कुल पेज दृश्य

doha shatak लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
doha shatak लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

दोहा शतक : मञ्जूषा मन

दोहा शतक-२ 
मञ्जूषा 'मन'
*
९-९-१९७३। 
सृजन विधा- गीत, दोहा, मुक्तक, ग़ज़ल आदि।
कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन। 
बलोदा बाज़ार, छतीसगढ़। 
१.
अब हमको लगने लगे, प्यारे अपने गीत।
सपने नैनन में सजे, आप बने जो मीत।।
२.
कागज़ के टुकड़े हुए, उनके सारे नोट।
कर्मों से ज्यादा रही, क्यों नीयत में खोट।
३.
कहाँ छुपाकर हम रखें, तेरी ये तस्वीर।
भीग न जाये तू सनम, आँखों में है नीर।।
४.
ज़ख्मों पर मरहम नहीं, रखना तुम अंगार।
अनदेखी के दर्द पर, काम न आता प्यार।।
५.
दीप-शिखा बन हम जले, पाकर तेरा प्यार।
जान लुटाकर जी गए, यह जीवन का सार।।
६.
मन भीतर रखते छुपा, हमदम की तस्वीर।
बस ये ही तस्वीर है, जीने की तदबीर।।
७.
करी बागबानी बहुत, पर न खिल सके फूल।
क्या कोशिश में कमी, या कुदरत की भूल??
८.
करते शोषण मर्द तो, औरत क्यों बदनाम?
किसने मर्यादा लिखी, औरत के ही नाम??
९.
सबके अपने रंग है, अपने अपने रूप।
अपने-अपने सूर्य हैं, अपनी-अपनी धूप।।
११.
महँगाई के दौर में, सबसे सस्ती जान।
दो रोटी की चाह में, बिक जाता इंसान।।
११.
आँसू पलकों में लिए, हम बैठे चुपचाप।
मेरे दुख को भूल कर, रास रचाते आप।।
१२.
हमने तो बिन स्वार्थ के, किये सभी के काम।
हाथ न आया सुयश हम, मुफ़्त हुए बदनाम।।
१३.
मन को सींचा अश्रु से, पर मुरझाई बेल।
बहुत कठिन लगने लगा, जीवन का कटु खेल।।
१४.
बोलो कैसे निभ सके, पानी के सँग आग?
सुख सँग नाता है यही, डंसते बन कर नाग।
१५.
सूख गए आँसू सभी, आँखों में है प्यास।
बादल भी रूठे हुए, कौन बँधाए आस??
१६.
दुख-धागे चादर बुनी, पकड़े श्वांसें छोर।
सुख से कब सुलझी कहो, उलझी जीवन डोर??
१७..
हम सच बोलें तो उन्हें, क्यों आता है रोष?
अपने कर्मों का सदा, हमको देते दोष।।
१८.
अगिन शिकारी हैं छिपे, यहाँ लगाकर घात।
मन घबराता है बहुत, कौन बचाए तात??
१९.
अपने-गैरों की कहें, कैसे हो पहचान?
अपने धोखा कर रहे, मिले भले अनजान।।
२०.
ज़हर बुझे प्रिय के वचन, चुभते जैसे बाण।
इतनी पीड़ा सह हुए, हाय! प्राण निष्प्राण।।
२१.
चतुर समझता किंतु है, मन मूरख-नादान।
झूठे सारे रूप हैं, झूठी है सब शान।।
२२.
सूखे पोखर-ताल हैं, कहें किसे ये पीर?
और कहीं मिलता नहीं, आँखों में है नीर।।
२३.
फिर आएगी भोर कल, रखें जगाए आस।
बदलेंगे दिन ये कभी, बना रहे विश्वास।।
२४.
छिप न सके पंछी विवश, झरे पेड़ के पात।
निर्दय मौसम दे रहा, बड़े-बड़े आघात।।
२५.
सिर को पकड़े सोचता, बैठा एक गरीब।
कड़ी धूप से बच सकें, करे कौन तरकीब??
२६.
वसुधा तरसे नीर को, खो कर सब सिंगार।
मेघ नज़र आते नहीं, अम्बर के भी पार।।
२७.
थाम लिया पतवार खुद, चले सिंधु के पार।
मन में दृढ़ विश्वास ले, उतर गए मझधार।।
२८.
नीयत कब बदली कहो, बदले कपड़े रोज।
प्रेम हृदय में था नहीं, देखा हमने खोज।।
२९.
दुखे नहीं दिल आपसे, करी ऐसे कर्म।
कर्मों का फल भोगना, पड़ता समझो मर्म।।
३०.
दूजों को देखो नहीं, देखो अपने कर्म।
कुछ भी ऐसा मत करो, खुद पर आये शर्म।।
३१.
चंचल मन कब मानता, पल-पल उड़ता जाय।
छल से जब हो सामना, तब केवल पछताय।।
३२.
चंचलता अभिशाप है, रखना इसका ध्यान।
सोच-समझ कर चल सदा, सच को ले अनुमान।।
३३.
अब तक हमने था रखा, अपने मन पर धीर।
आँखों ने कह दी मगर, तुम से मन की पीर।।
३४.
सबके अपने दर्द हैं, कौन बँधाए धीर?
अपने-अपने दर्द हैं, अपनी-अपनी पीर।।
३५.
जाने क्या-क्या कह गया, बह नयनों से नीर।
हमने कब तुमसे कही, अपने मन की पीर।।
३६.
दिल को छलनी कर गए, कटु वचनों के तीर।
चुप रहकर हम सह गए, फिर भी सारी पीर।।
३७.
सोचा कब परिणाम को, चढ़ा प्रेम का जोश।
अपना सब कुछ खो दिया, जब तक आया होश।।
३८.
दिन भर छत पर पकड़ते, धूपों के खरगोश।
बचपन जैसा अब नहीं, बचा किसी में जोश।।
३९.
सीखो मुझसे तुम जरा, कहता है इतिहास।
अनुभव से मैं हूँ भरा, कल को कर दूँ खास।।
४०.
आनेवाला कल अगर, करना चाहो खास।
एक बार देखो पलट, तुम अपना इतिहास।।
४१.
सौंपा हमने आपको, अपने मन का साज।
मन वीणा में देखिये, सरगम बजती आज।
४२.
गली -गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कुरुक्षेत्र में अब कहो, कहाँ मिलेगी छाँव।।
४३.
युद्ध छिड़ा चारों तरफ, मचा सब तरफ क्लेश।
कुरुक्षेत्र सा दिख रहा, अपना प्यारा देश।।
४४.
मन ने चिट्ठी लिख रखी, गुपचुप अपने पास।
फिर भी हर पल कर रहा, है उत्तर की आस।।
४५.
पाती ही बाँची गई, पढ़े न मन के भाव।
बीच भँवर में डूबती, रही प्रेम की नाव।।
४६.
साथ मिला जो आपका, महक उठे जज़्बात।
होठों तक आई नहीं, लेकिन मन की बात।।
४७.
मन-पंछी नादान है, उड़ने को तैयार।
जब-जब भी कोशिश करी, पंख कटे हर बार।।
४८.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीँ चुभे हैं शूल।।
४९.
महक रहा मन-मोगरा, तन बगिया के बीच।
समय निठुर माली न क्यों, सलिल रहा है सींच??
५०.
वर्षा बरसी प्रेम की, भीगे तन-मन आज।
धीरे-धीरे आज सब, खुले प्रेम के राज।।
५१.
थाम हाथ मन का चलो, राहें हो खुशहाल।
जीवन जीना चाह लें, हम तो सालों साल।।
५२.
सूने मन में खिल रहे, आशाओं के फूल।
बीच भँवर में पात ज्यों, मिल लगते हैं कूल।।
५३.
बैठा था बहुरूपिया, डाले अपना जाल।
भोला मन समझा नहीं, उसकी गहरी चाल।
५४.
प्रेम संग मीठी लगे, सूखी रोटी-प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम ही राज।।
५५.
प्रेम सहित मीठी लगे, सूखी रोटी प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम है राज।।
५६.
गली-गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कहाँ मिले कुरुक्षेत्र में, पहले जैसी छाँव??
५७.
बहा रक्त कुरुक्षेत्र में, मचा भयंकर क्लेश।
मरघट जैसा हो गय , सारा भारत देश।।
५८.
कह दें मन की बात हम, पर समझेगा कौन?
बस इतना ही सोच कर, रह जाते हैं मौन।।
५९.
करो विदा हँस कर मुझे, जाऊँ मथुरा धाम।
राधा रूठोगी अगर, कैसे होगा काम??
६०.
कान्हा तुम छलिया बड़े, छलते हो हर बार।
भोली राधा का कभी, समझ सकोगे प्यार??
६१.
जो तुम यूँ चलते रहे, प्रेम डोर को थाम?
फिर इस जीवन में कहो, दुख का क्या है काम??
६२.
धुँआ-धुँआ सा दिख रहा, अब तो चारों ओर।
जीवन की इस राह का, दिखे न कोई छोर।
६३.
कह पाते हम किस तरह, हैं कितने हैं मजबूर?
जन्मों का है फासला, इसीलिए हैं दूर।।
६४.
चीरहरण होता यहाँ, देखा हर इक द्वार।
बहन बेटियों का सुनो, हो जाता व्यापार।।
६५.
बे-मतलब लेता यहाँ, कौन किसी का नाम।
दरवाज़े पर तब दिखे, जब पड़ता है काम।।
६६.
बोलो! कैसे सौंप दें, मन जब पाया श्राप?
मन से मन को जोड़कर, सुख पायेंगे आप??
६७.
कोई अब रखता नहीं, मन दरवाजे दीप।
गहन अँधेरा छा गया, टूटी मन की सीप।।
६८.
भूखा पेट न देखता, दिवस हुआ या रात?
आँतों को रोटी मिले, तब समझे वह बात।।
६९.
कड़वी यादें आज सब, नदिया दिये सिराय।
अच्छा-अच्छा गह चलो, यही बड़ों की राय।।
७०.
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग।
अँधियारी दीवालियाँ, गूँगे होली-फ़ाग।
७१.
बौराया सावन फिरे, बाँट रहा सन्देश।
प्रेम लुटाता फिर रहा, धर प्रेमी का भेष।।
७२.
बूँदों की बौछार से, तन-मन जाता भीज।
कर सोलह श्रृंगार 'मन', आई सावन तीज।।
७३.
जग के छल सहते रहे, फिर भी देखे ख्वाब।
काँटों पर ही देखिये, खिलते सदा गुलाब।।
७४.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीं चुभे हैं शूल।।
७५.
जीवन विष का है असर, नीले सारे अंग।
जिन जिनको अपना कहा, निकले सभी भुजंग।।
७६.
कागज पर लिखते रहे, अंतर्मनबात।
जग जिसको कविता कहे, पीड़ा की सौगात।।
७७.
ढलती बेरा में यहाँ, कब ले कोई नाम?
उगते सूरज को रहे, करते सभी सलाम।
७८.
ढूँढें बोलो किस तरह, कहाँ मिले आनन्द?
सब ही रखते हैं यहाँ, मन के द्वारे बन्द।।
७९.
दुख अपना देता रहा, जीवन का आनन्द।
सुख छलिया ठगता रहा, आया नहीं पसन्द।।
८०.
मुरझाये से हैं सभी, साथी फूल गुलाब।
पलकों में चुभने लगे, टूटे रूठे ख्वाब।।
८१ .
मेरे ग़म का आप 'मन', सुन लें ज़रा हिसाब।
जीने को कब चाहिए, जमजम वाला आब।।
८२.
जंगल-जंगल देखिये, बहका फिरे बसन्त।
टेसू दहके आग सा, जागी चाह अनन्त।।
८३.
जागो लो फिर आ गई, प्यारी सी इक भोर।
फूला-महका मोगरा, पंछी करते शोर।।
८४.
नस-नस में बहने लगा, अब वो बनकर पीर।
होंठो पर कुछ गीत हैं, आँखों में है नीर।।
८५.
रोजी-रोटी के लिए, तज आए थे गाँव।
कहाँ छुपाकर अब रखें, छालों वाले पाँव??
८६.
छाँव नहीं पाई कहीं, ऐसे मिले पड़ाव।
बीच भँवर में डोलती, जीवन की यह नाव।।
८७.
कैसी है यह ज़िन्दगी, पल-पल बदले रूप।
पल-दो पल की छाँव है, शेष समूची धूप।।
८८.
एक जुलाहा बैठ कर, स्वप्न बुने दिन-रैन।
मन बाहर झाँके नहीं, पाए कहीं न चैन।।
८९.
मिले नहीं हम आप से, मिले नहीं हैं नैन।
जब से मन में तुम बसे, कहीं न मन को चैन।
९०.
वारेंगे हम ज़िन्दगी, तुम पर सौ-सौ बार।
तेरी खातिर जी रहे, साँसे लिए उधार।
९१.
द्वारे पर बैठे लिए, अपने मन का दीप।
यादों के मोती सजे, नैनों की है सीप।।
९२.
बुझ जाएगा देखिये, आँखों का यह नूर।
मन दीपक बुझने लगा, होकर तुमसे दूर।।
९३.
मिलकर ही रौशन हुए, दीपक-बाती तेल।
जग उजियारा कर सके, तेरा-मेरा मेल।।
९४.
मैली तन-चादर हुई, सौ-सौ मन पर दाग।
तुझको कुछ अर्पित करूँ, मिला न ऐसा भाग।।
९५.
मालाएँ फेरीं बहुत, खूब जपा था नाम।
मन-भीतर छुपकर रहे, बड़ा अजब है श्याम।।
९६.
चिंगारी बाकी न थी, खूब कुरेदी राख।
मुरझाया हर पात था, मुरझाई थी शाख।।
९७.
गरल रोककर कण्ठ में, बाँट रहे मुस्कान।
ठोकर खा सीखे बहुत, जीवन का हम ज्ञान।।
९८.
उड़ अम्बर की ओर तू, ऐ मन! पंख पसार।
बैठे से मिलता नहीं, इस जीवन का सार।
९९.
चलने से थकना नहीं, चलना अच्छी बात।
बीतेंगे तू देखना, दुख के ये हालात।
१००.
आँखों ने पाई बहुत, आँसू की बरसात।
मेघों ने भी खूब दी, पीड़ा की सौगात।।
१०१.
मन की पीड़ा को मिली, मेघों से सौगात।
आँखों से बरसी बहुत, आँसू की बरसात।।
१०२.
बहा पसीना गाइये, आशाओं के गीत।
हो जाएगी एक दिन, उजियारे की जीत।।
१०३.
वाणी भी मीठी नहीं, कहे न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में, रे मन! मिसरी घोल।।
१०४.
सारा दिन खटती रहे, मिले नहीं आराम।
नारी जीवन में लिखा, काम काम बस काम।।
१०५.
पत्थर को पूजा बहुत, मिले नहीं भगवान।
मन-भीतर झाँका ज़रा, प्रभु के मिले निशान।।
१०६.
भूखे किसी गरीब घर, मने नहीं त्यौहार।
और अमीरों के यहाँ, हर दिन सजे बहार।।
१०७.
तन कोमल मिट्टी रचे, मन पाषाण कठोर।
ऊपर से भोले दिखें, अंदर बैठा चोर।।
१०८.
लोग मिले जो दोगले, रखना मत कुछ आस।
जो दो-दो सूरत रखें, उनका क्या विश्वास।।
१०९.
तेरह किसको चाहिए, कब चाहें हम तीन?
अपने साहस से करें, जीवन को रंगीन।।
११०.
पाँवों के छाले कहें, हमें न देखो आप।
बाकी है लम्बी डगर, झटपट लो 'मन' नाप।।
१११.
रिश्ते-नाते दे भुला, पद-कुर्सी का प्यार।
होता पद की आड़ में, रिश्तों का व्यापार।।
-- -- -00- -- --

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

ॐ दोहा शतक प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव 'विदग्ध'

ॐ 
जीवन में आनंद
दोहा शतक 
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"














जन्म: २३ मार्च १९२७, मण्डला म.प्र.।
आत्मज: स्व, सरस्वती देवी-स्व. छोटेलाल वर्मा स्वतंत्रता सत्याग्रही। 
जीवन संगिनी: स्व. दयावती श्रीवास्तव।
शिक्षा एम.ए. हिंदी , एम.ए.अर्थशास्त्र, साहित्य रत्न , एम.एड.।
संप्रति: सेवानिवृत्त प्राध्यापक शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर, संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय जबलपुर क्रमांक १। 
प्रकाशन: ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाएँ, आदर्श भाषण कला, कर्म भूमि के लिये बलिदान, जनसेवा, अंधा और   
लंगड़ा, मुक्तक संग्रह, स्वयं प्रभा सरस गीत संग्रह, अंतर्ध्वनि सरस गीत संग्रह, मानस के मोती लेख संग्रह। 
अनुवादित पुस्तकें: भगवत गीता हिन्दी पद्यानुवाद, मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद, रघुवंशम् पद्यानुवाद, प्रतिभा साधन।  
शैक्षिक किताबें: समाजोपयोगी कार्य, शिक्षण में नवाचार, संकलन उद्गम , सदाबहार गुलाब , गर्जना , युगध्वनि ,जय जवान जय किसान।  
संपादन: अर्चना, पयस्वनी, उन्मेष , वातास पत्रिकाएँ। प्रसारण: आकाशवाणी व दूरदर्शन।  
उपलब्धि: भारतीय लेखन कोश, म.प्र. के सृजनधर्मी, हू इज हू इन मध्य प्रदेश, मण्डला जिले का साहित्यिक विकास आदि ग्रंथो में
परिचय प्रकाशित। विविध संस्थाओं द्वारा अनेक अलंकरण, राष्ट्रीय आपदाओं तथा समाजोत्थान कार्यक्रमों में तन-मन-धन से योगदान। 
संपर्क: बंगला नम्बर ओ.बी.११, विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. / विवेक सदन, नर्मदा गंज, मण्डला म.प्र.।
चलभाष: ०९४२५४८४४५२, ईमेल: vivekranjan.vinamra@gmail.com
*
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' देश और समाज में गत नौ दशकों में हुए परिवर्तन और विकास के साक्षी हैं। शिक्षण प्रणाली और शिक्षा
शास्त्र के अधिकारी विद्वान होने के साथ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद के क्षेत्र में में उनका अवदान उल्लेखनीय है। सामाजिक समरसता और
सद्भव के लिए आजीवन सक्रिय रहे विदग्ध जी के लिए कबीर आदर्श रहे हैं:
जो भी कहा कबीर ने, तप कर; सोच-विचार।
वह धरती पर बन गया, युग का मुक्ताहार।।
लोकतंत्र लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए स्थापित शासन प्रणाली है। इसकी सफलता के लिए नागरिकों की सहभागिता और
जागरूकता अपरिहार्य है अन्यथा शासन-प्रशासन तंत्र स्वामी को दस बनाने में विलम्ब नहीं करता-
आम व्यक्ति को चाहिए, रखनी प्रखर निगाह।
राजनीति करती तभी, जनता की परवाह।।
लोकतंत्र में कर्तव्य केवन 'जन' के नहीं प्रतिनिधि और शासन तंत्र के भी होते हैं। शासक के मन में नीति-न्याय के प्रति सम्मान होना
आवश्यक है-  
शासक-मन में हो दया, नीति-न्याय का ध्यान।
तब होता दायित्व का, जन-मन को कुछ ध्यान।।
नियति और प्रारब्ध को कोई नहीं जान सकता। उक्ति है 'जो तोकू काटा बुवै, ताहि बोय तू फूल / बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरशूल'।
इस सनातन सत्य को विदग्ध जी वर्तमान सन्दर्भ में अधिक स्पष्टता से कहते है- 
हानि-लाभ किससे-किसे, कह सकता कब-कौन?
कभी ढिंढोरा हराता, कभी जिताता मौन।।
'जीवेम शरद: शतम्' के वैदिक आदर्श की और बढ़ रहे विदग्ध जी जीवन का सार निर्मल मन को ही मानते हुए कहते हैं कि पवित्रता से
 ही आनंद और ईश्वर दोनों मिलते हैं: 
पावन मन से उपजता, जीवन में आनंद।
निर्मल मन को ही सदा, मिले सच्चिदानंद।।
विदग्ध जी के दोहे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। वे सौंदर्य की अपेक्षा भाव और भावना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके दोहों
में प्रयुक्त भाषा सहज ग्राह्य है। सफल शिक्षक होने के नाते वे जानते हैं कि सरलता से कही गयी बात अधिक प्रभावी तथा स्थाई होती है। 
इस अनुष्ठान में उनकी सहभगिता नई पीढ़ी को आशीर्वाद के समान है।
*
है कबीर संसार के, बिना पढ़े विद्वान
जिनकी जग मे हुई है, ईश्वर सम पहचान 
*
छुआ न कागज-कलम पर, बने कबीर महान।
जिन्हें खोजने को स्वतः, निकल पड़े भगवान।।
*
चिंतन-मनन कबीर का, धर्म-कर्म व्यवहार।
सीख-समझ; पढ़-सुन हुआ, समझदार संसार।।
*
गाते गीत कबीर के, इकतारे के साथ।
जगा रहे नित साधु कई, दुनियाॅ को दिन-रात।।
*
सीधे सच्चे ज्ञानमय, है कबीर के बोल।
जो माया का आवरण, मन से देते खोल।।
*
अचरज यह; इस अपढ़ की, सीधी-सच्ची बात।
पढ-लिख-समझ कई हुए, पीएच.डी. विख्यात।।
*
कर ले घर के काम सब, बनकर संत सुजान।
जीवन भर करते रहे, कबिरा जन कल्याण।।
*
अनपढ संत कबीर का, है यह बड़ा कमाल।
समझ लिया जिसने उन्हें, सचमुच मालामाल।।
*
अनपढ संत कबीर थे, निर्गुण उनके राम।
था जन-मन को जोड़ना, उनका अद्भुत काम।।
*
जो भी कहा कबीर ने, तप कर; सोच-विचार।
वह धरती पर बन गया, युग का मुक्ताहार।।   
*
वाणी संत कबीर की, देती दिव्य प्रकाश।
हुआ न आलोकित मगर, अंधों का आकाश।।
*
निर्मल संत कबीर के, मन में था विश्वास।
ईश्वर कहीं न दूर है, मन में उसका वास।।
*
बड़े न, छोटे ही भले, जिनको प्रिय कानून।
कभी कहीं करते नहीं, नैतिकता का खून।।
*
धनी गरीबों का नहीं, किंचित रखते ध्यान।
निर्धन उनका ध्यान रख, बन जाते गुणवान।।
*
बड़े लोग अभिमान वश, करते हैं अपराध।
छोटों को डर सभी का, छोटी उनके साध।।
*
पढ़े-लिखे अक्सर चलें, नियमों के प्रतिकूल।
अनपढ़ चलते राह पर, स्वतः बचाकर धूल।।
*
छोटो का जीवन सरल, करते सच्चे काम।
उन्हें याद रहता सदा, देख रहा है राम।।   
*
बड़ा नहीं वह काम का, जिसे झूठ अभिमान।
सामाजिक आचार का, जिसे न रहता ध्यान।।
*
छोटे ही आते सदा, कठिनाई मे काम।
बड़े हमेशा चाहते, जी भरकर विश्राम।।
*
वास्तव मे वे बड़े जो, करते पर उपकार।
जिनकी करते याद सब, सज्जन बारंबार।।
*
धन कम; धन से अधिक गुण, होते प्रमुख प्रधान।
सद्गुण से पाता मनुज, दुनिया में सम्मान।।  
*
जो करता है व्यर्थ ही, अधिक घमण्ड-गुरूर।
वह अपयश पाता सदा, हों सब उससे दूर।।
*
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुण ग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, अग-जग; घर-परिवार।।  
*
राजनीति हत्यारिनी, करे अगिन अपराध।
उन्हें नहीं जीने दिया, दिया न जिनने साथ।।
*
कत्ल कभी भाई किया, कभी कैद कर बाप।
ताज-तख्त के लोभ में, गले लगाए पाप।। 
*
आम व्यक्ति को चाहिए, रखनी प्रखर निगाह।
राजनीति करती तभी, जनता की परवाह।।
*
मानव के इतिहास में, अजरामर है नाम।
अपनी आप मिसाल थे, पुरुषोत्तम श्री राम।।
राम राज्य आदर्श था, है अब भी विश्वास।
सुख कम; दुःख ज्यादा सहा, कहता है इतिहास।। 
*
जो छल-बल से पा गए, सत्ता पर अधिकार।
मत्स्य न्याय करते रहे, मूक रहा परिवार।। 
*
राजनीति करती सदा, सत्ता की परवाह।
चित-पट मेरे कह चले, निज मनमानी राह।।
*
होनी चाहिये धार्मिक, पर करती है पाप।
इससे कम होते नहीं, जनता के संताप।।
*
शासक-मन में हो दया, नीति-न्याय का ध्यान।
तब होता दायित्व का, जन-मन को कुछ ध्यान।। 
*
नेता करते आजकल, उल्टा ही व्यवहार।
वादों को जुमला बता, छलें बना सरकार।।
*
नीति-नियम, सिद्धांत से, शोभित हो दरबार।
तभी राज्य हर दुखी का, कर सकता उद्धार।।
*
राजनीति चलती सदा, टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
जन-विश्वास गँवा चुकी, देश-हाल बेहाल।।  
*
राजनीति के रंग दो, तनिक न उनमें मेल।
गोल-माल दो-चार दिन, शेष उम्र भर जेल।।
राजनीति में सहज है, सज जाना सिर-ताज।
बहुत कठिन ना दाग़ हो, और न जन नाराज।।
*
सत्ता-सुख या जेल हैं, राजनीति के छोर।
पहुॅचाती है व्यक्ति को, हवा बहे जिस ओर।।   
*
हानि-लाभ किससे-किसे, कह सकता कब-कौन?
कभी ढिंढौरा हराता, कभी जिताता मौन।।
*
भला-बुरा कुछ भी नहीं, घटना समयाधीन।
है दरिद्र गुणवान जन, कभी धनी गुणहीन।। 
*
हर सुयोग देता समय, यही भाग्य की बात।
हो कुयोग छोटा मगर, हो जाता विख्यात।।
*
कर्मयोग में रत सतत, लोग खटें दिन-रात
बिना परिश्रम कई मगर, जग में होते ख्यात।।
*
राजनीति में नाम के, साथ-साथ जंजाल।
भाग्य रहे यदि साथ तो, झट हो मालामाल।।  
*
यदि चुनाव में जीत हो, तो डग-डग सम्मान।
हार दिखाती व्यक्ति को। केवल कूडादान।।
*
राजनीति के युगों से, रंगे खून से हाथ।
रहम न करना जानती, कभी किसी के साथ।।
*
राजनीति उनको कठिन, जो हैं मन के साफ।
गाॅधी और सुभाष तक, पा न सके इंसाफ।।   
*
स्वार्थ नीति से है भरी, राजनीति की चाल।
जब जिसको मैाका मिला हथियाया हर माल।। 
*
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार।
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।।
*
प्रेम भाव निज मित्र है, रिपु है मनोविकार।
शांति प्राप्ति हित मन स्वयं, देता है आधार।।
*
जैसा गंगा-नर्मदा, का शुभ पावन नीर।
वैसे ही निर्मल रखो, अपना मन व शरीर।
*
अपने मन की मलिनता, कौन सका है जान।
जान रहा सब को मनुज, खुद से ही अनजान।।
*
गुण दोषों का शाब्दिक, होता अधिक बखान।
सच्चाई से व्यक्ति की, होती कम पहचान।।
*
जीवन औ‘ वातावरण, जिसका सहज पुनीत।
उसकी ही हर क्षेत्र में, होती निश्चित जीत।।
*
जिसको रहे सचाई का, अपनी पल-पल ध्यान।
उसे घेर सकता नहीं, कभी-कहीं अभिमान।।
*
जीवन ईश्वर का दिया, है अनुपम उपहार।
प्रतिदिन उसके दान का, ध्यान रहे उपकार।।  
*
देख विविधता विश्व की, होता है अनुमान। 
कहीं नियंता छिपा है, कहें उसे भगवान ।
*
टी.वी. मोबाइल मिले, ऐसे आविष्कार।
जिनने जन सामान्य के, बदल दिये व्यवहार।।
*
अब आपस में बैठ मिल, कम हो पाती बात।
मोबाइल पर ही करें, चैट मनुज दिन-रात।।
*
कहे नहीं जाते कहीं, मन के मधुर प्रसंग।
अधिक समय नित बीतता, मोबाइल के संग।।
*
मौखिक बातें कह-सुनी, जाती हैं कम आज।
लोगों को भाती अधिक, मोबाइल आवाज।।  
*
अपनों से सुनते नहीं, अब अनुभव उपदेश।
वयोवृद्ध के बढ गए, घर मे कष्ट-कलेष।।
*
यद्यपि सुविधाएँ बढ़ीं, बढ़ा अधिक व्यापार।
पर धोखा छल झूठ का, भी हो चला उभार।।
*
जीवन बना मशीन सा, नीरस सब व्यवहार।
प्रेम भाव दिखता नहीं, धन का है व्यापार।।
*
मानव जीवन बन गया, लेन-देन बाजार।
भूल गये कर्तव्य सब, याद रहे अधिकार।। 
*
इस जग के हर देश में, हो शुभ ममता-भाव।
पावन प्रिय संवाद का, कहीं न रहे अभाव।।
*
सही सोच सद्वृत्ति से, मन बनता बलवान। 
मिटते सबके कष्ट सब, होता शुभ कल्याण।।
*
मन है जिसका ड्रायवर, यह तन है वह कार।
अगर  ड्रायवर शराबी, खतरों की भरमार।
*
मानव मूल्यों का सतत, होता जाता ह्रास। 
इससे उठता जा रहा, आपस का विश्वास।।
*
मन पवित्र हो तो दिखे, वातावरण पवित्र।
नहीं कहीं रिपु हो तभी, हर जन दिखता मित्र।।
*
पावन मन से उपजता, जीवन मे आनंद।
निर्मल मन को ही सदा मिले सच्चिदानंद।।
*
शांत शुद्ध मन में नहीं, उठते कभी विकार। 
मन की सात्विक वृत्ति हित, धर्म सबल आधार।।
*
राजनीति को कम रहा नैतिकता से प्यार।
उसको तो भाता रहा, मनचाहा अधिकार।।
*
अनशन द्वेष विरोध हैं, राजनीति के धर्म।
गिरफतार-बदनाम हों, नहीं तनिक भी शर्म।।   
*
इस युग में बन गई है, राजनीति व्यापार।
जिससे बढ़ता ही गया, खुलकर भ्रष्टाचार।।
*
झूठ बोल करती सदा, बढ़-चढ़ आत्म प्रचार।
बातें ज्यादा काम कम, करती है सरकार।।
*
संविधान की भावना, तज दल-हित को तूल।
दे करती सरकार ही, काम नियम प्रतिकूल।।  
*
पावन मन में कभी भी, पलते नही विकार।
मन की सात्विक वृत्ति का, सदा धर्म आधार।।
*
मन यदि पावन हो तभी, वातावरण पवित्र।
नहीं कहीं भी शत्रु हो, सब दिखते हैं मित्र।।
*
हो संयमित विचार तो, सुखी रहे संसार।
कभी किसी परिवेश में, बढ़े न अत्याचार।।
*
जिसे मलिन नहिं कर सके, उथले मनोविचार।
 ऐसी होनी चाहिये, दृढ विचार सरकार।। 
*
अस्थायी संसार है, नश्वर हर व्यवहार।
मरणशील है जगत यह, अमर एक बस प्यार।
*
घटनाएँ होती क्षणिक, किंतु सतत हो याद।
नहीं भुलाए भूलतीं, सुनें नहीं फरियाद।।
*
आते जाते हैं सतत, मन में भाव हजार।
प्रेम भाव ही हमेशा, है सुख का आधार।।
*
बड़ी गूढ संसार में, है कर्मो की बात।
कर्मो से ही उपजते, सुख-दुख औ' आघात।।
*
मन ही खुद की कैद है, जीवन कारागार।
फल देता सबको सदा, खुद का ही व्यवहार।।
*
काम कराते व्यक्ति से, उसके ही संस्कार।
व्यक्ति आप ही बनाता, है अपना संसार।।
*
बचपन यौवन चार दिन, बीते युग की बात।
वृद्धावस्था ही सदा, देती सबको साथ।।
*
जो न अनैतिकता कभी, मान सका निज प्यार।  
सुख से कर सकता वही, भव सागर को पार।
*
जिसको निज मन जीतने, से होती है प्रीति।
उसे कभी संसार में, कहीं न कोई भीति।।
*
मलिन न कर पाए जिसे, उथले मनोविकार।
ऐसी आत्मा को नहीं, कठिन जगत उद्धार।।
*
अगर शांति से चाहता, जाना  भव के पार।
बना सत्य औ' प्रेम को, जीवन का आधार।।
*
जिसके मन संतोष है, जो दे-पाता प्यार।
उसको भी छोड़े नहीं, दुःख देता संसार।।
*
भारतीय भाषाओ की, संस्कृत मूलाधार।
जिसमे अगणित ज्ञान, का भरा अमर भंडार।।
*
प्रकृति सदा हर जीव का, करती है उपकार।
उसकी पावन कृपा से, संचालित संसार।।
*
मिला सुमन को दैव से, है अनुपम वरदान।
देवताओं के शीश पर, चढ़ कर पता मान।।
*
सदा प्रथाएँ बदलतीं, आते नए विचार।
बीती सदियों से बहुत, आगे अब संसार।।
*
जिस पर प्रभु करते कृपा, वह पाता वरदान।
जैसे सबके पूज्य हैं, राम भक्त हनुमान।।
*
कृषक सदा न्व आस से, करते कृषि के काम।
पर मौसम की मार का, डर रहता हर शाम।।
*
नई सभ्यता ने किया, नदियों को निष्प्राण।
ऐसे में नदियाॅ करें, कैसे जन कल्याण।। 
*
नादानी करता रहा, युग-युग से इंसान।
उसका दुश्मन रहा है, उसका ही अज्ञान।।  
*
वर्षा सूखा शीत या, आतप का संताप।
मानव मन को सताता, पर वह है चुपचाप।।  
*
नहीं किसी के बिन कभी, रुके जगत के काम।
विकट व्यवस्था काल की, उसको विनत प्रणाम।।१०२ 
***