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बुधवार, 24 सितंबर 2025

सितंबर २४, पूर्णिका, चीटी धप, बाल गीत, पञ्चचामर, कवित्त, छंद, मुक्तक, गीत, हिंदी गजल

सलिल सृजन सितंबर २४
*
हिंदी गजल 
देख उसको जी गए हम
विष अमिय कह पी गए हम
जान लेती अदा फिर भी 
होंठ अपने सी गए हम  
० 
केश लट चंचल-चपल है  
छाँह पाकर जी गए हम 
० 
खान है मुस्कान रस की
रास करने भी गए हम 
० 
'सलिल' वाणी मखमली मृदु 
श्रवण करते ही गए हम 
००० 
हिंदी गजल 
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
००० 
हिंदी ग़ज़ल
जान लेकर जान बोले जानदार
मान छीने या खरीदे मानदार
हो रहा बहरा खुदा सुन शोरगुल
कान फोड़े तान लेकर तानदार
पढ़ सुने कोई सराहे या नहीं
शायरी कर कहे शायर शानदार
आदमी को आदमी मुर्गा बना
कान खींचे जो नहीं क्या कानदार?
पीक पिचकारी चलाकर कर रहा
रंग हर बदरंग नादां पानदार
बड़े से खा लगाकर छोटे को लात
मूँछ ऐंठे जो वही है थानदार
'सलिल'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने
बेचता ईमान नित ईमानदार
०००
हिंदी ग़ज़ल
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
२४-९-२९१५   
***
पूर्णिका
हिंदी पढ़ो हिंदी लिखो हिंदी कहो
सत्य-शिव-सुंदर हमेशा ही तहो
खड़े रहना आपदा में सीख लो
देखकर तूफान भय से मत ढहो
मित्रता का अर्थ पहले जान लो
मित्र के गुण-दोष सम अपने सहो
अंजली में सुरभि सुमनों की लिए
नर्मदा बन नेह की कलकल बहो
शिष्टता-शालीनता गहने पहन
दृढ़ रखो संकल्प किंतु विनम्र हो
२४.९.२०२४
•••
पुरोवाक्
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को 'दोष रहित गुण सहित रचना' (मम्मट), 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक' (जगन्नाथ), 'लोकोत्तर आनंददाता' (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो ), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद- अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ह्रदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने ह्रदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुत: कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु
बाबू गुलाबराय के अनुसार 'काव्य हेतु' काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। डंडी ने प्रतिभा,ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व् हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा ८ काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है।कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन
सामान्यत: काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हुए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना 'वह तोड़ती पत्थर' साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर। .....
..... एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
मेरे काव्य संकलन 'मीत मेरे' में एक कविता है 'पाषाण पूजा' जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण ह्रदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो। ......
.....वही पत्थर ह्रदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
ह्रदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। 'पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना' कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने 'जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर' न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
'कंकर-कंकर में शंकर' और 'कण-कण में भगवान' देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
'कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को' कहती हुई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी 'कैस' (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है -
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है , यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है -
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं ,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं -
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं -
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोइ सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है -
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति ४० कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यत: किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं।कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हुए 'ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार' प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
२४-९-२०२०
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.कॉम
==============
बाल गीत
*
आओ! खेलें चीटी धप
*
श्रीधर स्वाती जल्दी आओ
संग मंजरी को भी लाओ
मत घर बैठ बाद पछताओ
अंजू झटपट दौड़ लगाओ
तुम संतोष न घर रुक जाओ
अमरनाथ कर देंगे चुप
आओ! खेलें चीटी धप
*
भोर हुई आलोक सुहाया
कर विनोद फिर गीत सुनाया
राजकुमार पुलककर आया
रँग बसंत का सब पर छाया
शोर अनिल ने मचल मचाया
अरुण न भागे देखो छुप
आओ! खेलें चीटी धप
***
भावानुवाद
*
ओ मति-मेधा स्वामिनी, करने दो तव गान।
भाव वृष्टि कर दो बने, पंक्ति-पंक्ति रसवान।।
पंथ प्रकाशित कर सदा, दिखाती हो राह।
दोष हमारे मेटतीं, जिस पल लेतीं चाह।।
मिले प्रेरणा सभी को, लें सब बाधा जीत।
प्रीत तुम्हारी दिन करे, मिटा रात की भीत।।
लोभ मोह मत्सर मिटा, तुम करती हो मुक्त।
प्रगट मैया दर्श दो, नतमस्तक मैं भुक्त।।
***
छंद पञ्चचामर
विधान - जरजरजग
मापनी - १२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
*
कहो-कहो कहाँ चलीं, न रूठना कभी लली
न बोल बोल भूलना, कहा सही तुम्हीं बली
न मोहना दिखा अदा, न घूमना गली-गली
न दूर जा न पास आ, सुवास दे सदा कली
२४.९.२०१९
***
कवित्त
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए।
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
२४-९-२०१६
***
नवगीत
*
कर्म किसी का
क्लेश किसी को
क्यों होता है बोल?
ओ रे अवढरदानी!
अपनी न्याय व्यवस्था तोल।
*
क्या ऊपर भी
आँख मूँदकर
ही होता है न्याय?
काले कोट वहाँ भी
धन ले करा रहे अन्याय?
पेशी दर पेशी
बिकते हैं
बाखर, खेत, मकान?
क्या समर्थ की
मनमानी ही
हुआ न्याय-अभिप्राय?
बहुत ढाँक ली
अब तो थोड़ी
बतला भी दे पोल
*
कथा-प्रसाद-चढ़ोत्री
है क्या
तेरा यही रिवाज़?
जो बेबस को
मारे-कुचले
उसके ही सर ताज?
जनप्रतिनिधि
रौंदें जनमत को
हावी धन्ना सेठ-
श्रम-तकनीक
और उत्पादक
शोषित-भूखे आज
मनरंजन-
तनरंजन पाता
सबसे ऊँचे मोल।
***
मुक्तक
'नहीं चाहिए' कह देने से कब मिटता परिणाम?
कर्म किया जिसने वह निश्चय भोगेगा अंजाम
यथा समय फल जीव भोगता, अन्य न पाते देख
जाने-माने समय गर्त में खोते ज्यों गुमनाम
*
तन धोखा है, मन धोखा है, जीवन धोखा है
श्वास, आस, विश्वास, रास, परिहास न चोखा है
धोखे के कीचड़ में हमको कमल खिलाना है
सब को क्षमा कर सकें जो वह व्यक्ति अनोखा है
*
कान्हा कहता 'करनी का फल सबको मिलता है'
माली नोचे कली-फूल तो, आप न फलता है
सिर घमण्ड का नीचा होता सभी जानते हैं -
छल-फरेब कर व्यक्ति स्वयं ही खुद को छलता है .
*
श्रेष्ठ न खुद को कभी कहा है, मान लिया हूँ नीच
फेंक दूर कर, कभी नहीं आने दें अपने बीच
नफरत पाल किसी से, खुद को नित आहत करना
ऐसा जैसे स्नान-ध्यान कर फिर मल लेना कीच
*
कौन जगत में जिसने केवल अच्छा कार्य किया?
कौन यहाँ है जिसने केवल विष या अमिय पिया?
धूप-छाँव दोनों ही जीवन में भरते हैं रंग
सिर्फ एक हो तो दुनिया में कैसे लगे जिया?
***
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
२४-९-२०१६
***
नवगीत २
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
***
नवगीत:
*
पानी-पानी
हुए बादल
आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल
कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर
तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर
त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल
जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और
खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल
२४-९-२०१४
***
द्विपदी
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२४-९-२०१०

***

मंगलवार, 24 जून 2025

जून २४, स्मृति गीत, पिता, बरगद, मिट्टी, हाइकु, प्रमाणिका, पञ्चचामर, चौपदा, भटकटैया, छंद,

सलिल सृजन जून २४
उड़न तश्तरी दिवस 
*
चौपदा
भटकटैया

सुमिर भटकटैया सहे दर्द सारे हमने विहँसकर न शिकवा किया है।
उगे धूल में भी, खिले शूल में भी, किए फूल अर्पित न किंचित गिला है।।
रहा धैर्य हमदम, तजा वैर्य हर दम, बहन ने कुचल बंधु-मंगल मनाया-
किसी के कभी तो कहीं काम आया, किया जन्म सार्थक सलिल शुक्रिया है।।
२४-६-२०२५
०0०
कवि और कविता : सरला वर्मा
सर ला दें भजकर भजन, अंजलि में भर आज।
निशि-दिन मन संजीव हो, संगीता हर काज।।
*
योग किया; व्यय रोककर, गुना किया दिन-रात।
भाग भाग से; भाग पा, भाग मिली सौगात।।
*
बुक बुटीक में कर दिया, दिल सुशील के नाम।
दम दे जमीं दमोह में, रूचि बैठी सिर थाम।।
*
चेले केले खा रहे, छिलके ले आचार्य।
मौन हुए संतोष कर, उमा सधे सब काज।।
*
पहली-अंतिम शादियाँ, गई व्यवस्था टूट।
शिखा भूमि पर व्यवस्था, कर दी बैठ अटूट।।
*
विद्या रेखा खींच दे, गुरु मंजरी ललाम।
संत जयंत बसंत की, शैली काम अकाम।।
*
आकांक्षा इंद्रा-दया, ऋचा स्मिता रवींद्र।
बने वसीयत कमल की आभा-विभा कवीन्द्र।
*
वेद वंदना शशि करें, छाया वसुधा साथ।
माया-गीता शालिनी, मौली थामे हाथ।।
*
शंभु नाथ आशीष दें, आस्था रहे अभंग।
भावुकता के भाव को, देखे दुनिया दंग।।
*
गुडविल में गुड बिल छिपा, वर्षा कर भुगतान।
दिल मजबूत करो सलिल, तभी बचेगी आन।।
*
हँसी लबों पर हो सदा, चेहरे पर हो ओज।
माथे पर सूरज सजे, दे खुशियों को भोज।।
२४-६-२०२२
***
कृति चर्चा:
'पराई जमीन पर उगे पेड़' मन की तहें टटोलती कहानियाँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: 'पराई जमीन पर उगे पेड़, कहानी संग्रह, विनीता राहुरीकर, प्रथम संस्करण, २०१३, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १७८, मूल्य २५०/-, अरुणोदय प्रकाशन, ९ न्यू मार्किट, तात्या टोपे नगर भोपाल, ९१७५५२६७३६२४]
*
मनुष्य के विकास के साथ ही कहने की कला का विकास हुआ। कहने की कला ने विज्ञान बनकर साहित्य की कई विधाओं को जन्म दिया। गद्य में कहानी, भाषण, लघुकथा, परिचर्चा, साक्षात्कार, व्यंग्य, संस्मरण, चर्चा, संगोष्ठी आदि और पद्य में गीत, भजन आदि कहने की कला के विधिवत विकास के ही परिणाम हैं। कहानी वह जो कही जाए। कही वह जाए जो कहने योग्य हो। कहने योग्य वह जो किसी का शुभ करे। सत्य-शिव-सुन्दर की प्रस्तुति भारतीय वांग्मय का आदर्श है। साम्यवादी यथार्थवादी विडंबनाओं और विसंगतियों या पाश्चात्य विलासितापूर्ण लेखन को भारतीय मनीषा ने कभी भी नहीं सराहा। भारत में काम पर भी लिखा गया तो विज्ञान सम्मत तरीके से शालीनतापूर्वक। सबके मंगल भाव की कामना कर लिखा जाए तो उसके पाठक या श्रोता को अपने जीवन पथ में जाने-अनजाने आचरण को संयमित-संतुलित करने में सहायता मिल जाती है। सोद्देश्य लेखन की सकारात्मक ऊर्जा नकारात्मक ऊर्जा का शमन करती है।
युवा कहानीकार विनीता राहुरीकर के कहानी संग्रह 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' को पढ़ना जिंदगी की रेल में विविध यात्रियों से मिलते-बिछुड़ते हुए उनके साथ घटित प्रसंगों का साक्षी बनने जैसा है। पाठक के साथ न घटने पर भी कहानी के पात्रों के साथ घटी घटनाएँ पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। वह तटस्थ रहने का प्रयास करे तो भी उसकी संवेदना किसी पात्र के पक्ष और किसी अन्य पात्र के विरुद्ध हो जाती है। कभी सुख-संतोष, कभी दुःख-आक्रोश, कभी विवशता, कभी विद्रोह की लहरों में तैरता-डूबता पाठक-मन विनीता के कहानीकार की सामर्थ्य का लोहा मानता है।
विनीता जी की इन कहानियों में न तो लिजलिजी भावुकता है, न छद्म स्त्री विमर्श। ये कहानियाँ तथाकथित नारी अधिकारों की पैरोकारी करते नारों की तरह नहीं हैं। इनमें गलत से जूझकर सुधारने की भावना तो है किन्तु असहमति को कुचलकर अट्टहास करने की पाशविक प्रवृत्ति सिरे से नहीं है। इन कहानियों के पात्र सामान्य हैं। असामान्य परिस्थितियों में भी सामान्य रह पाने का पौरुष जीते पात्र जमीन से जुड़े हैं। पात्रों की अनुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर पाठक उन्हें अपने जीवन में देख-पहचान सकता है
विनीता जी का यह प्रथम कहानी संकलन है। उनके लेखन में ताजगी है। कहानियों के नए कथानक, पात्रों की सहज भाव-भंगिमा, भाषा पर पकड़, शब्दों का सटीक उपयोग कहानियों को पठनीय बनाता है। प्राय: सभी कहानियाँ सामाजिक समस्याओं से जुडी हुई हैं। समाज में अपने चतुर्दिक जो घटा है, उसे देख-परखकर उसके सकारात्मक-नकारात्मक पक्षों को उभारते हुए अपनी बात कहने की कला विनीता जी में है। विवेच्य संग्रह में १६ कहानियाँ हैं। कृति की शीर्षक कहानी 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' में पति-पत्नी के जीवन में प्रवेश करते अन्य स्त्री-पुरुषों के कारण पनपती दूरी, असुरक्षा फिर वापिस अपने सम्बन्ध-सूत्र में बँधने और उसे बचाने के मनोभाव बिम्बित हुए हैं। वरिष्ठ कथाकार मालती जोशी ने इस कहानी में प्रयुक्त प्रतीक के बार-बार दूहराव से आकर्षण खोने का तथ्य ठीक ही इंगित किया है। अपने सम्बन्ध को स्थायित्व देने और असुरक्षा से मुक्त होने के लिए संतति की कामना करना आदर्श भले ही न हो यथार्थ तो है ही। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु के जन्म से दाम्पत्य को स्थायित्व मिलता है।
वैभवशाली पति को ठुकरानेवाली 'ठकुराइन' दिवंगता सौतन के पुत्र को अपनाकर गरीबी में किन्तु स्वाभिमानपूर्वक जीवन गुजारती है। यह चरित्र असाधारण है। 'वट पूजा' कहानी में एक दूसरे को 'स्पेस' देने के मुगालते में दूर होते जाने की मरीचिका, अन्यों के प्रति आकर्षण तथा समय रहते अपने नैकट्य स्थापित कर संबंध को पुनर्जीवित करने की ललक स्पन्दित है। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की चाहत में अतीतजीवी होकर जड़ होते बुजुर्गो, उनके मोह में अपने भविष्य को सँवारने में चूकते या भविष्य को संवारने में कर्तव्य निभाने से चूकने का मलाल पाले युवा दंपति की कशमकश 'चिड़िया उड़ गई फुर्र' कहानी में उठाई गई है। 'समानांतर रेखाएँ कहानी में पति से घरेलू कार्य में सहयोग की अपेक्षा कर निराह होती कामकाजी पत्नी की विवशता पाठक के मन में सहानुभूति तो जगाती है किन्तु पति की भी कुछ अपेक्षा हो सकती है यह पक्ष अनछुआ रह जाने से बात एकतरफा हो गयी है।
पिता के सामान में किसी अपरिचित स्त्री के प्रेम-पत्र मिलने से व्यथित किशोरी पुत्री 'खंडित मूर्ति' कहानी के केंद्र में हैं। यह कथानक लीक से हटकर है। माता से यह जानकर कि वे पत्र किसी समय उन्हीं पति द्वारा रखे गए नाम ने लिखे थे, बेटी पूर्ववत हो पाती है। 'अनमोल धरोहर' कहानी में संयुक्त परिवार, पारिवारिक संबंधों और बुजुर्गों की महत्ता प्रतिपादित करती है। वृद्धों को अनुपयोगी करार देकर किनारे बैठाने के स्थान पर उन्हें उनके उपयुक्त जिम्मेदारी देकर उनकी उपादेयता और महत्त्व बनाये रखने का सत्य प्रतिपादित करती है कहानी 'नई जिम्मेदारी'। कैशोर्य में बलात्कार का शिकार हुई युवती का विवाह के प्रति अनिच्छुक होना और एक युवक द्वारा सब कुछ जानकर भी उसे उसके निर्दोष होने की अनुभूति कराकर विवाह हेती तत्पर होना कहानी 'तुम्हारी कोई गलती नहीं' में वर्णित है। निस्संतान पत्नी को बिना बताये दूसरा विवाह करनेवाले छलिया पति के निधन पर पत्नी के मन में भावनात्मक आवेगों की उथल-पुथल को सामने लाती है कहानी 'अनुत्तरित प्रश्न'। 'जिंदगी फिर मुस्कुरायेगी' में मृत्यु पश्चात अंगदान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 'दिखावे की काट' कहानी दिवंगत पिता की संपत्ति के प्रति पुत्र के मोह और पुत्री के कर्तव्य भाव पार आधृत है।
'बिना चेहरे की याद' में भिन्न रुचियों के विवाह से उपजी विसंगति और असंतोष को उठाया गया है किन्तु कोई समाधान सामने नहीं आ सका है। परिवारजनों की सहमति के बिना प्रेमविवाह कर अलग होने के बावजूद परिवारों से अलग न हो पाने से उपजी शिकायतों के बीच भी मुस्कुराते रहने का प्रयास करते युवा जोड़े की कहानी है 'धूल और जाले'। निस्संतान दम्पति द्वारा अन्य के सहयोग से संतान प्राप्ति के स्थान पर अनाथ शिशु को अपनाने को वरीयता 'चिड़िया और औरत' कहानी का कथ्य है। अंतिम कहानी 'गाँठ' का कथानक सद्य विवाहिता नायिका और उसकी सास में मध्य तालमेल में कमी के कारण पति के सामने उत्पन्न उलझन और पिता द्वारा बेटी को सही समझाइश देने के ताने-बाने से बुना गया है।
विनीता जी की कहानियाँ वर्तमान समाज में हो रहे परिवर्तनों, टकरावों, सामंजस्यों और समाधानों को लेकर लिखी गयी हैं। कहानियों का शिल्प सहज ग्राह्य है। नाटकीयता या अतिरेक इन कहानियों में नहीं है। भाषा शैली और शब्द चयन पात्रों और घटनाओं के अनुकूल है। 'हालत' शब्द का बहुवचन हिंदी में 'हालतों' और उर्दू में 'हालात' होता है, 'हालातों' पूरी तरह गलत है (खंडित मूर्ति, पृष्ठ ६५)। चरिते चित्रण स्वाभाविक और कथानुकूल है। अधिकांश कहानियों में स्त्री-विमर्श का स्वर मुखर होने के बावजूद एकांगी नहीं है। वे स्त्री विमर्श के नाम पर अशालीन होने की महिला कहानीकारों की दुष्प्रवृत्ति से पूरी तरह दूर रहकर शालीनता से समस्या को सामने लाती हैं। पारिवारिक इकाई, पुरुष या बुजुर्गों को समस्या का कारण न कहकर वे व्यक्ति-व्यक्ति में तालमेल की कमी को कारण मानकर परिवार के भीतर ही समाधान खोजते पात्र सामने लाती हैं। यह दृष्टिकोण स्वस्थ्य सामाजिक जीवन के विकास में सहायक है। उनके पाठक इन कहानियों में अपने जीवन में उत्पन्न समस्याओं के समाधान पा सकते हैं। एक कहानीकार के नाते यह विनीता जी की सफलता है कि वे समस्याओं का समाधान संघर्ष और जय-पराजय में नहीं सद्भाव और साहचर्य में पाती हैं।
-----------
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
२४-६-२०१७
***
छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
*
प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव
पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.
रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।
२४-६-२०१५
***
द्विपदी :
*
कदमों से अंदाज़ा कद का कर लेते हैं
नज़र जमीं पर रखने वाले गलत न होते
*
***
मुक्तक:
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
२४-६-२०१५
***
शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा:
'मन तू मन से मिल गया
हाँ' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे
चार-कदम चल?
कौन जनता न कहीं
जाए तू बदल?
देख किसी और को
न जाए झट फिसल?
कैसे मान लूँ कि तेरी
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें
प्रीत हम अटल.
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने झुक कहा:
चक्रवात जैसी अपनी
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं
प्यार हो निबल
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त
ज्यों भ्रमर-कमल
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के
देख-जान लें
रीत प्रीत की निभा
सकें, सजल नयन
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा.
*
संगीत संध्या
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर
***
: मुक्तिका:
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
***
हाइकु सलिला
*
रात की बात
किसी को मिली जीत
किसी को मात..
*
फूल सा प्यारा
धरती पर तारा
राजदुलारा..
*
करते वंदन
लगाकर चन्दन
हँसे नंदन..
*
आता है याद
दूर जाते ही देश
यादें अशेष..
*
कुसुम-गंध
फैलती सब ओर.
देती आनंद..
*
देना या पाना
प्रभु की मर्जी
पा मुस्कुराना..
*
आंधी-तूफ़ान
देता है झकझोर
चले न जोर..
*
उखाड़े वृक्ष
पल में ही अनेक
आँधी है दक्ष..
*
बूँदें बरसें
सौधी गंध ले सँग
मन हरषे..
*
करे ऊधम
आँधी-तूफ़ान, लिए
हाथ में हाथ..
*
बादल छाये
सूरज खिसियाये
भू मुस्कुराये.
*
नापते नभ
आवारा की
तरह नाच बादल..
***
मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..
बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..
पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..
ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..
कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..
खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..
खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..
गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..
राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..
कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
***
कथा-गीत:
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारो.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो..
***
गीत:
तो चलूँ ……
*
जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया, कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
जहाँ जो कुछ है वही है, नहीं कुछ हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
***
स्मृति गीत / शोक गीत
*
याद आ रही पिता तुम्हारी
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
तुम सा कहाँ मनोबल पाऊँ?
जीवन का सब विष पी पाऊँ.
अमृत बाँट सकूँ स्वजनों को-
विपदा को हँस सह मुस्काऊँ.
विधि ने काहे बात बिगारी?
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
रही शीश पर जब तव छाया.
तनिक न विपदा से घबराया.
आँधी-तूफां जब-जब आये-
हँसकर मैंने गले लगाया.
बिना तुम्हारे हुआ भिखारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
मन न चाहता खुशी मनाऊँ.
कैसे जग कोगीत सुनाऊँ?
सपने में आकर मिल जाओ-
कुछ तो ढाढस-संबल पाऊँ.
भीगी अँखियाँ होकर खारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
२४-६-२०१०
*

शनिवार, 13 जुलाई 2024

जून २४, मुक्तिका, सरला, विनीता राहुरीकर, प्रमाणिका, पञ्चचामर, हाइकु, अनुश्री, मिट्टी, बरगद, पिता

सलिल सृजन जून २४

*

मुक्तिका

आप आओ या न आओ, आपको ही है पुकारा
गीत गाओ या न गाओ, आ सराहो हो सहारा

आपकी यादें बसी हैं, श्वास में प्रश्वास में भी
रूप देखा आपका ही, आइने में जो निहारा

आपकी चाहें रही हैं, चाह में जाने-अजाने
आपके ही साथ जन्मों जन्म होना है गुजारा

साथ आओ या न आओ, साथ ही होगे हमारे
जिंदगी को जिंदगी का, साथ देना है गवारा
 
सूर्य हैं ना चाँद ही हैं, आप इंसां हैं धरा के
आपने ही तो पसारा, प्रीत दे सारा पसारा
२४.६.२०२४
***
कवि और कविता : सरला वर्मा
सर ला दें भजकर भजन, अंजलि में भर आज।
निशि-दिन मन संजीव हो, संगीता हर काज।।
*
योग किया; व्यय रोककर, गुना किया दिन-रात।
भाग भाग से; भाग पा, भाग मिली सौगात।।
*
बुक बुटीक में कर दिया, दिल सुशील के नाम।
दम दे जमीं दमोह में, रूचि बैठी सिर थाम।।
*
चेले केले खा रहे, छिलके ले आचार्य।
मौन हुए संतोष कर, उमा सधे सब काज।।
*
पहली-अंतिम शादियाँ, गई व्यवस्था टूट।
शिखा भूमि पर व्यवस्था, कर दी बैठ अटूट।।
*
विद्या रेखा खींच दे, गुरु मंजरी ललाम।
संत जयंत बसंत की, शैली काम अकाम।।
*
आकांक्षा इंद्रा-दया, ऋचा स्मिता रवींद्र।
बने वसीयत कमल की आभा-विभा कवीन्द्र।
*
वेद वंदना शशि करें, छाया वसुधा साथ।
माया-गीता शालिनी, मौली थामे हाथ।।
*
शंभु नाथ आशीष दें, आस्था रहे अभंग।
भावुकता के भाव को, देखे दुनिया दंग।।
*
गुडविल में गुड बिल छिपा, वर्षा कर भुगतान।
दिल मजबूत करो सलिल, तभी बचेगी आन।।
*
हँसी लबों पर हो सदा, चेहरे पर हो ओज।
माथे पर सूरज सजे, दे खुशियों को भोज।।
२४-६-२०२२
***
कृति चर्चा:
'पराई जमीन पर उगे पेड़' मन की तहें टटोलती कहानियाँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: 'पराई जमीन पर उगे पेड़, कहानी संग्रह, विनीता राहुरीकर, प्रथम संस्करण, २०१३, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १७८, मूल्य २५०/-, अरुणोदय प्रकाशन, ९ न्यू मार्किट, तात्या टोपे नगर भोपाल, ९१७५५२६७३६२४]
*
मनुष्य के विकास के साथ ही कहने की कला का विकास हुआ। कहने की कला ने विज्ञान बनकर साहित्य की कई विधाओं को जन्म दिया। गद्य में कहानी, भाषण, लघुकथा, परिचर्चा, साक्षात्कार, व्यंग्य, संस्मरण, चर्चा, संगोष्ठी आदि और पद्य में गीत, भजन आदि कहने की कला के विधिवत विकास के ही परिणाम हैं। कहानी वह जो कही जाए। कही वह जाए जो कहने योग्य हो। कहने योग्य वह जो किसी का शुभ करे। सत्य-शिव-सुन्दर की प्रस्तुति भारतीय वांग्मय का आदर्श है। साम्यवादी यथार्थवादी विडंबनाओं और विसंगतियों या पाश्चात्य विलासितापूर्ण लेखन को भारतीय मनीषा ने कभी भी नहीं सराहा। भारत में काम पर भी लिखा गया तो विज्ञान सम्मत तरीके से शालीनतापूर्वक। सबके मंगल भाव की कामना कर लिखा जाए तो उसके पाठक या श्रोता को अपने जीवन पथ में जाने-अनजाने आचरण को संयमित-संतुलित करने में सहायता मिल जाती है। सोद्देश्य लेखन की सकारात्मक ऊर्जा नकारात्मक ऊर्जा का शमन करती है।
युवा कहानीकार विनीता राहुरीकर के कहानी संग्रह 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' को पढ़ना जिंदगी की रेल में विविध यात्रियों से मिलते-बिछुड़ते हुए उनके साथ घटित प्रसंगों का साक्षी बनने जैसा है। पाठक के साथ न घटने पर भी कहानी के पात्रों के साथ घटी घटनाएँ पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। वह तटस्थ रहने का प्रयास करे तो भी उसकी संवेदना किसी पात्र के पक्ष और किसी अन्य पात्र के विरुद्ध हो जाती है। कभी सुख-संतोष, कभी दुःख-आक्रोश, कभी विवशता, कभी विद्रोह की लहरों में तैरता-डूबता पाठक-मन विनीता के कहानीकार की सामर्थ्य का लोहा मानता है।
विनीता जी की इन कहानियों में न तो लिजलिजी भावुकता है, न छद्म स्त्री विमर्श। ये कहानियाँ तथाकथित नारी अधिकारों की पैरोकारी करते नारों की तरह नहीं हैं। इनमें गलत से जूझकर सुधारने की भावना तो है किन्तु असहमति को कुचलकर अट्टहास करने की पाशविक प्रवृत्ति सिरे से नहीं है। इन कहानियों के पात्र सामान्य हैं। असामान्य परिस्थितियों में भी सामान्य रह पाने का पौरुष जीते पात्र जमीन से जुड़े हैं। पात्रों की अनुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर पाठक उन्हें अपने जीवन में देख-पहचान सकता है
विनीता जी का यह प्रथम कहानी संकलन है। उनके लेखन में ताजगी है। कहानियों के नए कथानक, पात्रों की सहज भाव-भंगिमा, भाषा पर पकड़, शब्दों का सटीक उपयोग कहानियों को पठनीय बनाता है। प्राय: सभी कहानियाँ सामाजिक समस्याओं से जुडी हुई हैं। समाज में अपने चतुर्दिक जो घटा है, उसे देख-परखकर उसके सकारात्मक-नकारात्मक पक्षों को उभारते हुए अपनी बात कहने की कला विनीता जी में है। विवेच्य संग्रह में १६ कहानियाँ हैं। कृति की शीर्षक कहानी 'पराई ज़मीं पर उगे पेड़' में पति-पत्नी के जीवन में प्रवेश करते अन्य स्त्री-पुरुषों के कारण पनपती दूरी, असुरक्षा फिर वापिस अपने सम्बन्ध-सूत्र में बँधने और उसे बचाने के मनोभाव बिम्बित हुए हैं। वरिष्ठ कथाकार मालती जोशी ने इस कहानी में प्रयुक्त प्रतीक के बार-बार दूहराव से आकर्षण खोने का तथ्य ठीक ही इंगित किया है। अपने सम्बन्ध को स्थायित्व देने और असुरक्षा से मुक्त होने के लिए संतति की कामना करना आदर्श भले ही न हो यथार्थ तो है ही। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु के जन्म से दाम्पत्य को स्थायित्व मिलता है।
वैभवशाली पति को ठुकरानेवाली 'ठकुराइन' दिवंगता सौतन के पुत्र को अपनाकर गरीबी में किन्तु स्वाभिमानपूर्वक जीवन गुजारती है। यह चरित्र असाधारण है। 'वट पूजा' कहानी में एक दूसरे को 'स्पेस' देने के मुगालते में दूर होते जाने की मरीचिका, अन्यों के प्रति आकर्षण तथा समय रहते अपने नैकट्य स्थापित कर संबंध को पुनर्जीवित करने की ललक स्पन्दित है। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की चाहत में अतीतजीवी होकर जड़ होते बुजुर्गो, उनके मोह में अपने भविष्य को सँवारने में चूकते या भविष्य को संवारने में कर्तव्य निभाने से चूकने का मलाल पाले युवा दंपति की कशमकश 'चिड़िया उड़ गई फुर्र' कहानी में उठाई गई है। 'समानांतर रेखाएँ कहानी में पति से घरेलू कार्य में सहयोग की अपेक्षा कर निराह होती कामकाजी पत्नी की विवशता पाठक के मन में सहानुभूति तो जगाती है किन्तु पति की भी कुछ अपेक्षा हो सकती है यह पक्ष अनछुआ रह जाने से बात एकतरफा हो गयी है।
पिता के सामान में किसी अपरिचित स्त्री के प्रेम-पत्र मिलने से व्यथित किशोरी पुत्री 'खंडित मूर्ति' कहानी के केंद्र में हैं। यह कथानक लीक से हटकर है। माता से यह जानकर कि वे पत्र किसी समय उन्हीं पति द्वारा रखे गए नाम ने लिखे थे, बेटी पूर्ववत हो पाती है। 'अनमोल धरोहर' कहानी में संयुक्त परिवार, पारिवारिक संबंधों और बुजुर्गों की महत्ता प्रतिपादित करती है। वृद्धों को अनुपयोगी करार देकर किनारे बैठाने के स्थान पर उन्हें उनके उपयुक्त जिम्मेदारी देकर उनकी उपादेयता और महत्त्व बनाये रखने का सत्य प्रतिपादित करती है कहानी 'नई जिम्मेदारी'। कैशोर्य में बलात्कार का शिकार हुई युवती का विवाह के प्रति अनिच्छुक होना और एक युवक द्वारा सब कुछ जानकर भी उसे उसके निर्दोष होने की अनुभूति कराकर विवाह हेती तत्पर होना कहानी 'तुम्हारी कोई गलती नहीं' में वर्णित है। निस्संतान पत्नी को बिना बताये दूसरा विवाह करनेवाले छलिया पति के निधन पर पत्नी के मन में भावनात्मक आवेगों की उथल-पुथल को सामने लाती है कहानी 'अनुत्तरित प्रश्न'। 'जिंदगी फिर मुस्कुरायेगी' में मृत्यु पश्चात अंगदान की महत्ता प्रतिपादित की गई है। 'दिखावे की काट' कहानी दिवंगत पिता की संपत्ति के प्रति पुत्र के मोह और पुत्री के कर्तव्य भाव पार आधृत है।
'बिना चेहरे की याद' में भिन्न रुचियों के विवाह से उपजी विसंगति और असंतोष को उठाया गया है किन्तु कोई समाधान सामने नहीं आ सका है। परिवारजनों की सहमति के बिना प्रेमविवाह कर अलग होने के बावजूद परिवारों से अलग न हो पाने से उपजी शिकायतों के बीच भी मुस्कुराते रहने का प्रयास करते युवा जोड़े की कहानी है 'धूल और जाले'। निस्संतान दम्पति द्वारा अन्य के सहयोग से संतान प्राप्ति के स्थान पर अनाथ शिशु को अपनाने को वरीयता 'चिड़िया और औरत' कहानी का कथ्य है। अंतिम कहानी 'गाँठ' का कथानक सद्य विवाहिता नायिका और उसकी सास में मध्य तालमेल में कमी के कारण पति के सामने उत्पन्न उलझन और पिता द्वारा बेटी को सही समझाइश देने के ताने-बाने से बुना गया है।
विनीता जी की कहानियाँ वर्तमान समाज में हो रहे परिवर्तनों, टकरावों, सामंजस्यों और समाधानों को लेकर लिखी गयी हैं। कहानियों का शिल्प सहज ग्राह्य है। नाटकीयता या अतिरेक इन कहानियों में नहीं है। भाषा शैली और शब्द चयन पात्रों और घटनाओं के अनुकूल है। 'हालत' शब्द का बहुवचन हिंदी में 'हालतों' और उर्दू में 'हालात' होता है, 'हालातों' पूरी तरह गलत है (खंडित मूर्ति, पृष्ठ ६५)। चरिते चित्रण स्वाभाविक और कथानुकूल है। अधिकांश कहानियों में स्त्री-विमर्श का स्वर मुखर होने के बावजूद एकांगी नहीं है। वे स्त्री विमर्श के नाम पर अशालीन होने की महिला कहानीकारों की दुष्प्रवृत्ति से पूरी तरह दूर रहकर शालीनता से समस्या को सामने लाती हैं। पारिवारिक इकाई, पुरुष या बुजुर्गों को समस्या का कारण न कहकर वे व्यक्ति-व्यक्ति में तालमेल की कमी को कारण मानकर परिवार के भीतर ही समाधान खोजते पात्र सामने लाती हैं। यह दृष्टिकोण स्वस्थ्य सामाजिक जीवन के विकास में सहायक है। उनके पाठक इन कहानियों में अपने जीवन में उत्पन्न समस्याओं के समाधान पा सकते हैं। एक कहानीकार के नाते यह विनीता जी की सफलता है कि वे समस्याओं का समाधान संघर्ष और जय-पराजय में नहीं सद्भाव और साहचर्य में पाती हैं।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
२४-६-२०१७
***
छंद सलिला:
प्रमाणिका और पञ्चचामर छंद
*
प्रमाणिका
अन्य नाम: नगस्वरूपिणी
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है. अष्टाक्षरी छंदों के २५६ प्रकार हो सकते हैं। प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ल ग' है।
इसके दोगुने को पञ्चचामर कहते हैं।
ज़रा लगा प्रमाणिका।
लक्षण: जगण रगण + लघु ।s। s। s । s यति ४. ४
उदाहरण:
१.
ज़रा लगाय चित्तहीं। भजो जु नंद नंदहीं।
प्रमाणिका हिये गहौ। जु पार भौ लगा चहौ। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
सही-सही उषा रहे
सही-सही दिशा रहे
नयी-नयी हवा बहे
भली-भली कथा कहे -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
जगो उठो चलो बढ़ो
सभी यहीं मिलो खिलो
न गाँव को कभी तजो
न देव गैर का भजो - संजीव
पञ्चचामर
अन्य नाम: नराच, नागराज
पञ्चचामर एक सोलहाक्षरी छंद है. सोलहाक्षरी छंदों के ६५,५३६ प्रकार हो सकते हैं. प्रमाणिका का सूत्र 'ज र ज र ज ग' है.
यह प्रमाणिका का दोगुना होता है: प्रमाणिका पदद्वयं वदंति पंचचामरं
लक्षण: जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ।s। ।s। ।s। ।s। ।s। s
उदाहरण:
१.
जु रोज रोज गोपतीय डार पंच चामरै।
जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं।
सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।
कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं।
सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
२.
उठो सपूत देश की, धरा तुम्हें पुकारती
विषाद से घिरी पड़ी, फ़टी दशा निहारती
किसान हो कुदाल लो, जवान हो मशाल लो
समग्र बुद्धिजीवियों, स्वदेश को संभाल लो -रामदेव लाल 'विभोर'
३.
तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे!
करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे!
सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी.
करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी.
रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र की रचना पञ्चचामर छंद में ही है.
जटाटवीगलज्जल:प्रवाहपावितस्थले। गलेSवलंब्यलंबितां भुजंगतुंगमालिकां।।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादमड्डमर्वयं। चकार चंडताण्डवं तनोतुन: शिव: शिवं।।
२४-६-२०१५
***
द्विपदी :
*
कदमों से अंदाज़ा कद का कर लेते हैं
नज़र जमीं पर रखने वाले गलत न होते
*
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मुक्तक:
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
२४-६-२०१५
***
शुभ कामना गीत:
अनुश्री-सुमित परिणय १२-६-२०१५ बिलासपुर
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा:
'मन तू मन से मिल गया
है' मन ने फँस कहा
'हाथ थाम ले जरा
तू संग-संग चल,
मान भी ले बात मेरी
तू न यूँ मचल.
बेरहम न बन कठोर-
दिल जरा पिघल,
आ गया बिहार से
बिलासपुर सम्हल'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने धँस कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने रुक कहा:
'क्या करूँ मैं साथ तेरे
चार-कदम चल?
कौन जनता न कहीं
जाए तू बदल?
देख किसी और को
न जाए झट फिसल?
कैसे मान लूँ कि तेरी
प्रीत है असल?
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तन कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मुड़ कहा:
'मैं न राम सिया को जो
भेज दे जंगल
मैं न कृष्ण प्रेमिका को
जो दे खुद बदल.
लालू-राबड़ी सी करें
प्रीत हम अटल.
मोटियार मैं तू
मोटियारी है नवल.'
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने तक कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने झुक कहा:
चक्रवात जैसी अपनी
प्रीत हो प्रबल।
लाख हों भूकम्प नहीं
प्यार हो निबल
सात जनम संग रहें
हो न हम निबल
श्वास-श्वास प्रीत व्याप्त
ज्यों भ्रमर-कमल
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने मिल कहा.
*
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने फिर कहा:
नीर-क्षीर मिल गया
न कोई दे दखल
अंतरों से अंतरों को
पल में दें मसल
चित्र गुप्त ज़िंदगी के
देख-जान लें
रीत प्रीत की निभा
सकें, सजल नयन
मन जो मन से मिल गया
तो मन ने हँस कहा.
*
संगीत संध्या
११.६.२०१५
होटल ईस्ट पार्क बिलासपुर
***
: मुक्तिका:
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
***
हाइकु सलिला
*
रात की बात
किसी को मिली जीत
किसी को मात..
*
फूल सा प्यारा
धरती पर तारा
राजदुलारा..
*
करते वंदन
लगाकर चन्दन
हँसे नंदन..
*
आता है याद
दूर जाते ही देश
यादें अशेष..
*
कुसुम-गंध
फैलती सब ओर.
देती आनंद..
*
देना या पाना
प्रभु की मर्जी
पा मुस्कुराना..
*
आंधी-तूफ़ान
देता है झकझोर
चले न जोर..
*
उखाड़े वृक्ष
पल में ही अनेक
आँधी है दक्ष..
*
बूँदें बरसें
सौधी गंध ले सँग
मन हरषे..
*
करे ऊधम
आँधी-तूफ़ान, लिए
हाथ में हाथ..
*
बादल छाये
सूरज खिसियाये
भू मुस्कुराये.
*
नापते नभ
आवारा की
तरह नाच बादल..
***
मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..
बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..
पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गई -
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..
ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..
कभी चंदा, कभी तारों से लड़ाई आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..
खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..
खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..
गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..
राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..
कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
***
कथा-गीत:
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
*
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो...
है याद कभी मैं अंकुर था.
दो पल्लव लिए लजाता था.
ऊँचे वृक्षों को देख-देख-
मैं खुद पर ही शर्माता था.
धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ.
शाखें फैलीं, पंछी आये.
कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको-
कुछ बना घोंसला रह पाये.
मेरे कोटर में साँप एक
आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी.
चिड़ियों के अंडे खाता था-
ले गया सपेरा, किया सुखी.
वानर आ करते कूद-फांद.
झकझोर डालियाँ मस्ताते.
बच्चे आकर झूला झूलें-
सावन में कजरी थे गाते.
रातों को लगती पंचायत.
उसमें आते थे बड़े-बड़े.
लेकिन वे मन के छोटे थे-
झगड़े ही करते सदा खड़े.
कोमल कंठी ललनाएँ आ
बन्ना-बन्नी गाया करतीं.
मागरमाटी पर कर प्रणाम-
माटी लेकर जाया करतीं.
मैं सबको देता आशीषें.
सबको दुलराया करता था.
सबके सुख-दुःख का साथी था-
सबके सँग जीता-मरता था.
है काल बली, सब बदल गया.
कुछ गाँव छोड़कर शहर गए.
कुछ राजनीति में डूब गए-
घोलते फिजां में ज़हर गए.
जंगल काटे, पर्वत खोदे.
सब ताल-तलैयाँ पूर दिए.
मेरे भी दुर्दिन आये हैं-
मानव मस्ती में चूर हुए.
अब टूट-गिर रहीं शाखाएँ.
गर्मी, जाड़ा, बरसातें भी.
जाने क्यों खुशी नहीं देते?
नव मौसम आते-जाते भी.
बीती यादों के साथ-साथ.
अब भी हँसकर जी लेता हूँ.
हर राही को छाया देता-
गुपचुप आँसू पी लेता हूँ.
भूले रस्ता तो रखो याद
मैं इसकी सरहद हूँ प्यारो.
दम-ख़म अब भी कुछ बाकी है-
मैं बूढ़ा बरगद हूँ यारो..
***
गीत:
तो चलूँ ……
*
जिसकी यादों में 'सलिल', खोया सुबहो-शाम.
कण-कण में वह दीखता, मुझको आठों याम..
दूरियाँ उससे जो मेरी हैं, मिटा लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
मैं तो साया हूँ, मेरा ज़िक्र भी कोई क्यों करे.
जब भी ले नाम मेरा, उसका ही जग नाम वरे..
बाग़ में फूल नया, कोई खिला लूँ तो चलूँ
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
ईश अम्बर का वो, वसुधा का सलिल हूँ मैं तो
जहाँ जो कुछ है वही है, नहीं कुछ हूँ मैं तो..
बनूँ गुमनाम, मिला नाम भुला लूँ तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ, उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
*
वही वो शेष रहे, नाम न मेरा हो कहीं.
यही अंतिम हो 'सलिल', अब तो न फेरा हो कहीं..
नेह का गेह तजे देह, विदा दो तो चलूँ.
उसमें बस जाऊँ उसे खुद में बसा लूँ तो चलूँ ……
***
स्मृति गीत / शोक गीत
*
याद आ रही पिता तुम्हारी
याद आ रहीपिता तुम्हारी...
*
तुम सा कहाँ मनोबल पाऊँ?
जीवन का सब विष पी पाऊँ.
अमृत बाँट सकूँ स्वजनों को-
विपदा को हँस सह मुस्काऊँ.
विधि ने काहे बात बिगारी?
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
रही शीश पर जब तव छाया.
तनिक न विपदा से घबराया.
आँधी-तूफां जब-जब आये-
हँसकर मैंने गले लगाया.
बिना तुम्हारे हुआ भिखारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
*
मन न चाहता खुशी मनाऊँ.
कैसे जग को गीत सुनाऊँ?
सपने में आकर मिल जाओ-
कुछ तो ढाढस-संबल पाऊँ.
भीगी अँखियाँ हैं अब खारी.
याद आ रही पिता तुम्हारी...
२४-६-२०१०
*

 

रविवार, 24 सितंबर 2023

पुरोवाक्, हरविंदर सिंह गिल, बाल गीत, पञ्चचामर, नवगीत, मुक्तक, इसरो, पानी

पुरोवाक्
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को 'दोष रहित गुण सहित रचना' (मम्मट), 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक' (जगन्नाथ), 'लोकोत्तर आनंददाता' (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो ), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद- अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ह्रदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने ह्रदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुत: कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु
बाबू गुलाबराय के अनुसार 'काव्य हेतु' काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। डंडी ने प्रतिभा,ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व् हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा ८ काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है।कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के स्वंत्र अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन
सामान्यत: काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हुए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना 'वह तोड़ती पत्थर' साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर। .....
..... एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
मेरे काव्य संकलन 'मीत मेरे' में एक कविता है 'पाषाण पूजा' जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण ह्रदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो। ......
.....वही पत्थर ह्रदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
ह्रदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। 'पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना' कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने 'जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर' न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
'कंकर-कंकर में शंकर' और 'कण-कण में भगवान' देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
'कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को' कहती हुई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी 'कैस' (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है -
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है , यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है -
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं ,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं -
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं -
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोइ सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है -
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति ४० कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यत: किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं।कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हुए 'ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार' प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
२४-९-२०२०
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.कॉम

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बाल गीत
*
आओ! खेलें चीटी धप
*
श्रीधर स्वाती जल्दी आओ
संग मंजरी को भी लाओ
मत घर बैठ बाद पछताओ
अंजू झटपट दौड़ लगाओ
तुम संतोष न घर रुक जाओ
अमरनाथ कर देंगे चुप
आओ! खेलें चीटी धप
*
भोर हुई आलोक सुहाया
कर विनोद फिर गीत सुनाया
राजकुमार पुलककर आया
रँग बसंत का सब पर छाया
शोर अनिल ने मचल मचाया
अरुण न भागे देखो छुप
आओ! खेलें चीटी धप
***
भावानुवाद
*
ओ मति-मेधा स्वामिनी, करने दो तव गान।
भाव वृष्टि कर दो बने, पंक्ति-पंक्ति रसवान।।
पंथ प्रकाशित कर सदा, दिखाती हो राह।
दोष हमारे मेटतीं, जिस पल लेतीं चाह।।
मिले प्रेरणा सभी को, लें सब बाधा जीत।
प्रीत तुम्हारी दिन करे, मिटा रात की भीत।।
लोभ मोह मत्सर मिटा, तुम करती हो मुक्त।
प्रगट मैया दर्श दो, नतमस्तक मैं भुक्त।।
***
छंद पञ्चचामर
विधान - जरजरजग
मापनी - १२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
*
कहो-कहो कहाँ चलीं, न रूठना कभी लली
न बोल बोल भूलना, कहा सही तुम्हीं बली
न मोहना दिखा अदा, न घूमना गली-गली
न दूर जा न पास आ, सुवास दे सदा कली
२४.९.२०१९
***
कवित्त
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए।
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
२४-९-२०१६
***
नवगीत
*
कर्म किसी का
क्लेश किसी को
क्यों होता है बोल?
ओ रे अवढरदानी!
अपनी न्याय व्यवस्था तोल।
*
क्या ऊपर भी
आँख मूँदकर
ही होता है न्याय?
काले कोट वहाँ भी
धन ले करा रहे अन्याय?
पेशी दर पेशी
बिकते हैं
बाखर, खेत, मकान?
क्या समर्थ की
मनमानी ही
हुआ न्याय-अभिप्राय?
बहुत ढाँक ली
अब तो थोड़ी
बतला भी दे पोल
*
कथा-प्रसाद-चढ़ोत्री
है क्या
तेरा यही रिवाज़?
जो बेबस को
मारे-कुचले
उसके ही सर ताज?
जनप्रतिनिधि
रौंदें जनमत को
हावी धन्ना सेठ-
श्रम-तकनीक
और उत्पादक
शोषित-भूखे आज
मनरंजन-
तनरंजन पाता
सबसे ऊँचे मोल।
***
मुक्तक
'नहीं चाहिए' कह देने से कब मिटता परिणाम?
कर्म किया जिसने वह निश्चय भोगेगा अंजाम
यथा समय फल जीव भोगता, अन्य न पाते देख
जाने-माने समय गर्त में खोते ज्यों गुमनाम
*
तन धोखा है, मन धोखा है, जीवन धोखा है
श्वास, आस, विश्वास, रास, परिहास न चोखा है
धोखे के कीचड़ में हमको कमल खिलाना है
सब को क्षमा कर सकें जो वह व्यक्ति अनोखा है
*
कान्हा कहता 'करनी का फल सबको मिलता है'
माली नोचे कली-फूल तो, आप न फलता है
सिर घमण्ड का नीचा होता सभी जानते हैं -
छल-फरेब कर व्यक्ति स्वयं ही खुद को छलता है .
*
श्रेष्ठ न खुद को कभी कहा है, मान लिया हूँ नीच
फेंक दूर कर, कभी नहीं आने दें अपने बीच
नफरत पाल किसी से, खुद को नित आहत करना
ऐसा जैसे स्नान-ध्यान कर फिर मल लेना कीच
*
कौन जगत में जिसने केवल अच्छा कार्य किया?
कौन यहाँ है जिसने केवल विष या अमिय पिया?
धूप-छाँव दोनों ही जीवन में भरते हैं रंग
सिर्फ एक हो तो दुनिया में कैसे लगे जिया?
***
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
२४-९-२०१६
***
नवगीत २
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
***
नवगीत:
संजीव
*
पानी-पानी
हुए बादल
आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल
कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर
तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर
त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल
जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और
खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल
२४-९-२०१४
***
द्विपदी

अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२४-९-२०१०
***