विचित्र किन्तु सत्य :
मुक्तिका:
मैंने भी खेली होली
संजीव 'सलिल'

*
फगुनौटी का चढ़ गया, कैसा मदिर खुमार।
मन के संग तन भी रँगा, झूम मना त्योहार।।
मुग्ध मयूरी पर करूँ, हँसकर जान निसार।
हम मानव तो हैं नहीं, जो बिसरा दें प्यार।।
विष-विषधर का भय नहीं, पल में कर संहार।
अमृतवाही संत सम, करते पर उपकार।।
विषधर-सुत-वाहन बने, नील गगन-श्रृंगार।
पंख नोचते निठुर जन, कैसा अत्याचार??
****
मुक्तिका:
मैंने भी खेली होली
संजीव 'सलिल'

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फगुनौटी का चढ़ गया, कैसा मदिर खुमार।
मन के संग तन भी रँगा, झूम मना त्योहार।।
मुग्ध मयूरी पर करूँ, हँसकर जान निसार।
हम मानव तो हैं नहीं, जो बिसरा दें प्यार।।
विष-विषधर का भय नहीं, पल में कर संहार।
अमृतवाही संत सम, करते पर उपकार।।
विषधर-सुत-वाहन बने, नील गगन-श्रृंगार।
पंख नोचते निठुर जन, कैसा अत्याचार??
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