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रविवार, 1 सितंबर 2024

जून ३०, गीत, तुलसी, मुक्तक, गुरु सक्सेना, दोहा, बुंदेली, सॉनेट, क्षुद्र ग्रह, आइंस्टीन

सलिल सृजन जून ३०
*
भारत जीता विश्व कप,  

*
रोहित राहुल हार्दिक ने कर दिया कमाल।
विराट पंत जसप्रीत, चहल ने किया धमाल।।
अर्शदीप अक्षर संजू भी डटे रहे।
सिराज संग कुलदीप जड़ेजा अडिग रहे।।
सबने होकर एक तिरंगा फहराया।
सबसे ऊपर भारत का ध्वज फहराया।।

* क्षुद्र ग्रह (ऐस्टरॉइड) दिवस

क्षुद्रग्रह खगोलीय पिंड होते है जो ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते है। यह अपने आकार में ग्रहों से छोटे और उल्का पिंडों से बड़े होते हैं। खोजा जाने वाला पहला क्षुद्रग्रह, सेरेस, १८१९ में ग्यूसेप पियाज़ी द्वारा पाया गया था और इसे मूल रूप से एक नया ग्रह माना जाता था।

* १९०५ आइंस्टीन ने सापेक्षता सिद्धांत प्रकाशित किया।

३० जून, १९०५ को अल्बर्ट आइंस्टीन ने जर्मन भौतिकी पत्रिका एनालेन डेर फिजिक में "ज़ूर इलेक्ट्रोडायनामिक बेवेग्टर कोर्पर (चलती वस्तुओं के इलेक्ट्रोडायनामिक्स पर)" नामक एक पेपर प्रकाशित किया, जो उनके विशेष सापेक्षता के सिद्धांत को प्रस्तुत करता है। आइंस्टीन के इस अभूतपूर्व कार्य ने भौतिकी की नींव हिला दी।

स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में फेडरल पॉलिटेक्निक स्कूल में पढ़ने के बाद, आइंस्टीन ने १९०२ से १९०९ तक बर्न में स्विस पेटेंट कार्यालय में काम किया। उन्हें "तृतीय श्रेणी के तकनीकी विशेषज्ञ" के रूप में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे आविष्कारों की पेटेंट योग्यता की जाँच करते थे, संभवतः उनमें बजरी छाँटने की मशीन और मौसम संकेतक शामिल थे। अपने मित्र मिशेल बेसो को लिखे एक पत्र में, आइंस्टीन ने पेटेंट कार्यालय को " वह धर्मनिरपेक्ष मठ माना जहाँ मैंने अपने सबसे सुंदर विचारों को जन्म दिया ।"

इनमें से सबसे गहन विचार ९१०५ में एक के बाद एक लिखे गए पाँच सैद्धांतिक शोधपत्रों में उभरे, जिन्होंने 20 वीं सदी के वैज्ञानिक विचारों में क्रांति ला दी। इतिहासकारों ने बाद में इस अवधि को आइंस्टीन के एनस मिराबिलिस या "चमत्कार वर्ष" के रूप में संदर्भित किया। उनके पहले शोधपत्र में प्रकाश के कण सिद्धांत का वर्णन किया गया था, जिसके लिए उन्हें बाद में १९२१ में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। उनके दूसरे शोधपत्र ने आणविक आकार निर्धारित करने के लिए एक नई विधि बनाई, और उनके तीसरे शोधपत्र ने ब्राउनियन गति की जांच की, जिसमें द्रव में निलंबित कणों की गति के लिए गणितीय व्याख्या प्रस्तुत की गई।

आइंस्टीन का चौथा पेपर, जिसे अक्सर भौतिकी के क्षेत्र में प्रकाशित सबसे महत्वपूर्ण पेपरों में से एक माना जाता है, ने सापेक्षता के अपने विशेष सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जिसने ब्रह्मांड के लंबे समय से स्थापित विचारों को पलट दिया जो आइजैक न्यूटन द्वारा गति के नियमों को पेश करने के बाद से प्रचलित थे। न्यूटन ने लिखा, "समय, किसी भी बाहरी चीज़ से संबंध के बिना समान रूप से बहता है," जबकि अंतरिक्ष "हमेशा समान और अचल रहता है।" हालाँकि, आइंस्टीन के कट्टरपंथी सिद्धांत ने माना कि समय और स्थान निरपेक्ष नहीं हैं, बल्कि पर्यवेक्षक की गति के सापेक्ष हैं।

मान लीजिए कि दो पर्यवेक्षक हैं; एक ट्रेन की पटरी पर स्थिर खड़ा है, जबकि दूसरा ट्रेन के बीच में बैठकर एक समान गति से ट्रेन से यात्रा कर रहा है। यदि ट्रेन के दोनों छोर पर बिजली गिरती है, ठीक उसी समय जब ट्रेन का मध्य बिंदु स्थिर पर्यवेक्षक से गुजरता है, तो प्रत्येक बिजली के झटके से प्रकाश को पर्यवेक्षक तक पहुंचने में समान समय लगेगा। वह सही ढंग से मान लेगा कि बिजली के झटके एक साथ हुए थे। हालाँकि, ट्रेन यात्री घटनाओं को अलग तरह से देखेगा। प्रकाश की गति स्थिर रहने पर, पीछे से आने वाला प्रकाश सामने से आने वाले प्रकाश की तुलना में बाद में दिखाई देगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि पीछे से आने वाले प्रकाश को यात्री तक पहुँचने के लिए अधिक दूरी तय करनी पड़ती है क्योंकि वह पीछे से आने वाले बिजली के झटके से दूर जा रही थी और सामने से आने वाले बिजली के झटके की ओर जा रही थी। इसलिए, यात्री को लगेगा कि बिजली के दो झटके एक साथ नहीं हुए हैं, और यह सही भी होगा।

सितंबर में, आइंस्टीन ने विशेष सापेक्षता के गणितीय अन्वेषण के साथ पांचवां पेपर प्रकाशित किया: E=mc 2 , जिसमें ऊर्जा (E) द्रव्यमान (m) गुणा प्रकाश की गति (c) वर्ग ( 2 ) के बराबर है। दुनिया में सबसे प्रसिद्ध समीकरण यह माना गया कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं और एक ही चीज़ को मापने के अलग-अलग तरीके हैं। इस खोज के दूरगामी परिणाम हुए और इसने परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम के अंतिम विकास के लिए मंच तैयार किया, जिसमें आइंस्टीन की कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी। वास्तव में, शुरुआत में अमेरिका द्वारा परमाणु बम विकसित करने के समर्थक होने के बावजूद, आइंस्टीन ने उस समर्थन को पूरी तरह से त्याग दिया।
***
सॉनेट
सरकार
जाको ईंटा, बाको रोड़ो
आई बहुरिया, मैया बिसरी
भओ पराओ अपनो मोड़ो
जा पसरी, बा एड़ी घिस रई
पल मा पाला बदल ऐंठ रए
खाल ओढ़ लई रे गर्दभ की
धोबी के हो सेर रेंक रए
बारी बंदर के करतब की
मूँड़ मुड़ाओ, सीस झुकाओ
बदलो पाला, लै लो माला
राजा जी की जै-जै गाओ
करो रात-दिन गड़बड़झाला
मनमानी कर लो हर बार
जोड़-तोड़ कर, बन सरकार
३०-६-२०२२
•••
बुंदेली लोकगीत
काए टेरो
*
काए टेरो?, मैया काए टेरो?
सो रओ थो, कओ मैया काए टेरो?
*
दोरा की कुंडी बज रई खटखट
कौना पाहुना हेरो झटपट?
कौना लगा रओ पगफेरो?
काय टेरो?, मैया काए टेरो?...
*
हांत पाँव मों तुरतई धुलाओ
भुज नें भेंटियो, दूरई बिठाओ
मों पै लेओ गमछा घेरो
काय टेरो?, मैया काए टेरो?
*
बिन धोए सामान नें लइयो
बिन कारज बाहर नें जइयो
घरई डार रइओ डेरो
काए टेरो?, मैया काए टेरो
३०-६-२०२०
***
दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत।
माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग।
जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह।
करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल।
विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर।
हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम।
देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन।
किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त।
निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
*
चित्रकार वह; दृश्य वह, वही चित्र है मित्र।
जीव समझता स्वयं को, माया यही विचित्र।।
*
बिंब प्रदीपा ज्योति का, सलिल-धार में देख।
निज प्रकाश मत समझ रे!, चित्त तनिक सच लेख।।
३०.६.२०१८
***
आज की कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर-संजीव वर्मा सलिल जबलपुर
*
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
३०-६-२०१७
***
प्रतिरचना:
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए।
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए।
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,
सिया-उमा, भोले- हनुमान संग विराजिए।
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा 'सलिल' सँग आ पंजीरी फाँकिये।
***
मुक्तक
मतभेदों की नींव पर खड़े कर मतैक्य के महल अगर हम
मनभेदों को भुला सकें तो घट जायेंगे निश्चय ही गम
मानव दुविधा में सुविधा की खोज करे, कुछ पाएगा ही
कुछ कोशिश करना ही होगी, फहराना ही है यदि परचम
*
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन लगा कि केवल सपना है
बारिश ठंडी ग्रीष्म न ठहरे, आए आकर चले गए-
सलिल तुम्हारा भाग्य न बदला, नाहक माला जपना है
***
गीत
तुलसी
*
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
सहिष्णुता का
पौधा सूखा
घर-घर तनातनी।
*
सदा सुहागन मुरझाई है
खुशियाँ दूर हुईं।
सम्बन्धों की नदियाँ सूखीं
या फिर पूर हुईं।
आसों-श्वासों में
आपस में
बातें नहीं बनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
जुही-चमेली पर
चंपा ने
क्या जादू फेरा।
मगरमस्त संग
'लिव इन' में
हैं कैद, कसा घेरा।
चार दिनों में
म्यारी टूटी
लकड़ी रही घुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
झुके न कोई तो कैसे
हो तालमेल मुमकिन।
बर्तन रहें खटकते फिर भी
गा-नाचें ता-धिन।
तृप्ति चाहते
प्यासों ने ध्वनि
कलकल नहीं सुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
***
पुस्तक सलिला-
'लोकल विद्वान' व्यंग्य का रोचक वितान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- लोकल विद्वान, व्यंग्य लेख संगर्ह, अशोक भाटिया, प्रथम संस्करण, ISBN ९७८-९३-८५९४२-१०-५, २०.५ से. मी. x १४ से. मी., पृष्ठ ९६, मूल्य ८०/-, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, व्यंग्यकार संपर्क बसेरा, सेक़्टर १३, करनाल १३२००१ चलभाष ९४१६११५२१००, ahsokbhatiahes@gmail.com]
*
हिंदी गद्य के लोकप्रय विधाओं में व्यंग्य लेख प्रमुख है। व्यंञकार समसामयिक घटनाओं और समस्याओं की नब्ज़ पर हाथ रखकर उनके कारन और निदान की सीढ़ी चर्चा न कर इंगितों, व्यंगोक्तियों और वक्रोक्तियों के माध्यम से गुदगुदाने, चिकोटी काटने या तीखे व्यंग्य के तिलमिलाते हुए पाठक को चिंतन हेतु प्रेरित करता है। वह उपचार न कर, उपचार हेतु चेतना उत्पन्न करता है
हिंदी व्यंग्य लेखन को हाशिये से मुख्य धारा में लाने में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्री लाल शुक्ल आदि की परंपरा को समृद्ध करनेवाले वर्तमान व्यंग्यकारों में अशोक भाटिया उल्लेखनीय हैं। भाटिया जी हिंदी प्राध्यापक हैं इसलिए उनमें विधा के उद्भव, विकास तथा वर्तमान की चेतना और विकास के प्रति संवेदनशील दृष्टि है। स्पष्ट समझ उन्हें हास्य औेर व्यंग्य के मध्य बारीक सीमा रख का उल्लंघन नहीं करने देती। वे व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में चर्चित रहे हैं।
विवेच्य कृति लोकल विद्वान में २१ व्यंग्य लेख तथा १४ व्यंग्यात्मक लघुकथाएँ हैं। कुत्ता न हो पाने का दुःख में लोभवृत्ति, लोकल विद्वान में बुद्धिजीवियों के पाखण्ड, महान बनने के नुस्खे में आत्म प्रचार, चलते-चलते में प्रदर्शन वृत्ति , कुत्ता चिंतन सार में स्वार्थपरता, नेता और अभिनेता में राजनैतिक विद्रूप , साड़ीवाद में महिलाओं की सौंदर्यप्रियता, मेले का ग्रहण में मेलों की आड़ में होते कदाचार, असंतोष धन में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पारम्परिक मुहावरों के नए अर्थ, तेरा क्या होगा? में आचरण के दोमुंहेपन, निठल्ले के बोल में राजनैतिक नेता के मिथ्या प्रलाप, फाल करने का सुख में अंग्रेजी शब्द के प्रति मोह, विलास राम शामिल के कारनामे में साहित्यकारों के प्रपंचों, रबड़श्री भारतीय खेल दल में क्रीड़ा क्षेत्र व्याप्त विसंगतियों, किस्म-किस्म की समीक्षा में विषय पर विश्लेषणपरक विवेचन, इम्तहान एक सभ्य फ्राड में शिक्षा जगत की कमियों, साहित्य के ओवरसियर में लेखका का आत्ममोह, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर में धन-लोभ, पीड़ा हरण समारोह में साहित्य क्षेत्र में व्याप्त कुप्रवृत्तियों, नौ सौ चूहे बिल्ली और हज में राजनीति तथा नई प्रेम कथा में प्रेम के नाम पर हो रहे दुराचार पर अशोक जी ने कटाक्ष किये हैं।
इन व्यंग्य लेखों में प्रायः आकारगत संतुलन, वैचारिक मौलिकता, शैलीगत सहजता, वर्णनात्मक रोचकता और विषयगत है जो पाठक को बाँधे रखने के साथ सोचने के लिए प्रवृत्त करता है। अशोक जी विषयों का चयन सामान्य जन के परिवेश को देखकर करते हैं इसलिए पाठक की उनमें रूचि होना स्वाभाविक है। वे आम बोलचाल की भाषा के पक्षधर हैं, इसलिए अंग्रेजी-उर्दी के शब्दों का स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं।
लघु कथाओं में अशोक जी किसी न किसी मानवीय प्रवृत्ति के इर्द-गिर्द कथानक बुनते हुए गंभीर चुटकी लेते हैं। रोग और इलाज में नेताओं की बयानबाजी, क्या मथुरा क्या द्वारका में अफसर की बीबी की ठसक, सच्चा प्यार में नयी पीढ़ी में व्याप्त प्रेम-रोग, दोहरी समझ में वैचारिक प्रतिबद्धता के भाव, अच्छा घर में प्रच्छन्न दहेज़, वीटो में पति-पत्नी में अविश्वास, अंतहीन में बेसिर पैर की गुफ्तगू, साहब में अधिकारियों के काम न करने, दर्शन में स्वार्थ भाव से मंदिर जाने, एस एम एस में व्यक्तिगत संपर्क के स्थान पर संदेश भेजने, पहचान में आदमी को किसी न किसी आधार पर बाँटने तथा दान में स्वार्थपरता को केंद्र में रखकर अशोक जी ने पैने व्यंग्य किये हैं।
सम सामायिक पर सहज, सुबोध, रोचक शैली में तीखे व्यंग्य पाठक को चिंतन दृष्टि देने समर्थ हैं। अशोक जी की १२ पुस्तकें पूर्व प्रकाशित हैं। उनकी सूक्ष्म अवलोकन वृत्ति उन्हें दैनन्दिन जीवन के प्रसंगों पर नए कोण से देखने, सोचने और लिखने सक्षम बनाती है। इस व्यंग्य संग्रह का स्वागत होगा।
***
***
मुक्तक
मतभेदों की नींव पर खड़े कर मतैक्य के महल अगर हम
मनभेदों को भुला सकें तो घट जायेंगे निश्चय ही गम
मानव दुविधा में सुविधा की खोज करे, कुछ पाएगा ही
कुछ कोशिश करना ही होगी, फहराना ही है यदि परचम
३०-६-२०१६
दो पदी
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन लगा कि केवल सपना है
३०-६-२०१५
***
छंद सलिला:
दण्डकला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत लघुगुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध।
लक्षण छंद: यति दण्डकला दस / आठ आठ छह / लघु गुरु सदैव / पदांत हो
जाति लाक्षणिक गिन / रखें हर पंक्ति / बत्तिस मात्रा / सुखांत हो
उदाहरण:
१. कल कल कल प्रवहित / नर्तित प्रमुदित / रेवा मैया / मन मोहे
निर्मल जलधारा / भय-दुःख हारा / शीतल छैयां / सम सोहे
कूदे पर्वत से / छप-छपाक् से / जलप्रपात रच / हँस नाचे
चुप मंथर गति बह / पीर-व्यथा दह / सत-शिव-सुंदर / नित बाँचे
२. जय जय छत्रसाल / योद्धा-मराल / शत वंदन नर / नाहर हे!
'बुन्देलखंडपति / यवननाथ अरि / अभिनन्दन असि / साधक हे
बल-वीर्य पराक्रम / विजय-वरण क्षम / दुश्मन नाशक / रण-जेता
थी जाती बाजी / लाकर बाजी / भव-सागर नौ/का खेता
३. संध्या मन मोहे / गाल गुलाबी / चाल शराबी / हिरणी सी
शशि देख झूमता / लपक चूमता / सिहर उठे वह / घरनी सी
कुण्डी खड़काये / ननद दुपहरी / सास निशा खों-/खों खांसे
देवर तारे ससु/र आसमां बह/ला मन फेंके / छिप पांसे
----------
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
नवगीत
*
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
२४-९-२०१४
***
भोजपुरी हाइकु:
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
३०-६-२०१४
***

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

पुरोवाक्, चुनाव चकल्लस, गुरु सक्सेना, हास्य, पिंगल, छंद, घनाक्षरी, सवैया

पुरोवाक्:
'चुनाव चकल्लस' : हास्य रस से लबालब छंद कलश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    'सर्वोत्तम जिंदा रहे' ('सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट') ही सृष्टि में जीवन का मूल सूत्र है। मानवेतर प्राणियों में सर्वोत्तम की पहचान दैहिक बल से होती है। मानव में बुद्धितत्व की प्रधानता तथा भाषा का विकास होने के कारण जीवन का निर्धारण तन, मन तथा मति तीन  आधार पर भी होता है। बुद्धि की प्रधानता विकल्पों को पहचानकर सर्वोत्तम के चयन की कसौटी की दो विधियों संघर्ष और चयन में से दूसरे को प्राथमिकता देती है। इसका कारण संघर्ष से जन-धन की हानि तथा चयन से शांति व विकास होना है। 

                    जीव और जीवन में सामंजस्य, अनुशासन, सुव्यवस्था, विकास तथा शांति के लिए शासक और शासित का होना अपरिहार्य है। मानवेतर जीवों में शासक का चयन संघर्ष से हत्या है जिसमें पर्याय: पराजित के समक्ष प्राणहनी या पलायन के अलावा अन्य विकल्प नहीं होता किंतु बुद्धिजीवी मनुष्य शासक का चयन शांतिपूर्ण तरीके से करने को प्रमुखता दे रहा है। राजनीति शास्त्र में वर्णित विविध शासन पद्धतियों में से लोकतंत्र, प्रजातन्त्र या गणतंत्र (डेमोक्रेसी) शांतिमे शासन व्यवस्था परिवर्तन की श्रेष्ठ और लोकप्रिय पद्धति है। भारत में यह पद्धति वैदिक काल से यत्र-तत्र प्रचलित रही है। वर्तमान में भारत विश्व का सबसे अधिक बड़ा और सबसे अधिक सफल लोकतन्त्र है जिसमें प्रति पाँच वर्ष बाद अगले पाँच वर्षों के लिए चयनित जनप्रतिनिधियों से सबड़े अधिक बड़े समूह द्वारा बहुमत से अगले शासक का चुनाव किया जाता है। अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। इस विशेषता, वृहद आकार तथा विशाल जनसंख्या के कारण चुनाव का अनुष्ठान विविध रोचक दृश्य उपस्थित करता है।

                   मानव भाव्यभिव्यक्ति के लिए गद्य तथा पद्य दो माध्यमों का उपयोग करता है। पद्य की सरसता, सहजता, सरलता, संक्षिप्तता तथा लोकप्रियता रोचक प्रसंगों की अभिव्यक्ति हेतु अधिक उपयुक्त है। हिंदी भाषी काव्य के ९ रसों ( श्रृंगार, हास्य, वीर, भयानक, बीभत्स, रौद्र, अद्भुत, शांत और करुण) में से सर्वाधिक लोकप्रिय हास्य रस है। किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर अथवा किसी काव्य को सुनकर हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास्य कहा जाता है। हास्यजनित आनंद या भाव की  अनुभूति ही हास्य रस है। किसी विचार, व्यक्ति, वस्तु व घटना का स्वरूप वैचित्र्य ही हास्य का जनक है। यह वैचित्र्य विस्मय या आश्चर्य उत्पन्न कार लक्षित व्यक्ति को गुदगुदा जाता है। भरतमुनि के अनुसार 'दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से' ‘हास’ की उत्पत्ति तथा स्मित, हास एवं अतिहसित द्वारा अभिव्यक्ति होती है।' पण्डितराज 'वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से हास ही उत्पत्ति मानते हैं।' डॉ. गणेश दत्त सारस्वत के मत में'हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन के भावों की सुंदरता झलक उठती है।' हास्य वास्तव में निच्छल मन से निकला, मानव मन का वह कवच है जो उद्दात्त भावों को नियंत्रण कर हमें पृथ्वी पर रहने योग्य बनाता है। विश्वप्रसिद्ध लेखक "वाल्तेयर" ने कहा था' जो हँसता नहीं वो लेखक नहीं हो सकता।' मार्क ट्वेन के अनुसार समाज की सही तस्वीर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यंगकार पर ही है।


                   हास्य रस के दो प्रकार आत्मस्थ हास्य रस (किसी व्यक्ति या विषय की विचित्र वेशभूषा, वाणी, आकृति तथा चेष्टा आदि को देखने  से उत्पन्न) तथा परस्थ हास्य रस (हँसते हुए व्यक्ति को देखकर जो उत्पन्न हास्य) हैं। आचार्य केशवदास ने हास के ४ प्रकार मन्दहास, कलहास, अतिहास एवं परिहास माने हैं। आधुनिक काव्यशास्त्र ने हास्य के छ: प्रकार स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित बताए हैं। हास्य रस का  स्थाई भाव- हास (हास्य), आलंबन विभाव-  विकृत वेशभूषा, आकार, क्रियाएँ, चेष्टाएँ आदि,  उद्दीपन विभाव- अनोखा पहनावा और आकार, बातचीत और क्रिया-कलाप, अनुभाव- आश्रय की मुस्कान, आँखों का मिचमिचाना, ठहाका, अट्ठहास आदि  तथा संचारी भाव हँसी, उत्सुकता, चपलता, कंपन, आलस्य आदि हैं। अमिधा-लक्षणा से हास्य तथा लक्षण-व्यंजना से व्यंग्य का सृजन होता है। 

                   भारतीय लोक साहित्य तथा हिंदी साहित्य में पुरातन काल हास्य की समृद्ध परंपरा है। नौटंकी, लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथा,  आख्यायिका, नाटक, गीत, महाकाव्य, पंचतंत्र, जातक कथाएँ, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि में हास्य चिर काल से है। उपनिषदों, पंचतंत्र, जातक कथाओं, पर्व कथाओं, बोध कथाओं, सूर रचित कृष्ण लीला के पदों, पृथ्वीराज रासो में चंदरबरदाई और जयचंद की वार्ता, भारतेंदु हरिश्चंद (अंधेर नगरी, ताजीराते शौहर), गोपालराम 'गहमरी', प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, शिवपूजनसहाय, विश्वभरनाथ शर्मा 'कौशिक', बाबू गुलाबराय, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी',  मुंशी प्रेमचन्द, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, झलकन लाल वर्मा छैल, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, पद्मश्री के.पी. सक्सेना, गुरु सक्सेना (साँड़ नरसिंहपुरी), सुरेश उपाध्याय, सुरेन्द्र शर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी, अशोक चक्रधर, अनूप श्रीवास्तव, संजीव वर्मा 'सलिल', राजेंद्र वर्मा, अरुण अर्णव खरे, इन्द्रबहादुर श्रीवास्तव आदि अगिन साहित्यकारों ने हास्य-व्यंग्य की श्रेष्ठ गाड़ी-पद्य रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया। 

                   हास्य-व्यंगकार हँसते-हँसते सब कुछ कह जाता है और सुनने वाले भी बिना बुरा माने हँसते- हँसते सुनते हैं और फिर सोचने के लिए बाध्य भी होते हैं कि हम खुद की कारस्तानियों , खुद के द्वारा उत्पन्न की हुई परिस्थिति पर स्वयं ही हँस रहे हैं। वास्तव में जो बात क्रोध से, शांति से कहने में समझ नहीं आती वो इंसान हँसी -हँसी में समझ लेता है चूँकि उसका अहम् आहत नहीं होता। इसलिए हास्य-व्यंग्य प्रधान साहित्य से समाज को स्वास्थ्य दिशा दिखाकर सामाजिक परिवर्तन करना संभव हो पाता है।

                   इस पृष्ठ भूमि में सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के हृद प्रदेश के निवासी गुरु सक्सेना जी की नवीनतम कृति 'चुनाव चकल्लस' भारतीय राजनीति, लोकतंत्र तथा जन सामान्य के लिए पथ प्रदर्शक कृति है। गुरु सक्सेना ग्रामीण और नगरीय जीवनशैली, कृषक और शिक्षक वृत्ति, चिंतक और व्यंगकार मनोवृत्ति के कॉकटेल हैं। मसिजीवी कायस्थ कुल (मैं कायस्थ कुलोद्भव मेरे पुरखों ने इतना ढाला, मेरे लोहू में मिश्रित है पचहत्तर प्रतिशत हाला) उत्पन्न गुरु जी शुद्ध शाकाहार और सात्विक आचार-आहार के पक्षधर हैं। गुरु जी के व्यक्तित्व-कृतित्व को 'विचित्र किंतु सत्य' ही कहा जा सकता है।

                   १६ प्रकार के घनाक्षरी छंद (मनहरण, जनहरण, जलहरण, कलाधर, रूप, डमरू, कृपाण, विजया, देव, महीधर, सूर, नीलचक्र अशोक पुष्प मंजरी, सुधा निधि, अनंगशेखर व मत्त मातंग लीलाधर), १० प्रकार के सवैए (सुमुखी, वाम, मुक्तहरा, लवंगलता, मत्तगयंद, मदिरा, मंदारमाला, चकोर अरसात व किरीट)  तथा २१ अन्य छंद रत्नों (सरसी, कनकमंजरी, राधा, विजात, गीतिका, अहीर, दीनबंधु, चंद्र, दिग्पाल, मानव, हाकलि, प्रदीप, लावणी, ताटंक, शिव, भानु, राधिका, सुमेरु, तोटक, द्वि मनोरमा) के छंद विधान एवं उदाहरणों से समृद्ध 'चुनाव चकल्लस' 'एक के साथ एक फ्री' के समय में मनोरंजन के साथ-साथ छंद शास्त्र की पर्याप्त जानकारी भी देती है।   

                   'चुनाव चकल्लस' का रचनाकार कुशल छंदज्ञ, गंभीर विचारक, ओजस्वी मंचीय कवि तथा सहज-सरल व्यक्तित्व का धनी है। अपने आप पर हँसने का माद्दा कम ही लोगों में होता है। गुरु उन्हीं कम लोगों में से एक हैं। वे खुद अपना ही परिचय इस तरह देते हैं- 

करने को कोई काम नहीं
अण्टी में बिलकुल दाम नहीं
भारत माता के नूर हैं हम
हर हालत में मजबूर हैं हम

                   यह 'भारत माता का नूर' देश के राजनैतिक आकाओं को उनकी औकात निम्न पंक्तियों के आईने में दिखाता है-

नदियों से रेत साफ,जंगलों से पेड़ साफ, लड़कियों के भ्रूण साफ, भारत महान है ।
कविता से छंद साफ, नेह के संबंध साफ, सफाई का साफ साफ, हो रहा ऐलान है।
शांति के लगाव साफ, सारे सद्भाव साफ, धरने को देख संविधान परेशान है।
लगता है पूरा देश साफ करके रहेंगे, सड़क सड़क सफाई का अभियान है।

                   कवि गुरु सक्सेना की कलम सच कहने से न तो डरती है, न हिचकती है। सिर पर कफन बाँधकर, शासन-प्रशासन की बखिया उधेड़ने की कला का साहस और परिस्थितियों की विद्रूपता पर करारी चोट करने का कौशल गुरु को 'गुरु' बनाता है। शासन-प्रशासन द्वारा विधि के शासन की परवाह न कर बुलडोजर संस्कृति अपनाने के दौर में सत्य कहने का दुस्साहस करनेवाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला पत्रकार जगत सत्ता-स्तुति को ही लक्ष्य बना चुका है किंतु गुरु का गुरुत्व सत्ता को आईना दिखने से नहीं चूकता - 

यह चुनाव का पर्व मिला है पाँच साल के बाद। 
हे चुनाव का क्षेत्र बना है कुंभ इलाहाबाद।। 
जो भी घाट सामने आया गहरी डुबकी मार। 
पूजा नगद नरायण की कर हो जा सागर पार।। 
रंग रूप दल से क्या मतलब, किसमें क्या है खोट?
कुछ मत देख देखना है तो देख नोट ही नोट।। 
सारे ऐब सहज ढँक जाते जहाँ नोट की छाँव।
नोट बिछाकर सब निकले हैं पड़ने कुर्सी-पाँव।।
                   
                   वर्तमान बाजार संस्कृति 'एक के साथ एक फ्री' के पाखंड रचकर आमजन की जेब खाली कराने को ठगी नहीं, प्रबंध कौशल की संज्ञा देकार जेब खाली करा लेती है। गुरु की छांदस रचनाएँ 'एक (मनोरंजन) के साथ तीन (पिंगल-ज्ञान, कर्तव्य बोध तथा स्वस्थ्य चिंतन) फ्री देकर लोकतंत्र की नींव दृढ़ करने के लिए सजग जनमत बनाने का काम करती हैं। मतदान करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ नवोढ़ा कुलवधुओं को कर्तव्य की सीख देती निम्न घनाक्षरी कवि गुरु जी के सामर्थ्य के परिचायक है-   

रखा रख फट नहीं जाए इस कारण से समय से दूध को उबालना जरूरी है। 
बहू बन घर में आ जाना बड़ी  बात नहीं, तरीके से घर को सम्हालना जरूरी है।।
बच्चे पैदा कर देना कोई बड़ी बात नहीं, फिकर के साथ उन्हें पालना जरूरी है। 
लोकतंत्र मजबूत रहे देश ठीक चले, हर आदमी को वोट डालना जरूरी है।।   

                वर्ण और मात्रा को लक्ष्मण रेखा मानकर किताबी यांत्रिक विधि से नीरस छंद रचे जाने के वर्तमान कल में गुरु जमीन से जुड़कर, छंद सृजन की वाचिक परंपरा के अग्रदूत की तरह सरस छंद रच रहे हैं। भाषा की तथाकथित शुद्धता के पत्थर उछालने-मारनेवाले नासामझों को तर्क नहीं सृजन से उत्तर देते हैं। गुरु के छंदों की भाषा देशज-तद्भव शब्दावली संपन्न है। कथ्य की पतली रस्सी पर गति-यति का बाँस थामे गुरु नट की तरह संतुलन कौशल साधकर श्रोता-पाठक को करतल ध्वनि और वाह वाह करने के लिए विवश कर देते हैं। मुझे भरोसा है कि कॉनवेंटी नई पीढ़ी, नगरीय अपसंस्कृति को जी रहे बाबू साहबों- नव धनाढ्य सेठों तथा ग्राम्य और वन्य क्षेत्रों में रह रहे कुशकों-श्रमिकों  को गुरु जी के इन छंदों से दायित्व बोध होगा तथा वे नकली दूरदर्शनी और मोबाइली दुनिया से निकलकार अपनी माटी से जुड़ने की दिशा ग्रहण कर सकेंगे। इस लोकोपयोगी कृति से विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत कोश को समृद्ध करने के लिए गुरु सक्सेना साधुवाद के पात्र हैं। 
***
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

घनाक्षरी, गुरु सक्सेना, पुरोवाक्

पुरोवाक्
छंदों की किताब - घनाक्षरी लाजवाब
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    महा विस्फोट सिद्धांत (बिग बैंग थ्योरी) के अनुसार लगभग १५ अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड का निर्माण आरंभ हुआ। विस्फोट जनित नाद-निनाद ही सृष्टि उत्पत्ति का कारण है। भारतीय मनीषा नाद ब्रह्म की उपासना 'ॐ' ध्वनि से करती है जो सूर्य के प्रभा मण्डल से भी निसृत होता है। यह विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है। ज्ञान-विज्ञान-कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की वीणा से सप्त स्वर निनादित होते हैं। नाद तरंगों के सतत प्रवहण, टकराव, मिलन, बिखराव आदि के फल स्वरूप भारहीन कण तथा कालांतर में भारयुक्त कण का जन्म हुआ। यह निराकारी परब्रह्म का साकारी ब्रह्म में रूपांतरण होना है। चित्रगुप्त के गुप्त चित्र का प्रगटीकरण यही है। नाद-निनाद जो सकल सृष्टि पर छाया और निराकार के साकार होने में सहायक हुआ, यही छंद है। इस नाद की ध्वनि तरंगों की आवृत्ति सुनियोजित तथा लयबद्ध थी इसीलिए छंद में 'लय' का महत्व सर्वाधिक है। नाद-निनाद में लय तथा आवृत्ति की भिन्नता से सृष्टि के विविध तत्वों का निर्माण हुआ।

                    भौतिक विज्ञान के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व एक बहुत छोटे से बिंदु से फैलते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण व क्रमश: विस्तार हुआ। चारों वेदों और स्कंद पुराण 'रेवा खंड' में वर्णित सनातन सलिला मेकलसुता शिवात्मजा-शिवप्रिया नर्मदा की लम्हेटा घाट संरचना लगभग ६.५ करोड़ वर्ष प्राचीन है। लगभग ५ करोड़ वर्ष पूर्व दक्षिणी गोंडवाना लैण्ड्स और उत्तरी अंगारा लैण्ड्स से प्रवहित नदियों द्वारा लाखों वर्षों तक टेथिस महासागर (वर्तमान हिमालय, कश्मीर, पंजाब, राजस्थान उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि) में बहाई गई मिट्टी ने महासागर को पूर दिया। लगभग ३ करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय तथा २ करोड़ वर्ष पूर्व गंगा नदी का उद्भव काल है। नर्मदा घाटी में विचरनेवाले भीमाकारी डायनासौर राजासौरस नर्मडेन्सिस का काल लगभग २० लाख वर्ष पूर्व का है। नर्मदा घाटी में आदि मानव द्वारा बनाए गए शैल चित्र लगभग २५ हजार से ३५ हजार वर्ष पूर्व के हैं। यह संकेत करने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि 'छंदों की किताब' का रचयिता उस कलकल निनादिनी नर्मदा का सुत है जिसके दक्षिण में 'असुर' तथा उत्तर में 'सुर' सभ्यताओं का जन्म, विकास और टकराव हुआ तथा इस घटनाक्रम में नर्मदा घाटी की नाग सभ्यता 'दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय' की गति को प्राप्त हुई। वेदकालीन सूर्य ऋषि की तनया नंदिनी तथा नागकुल राजकन्या इरावती से विवाहित दोनों कुलों के पूज्य कर्मेश्वर धर्मेश्वर लिपि-लेखनी-अक्षर दाता श्री चित्रगुप्त के महावंश में जन्म लेने का सौभाग्य इस कृति के कृतिकार को और मुझे भी मिला है। स्वाभाविक है कि वृत्ति से शिक्षक और अभिरुचि से कवि (मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य - नीरज) शब्द ब्रह्म की सतत आराधना करते-करते छंद से साक्षात करे और कराए।

                    नर्मदा तट साधना से सिद्धि और गंगा तट सिद्धि से प्रसिद्धि के लिए चिरकाल से ख्यात है। 'नर्मम् ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंददेनेवाली है वह नर्मदा है। संस्कृत की 'चिद' धातु से बने 'छंद' का अर्थ आह्लादित करना है। नर्मदा-दर्शन से आनंद और छंद-सृजन से आह्लाद प्राप्ति का दुर्लभ सुख मुझ मूढ़मति को मिल रहा है तो मुझसे ज्येष्ठ गुरु जी की सुपात्रता असंदिग्ध है ही।

                    भगवान ब्रह्मा को कलुषित मति हेतु मिले श्राप से मुक्त कराने वाले ब्रह्मांड घाट (बरमान) में नर्मदा के सलिल-प्रवाह में अवगाहन का सौभाग्य कृतिकार को मिला है। बरमान घाट में  परमब्रह्म चित्रगुप्त भगवान के मंदिर निर्माण और विग्रह स्थापन का माध्यम बनने का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को मिला है। कृतिकार के पूर्व जन्म के संस्कार उसे कवि-मञ्च के प्रपंच की ऊँचाई तक पहुँचाने के बाद छंद-साधना और सिद्धि की दिशा में गतिमान कर चुके हैं। सिद्धि का प्रसाद श्रद्धालुओं को वितरित करने की परंपरा का निर्वाह इस कृति के माध्यम से हो रहा है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

छंद-महत्व तथा विरासत

                    'यदक्षरं परिमाणं तच्छन्दः' अर्थात् जहाँ अक्षरों की गिनती की जाती है या परिगणन किया जाता है, वह छन्द है। पाणिनीय शिक्षा में छन्दों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-'छन्दः पादौ तु वेदस्य'। यहाँ 'पैर' से भाव 'लात' नहीं 'चरण' ग्राह्य है। वेद मंदिर में प्रवेश चरण के बिना नहीं किया जा सकता अर्थात छंद जाने बिना वेद को समझा नहीं जा सकता। संस्कृत वांगमय में ७ वैदिक छंद (गायत्री २४ अक्षर, उष्णिक २८ अक्षर, अनुष्टुप् ३२ अक्षर, बृहती ३६ अक्षर, पंक्ति: ४० अक्षर, त्रिष्टुप ४४ अक्षर तथा जगती ४८ अक्षर) तथा १४ अति छंद (अतिजगती ५२ अक्षर, शक्वरी ५६ अक्षर, अतिशक्वरी ६० अक्षर, अष्टि ६४ अक्षर, अत्यष्टि ६८ अक्षर, धृति ७२ अक्षर, अतिधृति ७६ अक्षर, कृति ८० अक्षर, प्रकृति ८४, अक्षर, आकृति ८८ अक्षर, विकृति ९२ अक्षर, संस्कृति ९६ अक्षर, अभिकृति १०० अक्षर तथा उत्कृति १०४ अक्षर) हैं। इसके अतिरिक्त वार्णिक (सम, अर्धसम, विषम) तथा मात्रिक वृत्तों में विभक्त लौकिक छंद हैं। हिंदी छंद शास्त्र को अपभ्रंश तथा संस्कृत पिंगल की उदात्त विरासत प्राप्त है। हिंदी पिंगल के सर्वमान्य ग्रंथ छंद प्रभाकर (रचयिता जगन्नाथ प्रसाद 'भानु') में लगभग ७०० लौकिक छंदों का रचना विधान तथा उदाहरण प्राप्त हैं। गुरु जी ने छंद शास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों का अनुशीलन कर अपने प्रिय घनाक्षरी छंद को केंद्र में रखकर इस पिंगल ग्रंथ का सृजन किया है।

घनाक्षरी

                    हिंदी पिंगल के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में एक 'घनाक्षरी' का सृजन कवि की काव्य कला की कसौटी है। घनाक्षरी (घन + अक्षरी) नाम ही संकेत करता है कि इस छंद में अक्षरों का संगुफन सघन है। घनाक्षरी में सघनता भावों, रसों, अलंकारों, शब्द शक्तियों आदि की सघनता होना घनाक्षरीकार की गुरुता की परिचायक होती है। इस कृति की घनक्षरियों में विविध आयामी सघनता पंक्ति-पंक्ति में दृष्टव्य है। यदि इस दृष्टि से विवेचन किया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही तैयार हो जाएगा। इसलिए, यह विवेचन भावी शोधकर्ताओं के लिए छोड़ता हूँ। 
  
                    घनाक्षरी में 'चार' का महत्व है। चार पंक्तियाँ, चार यति स्थल। परंपरा से प्राप्त घनाक्षरी छंद ४ x २ = ८ (३१ वर्ण- मनहरण व जनहरण तथा ३२ वर्ण - रूप, जलहरण, डमरू, विजया, कृपाण तथा हरिहरण ) हैं। गुरु जी ने अपनी गुरुता के हस्ताक्षर करते हुए ७ अन्य घनाक्षरियों (३१ वर्ण- कलाधर, ३२ वर्ण- अनंगशेखर, सुधानिधि, मदनहरण,  ३३ वर्ण- देव, महीधर, ३० वर्ण सूर) पर न केवल रचनाएँ की हैं, पुस्तकांत में सभी १५ घनक्षरियों का रचना विधान भी संलग्न कर दिया है ताकि नव घनाक्षरीकार जोर आजमाइश कर सकें। 

                    घनाक्षरी छंद का परिवार बहुत बड़ा है। वर्ण मर्यादा के अनुसार ३१, ३२ तथा ३३ वर्णों के छंदों को घनाक्षरी माना जाए तो कुल प्रकार के छंद इस कुल में सम्मिलित होते हैं जिनकी यति, तुकांत आदि खोजे जा सकते हैं किंतु ये सभी घनाक्षरी इसलिए नहीं हो सकते कि इनकी लय घनाक्षरी कुल के छंदों की लय से सादृश्य नहीं रख सकेगी। इन छंदों में से किन-किन में घनाक्षरी कुल की लय है यह अन्वेषण शोध परियोजना में ही हो सकता है। व्यावहारिकता का तकाजा है कि भावी पीढ़ी को घनाक्षरी के चारुत्व और लालित्य से परिचित कराने के लिए अब तक अन्वेषित घनाक्षरियों के रचना विधान और उत्तम उदाहरण सुलभ कराए जाएँ। अंतर्जाल पर ८ जनवरी २००९ को हिंदयुग्म.कॉम पर घनाक्षरी की चर्चा प्रथमत: इन पंक्तियों के लेखक ने की थी और लगभग २ वर्ष चली विश्व की सर्वाधिक लंबी छंद शिक्षण शृंखला में घनाक्षरी  लेखन का विधान, उदाहरण और शिक्षण किया था। इस कार्यशाला की दो घनाक्षरियाँ प्रस्तुत हैं- 

भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
*
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।

मेरे वेब स्थल दिव्य नर्मदा.इन पर घनाक्षरी संबंधी ४७ प्रस्तुतियाँ उपलब्ध हैं। घनाक्षरी शिक्षण की दिशा में इस कृति के माध्यम से गुरु जी ने यह सराहनीय कार्य किया है। वे साधुवाद के पात्र हैं। आज बीसों वेब स्थलों पर घनाक्षरी शिक्षण का कार्य जारी है। 

                घनाक्षरी को समृद्ध करनेवाले कालजयी घनाक्षरीकारों में देव, दूलह, नंदराम, पजनेस, गोस्वामी तुलसीदास, रहीम, गंग, बोधा, ग्वाल, द्विज, नवनीत, सेनापति, केशव, बिहारी, पद्माकर, भूषण, घनानंद, वृंद,  प्रताप सिंह , मतिराम, चिंतामणि, भिखारीदास, रघुनाथ, बेनी, टीकाराम, ग्वाल, चन्द्रशेखर बाजपेई, हरनाम, कुलपति मिश्र, नेवाज, सुरति मिश्र , कवीन्द्र उदयनाथ, ऋषिनाथ, रतन कवि, बेनी बन्दीजन, प्रवीन, ब्रह्मदत्त, ठाकुर बुन्देलखण्डी, बोधा, गुमान मिश्र, महाराज जसवन्त सिंह, भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि, महाराज विश्वनाथ, महाराज मानसिंह, मतिराम, रत्नाकर, नरोत्तमदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, ब्रजेन्द्र अवस्थी, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी आदि तथा समकालिक घनाक्षरीकारों में सत्यनारायण सत्तन, उदय प्रताप सिंह, विष्णु विराट, हरिओम पंवार, जगदीश सोलंकी, अल्हड़ बीकानेरी, ओमप्रकाश आदित्य, विनीत चैहान, वेदव्रत वाजपेयी, ओमपाल सिंह 'निडर', रामदेव लाल 'विभोर', संजीव वर्मा 'सलिल', गुरु सक्सेना, राजेन्द्र वर्मा, ब्रजेश सिंह, ॐ नीरव आदि तथा नवोदित घनाक्षरीकारों में प्रवीण शुक्ल, चोवाराम बादल, छाया सक्सेना, नीलम कुलश्रेष्ठ, मिथलेश बड़गैया, हरि सहाय पांडे,  बसंत शर्मा, अनिल बाजपेई, मीना भट्ट, मनीषा सहाय 'सुमन', अरुण श्रीवास्तव, 'अर्णव', अरुण दीक्षित अनभिज्ञ, सुरेन्द्र यादवेंद्र, शशिकांत यादव, राहुल राय, पवन पांडेय, गौरी शंकर धाकड़, कैलाश जोशी पर्वत, राजेन्द्र चौहान, विवेक सक्सेना, विजय बागरी, कैलाश सोनी सार्थक, अखिलेश प्रजापति, अखिलेश त्रिपाठी 'केतन', प्रतीक तिवारी, प्रीतिमा पुलक आदि उल्लेखनीय हैं। स्पष्ट है कि घनाक्षरी का सृजन दुरूह होने के बाद भी इसके प्रति नई पीढ़ी में लगाव है और इसीलिए घनाक्षरी का भविष्य उज्ज्वल है। 

गुरु की घनाक्षरियाँ 

                घनाक्षरी की किताबी शिक्षा दे रहे स्थलों पर घनाक्षरी को वार्णिक  छंद के रूप में यति स्थान तक सीमित कर सिखाया जा रहा है। मेरा और गुरु जी का मानना है कि अन्य छंदों की तरह घनाक्षरी भी वार्णिक या मात्रिक नहीं मूलत: वाचिक छंद है जिसका गायन उच्चार पर आधारित है। यही कारण है कि निरक्षर कवियों (कृषकों, श्रमिकों, संतों आदि) ने भी उत्कृष्ट और कालजयी घनक्षरियों का सृजन किया है। ये घनाक्षरियाँ लोक के कंठ में अमरत्व पा सकी हैं। इनमें लय को प्रमुखता देते हुए शब्दों को शब्दकोषीय रूप-बंधन से मुक्त कर लय की आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर प्रयोग किया गया है। लोकभाषा हिंदी को लोक से जुड़ा रहना है तो उसे विश्वविद्यालायीन किताबी रूप से भिन्न होना होगा। घनाक्षरी छंद यह कार्य चिरकाल से कर रहा है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। 

                उच्चार और लय का समन्वय इस तरह करना कि शब्द-परिवर्तन के बाद भी उसके अर्थ और भाव में परिवर्तन न हो, कवि की कसौटी है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी हैं। जिसने भी गुरु के कंठ से इन घनाक्षरियों का पाठ सुना है, वह जान सकेगा कि उच्चार और लय का सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाता है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हैं कि वर्ण गणना और यति स्थान पर आधृत अधिकांश घनाक्षरियाँ लय के निकष पर खरी नहीं हैं और उनका कोई भविष्य भी नहीं है। 
                
                गुरु की घनाक्षरियाँ सम सामयिकता की चुनौती को स्वीकार करती हैं। गुरु केवल पारंपरिक विषयों तक सीमित नहीं रहते। वे समय के साथ आँखें मिलाते हुए पुरातन घनाक्षरी छंद को बोतल में आधुनिक परिप्रेक्षय और संदर्भों की सुरा भरकर अपनी घनाक्षरियों को नवागत पीढ़ी के लिए सहज ग्राह्य और उपयोगी बना सके हैं। स्थान-सीमा को देखते हुए मैं उदाहरण नहीं दे रह हूँ किंतु पाठक इस तथ्य से सहमत होंगे, यह मैं जानता हूँ। 

                गुरु की घनाक्षरियाँ अन्य घनाक्षरीकारों के लिए एक चुनौती की तरह हैं। घनाक्षरी के किताबी मानकों के समांतर, लोक में व्याप्त अचर्चित मानकों को साध सकना तलवार की धार पर चलने की तरह है। इन घनाक्षरियों का भाषिक संस्कार 'बुंदेली' है। हर कवि की अपनी भाषा शैली होती है। इस शैली से ही कवि की पहचान होती है। भूषण, घनानंद, प्रेमचंद, पंत, महादेवी, दिनकर आदि की भाषा-शैली उनकी पहचान है। आज के किताबी कवियों की भाषा-शैली उनकी पहचान नहीं बनाती।  बाजारू मसालों से गृहणियाँ एक से स्वाद का खाना बनती हैं। जबकि अपने मसाले पिसाकर उपयोग करनेवाली गृहणियों की पहचान उनकी पाक कला निपुणता से होती है। गुरु की अपनी भाषा-शैली लोक से नि:सृत भाषा के अनुसार है शब्दकोश के अनुसार नहीं। इसलिए गुरु की घनाक्षरियाँ यांत्रिक नहीं जमीनी हैं। यही उनकी सार्थकता है।    

                मुझे विश्वास है कि यह कृति गुरु के शिष्यों को ही नहीं, साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, छन्दकारों को ही नहीं आम आदमी को भी भाएगी और यह लोक में स्थान पाकर उसे अलौकिक आनंद देगी। नर्मदा का आनंद और छंद का आह्लाद इन घनाक्षरियों के माध्यम से लोक को छंद, साहित्य और भाषा से जोड़कर राष्ट्रीय एकत्व भाव के प्रसार में सहायक होगा।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com                                                                 

शनिवार, 1 जुलाई 2017

rachna-prati rachna: ghanakshari

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना 
घनाक्षरी  
फेसबुक
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गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
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चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
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फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है 
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है। 
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।। 
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही 
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो 
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।। 
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salil.sanjiv@gmail.com