ले जाती हुई, शीर्षक को परिभाषित करती, बहुत ही सार्थक लघुकथा है यह।
'स्थानान्तरण' में दृश्यात्मक कथ्य खूबसूरत काव्यात्मकता के साथ विचारों का परिवर्तन दिखाई देता है। 'जैसे को तैसा' में पिता के अंधे प्यार के साये में संतान को गलत परवरिश देने की विसंगति चित्रित है। 'सफ़ेद झूठ' में सटीक कथ्य को ऊभारा है आपने। आपके द्वीरा रचित लघुकथायें अक्सर प्रजातंत्र व नीतियों पर सार्थक कटाक्ष कर स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करती है।
'चैन की सांस' में इंसानों के विविध रूप, सबकी अपनी-अपनी गाथा और चाह, भगवान भी किस-किसकी सुनें? उनको भी चैन से बाँसुरी बजाने के लिए समय चाहिए। एक नये कलेवर में, इस लघुकथा का अनुपम सौंदर्य है।
'भारतीय' लघुकथा में चंद शब्दों में कथ्य का महा-विस्तार चकित करता है। 'ताना-बाना' हास्य का पुट लिये भिन्न प्रकृति की रचना है जिसे सामान्य मान्यता के अनुसार लघुकथा नहीं भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयोग सिद्धहस्त सकती हैं।'संक्रांति' हमारी भारतीय संस्कृति की सुकोमल मिठास को अभिव्यक्ति देती एक बहुत ही खूबसूरत कथा है।
'चेतना शून्य' में दो नारी व्यक्तित्वों को उकेरा गया है, एक माँ है जो अंतर्मुखी है और उसी भाव से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ बेटी के परवरिश में अपने जीवन की आहुति देती है । यहाँ माँ से इतर बेटी का उन्मुक्त जीवन देख घरेलू माँ का चेतना शून्य होना स्वभाविक है । चंद पंक्तियों में यह स्त्री-विमर्श से जुड़ा हुआ बहुत बडा मुद्दा है। चिंतन-मनन के लिए परिदृश्य का वृहत विस्तार है। 'हवा का रुख' में 'सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख' को झकझोरता है। इस सकारात्मक कथा पाठकों को अभिभूत करती है। 'प्यार का संसार' में भाईचारे का ऐसा मार्मिक-जिवंत दृश्य है कि पाठक का मन भीतर तक भीग जाता है।
'अविश्वासी मन' में रुपयों का घर में और और सास पर शक करने को इतनी सहजता से आपने वर्णित किया है कि सच में अपने अविश्वासी मन पर ग्लानी होती है। 'अनुभूति' में आपने अंगदान की महत्ता दर्शाता कथ्य दिया है।
'कल का छोकरा' में बच्चे की संवेदनशीलता वर्णित है। बच्चे जिन पर यकीन करने में हम बड़े अकारण हिचकिचाते है, को सकारात्मक सन्देश के साथ शब्दित किया गया है।
निष्कर्षतः, 'आदमी ज़िंदा है' की लघुकथाओं में संकेत व अभिव्यंजनाओं के सहारे गहरा व्यंग्य छिपा मिलता है जिसका प्रहार बहुत तीखा होता है। सार्थकता से परिपूर्ण सलिल जी की इन लघुकथाओं में मैंने हरिशंकर परसाई खलील जिब्रान, मंटो, कन्हैया लाल मिश्र, हरिशंकर प्रसाद, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ तथा जयशंकर प्रसाद की लघुकथाओं की तरह दार्शनिक व यथार्थवादी छवि को आभासित पाया है। बुन्देली-माटी की सौंधी खुशबू रचनाओं में अपनत्व की तरावट को घोलती है। सलिल जी के इस लघुकथा संग्रह में वर्तमान समाज की धड़कनें स्पंदित हैं। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस लघुकथा संग्रह पूर्ण अपनत्व के साथ स्वागत होगा तथा सलिल जी भविष्य में भी लघुकथा विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
एफ -२, वी-५ विनायक होम्स श्रीमती कान्ता राॅय
मयूर विहार, अशोका गार्डन भोपाल - 462023
मो .9575465147 roy.kanta69@gmail.com

रविवार, 14 मार्च 2021

समीक्षा पथ का चुनाव कांता राॅय

 
समीक्षा
पुस्तक - पथ का चुनाव
लेखिका - कांता राॅय
प्रकाशक -ज्ञान गीता प्रकाशन
पृष्ठ संख्या - 165
हार्डबाऊँड
मूल्य-395:00 रुपए
आई.एस.बी.एन. : 978-93-84402-98-3
बसंत ऋतु में खिले विभिन्न रंगों के पुष्प अपनी -अपनी विशिष्ट सुगंध से महकते हैं ठीक उसी प्रकार कांता जी की लघुकथा संग्रह 'पथ का चुनाव ' अपने में एक सौ चौंतीस लघुकथाओं के जरिए मानवीय संवेदनाओं को समेटने में सक्षम जान पड़ती है।
लघुकथा उस बंद कली के सदृश है जो अपने अंदर खुश्बू अर्थात मानवीय भावों व संवेदनाओं को समेटे तथा अनेक संभावनाओं जन्म देने की क्षमता रखती है और सीमित आकार मे बहुत कुछ समेटते हुए तेज चुभन दे जाती है। ये वर्णनात्मक शैली और संवादों के माध्यम से कही जाती है।इसमें पल विशेष को संकोच के संपूर्णता लानी होती है और व्यर्थ के वर्णन से बचना होता है।पूर्व से आज लघुकथा ने अनेक पड़ाव पार करते हुए अपना रूप -रंग निखार कर कामयाब हो चहुँ ओर अपना परचम लहरा रही है।
कांता रॉय मैथिली भाषा की होते हुए भी हिन्दी साहित्य के लघुकथा के क्षेत्र में अपनी रचनाओं द्वारा एक मुकाम हासिल किए हुए हैं ।
उनके माध्यम से मैंने लघुकथा की बारीकीयाँ सीखीं।
उनका पहला लघुकथा संग्रह ' घाट पर ठहराव कहाँ ' पढ़ी मुझे अच्छी लगी और अब उसका अनुवाद पंजाबी भाषा में कर रही हूँ।
'पथ का चुनाव' अधिक परिष्कृत हो कर पाठकों के समक्ष आई है। कांता रॉय को मैंने हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल के माध्यम जान पायी।वे मेरी मार्गदर्शिका भी है और सखी भी।
आधुनिक दौर लक्ष्य के सम्मुख दृढ़ संकल्प की लालच के समक्ष हार को बड़ी सहजता से 'लक्ष्य की ओर' में मानवीय संवेदनाओं के उतार - चढ़ाव को सरलता के उकेरा गया है। 'मवेशी' में मज़दूर की व्यथा के साथ - साथ 'आवेश' भी पीछे नहीं रहता और बहुत कुछ चुपके से कह जाता है। 'गरीबी की धुंध में' आदमी न चाहते हुए भी लाचारी से कितना मजबूर हो जाता है दूसरी तरफ हिम्मत और हौसले की तस्वीर से पाठक 'उड़ान का बीज' भावी पीढ़ी के लिये बो जाता है। 'पैंतरा' के माध्यम से आदमी के बदलते व्यवहार पर करारा कटाक्ष किया है। 'ओछी संगत' अपनी महत्ता के लिए तटस्थता से खड़ी जान पड़ती है।
'भूख' के साथ - साथ मानवीय संवेदनाओं को 'घर के भगवान' में सफलता से स्पष्ट किया है। गाँव से निकले नवयुवक के सपनों के 'मोह पाश' को भंग होते देख उसके सपने अंदर तक साल जाते हैं। संवेदनाओं को अपने अंदर ही समेटने को मजबूर हो 'मौन' रहना ही उचित लगता है।
'रामअवतार' में आदमी के शातिर दिमाग की दाद देनी पड़ेगी। 'गरीबी का फोड़ा' और 'मुर्दे की शोभा' से 'बेरोजगारी' भी अपना कमाल दिखलाने में पीछे नहीं रहती।
'ठठरी पर ईमानदारी' की जीत का परचम बड़ी शान से लहरा रहा है।आधुनिक युग में बच्चे द्वारा पिता को 'गरीब की परिभाषा' समझाने पर बेचारे पिता के पास आँखें चुराने के सिवा कोई चारा नहीं बचता ।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे को चरितार्थ कर करते हुए 'किसान ' सफल सिद्ध हुई है। मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख कर बयान करती 'श्राद्ध' मानवीय मनोवृत्ति पर करारी चोट करे बिना नहीं रहती। 'मेंटर' में लेखिका ने सुगंधा की मेहनत व लगन को परे धकेलते हुए डंडे के असर को प्रमुखता देती बताया है।जोकि गलत है। 'जरसी में दरख्त' फौजी जीवन को प्रेरित करती लघुकथा पाठक मन को उद्देलित किए बिना नहीं रहतीl
आज हर आदमी स्टेज पर भाषण दे रहा है या कथा कहानी में बखान कर रहा है व नारी को देवी तुल्य प्रतिष्ठित करने में लगा है। लेकिन यदि उससे भी पूछा जाय तो उसके स्वयं के घर में नारी की दशा में कोई परिवर्तन नहीं आयाl जैसा कि 'पुतले का दर्द' में नारी को मानव इकाई मानने को चुपके से घी चावल में कुनैन की गोली परोस दी गई हो। आधुनिक विचारों को सहेजने वाली के अंधे प्यार को नकारता 'बैकग्राउंड' है। 'जोगनिया नदी' से उठने वाले धुएँ ने नायिका का दिल भारी कर और पुरानी यादें उसके दिल का दर्द बनकर का दिल भी भारी कर देती हैl 'पतिता' में नारी पुरुष की बराबरी करती नज़र आती हैl समाज में व्याप्त विभिन्न के बीच कुछ 'आदर्श ' चेहरे अपनी उपस्तिथि दर्ज कराते अच्छे लगे l
आज की नारी बड़ी सहजता से चुनौती सोच विचार के पश्चात् अपने 'पथ का चुनाव' कर रही हैl औरत ने अपने 'प्यार' को जिन्दगी से जोड़ कर बहुत सार्थक कार्य को अंजाम दिया हैl 'विष वमन' कथा सुषमा के प्रति व्यवहार हद तक अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप करारा जवाब दिया। यहाँ तक की परुष प्रताड़ित नारी की चर्चा तो सर्वव्यापी है पर ऐसी 'सुरंग' में नारी है जो पुत्र द्वारा यदा कदा गुस्सा आने पर पीट दी जाती हैl उसके द्वारा होने वाली बहू से पूछ बैठती है कि तुम लव इन रिलेशन में रह लो जिसे देख नायिका के साथ - साथ का आवाक रह जाता है l वहीं 'मैसी' एक करारा व्यंग हैl हिम्मत और हौंसले का जीता जागता सबूत लेखिका ने 'उड़ान का बीज' में दिया हैl जहाँ एक छोटी सी चींटी भी कम नहीं हैl
गरीबी में कुण्ठित सौंदर्य अनेक कल्पनाओं के गड़ को इंगित करती लघुकथा 'मक्खन जैसे हाथ' सार्थक बन पड़ी है l अपराध बोध ग्रसित 'रक्तिम मंगल सूत्र' पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है गरीबी और नारी सुरक्षापर चिंता भी व्यक्त करती हैl प्रेम की जीत की ओर इंगित करती 'तुम्हारा हक' हकदार तक पहुंचाती मार्मिक लघुकथा मन को उद्देलित किए बिना नहीं रहतीl 'टी-२०' में नारी के जीवन का ससुराल में क्रिकेट मैदान की तरह सामांजस्य बिठाती कथा सार्थक जान पड़ती है l
'रिश्ते की जकड़' प्रेम की हार को बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया है l 'काँपते पत्ते' में नारी की मनोदशा किसी से छिपी नहीं है। अल्बर्ट के 'वायलन की धुन' नारी के मनोभावों पर मलहम लगाती सी जान पड़ती है । यहाँ तक कि अतीत के साए में भी अछूते न रह सका बूढ़े जहन में जीवन साँझ तक सहेजे जान पड़ते हैं। प्यार की इंतहा तो तब हो जाती है जब 'महकती खामोशी ' अगाध प्रेम की परिभाषा बन जाती है। इसी बीच 'अवलंब ', 'जोगी का जोग', 'फासले' अपने आप में गहरे अर्थ समेटे हुए है वहीं 'कुँवारी के कितने वर' एक विडंबना-सी जान पड़ती है।
'कलेजे पर ठुकी हुई कील' भी नासूर सा दर्द चुपके से दे जाती। नारी को अपनी संवेदनाओं को समेटते हए 'मौन' रहना ही उचित जान पड़ता है। ' प्रायश्चित ' के माध्यम के शीलो के मन में उपजे प्रेम बीज को समाज के ठेकेदरों ने पनपने पर गाँव की चौपाल पर पंचों के बीच पंचगव्य खाने को विवश कर दिया। नारी जीवन में विसंगति स्वरूप 'सिगरेट ' साबित करती है मौके की जीत को। जहाँ नायिका ने छुपकर सिगरेट पीना मुनासिब समझा। ठंडे पड़े रिश्तों की दुहाई देती लघुकथा 'ठंडी आँखें' पाठको को विशेष चिंतन देतीहै । साथ ही 'प्रेम विवाह' के पारिवारिक भोज में कुछ अकल्पनीय व आकातस्मिक बहुत घट जाता है जो पाठकों को अंदर तक हिला जाता है। जो की समाज में यदा - कदा घटता दीख पड़ता है।
'कैक्टस के फूल ' आज के दौर में सशक्त व अनूठी कृति है।इसी कड़ी में 'हड्डी' नायिका के गले में फँसने पर उसके द्वारा बड़ी चतुराई से निकालने पर पाठक भी अचंभित हो जाते हैं। 'मिलन' के अनूठेपन के साथ 'बहकते गुलाल का ठौर' पाठकों को मिल जाता है साथ गुलाल को भी। 'भरोसा तो है पर......' में नायिका ने अविश्वास को पुष्ट करती कथा ने उसका साथ खूब निभाया ।अविश्वास पर आधारित 'अधजली' भी विश्वास न कर पाई।
'कस्तूरी -मृग ' में लेखिका ने बड़े सलीके से आज कल हो रहे जल्दी -जल्दी तलाक़ व पछतावे को इंगित करती लघुकथा खूबसूरत बन पड़ी है 'शक ......एक कश्मकश ' की तरह आज भी समाज में शक से पनपने वाली समस्याएं विद्वमान हैं। मन पवित्र हो पर देह के संबध में समाज की निगाहों से आहत होती नारी हिम्मत से 'नई राह' चुनती है ।'छुटकारा ' इसी कड़ी की सुंदर कृति है। 'आस का सूरज ' जहाँ चाह वहाँ राह ' सही साबित करता है।
कभी -कभी नारी ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो उसे कतई मंजूर नहीं होते पर जायदाद के कागज़ात पर अंगूठा लगाते ही माँ को नीली स्याही से भरी दवात पर नजर पड़ते ही 'नीली स्याही का साँप' रेंगता दिखाई पड़ता है। माता -पिता के सामने हुए बँटवारे का दंश उनको दीवार के इस पार और उस पार रह कर सहना पड़ता है।लेकिन वो भूल जाते हैं कि ' दीवार के कान' भी होते हैं। वहीं पारिवारिक प्राथमिकता के दर्शन ' परिवार ' में स्पष्ट दिखते हैं ।
न्यू इयर पार्टी में अपने-अपने ढँग को व्यक्त करती लघुकथा ' स्पेशल सेलिब्रेशन ' की भी सच्चाई बयान करती है । ' मोहना की बीबी ' सामाजिक प्रसांगिकता प्रस्तुत करती है। माँ बेटे के मिलन की लाजवाब लघुकथा ' नीरजा ' अपने आप में लघुकथा के क्षेत्र में सुनहरे हस्ताक्षर हैं ।
हमारे परिवेश में ' बदलती तस्वीर ' ने बड़ी खूबसूरती से बाप -बेटे के परिस्थिति के बदलते ही आपस में बदलते व्यवहार को बड़ी नजाकत से दर्शाया है। ' गरीब होने का सुख ' बड़ी चतुराई से बांचा गया है कि पाठक भ्रमित हुए बिना नहीं रहता।
सिक्के के दूसरे पहलू मे ' टपरे पर छप्पर ' को घोड़े लीद पर कुकरमुत्ते के समान बताया। आज हमारी बेटी जागरुक होकर सोचती है कि ' अस्तित्व की स्थापना के लिये हमेंशा प्रयासरत रहना चाहिये। 'अनपेक्षित' में नायिका की सोच कि माँ ने काश उसके सुनहरे भविष्य के लिए पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दिया होता बनिस्बत विवाह की चिंता में किए गये उपाय के। वहीं एक अपवाद स्वरूप पिता बेटी को पढ़ाने के बजाय शेयर में लगाने हेतु 'जोड़ का तोड़' को समझता है।
'स्पर्श ' पुरुषों की मानसिकता को दोहराती सी दीख पड़ती है यहाँ तक की इंटरव्यू देने गई लड़की भी पुरुष के मनभावों को पड़ने में कहाँ गलती नहीं करती ।
कहीं -कहीं लड़की सब लोकलाज भूलकर स्वयं ही लड़के के दरवाज़े 'न डोली न कहार' के बिना ही आ धमकती है। वहीं 'निरमलिया' में नायिका सरल शब्दों में मोहना से अपनी शादी की बात अपनी शर्तों पर रख कर साबित करती है कि आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है, तो कहीं 'माँ विहिना' बेटी अपने पिता के साये में सामजिक तानों के बीच माँ के प्यार को तरसती है। 'गरीब परमात्मा' में हमारे बच्चे अभी भी हमारे संस्कारों से जुड़ें नजर आते हैं। वहीं आपसी भाईचारे का संदेश देते हैं 'मोहम्मद -नारायण' जी वहीं 'ठठरी पर ईमानदारी' की जीत का परचम बड़े जोर शोर से लहराया गया है।
'कुम्हारी ' भी हमारे संसकारों पर चोट करने में पीछे नहीं रहती। कहीं -कहीं अपवाद स्वरूप अविभाकों द्वारा
बच्चे की पढ़ाई की महत्ता को नगन्य गिनना और काम को प्राथमिकता देना 'लायक' लघुकथा पाठक का मन भर आता है।
संयुक्त परिवार के महत्व को 'यथार्थ बोध' में बाखूबी दर्शाया गया है। वहीं दूसरी तरफ 'अपडेट' के माध्यम से परिवार के सिकुड़ते रिश्ते अब अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं। उन्हें एक वक्त़ भी अपने परिवार के साथ बैठकर कर खाना खाना मंजूर नहीं। इसी के चलते भी कुछ ऐसे किरदार भी हैं 'जीजी, मैं और डायरी ' भाई -बहन के अमिट प्यार की छाप पाठकों के दिल पर पड़ती है।
हमारा अनुमान हमेशा सही हो ये जरूरी नहीं 'पूछताछ' करने पर साबित हो जाता है। 'बदनाम रिश्ते ' इसी बात का सबूत है। गली के बीच 'खुन्नस की लात' का असर जानने को हमेशा आतुर रहेंगे ।
अचंभित करने वाली लघुकथा ' बड़ा व्यापारी ' में बेटी ने व्यापारी के बेटे से शादी करके बड़े व्यापारी को अपनी अक्ल से दाद दे दी।वहीं 'किसान' ने पर उपदेश कुशल बहुतेरे को बाखूबी चरितार्थ किया है।
जाति-पात के भेदभाव को मिटाती 'निर्माल्य ' वर्णनात्मक शैली में सफलता प्राप्त करती है।
सरकारी वादों की पोल खोलती 'कागज़ का गाँव ' सच का बयान करती है। ' विष वमन ' नाटकीय ढंग सेब पाठकों को प्रभावित करती है।
समाचार एजेंसियों का सच 'तलाश एक खास खबर की' में जान कर पाठकवर्ग दाँतों तले अंगुली दबा लेता है। 'कैरियर की कीमत' में पाठकों को दृढ़ निश्चय पलता नज़र आया है। राजनीति के कारनामों को 'भिखमंगा कहीं का' उजागर करने में लघुकथा सफल हुई है। 'साँसों का कैदी' बेरोजगारी की समस्या का ज्वलन्त उदाहरण है। एक तरफ विदेश पढ़ने गए हैं बच्चों का वहीं बसने का समाचार इंतज़ार करती माँ को 'थरथराती बाती' सांत्वना दे पाती कि पाठकवर्ग महसूस कर द्रवित हुए बिना नहीं रह पाता। वहीं घर का मुखिया अपने 'घर की बात' छुपाने का फरमान बड़ी खूबसूरती से दे देता है ।
राजनौतिक क्षेत्र में अंततः 'प्रजातंत्र' अपना असली चेहरा दिखा ही देता है। राजतंत्र पर कटाक्ष करती 'अपना काम बनता' तथा 'सिटी अॅाफ जाॅय ' में गरीब रिक्शेवाले को रिक्शा चलाने पर प्रतिबंध की सूचना से विचलित होनेवाली मनस्थिति तथा अंतर्द्वंद को भलीभाँति दर्शाया गया है। 'वैल मेंटेंड' के अर्थ को सार्थक कर पेड़ पौधों से विहीन धरती सिर्फ चमकदार हाथों में लिये आॅक्सीजन को तरसती जान पड़ती है
'अंधेरों के वजूद ' ने एक बार फिर अंधे कानून की जय कर दी।कीचड़ में सना गुनाहों का देवता अपना प्रकाश फैलाता रहा।
आज हम देखें तो शिक्षा के क्षेत्र में साफगोई नहीं रही। 'डोनेशन' आज भी अमीरों की बैसाखी बनी हुई है।
लेखिका की लघुकथाओं के कथानक अपने शीर्षक को सार्थक करते हैं।क्या राजनीति़क क्षेत्र, पारिवारिक समस्या, समाज में नारी की स्थिती के भिन्न रूप आशा- निराशा से गुजरती हुई का वर्णन किया है। लघुकथा की प्रमुख कसौटी पल विशेष की पकड़ मजबूत है और लघु कलियाँ अपनी -अपनी विशेष सुगंध ,आकार-प्रकार,विविधता बिना काल दोष के महकती चहकती पाठकवर्ग को लुभा लेती हैं।
सारे कथानक हमारे रोजमर्रा के जीवन से प्रभावित हैं चाहे लक्ष्य का टूटता संकल्प हो या पथ के चुनाव का सवाल हो। भोपाल अपनी जानी मानी मकरंद व खुशबू समेटे कमल के समान लेखिका के जहन अभी भी मौजूद है हर कथानक अपने -रंगों व अपनी विशेष खुशबू हर पृष्ठ पर बिखेर रहा है। जिससे पाठकवर्ग अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। लघुकथाओं के सीमित पात्रों ने अपनी गरिमा को बनाए रखा। अपने मनोभावों को अनुकूल भाषा से प्रेक्षित किया। लेखिका ने अपनी लघुकथाओं में धरती, आकाश, पहाड़, देवदार के पेड़ों और चाँद सितारे तथा उनके मनोभावों 'मिलन' में बड़े ही सरल भाव से परिभाषित कर लघुकथाओं मे चार चाँद लगा दिए ।
प्रस्तुत लघुकथाओं की भाषा पात्रानुकूल है। इंग्लिश शब्दों का जैसे स्ट्रीट लाइट, काॅलम , न्यू इयर सैलिब्रेशन आदि। हिन्दी के सरल शब्दों का प्रयोग , युग्मक शब्द भी जैसे जीव -जंतु , पाई- पाई, छोटे - छोटे , संग-संग , लेन - देन आदि का प्रयोग बड़ी कुशलतापूर्वक किया है।कुछ लघुकथाएँ बड़ी पर सीमित वर्णनात्मक शैली में भी दीख पड़ती हैं। कुछ संवादात्मक शैली में अपना पूर्ण प्रभाव पाठकों पर डालती है ।
'कुम्हारी' कम संवाद और अधिक वर्णन वाली लघुकथा है। 'दीवार के कान' सबसे छोटी पर सबसे अधिक चुभने वाली संभावनाएँ जगाने वाली है। 'तलाश एक खास खबर की ' संवाद शैली में पाठकों पर अपना प्रभाव डालने में समर्थ है।
कुल मिलाकर 'पथ का चुनाव' अपनी लघुकथाओं की बसंत ऋतु में फूलों की चतुरंगी सुना पाठकों पर सुगंध फैलाने में कामयाब हो अपने पथ का चुनाव करने में आशातीत सफलता प्राप्त करती है । यह पुस्तक पढ़ने व सहेजने की पात्रता रखती है।ये अपनी आंतरिक व बाहरी साज-सज्जा से पाठकों का मन मोह लेती है।
भुपिंदर कौर
36प्रकाश नगर,बिजली कालोनी भोपाल (म.प्र)